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हास्य-व्यंग्य >> अपनी अपनी बीमारी

अपनी अपनी बीमारी

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :139
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2870
आईएसबीएन :81-7055-518-3

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इसमें हास्य-व्यंग्य पर आधारित कहानियों का वर्णन है।

Apni Apni Bimari a hindi book by Harishankar Parsai - अपनी अपनी बीमारी - हरिशंकर परसाई

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

हास्य और व्यंग्य की परिभाषा करना कठिन है। यह तय करना भी कठिन है कि कहाँ हास्य खत्म होता है और व्यंग्य शुरू होता है। व्यंग्य से हँसी भी आ सकती है, पर इससे वह हास्य नहीं हो जाता। मुख्य बात है कथित वस्तु का उद्देश्य और सरोकार क्या है। व्यंग्य का सामाजिक सरोकार होता है। इस सरोकार से व्यक्ति नहीं छूटता। श्रेष्ठ रचना चाहे वह किसी भी विद्या में क्यों न हो, अनिवार्यतः और अन्ततः व्यंग्य ही होती है। इस अर्थ में हम व्यंग्य को चाहें तो तीव्रतम क्षमताशाली व्यंजनात्मकता के रूप में देख सकते हैं। व्यंग्य सहृदय में हलचल पैदा करता है। अपने प्रभाव में व्यंग्य करुण या कटु कुछ भी हो सकता है, मगर वह बेचैनी जरूर पैदा करेगा। पीड़ित, मजबूर, गरीब, शारीरिक विकृति का शिकार, बीमारी, नौकर आदि को हास्य का विषय बनाना कुरुचिपूर्ण और क्रूर है। लेखक को यह विवेक होना चाहिए कि किस पर हँसना और किस पर रोना। पीटने वाले पर हँसना और पिटने वाले पर भी हँसना विवेकहीन हास्य है। ऐसा लेखक संवेदन-शून्य होता है।

 

अपनी-अपनी बीमारी

 

हम उनके पास चंदा माँगने गए थे। चंदे के पुराने अभ्यासी का चेहरा बोलता है। वे हमें भाँप गए। हम भी उन्हें भाँप गए। चंदा माँगनेवाले और देनेवाले एक-दूसरे के शरीर की गंध बखूबी पहचानते हैं। लेनेवाला गंध से जान लेता है कि यह देगा या नहीं। देनेवाला भी माँगनेवाले के शरीर की गंध से समझ लेता है कि यह बिना लिए टल जाएगा या नहीं। हमें बैठते ही समझ में आ गया कि ये नहीं देंगे। वे भी शायद समझ गए कि ये टल जाएँगे। फिर भी हम दोनों पक्षों को अपना कर्तव्य तो निभाना ही था। हमने प्रार्थना की तो वे बोले—आपको चंदे की पड़ी है, हम तो टैक्सों के मारे मर रहे हैं।
सोचा, यह टैक्स की बीमारी कैसी होती है। बीमारियाँ बहुत देखी हैं—निमोनिया, कालरा, कैंसर ; जिनसे लोग मरते हैं। मगर यह टैक्स की कैसी बीमारी है जिससे वे मर रहे थे ! वे पूरी तरह से स्वस्थ और प्रसन्न थे। तो क्या इस बीमारी में मज़ा आता है ? यह अच्छी लगती है जिससे बीमार तगड़ा हो जाता है। इस बीमारी से मरने में कैसा लगता होगा ? अजीब रोग है यह। चिकित्सा-विज्ञान में इसका कोई इलाज नहीं है। बड़े से बड़े डॉक्टर को दिखाइए और कहिए—यह आदमी टैक्स से मर रहा है। इसके प्राण बचा लीजिए। वह कहेगा—इसका हमारे पास कोई इलाज नहीं है। लेकिन इसके भी इलाज करनेवाले होते हैं, मगर वे एलोपैथी या होमियोपैथी पढ़े नहीं होते। इसकी चिकित्सा पद्धति अलग है। इस देश में कुछ लोग टैक्स की बीमारी से मरते हैं और काफी लोग भुखमरी से।

टैक्स की बीमारी की विशेषता यह है कि जिसे लग जाए वह कहता है—हाय, हम टैक्स से मर रहे हैं। और जिसे न लगे वह कहता है—हाय, हमें टैक्स की बीमारी ही नहीं लगती। कितने लोग हैं कि जिनकी महत्त्वाकांक्षा होती है कि टैक्स की बीमारी से मरें, पर मर जाते हैं निमोनिया से। हमें उन पर दया आई। सोचा, कहें कि प्रापर्टी समेत यह बीमारी हमें दे दीजिए। पर वे नहीं देते। यह कमबख्त बीमारी ही ऐसी है कि जिसे लग जाए, उसे प्यारी हो जाती है।
मुझे उनसे ईर्ष्या हुई। मैं उन जैसा ही बीमार होना चाहता हूँ। उनकी तरह ही मरना चाहता हूँ। कितना अच्छा होता अगर शोक-समाचार यों छपता—बड़ी प्रसन्नता की बात है कि हिन्दी के व्यंग्य लेखक हरिशंकर परसाई टैक्स की बीमारी से मर गए। वे हिन्दी के प्रथम लेखक हैं जो इस बीमारी से मरे। इस घटना से समस्त हिन्दी संसार गौरवान्वित है। आशा है आगे भी लेखक इसी बीमारी से मरेंगे !
मगर अपने भाग्य में यह कहाँ ? अपने भाग्य में तो टुच्ची बीमारियों से मरना लिखा है।

उनका दुःख देखकर मैं सोचता हूँ, दुःख भी कैसे-कैसे होते हैं। अपना-अपना दुःख अलग होता है। उनका दुःख था कि टैक्स मारे डाल रहे हैं। अपना दुःख है कि प्रापर्टी नहीं है जिससे अपने को भी टैक्स से मरने का सौभाग्य प्राप्त हो। हम कुल 50 रु. चंदा न मिलने के दुःख में मरे जा रहे थे।
मेरे पास एक आदमी आता था, जो दूसरों की बेईमानी की बीमारी से मरा जाता था। अपनी बेईमानी प्राणघातक नहीं होती, बल्कि संयम से साधी जाए तो स्वास्थ्यवर्द्धक होती है। कई पतिव्रताएँ दूसरी औरतों के कुलटापन की बीमारी से परेशान रहती हैं। वह आदर्श प्रेमी आदमी था। गांधीजी के नाम से चलनेवाले किसी प्रतिष्ठान में काम करता था। मेरे पास घंटो बैठता और बताता कि वहाँ कैसी बेईमानी चल रही है। कहता, युवावस्था में मैंने अपने को समर्पित कर दिया था। किस आशा से इस संस्था में गया और क्या देख रहा हूँ। मैंने कहा—भैया, युवावस्था में जिनने समर्पित कर दिया वे सब रो रहे हैं। फिर तुम आदर्श लेकर गए ही क्यों ? गांधीजी दूकान खोलने का आदेश तो मरते-मरते दे नहीं गए थे। मैं समझ गया, उसके कष्ट को। गांधीजी का नाम प्रतिष्ठान में जुड़ा होने के कारण वह बेईमानी नहीं कर पाता था और दूसरों की बेईमानी से बीमार था। अगर प्रतिष्ठान का नाम कुछ और हो जाता तो वह भी औरों जैसा करता और स्वस्थ रहता। मगर गांधीजी ने उसकी ज़िंदगी बरबाद की थी। गांधीजी विनोबा जैसों की ज़िंदगी बरबाद कर गए। बड़े-बड़े दुःख हैं ! मैं बैठा हूँ। मेरे साथ 2-3 बंधु बैठे हैं। मैं दुःखी हूँ। मेरा दुःख यह है कि मुझे बिजली का 40 रु. का बिल जमा करना है और मेरे पास इतने रुपये नहीं हैं।

तभी एक बंधु अपना दुःख बताने लगता है। उसने 8 कमरों का मकान बनाने की योजना बनाई थी। 6 कमरे बन चुके हैं। 2 के लिए पैसे की तंगी आ गई है। वह बहुत-बहुत दुःखी है। वह अपने दुःख का वर्णन करता है। मैं प्रभावित नहीं होता। मगर उसका दुःख कितना विकट है कि मकान को 6 कमरों का नहीं रख सकता। मुझे उसके दुःख से दुःखी होना चाहिए, पर नहीं हो पाता। मेरे मन में बिजली के बिल के 40 रु. का खटका लगा है।
दूसरे बंधु पुस्तक-विक्रेता हैं। पिछले साल 50 हज़ार की किताबें पुस्तकालयों को बेची थीं। इस साल 40 हज़ार की बिकीं। कहते हैं—बड़ी मुश्किल है। सिर्फ 40 हज़ार की किताबें इस साल बिकीं। ऐसे में कैसे चलेगा ? वे चाहते हैं, मैं दुःखी हो जाऊँ, पर मैं नहीं होता। इनके पास मैंने अपनी 100 किताबें रख दी थीं। वे बिक गईं। मगर जब मैं पैसे माँगता हूँ, तो वे ऐसे हँसने लगते हैं जैसे मैं हास्यरस पैदा कर रहा हूँ। बड़ी मुसीबत है व्यंग्यकार की। वह अपने पैसे माँगे, तो उसे भी व्यंग्य-विनोद में शामिल कर लिया जाता है। मैं उनके दुःख से दुःखी नहीं होता। मेरे मन में बिजली कटने का खटका लगा हुआ है।

तीसरे बंधु की रोटरी मशीन आ गई। अब मोनो मशीन आने में कठिनाई आ गई है। वे दुःखी हैं। मैं फिर दुःखी नहीं होता।
अंततः मुझे लगता है कि अपने बिजली के बिल को भूलकर मुझे इन सबके दुःख में दुःखी हो जाना चाहिए। मैं दुःखी हो जाता हूँ। कहता हूँ—क्या ट्रेजडी है मनुष्य-जीवन की कि मकान कुल 6 कमरों का रह जाता है। और कैसी निर्दय यह दुनिया है कि सिर्फ 40 हज़ार की किताबें खरीदती है। कैसा बुरा वक्त आ गया है कि मोनो मशीन ही नहीं आ रही है।
वे तीनों प्रसन्न हैं कि मैं उनके दुःखों से आखिर दुःखी हो ही गया।
तरह-तरह के संघर्ष में तरह-तरह के दुःख हैं। एक जीवित रहने का संघर्ष है और एक संपन्नता का संघर्ष है। एक न्यूनतम जीवन-स्तर न कर पाने का दुःख है, एक पर्याप्त संपन्नता न होने का दुःख है। ऐसे में कोई अपने टुच्चे दुःखों को लेकर कैसे बैठे ?

मेरे मन में फिर वही लालसा उठती है कि वे सज्जन प्रापर्टी समेत अपनी टैक्सों की बीमारी मुझे दे दें और मैं उससे मर जाऊँ। मगर वे मुझे यह चांस नहीं देंगे। न वे प्रापर्टी छोड़ेंगे, न बीमारी, और मुझे अंततः किसी ओछी बीमारी से ही मरना होगा।

 

पुराना खिलाड़ी

 

 

सरदारजी ज़बान से तंदूर को गर्म करते हैं। ज़बान से बर्तन में गोश्त चलाते हैं। पास बैठे आदमी से भी इतने ज़ोर से बोलते हैं, जैसे किसी सभा में बिना माइक बोल रहे हों। होटल के बोर्ड पर लिखा है—‘यहां चाय हर वक्त तैयार मिलती है।’ नासमझ आदमी चाय माँग बैठता है और सरदारजी कहते हैं—चाय ही बेचना होता, तो उसे बोर्ड पर क्यूँ लिखता बाश्शाओ ! इधर नेक बच्चों के लिए कोई चाय नहीं है। समझदार ‘चाय’ का मतलब समझते हैं और बैठते ही कहते हैं—एक चवन्नी !
सरदारजी मुहल्ले के रखवाले हैं। इधर के हर आदमी का चरित्र वे जानते हैं। अजनबी को ताड़ लेते हैं। तंदूर में सलाख मारते हुए चिल्लाते हैं—
-वो दो बार ससुराल में रह आया है जी। ज़रा बच के।

-उसके घर में दो हैं जी। किसी के गले में डालना चाहता है। ज़रा बच के बाश्शाओ !
-दो ज़चकी उसके हो चुकी हैं। तीसरी के लिए बाप के नाम की तलाश जारी है। ज़रा बच के।
-उसकी खादी पर मत जाणाजी। गांधी को फुटकर बेचता है। ज़रा बच के।
उस आदमी को मेरे साथ दो-तीन बार देखकर सरदारजी ने आगाह किया था—वह पुराना खिलाड़ी है। ज़रा बच के।
जिसे पुराना खिलाड़ी कहा था, वह 35-40 के बीच का सीधा आदमी लगता था। हमेशा परेशान। हमेशा तनाव में। कई आधुनिक कवि उससे तनाव उधार माँगने आते होंगे। उसमें बचने लायक कोई बात मुझे नहीं लगती थी।
एक दिन वह अचानक आ गया था। पहले से बिना बताए, बिना घंटी बजाए, बिना पुकारे, वह दरवाज़ा खोलकर घुसा और कुर्सी पर बैठ गया। बदतमीज़ी पर मुझे गुस्सा आया था। बाद में समझ गया कि इसने बदतमीज़ी का अधिकार इसलिए हासिल कर लिया है कि वह अपने काम से मेरे पास नहीं आता। देश के काम से आता है। जो देश का काम करता है, उसे थोड़ी बदतमीज़ी का हक है। देश-सेवा थोड़ी बदतमीज़ी के बिना शोभा नहीं देती। थोड़ी बेवकूफी भी मिली हो, तो और चमक जाती है।

वह उत्तेजित था। उसने अपना बस्ता टेबिल पर पटका और सीधे मेरी तरफ घूरकर बोला—तुम कहते हो कि बिना विदेशी मदद के योजना चला लोगे। मगर पैसा कहाँ से लाओगे ? है तुम्हारे पास देश में ही साधन जुटाने की कोई योजना ?
वह जवाब के लिए मुझे घूर रहा था और मैं इस हमले से उखड़ गया था। योजना की बात मैंने नहीं, अर्थ मंत्री ने कही थी। वह अर्थ मंत्री से नाराज़ था। डाँट मुझे पड़ रही थी।
उत्तेजना में उसने तीन कुर्सियाँ बदलीं। बस्ते से पुलिंदा निकाला। बोला—जीभ उठाकर तालू से लगा देते हो। लो, आंतरिक साधन जुटाने की यह स्कीम।
घंटा-भर अपनी योजना समझाता रहा। कुछ हल्का हुआ। पुलिंदा बस्ते में रखा और चला गया।
हफ्ते-भर बाद वह फिर आया। वैसे ही तनाव में। भड़ से दरवाज़ा खोला। बस्ते को टेबिल पर पटका और अपने को कुर्सी पर। बोला—तुम कहते हो रोड ट्रांसपोर्ट के कारण रेलवे की आमदनी कम हो रही है। मगर कभी सोचा है, मोटर-ट्रकवाले माल भेजनेवालों को कितने सभीते देते हैं ?
लो यह स्कीम। इसके मुताबिक काम करो।
उसने रेलवे की आमदनी बढ़ाने के तरीके मुझे समझाए।

वह जब-तब आता। मुझे किसी विभाग का मंत्री समझकर डाँटता और फिर अपनी योजना समझाता। उसने मुझे शिक्षा मंत्री, कृषि मंत्री, विदेश मंत्री सब बनाया। उसे लगता था, वह सब ठीक कर सकता है, लेकिन विवश है। सत्ता उसके हाथ में है नहीं। उससे जो बनता है, करता है। योजना और सुझाव भेजता रहता है।
देश के लिए इतना दुःखी आदमी मैंने दूसरा नहीं देखा। सड़क पर चलता, तो दूर से ही दुःखी दिखता। पास पहुँचते ही कहता—रिज़र्व बैंक के गवर्नर का बयान पढ़ा ? सारी इकॉनमी को नष्ट कर रहे हैं ये लोग। आखिर यह किया हो रहा है ? ज़रा प्रधानमंत्री से कहो न !
सरदारजी ने फिर आगाह किया—बहुत चिपकने लगा है। पुराना खिलाड़ी है। ज़रा बच के।
मैंने कहा—मालूम होता है, उसका दिमाग खराब है।
सरदारजी हँसे। बोले—दमाग ? अजी दमाग तो हमारा-आपका खराब है जो दिन-भर काम करते हैं, तब खाते हैं। वह 10 सालों से बिना कुछ किए मज़े में दिल्ली में रह रहा है। दमाग को उसका आला दर्जे का है।
मैंने कहा—मगर वह दुःखी है। रात-दिन उसे देश की चिंता सताती रहती है।

सरदारजी ने कहा—अजब मुल्क है ये। भगवान ने इसे सट्टा खेलते-खेलते बनाया होगा। इधर मुल्क की फिक्र में से भी रोटी निकलती है। फिर मैं आपसे पूछता हूँ, पिद्दी का कितना शोरबा बनता है ? बताइए, कुछ अंदाज़ दीजिए। मुल्क की फिक्र करते-करते गांधी और नेहरू जैसे चले गए। अब यह पिद्दी क्या सुधार लेगा ? इस मुल्क को भगवान ने खास तौर से बनाया है। भगवान की बनाई चीज़ में इंसान सुधार क्यों करे ? मुल्क सुधरेगा तो भगवान के हाथ से ही सुधरेगा। मगर इस इंसान से ज़रा बच के। पुराना खिलाड़ी है।
मैंने कहा—पुराना खिलाड़ी होता तो ऐसी हालत में रहता ?
सरदारजी ने कहा—उसका सबब है। वह छोटे खेल खेलता है। छोटे दाँव लगाता है। मैंने उसे समझाया कि एक-दो बड़े दाँव लगा और माल समेटकर चैंन की बंसी बजा। मगर उसकी हिम्मत ही नहीं पड़ती।
सरदारजी मुझे उससे बचने के लिए बार-बार आगाह करते, पर खुद उसे कभी नाश्ता करा देते, कभी रोटियाँ दे देते, कभी रुपये दे देते। मैंने पूछा, तो सरदारजी ने कहा—आखिर इंसान है। फिर उसके साथ बीवी भी है। उसने वह कमाल कर दिखाया है, जो दुनिया में किसी से नहीं हुआ—उसने बीवी को यह मनवा लिया कि वह देश की किस्मत पलटने के लिए पैदा हुआ है। वह कोई मामूली काम करके ज़िंदगी बरबाद नहीं कर सकता। उसका एक मिशन है। बीवी खुद भी भगवान से प्रार्थना करती है कि उसके घरवाले का मिशन पूरा हो जाए।

वह दिन पर दिन ज़्यादा परेशान होता गया। जब-तब मुझे मिल जाता और किसी मंत्रालय की शिकायत करता।
अचानक वह गायब हो गया। 8-10 दिन नहीं दिखा, तो मैंने सरदारजी से पूछा। उन्होंने कहा—डिस्टर्ब मत करो। बड़े काम में लगा है।
मैंने पूछा—कौन काम ?
सरदारजी ने कहा—उसकी तफसील में मत जाओ। बम बना रहा है। इन्कलाबी काम कर रहा है। एक दिन वह सरकार के सिर पर बम पटकनेवाला है।
मैंने कहा—सच, वह बम बना रहा है ?
सरदारजी ने कहा—हाँ जी, वह नया कांस्टीट्यूशन बना रहा है। उसे सरकार के सिर पर दे मारेगा। दुनिया पलट देगा, बाश्शाओ।
एक दिन वह संविधान लेकर आ गया। और दुबला हो गया था। मगर चेहरा शांत था। फरिश्ते की तरह बोला—नथिंग विल चेंज अंडर दिस कांस्टीट्यूशन। संविधान बदलना ही पड़ेगा। इस देश को बुनियादी क्रांति चाहिए और बुनियादी क्रांति के लिए क्रांतिकारी संविधान चाहिए। मैंने नया संविधान बना लिया है।

बस्ते से उसने पुलिंदा निकाला और मुझे संविधान समझाने लगा—यह प्रीएंबल है—यह फंडामेंटल राइट्स का खंड है। इस संविधान में एक बुनियादी क्रांति की बात है। देखो, मनुष्य ने अपने को राज्य के हाथों क्यों सौंपा था ? इसलिए कि राज्य उसका पालन करे। राज्य का यह कर्तव्य है। मगर राज्य आदमी से काम करवाना चाहता है। यह गलत है। बिना काम किए आदमी का पालन होना चाहिए। मैं जो पिछले 10 सालों से कुछ नहीं कर रहा हूँ, सो मेरा प्रोटेस्ट है। मैं राज्य पर नैतिक दबाव डालकर उसका कर्तव्य कराना चाहता हूँ। मैं जानता हूँ, लोग मेरे बारे में क्या कहते हैं। आई डोंट माइंड। छोटे लोग हैं। मेरे मिशन को नहीं समझ सकते।
मैंने कहा—कोई काम नहीं करेगा, तो उत्पादन नहीं होगा। तब राज्य पालन कैसे कर सकेगा ?
उसने समझाया—आप आदमी को नहीं जानते। वह मना करने पर भी काम करता है। यह उसकी मजबूरी है। मैन इज़ डूम्ड टू वर्क। अगर राज्य कह भी दे कि कोई काम मत करो, तुम्हारा पालन हम करेंगे, तब भी लोग काम माँगेंगे। साधारण आदमी ऐसा ही होता। इने-गिने मुझ-आप जैसे लोग होंगे, जो काम नहीं करेंगे। हमारा पालन उन घटिया बहुसंख्यकों के उत्पादन से होगा।

वह अपने संविधान से बहुत संतुष्ट था। एक दिन वह फोटोग्राफ लेकर आया। फोटो में वह संविधान प्रधानमंत्री को दे रहा है। बोला—मैंने संविधान प्रधानमंत्री को दे दिया। उन्होंने आश्वासन दिया कि जल्दी ही इसे लागू किया जाएगा।
सरदारजी ने कहा—आजकल फोटो पर ज़िंदा है। प्रधानमंत्री से मिल आया है। उसकी बीवी घर भाग रही थी, सो थम गई। इस फोटो को अच्छे धंधे में लगाएँ तो अच्छी कमाई कर सकता है। मगर वह ज़िंदगी-भर ‘रिटेल’ करता रहेगा।
2-3 महीने उसने इंतज़ार किया। संविधान लागू नहीं हुआ। वह अब फिर परेशान हो गया। कहता—यह सरकार झूठ पर ज़िंदा है। मुझे प्रधानमंत्री ने आश्वासन दिया था कि जल्दी ही वे मेरा संविधान लागू करेंगे, पर अभी तक संसद् को सूचना नहीं दी। अंधेर है। मगर मैं छोड़ूँगा नहीं।
एक दिन सरदारजी ने बताया—पुराना खिलाड़ी संसद् के सामने अनशन पर बैठ गया है। राम-धुन लग रही है। बीवी गा रही है—सबको सन्मति दे भगवान। इसे सबकी क्या पड़ी है ? यही क्यों नहीं कहती कि मेरे घरवाले को सन्मति दे भगवान !

तीसरे दिन उसे देखने गया। वह दरी पर बैठा था। उसका चेहरा सौम्य हो गया था। भूख से आदमी सौम्य हो जाता है। तमाशाइयों को वह बड़ी गंभीरता से समझा रहा था—देखो, इंसान आज़ाद पैदा होता है, मगर वह हर जगह ज़ंजीरों से जकड़ा रहता है। मनुष्य ने अपने को राज्य को क्यों सौंपा ? इसलिए न, कि राज्य उसका पालन करेगा। मगर राज्य की गैरज़िम्मेदारी देखिए कि मुझ जैसे लोगों को राज्य ने लावारिस की तरह छोड़ रखा है। ‘नथिंग विल चेंज अंडर दिस कान्स्टीट्यूशन’ मेरा संविधान लागू करना ही होगा। लेकिन इसके पहले राज्य को फौरन मेरे पालन की व्यवस्था करनी होगी। यह मेरी मांगें हैं।
सरदारजी ने उस दिन कहा—बिजली मँडरा रही है बाश्शाओ ! देखो किसके सिर पर गिरती है। ज़रा बच के।
सरकार की तरफ से उसे धमकी दी जा रही थी। घर जाने के लिए किराये का लोभ भी दिया जा रहा था। मगर वह अपना संविधान लागू करवाने पर तुला था।

सातवें दिन सुबह जब मैं बैठा अखबार पढ़ रहा था, वह अचानक अपनी बीवी के सहारे मेरे घर में घुस आया। पीछे कुली उसका सामान लिए थे। उसने मुझे मना करने का मौका ही नहीं दिया। वह अपने घर की तरह इत्मीनान से घुस आया था।
मेरे सामने वह बैठ गया। आंखें धंस गई थीं। शरीर में हड्डियां रह गई थीं। मैं भौचक उसे देख रहा था। वह इस तरह मेरे घर में घुस आया था कि मुझसे कुछ कहते नहीं बन रहा था। मगर उसके चेहरे पर सहज भाव था।
धीरे-धीरे बोला—प्रधानमंत्री ने आश्वासन दे दिया है।
मैं कुछ नहीं बोल सका।
वह बोला—कमज़ोरी बहुत आ गई है।
कुछ ऐसा भाव था उसका जैसे मेरे लिए प्राण दे रहा हो। कमज़ोरी भी उसे मेरे लिए आई हो।
उसने बीवी से कहा—उस कमरे में कुछ दिन रहने का जमा लो।

मेरी बोलती बंद थी। उसने अचानक हमला कर दिया था। मुझे लगा, जैसे किसी ने पीछे से मेरी कनपटी पर ऐसा चाँटा जड़ दिया है कि मेरी आँखों में तितलियाँ उड़ने लगी हैं। उसने मना करने की हालत भी मेरी नहीं रहने दी। मैं मूढ़ की तरह बैठा था और वह बगल के कमरे में जम गया था।
थोड़ी देर बाद वह आया। बोला—ज़रा एक-दो सेर अच्छी मुसम्मी मगा दो।
कहकर वह चला गया। मैं सोचता रहा—इसने मुझे किस कदर अपाहिज बना दिया है। इस तरह मुसम्मी मंगाने के लिए कहता है, जैसे मैं इसका नौकर हूँ और इसने मुझे पैसे दे रखे हैं।
मैंने मुसम्मी मँगा दी।

वह मेरे नौकर को जब-तब पुकारता और हुक्म दे देता—शक्कर ले आओ ! चाय ले आओ ! उसने मुझे अपने ही घर में अजनबी बना दिया था।
वह दिन में दो बार मुझे दर्शन देने निकलता। कहता—वीकनेस अभी काफी है। 10-15 दिन में निकलेगी। ज़रा दो-तीन रुपये देना।
मैं रुपये दे देता। बाद में मुझे अपने पर खीझ आती। मैं किस कदर सत्वहीन हो गया हूँ। मैं मना क्यों नहीं कर देता ?
चौथे दिन सरदारजी ने कहा—घुस गया घर में बाश्शाओ। मैंने पहले कहा था—पुराना खिलाड़ी है, ज़रा बच के। 6 महीने से पहले नहीं निकलेगा। यही उसकी तरकीब है। जब वह किसी मकान से निकाला जाता है, तो कोई ‘इशू’ लेकर अनशन पर बैठ जाता और उसी गिरी हालत में किसी के घर में घुस जाता है।
मैंने कहा—उसकी हालत ज़रा ठीक हो जाए तो मैं उसे निकाल बाहर करूंगा।
सरदारजी ने कहा—नहीं निकाल सकते। वह पूरा वक्त लेगा।

जब वह चलने-फिरने लायक हो गया, तो सुबह-शाम खुले में वायु-सेवन के लिए जाने लगा। लौटकर मेरे पास दो घड़ी बैठ जाता। कहता—प्राइम मिनिस्टर अब ज़रा सीरियस हुए हैं। एक कमेटी ज़ल्दी ही बैठनेवाली है।
एक दिन मैंने कहा—अब आप दूसरी जग़ह चले जाइए। मुझे बहुत तकलीफ है।
उसने कहा—हाँ-हाँ, प्रधानमंत्री का पी.ए. मकान का इंतजाम कर रहा है। होते ही चला जाऊंगा। मुझे खुद यहां बहुत तकलीफ है।
उसमें न जाने कहाँ का नैतिक बल आ गया था कि मेरे घर में रहकर, मेरा सामान खाकर, वह यह बताता था कि मुझपर एहसान कर रहा है। कहता है—मुझे खुद यहां बहुत तकलीफ है।
सरदारजी पूछते हैं—निकला ?
मैं कहता हूँ—अभी नहीं।
सरदारजी कहते हैं—नहीं निकलेगा। पुराना खिलाड़ी है।
मैंने कहा—सरदारजी, आपके यहां इतनी जगह है। उसे यहीं कुछ दिन रख लीजिए।
सरदारजी ने कहा—उसके साथ औरत है। अकेला होता, तो कहता, पड़ा रह। मगर औरत ! औरत के डर से तो पंजाब से भागकर आया और तुम इधर औरत ही यहां डालना चाहते हो।

उसके रवैये में कोई फर्क नहीं पड़ा। सुबह स्नान-पूजा के बाद वह नाश्ता करता। फिर पोर्टफोलियो लेकर निकल जाता। जाते-जाते मुझसे कहता—ज़रा संसदीय मामलों के मंत्री से मिल आऊँ।
आखिर मैंने सख्ती करना शुरू किया। सुबह-शाम उसे डाँटता। उसका अपमान करता। उसके चेहरे पर शिकन नहीं आती। कभी वह कह देता—मैं अपमान का बुरा नहीं मानता। मुझे इसकी आदत पड़ चुकी है। फिर जिस महान् ‘मिशन’ में मैं लगा हुआ हूँ, उसे देखते छोटे-छोटे अपमानों की अवहेलना ही करनी चाहिए।
कभी जब वह देखता कि मेरा ‘मूड’ बहुत खराब है, तो वह बात करना टाल जाता। कागज़ पर लिख देता—आज मेरा मौन व्रत है।
आखिर मैंने पुलिस की मदद लेने का तय किया। उसने कागज़ पर लिख दिया—आज मेरा मौन व्रत है।
मैंने कहा—तुम मौन व्रत रखे रहो। कल पुलिस तुम्हारा सामान बाहर फेंक देगी।
उसने मौन व्रत फौरन त्याग दिया और मुझे मनाता रहा। कहा—3-4 दिनों में कहीं रहने का इंतज़ाम कर लूँगा।
सुबह वह तैयार होकर निकला। मुझसे कहा—एक जगह रहने का इंतज़ाम कर रहा हूँ। ज़रा पाँच रुपये दीजिए।
मैंने कहा—पाँच रुपये किसलिए ?
उसने कहा—जगह तय करने जाना है न। स्कूटर से जाऊँगा।
मैंने कहा—बस में क्यों नहीं जाते ? मैं रुपया नहीं दूँगा।
उसने कहा—तो मैं नहीं जाता। यहीं रहा आऊंगा।
मैंने पस्त होकर उसे पाँच रुपये दे दिए।

शाम को वह लौटा और बोला—मैं दूसरी जगह जा रहा हूँ। आपको एक महीने में ही छोड़ दिया। किसी का घर मैंने 6 महीने से पहले नहीं छोड़ा। एक तरह से आपके ऊपर मेरा अहसान ही है। ज़रा 25 रुपये दीजिए।
मैंने कहा—पच्चीस रुपये किसलिए।
वह बोला—कुली को पैसे देने पड़ेंगे। फिर नई जगह जा रहा हूं। 2-4 दिनों का खाने का इंतज़ाम तो होना चाहिए।
मैंने कहा—यह मेरी ज़िम्मेदारी नहीं है। मेरे पास रुपये नहीं हैं।
उसने शांति से कहा—तो फिर आज नहीं जाता। जिस दिन आपके पास पच्चीस रुपये हो जाएंगे, उस दिन चला जाऊंगा।
मैंने पच्चीस रुपये उसे फौरन दे दिए। उसने सामान बाहर निकलवाया।

बीवी को बाहर निकाला। फिर मुझसे हाथ मिलाते हुए बोला—कुछ ख्याल मत कीजिए। नो इल विल ! मैं जिस मिशन में लगा हूँ उसमें ऐसी स्थितियां आती ही रहती हैं। मैं बिलकुल फील नहीं करता।
मैं बाहर निकला, तो सरदारजी चिल्लाए—चला गया ?
मैंने कहा—हां, चला गया।
वे बोले—कितने में गया ?
मैंने कहा—पच्चीस रुपये में।
सरदारजी ने कहा—सस्ते में चला गया। सौ रुपये से कम में नहीं जाता वह।
पुराना खिलाड़ी अब भी कभी-कभी कहीं मिल जाता है। वैसा ही परेशान, वैसा ही तनाव। वह भूल गया कि कभी मैंने उसे ज़बरदस्ती घर से निकाला था।
कहता है—प्रधानमंत्री की अक्ल पर क्या पाला पड़ गया ? कहते हैं, कि हम किसी भी स्थिति में रुपये को ‘डिवैल्यू’ नहीं करेंगे। मैं कहता हूँ, डिवैल्यू नहीं करोगे, तो दुनिया के बाज़ार से निकाल नहीं दिए जाओगे।
ज़रा प्रधानमंत्री को समझाइए न !
वह चिन्ता करता हुआ आगे बढ़ जाता है।

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