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दूर देश की गन्ध और अन्य कहानियाँ

उदयन वाजपेयी

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :113
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2836
आईएसबीएन :81-7055-192-9

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ कहानी संग्रह...

Door Desh Ki Gandh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘क्या लेखक ऐसा कुछ भी लिख सकता है जिस पर उसके अलावा, शायद कोई भी विश्वास न कर पाये।’ तसवीर की नायिका वसुन्धरा को यह प्रश्न मानो वह केन्द्रीय चुनौती है जिसे पेश करने, स्वीकार करने और जूझने की प्रक्रिया में इस संग्रह की कहानियाँ आकार लेती हैं। या शायद हर कहानी, हर बार एक अलग विधि से इस प्रश्न को आख्यान-गोचर बनाती है। अविश्वसनीय और अविश्वासप्रद यथार्थ: यही इन कहानियों के पात्रों का वह देशकाल जहाँ उसके अनुभव घटित होते हैं, बल्कि जहाँ अपने इन विश्वसनीय अनुभवों के नाते ये पात्र घटित या रूपायित होते हैं। उदयन बाजपेई इस ‘अविश्वसनीय’ का कोई तर्क शास्त्र रचने या प्रतीक-व्यवस्था में उसे बसाने की बजाय उसे ऐसी पृष्ठभूमि में रखते हैं कि जिसमें वह अपने तत्सम रूप में प्रकट हो सके।

इन कहानियों के पात्र बेहद एकांकी हैं, निष्करुण रूप से-सिर्फ़ अपने अनुभव के विलक्षण यथार्थ के कारण नहीं बल्कि उन्हें और उनके परिवेश को गढ़ती उतनी ही विलक्षण उस ऐन्द्रियता के कारण भी जो प्रकृति के स्पन्दनों और नितान्त पार्थिव सामग्री से लेकर मानवीय पर्यवेक्षण, भावदशाओं, अनुभूति और विचार तक सभी को अनुप्राणित करती, सभी के आर-पार व्याप्त हैं। कोई भी अनुभव-जैसे इनमें से ज्यादातर कहानियों में अन्तःसलिल प्रेम और दुःख-यहाँ आख्यान के लिए पहले से उपलब्ध नहीं है, आख्यान उसकी अनिवार्य परिस्थिति, अनुलंघ्य शर्त, सहजात काया है। वे प्रथमतः कहानियाँ हैं-अपनी पूर्णता की कामना और लेखक, पाठक, कागज और कलम के संयोग की पूर्वापेक्षा के साथ अनुभव की तरह निष्पन्न होती हुई। इन कहानियों को पढ़ना, पढ़ने के आख्यान को आविष्कृत करनाः पारभासी, छविमय, ऐन्द्रिय भाषा में निबद्ध आख्यान

गृह प्रवेश


है आशिकी के बीच, सितम देखना ही लुत्फ़
मर जाना आँखें मूँद के यह कुछ हुनर नहीं।

-मीर

‘हमारे बाबा ने अपनी इच्छा से देह त्याग दी थी।’
उस दिन घर जाते हुए बोली थी। काश यह बोलने से पहले मैंने कुछ सोचा होता। उन दिनों जब मैं अपने बिखरे बाल ठीक करने लगती, वह दरवाज़े की चौखट पर खड़ा मुझे चुपचाप देखता रहता। कमरे की ठहरी हवा में सँवरते बालों के स्पन्दन तिरते रहते और वह हल्की-सी गन्ध भी जो गुँथे हुए बालों में बन्द रही आती है लेकिन उनके खुलते ही चारों ओर फैलने लगती है। बन्द खिडकियों के पीछे गर्मिय़ों की चमकीली दोपहर तपती रहती।
‘तुम कुछ देर और नहीं रुक सकतीं ?

यह जानते हुए भी कि वह पूरी नहीं हो सकेगी यह
आकाँक्षा उसके होंठो से फिसल जाती। उन दिनों अपने अधूरेपन में ही आकाँक्षा का जीवन होता। वह मुझे देखता रहता और मैं अपने भूरे बालों को सुलझाती, रुकने का आग्रह सुनती उसके घर से बाहर निकल जाती
वहाँ दोपहर खड़ी होती। नि:शब्द के एकान्त में सुलगती हुई। घने पेड़ की झुलसी पत्तियाँ अपने भीतर सिमटकर सूर्य के ताप से बचनें का प्रयास करतीं। आकाश नीली पारदर्शिता से चमकता रहता। पेड़ की छाया में कोई न कोई मवेशी जुगाली करता रहता। बिल्कुल किसी पहुंचे हुए सन्त की तरह। जैसे उसके भीतर खाना नहीं, ढेर से अनुभव इकट्ठा हों जिनके सहारे वह किसी सत्य तक पहुंचने की चेष्टा कर रहा हो। वृक्ष की छाँव में।

उसके घर के एक ओर छोटा-सा गैरेज होता। मैं अपना नीला स्कूटर निकालने लगती। उसका पहिया गैरेज के सँकरे दरवाज़े में उलझ जाता। मैं हताश होकर हल्के से मुस्कराते हुए उसकी ओर देखने लगती। यह आग्रह कम उसकी ओर एक बार और देख लेने की मंशा अधिक होती। अहाते में गर्म फ़र्श पर नंगे पांव खड़ा रहता। बिखरे हुए वे बाल। बार-बार एक पैर से दूसरे पर जाता हुआ। सिर झुका रहता। सूखी घास पर फटे पुराने कागज़, थिगले, और पेन के टूटे ढक्कन छितरे रहते। वह बिना कुछ कहे मेरी ओर बढ़ने लगता। मेरे हाथों से स्कूटर ले लेता। ऐसा कई बार होता, मैं अहाते के बाहर सांप-सी पसरी सड़क के दोनों तरफ ताकने लगती। यह डर होता पापा के वहां से अचानक निकल जाने का। यह डर होता जो उन दिनों हर सुख पर बेआवाज़ उग आता जिस पर सँभलकर पांव रखती मैं एक ओर खड़ी हो जाती और उसे सड़क की बगल में स्कूटर रखते चुपचाप देखती रहती। विदा होने का दुःख दोपहर की झिलमिलाती सिलवटों में छिप जाता। हम अलग होने लगते। इस वक़्त हम एक दूसरे को देखने से बचते। शायद इस आशंका से कि कहीं आकाँक्षा के जाल में एक बार फिर न उलझ जाएँ।
मैं स्कूटर स्टार्ट कर घर की ओर भागने लगती।

‘उजाले की पीठ पर एक नीली रेखा उभरती है। मैं ठगा-सा खड़ा रह जाता हूँ जैसे मेरा सबकुछ एक बार फिर नष्ट हो चुका हो।’
वह बाद में मुझे बताया करता।

घर तक का लम्बा रास्ता सूना पड़ा रहता। सड़कों पर फैला डामर पिघलता रहता। कई बार रेलवे क्रासिंग पर ठहरना पड़ता। वहां भी सिर्फ़ मैं होती, हहराती रेलगाड़ी को ताकती। धीरे से दरवाजा खोलती। मम्मी सो रही होती। खाने की मेज़ पर बैठ जाती। कॉलेज की किताबें-कॉपियाँ स्कूटर में ही छूट जातीं। देर शाम नौकर उन्हें बिस्तर पर सूखी पत्तियों की तरह बिखेर जाता। खाने की रस्म पूरी करती। दबे पाँव मम्मी की बगल में लेट जाती। वे मेरी तरफ करवट बदल लेतीं।
‘तुम कब लौटी ?’ नींद के गढ़े से उनकी आवाज़ ऊपर आती। मेरे कानों तक आकर फड़फ़ड़ाने लगती। यह प्रश्न नहीं महज उनके भीतर अपनी बड़ी होती बेटी चिन्ता का बीज होता जो उन्हें नींद की सात रजाइयों के नीचे भी गड़ता रहता। तेज़ धूप में लाल मेरा चेहरा जैसे पानी में डूबने लगता। वे सोती रहतीं। पहले से कहीं गहरी नींद में।

‘तुम मेरे जाने के बाद क्या पूरी शाम घर पर ही रहे ?’ मैं उससे पूछती।
‘तुम्हारे जाते ही यह घर उजड़ जाता है’, वह मेरे बालों से खेलता हुआ जवाब देता।
‘मैं दिन भर तो तुम्हारे साथ यहां रह नहीं सकती। वे लोग क्या कहेंगे।’

‘तुम रोज़ देर कर लेती हो ?’ वे दोबारा बोलने लगतीं। उनके हाथ को अपने हाथों के बीच लेकर धीरे-धीरे दबाने लगती। यह उनके लिए थपकियाँ होती। वे फिर नींद की गहराई में पहुंच जातीं। उनके सलीके से गुंथे काले बाल चादर पर किसी टहनी की परछाई-से पड़े रहते उसका शरीर प्रशान्त साँसों की डोर से बँधा कभी ऊपर, कभी नीचे होता रहता। अधखुली खिड़की से पेड़ों की सरसराहट भीतर की हवा में घुलती रहतीं। पर दोपहर मुलायम पड़ने लगतीं। अहाते की दीवार पर सिर टिका कर नौकर ऊँघने लगता। अकेली पड़ गयी कोयल रह-रह कर किसी को पुकारने लगती।
देर शाम पापा घर लौटते। नौकर मेरी किताबें हाथों में उठाए भीतर आता। वे मुझे बैठक में ही आवाज़ देने लगते। मैं जागकर उनकी ओर मुड़ती। वे जाने कब उठकर रसोई में जा चुकी होतीं।

‘तुम्हें किताबें मिल गयीं ?’ वे बिस्तर के पास तक चले आते। मेरा जवाब सुनने की जगह उसे मेरी विस्फाटिक आँखों में टटोलने लगते। मुझे एक पल यह लगने लगता कि उन्हें सब मालूम चल गया है। किताबों के बहाने वे मेरे सच को छू लेना चाह रहे हैं। मैं सिहर जाती। उन्हें निष्पलक घूरती चली जाती। उन दिनों जैसे कोई बेचैन सच हमारे भीतर जन्म लेता, हमें लगने लगता कि हम अनायास ही दूसरों के सन्देह के घेरे में चले आये हैं।
‘तुम मेरी किताबें ला क्यों नहीं देते ? पापा रोज पूछते हैं,’ मैं उससे कहती वह मुस्कराता और मेरी तरफ देखता रहता।
‘तुमने मुझसे कब कहा ?’

‘तुम यह भूल गये।’ मैं छिटककर उससे दूर हो जाती।
‘किताबों का करोगी क्या ? तुम्हारे इम्तिहान में अभी काफी समय है।’’
‘मेरे पास उनसे कहने के लिए कुछ तो होना चाहिए।’ मैं चिन्तित होकर अँधेरे कमरे में यहां-वहां ताकने लगती। उसकी आँखें दो तारों-सी टिमटिमाती रहतीं। खिड़की के नीचे कोई गाय घास चरने आ जाती उसके घास चरने की आवाज़ से हम एक दूसरे में दुबक जाते। हमसे परे एक अकेली दोपहर चुपचाप बीतती रहती।
‘तुम कहो तो मैं उससे बात करूँ’ पापा बिस्तर के सिरहाने बैठ जाते। वे पिता होने के दायित्त्व से भरकर बोलते। उन्हें अपने कहने पर पूरा विश्वास होता। उन दिनों हम सभी को अपने कहने पर पूरा विश्वास होता। वे मेरा माथा सहलाने लगते रसोई से चीनी मिट्टी के बर्तनों की खड़खड़ सुनायी देने लगती। अब वक़्त होता मम्मी के आने का। वे हमेशा एक कप चाय ज़्यादा लातीं। पूरी ट्रे बिस्कुट, नमकीन और कपों से लदी रहती।

‘किससे बात करनी है ?’
वे घर की छोटी-से-छोटी समस्या में हवा की तरह फैल जाना चाहतीं।
‘उसी से जिससे ये पढ़ने जाती है।’
शाम का अँधेरा धीरे-धीरे घर में बिखरने लगता। इससे पहले की हमारे चेहरे झीने अँधेरे में ओट हों, हम में से कोई एक कमरों की बत्तियाँ जला देता। यह काम ज़्यादातर पापा करते। वे अहाते की घास पर कुर्सी बिछा लेते और मम्मी के बाहर आने का इन्तज़ार करते। मैं उसके फ़ोन का।
‘कल पापा तुमसे बात करने के लिए कह रहे थे’ मैं उसे बताती। वह घबराकर मेरी ओर देखने लगता। मैं अपनी अँगुलियाँ उसके बिखरे बालों में डुबा देती। जैसे किसी सरोवर में मछलियां छोड़ दी हों। वे देर तक उसके बालों में तैरती रहतीं।
‘तुमने फ़ोन क्यों नहीं किया ? मैं सारी शाम फ़ोन पर माथा धरे बैठी रही।’

‘क्या उन्हें मालूम चल गया है ?’ वह अपने बालों से सारी मछलियां निकाल देता और उठता। कमरे में रोशनी करने लगता। चारों ओर बिखरी ढेर–सी किताबें जो अब तक अँधेरे की महीन चादर में लिपटी हमें सिर्फ सुनती रहती होंगी। अब हमें देखने भी लगतीं। बन्द खिड़कियों के हर काँच पर काला कागज़ इस तरह चिपका रहता कि दोपहर का एक भी सुनहला रेशा भीतर न आ पाता। खिड़की के एक ओर दोपहर का झरना बहता। दूसरी ओर उसकी दो आँखें।
‘वह कैसा आदमी है ?’ बगीचे के गहराते अँधेरे के पास की स्ट्रीट लाइटों की कुछ भूली भटकी फुहारें झरती रहतीं। मैं बिस्तर पर लेटी पापा को मम्मी से बात करते सुनती रहती। पास की गली से एक बूढ़ा ग्वाला ज़ोर-ज़ोर से गाना गाता हुआ गुज़रता। मानो खुद को यह भरोसा दिलाने कि वह अब भी ज़िन्दा है, मृत्युलोक की गली पर सचमुच चला जा रहा है। बगीचे की बुदबुदाहटें आधे में ही छूट जातीं। हम सब उसकी ओर मुड़ जाते। उसकी सुरीली आवाज़ धीमी पड़ती जाती। हमारे आसपास ही खुशबू की तरह जमा हो जाती।

‘मैं उससे एक बार मिली थी’, अहाते की काँपती हवा में मम्मी की आवाज़ आकार लेने लगती। मुझे आश्चर्य होता। वे उसके सामने वह सब क्यों नहीं बोल पा रहीं जो उन्होंने उससे मिलने के बाद मुझसे कहा था, ‘भला मालूम देता है।’
‘कल वे तुम्हारे बारे में पूछताछ भी कर रहे थे।’ उसके मन में आशंका बढ़ने से उसका चेहरा बचकाना हो उठता। उसे अपनी हर आशंका नियति का अदृश्य इशारा लगती। मैं उसके सामने बैठी थी। उसकी किताबों और बेतरतीब जमी कुर्सियों और स्टूलों में बिखरे कमरे की चमचमाती रोशनी में। लेकिन उसकी आँखों में मेरा वहां होना जाने कहाँ फिसल गया था। उन दिनों एक दूसरे से अलग हो जाने की आशंका इतनी अधिक होती कि हमारे प्रेम का अर्थ ही एक दूसरे से अलग होने को रोकना होता।

‘वे शायद तुमसे मिलना भी चाहते हैं, शायद यह जानने कि उनकी बेटी किससे पढ़ने जाती है।’
वह कमरे में बदहवास-सा टहलने लगता। मैं चुप उसे देखती रहती। उसके उद्वेग को शान्त करने का रास्ता ढूँढ़ने लगती। वह अपनी बेचैनी थाम नहीं पाता। खिड़की खोल देता। समूचा कमरा पलक झपकते ही दोपहर की उजास से भर जाता। चौंधियाती आभा में सराबोर मैं खिड़की पर चली जाती। गुलमोहर की तिरछी छाया सामने बिछी होती। तेज़ धूम की लहरों के बीच इस छोटे-से टापू पर स्कूल के थके-हरे बच्चे खेल रहे होते। सूनी सड़क के जाल को धूल भरी हवा के झोंके बार-बार हिला जाते।

वह मेरे कन्धे पर अपना काँपता-सा हाथ रख देता।
‘वे मुझसे मिलकर क्या करेंगे ? वे क्या जानना चाहते हैं ? तुम उन्हें मना नहीं कर सकतीं ? वे मुझसे मिलकर आखिर क्या चाहते हैं ? नहीं...नहीं...तुम उन्हें रोको ! नहीं !’
यह निष्फल याचना होती जो जी हल्का करने के लिए की जाती है। कहीं ले जाने नहीं। मैं निरुपाय खिड़की के बाहर ताकती रहती। उसकी आवाज़ फीकी पड़ती जाती। वह पूरी ताकत से मुझे पकड़ लेता। मेरा चेहरा अपने सामने कर लेता। उसका देखना मेरी आँखों में शूल-सा गड़ जाता।
‘हम कल उसके घर चलें ?’

पापा खाने के लिए उठने लगते। मम्मी कुछ देर तक कुछ सोचती-सी बगीचे के धुँधलके में बैठी रह जाती, प्राचीन शिला की तरह। मैं बिस्तर पर करवट बदलती। हाथों में देर से अटकी किताब के पन्ने उड़ने लगते। दरवाज़े पर पापा की परछाई गहराने लगती।

‘लेट कर पढ़ने से तुम्हारी आँखें खराब होंगी।’ मैं तुरन्त उठकर बैठ जाती जैसे अगर मैं उनकी यह नसीहत मान लूँ तो वे भी मेरी कोई बात स्वीकार कर लेंगे। थोड़ी-सी देर के लिए पूरा घर सन्नाटे से भर उठता। फिर उस गाढ़े सन्नाटे पर पापा के पद-चिह्न उभरने लगते। रसोई से आता उनके स्वर का एक टूटा धागा देर तक मेरे चारों ओर तैरता रहता।
‘...तो ठीक है। कल चलेंगे। तुम तैयार रहना क्योंकि तुम...’

वे पूरे वक़्त वहीं खड़े रहते। चूल्हे की नीली आँच में खाना पकता रहता। मम्मी माथे पर बहता पसीना पोंछती रहती। बीच-बीच में नाक से फिसलते नये चश्मे को गिरने से रोकतीं। मैं भागकर वहाँ पहुँच जाना चाहती। साथ ही अपने को रोकने की कोशिश भी करती। मैं उनके एक दूसरे के साथ होने के सुख में शामिल होना चाहती। लेकिन यह सोचकर डरती भी कि मेरे वहां जाने से उनके ‘साथ’ होने का आह्लाद विरल न हो जाये। मेरे छिपे हुए सच की आँच में पापा-मम्मी प्रेमियों में परिवर्तित हो जाते। जैसे रसोई में छिपकर वे एक दूसरे से मिल रहे हों। मैं बिस्तर पर लेटी रह जाती। मम्मी खाने के लिए आवाज़ देती। मुझे लगता सुबह हो गई है। मेरे पलकें खिड़की की तरह खुल जातीं।

वह बाहर से लौटता। कई बार उसके आने के पहले ही मैं उसके घर पहुँच जाती। वीराने में परदों को हिलाती हवा दीवारों तक जाकर वापस लौटती रहती, फर्श पर बिखरे धूल के कणों को हर ओर लुढ़काती रहती। कभी किसी कमरे की भूल से जली रह गई एकाध बत्ती निःशब्द सुगबुगाती रहती। सूने बरामदों में चिड़ियां अपनी उड़ानों पर झूलती रहतीं। मैं एक कमरे से दूसरे कमरे में भटकती रहती जैसे कि किसी भूल-भुलैया में आ गयी हूँ। सब कुछ रोज़ की तरह ही रहता लेकिन उसका वहां न होना सारी वस्तुओं को मेरे लिए अजनबी बना देता।

जैसे वे सब मुझसे मेरे वहां होने का कारण पूछ रही हों। मुझे लगता मेज़ पर पड़ी जूठी थाली, कमरे में तिरछी बिछी दरी, कपड़ों की अलमारी, बरामदे में लावारिस पड़ी चाबी, दीवान पर खुली किताब, सभी में ऐसा कुछ छिपा है जिसे मैं नहीं जानती और जिसे मुझे जानना चाहिए। उन दिनों निर्जीव वस्तुओं का भी एक अन्तस होता जिसमें इकट्ठा बीता हुआ समय भीनी गन्ध-सा बाहर झरता रहता।
वह धूप से तपा चेहरा लिये हाँफ़ते हुए कमरे में प्रवेश करता। दरवाज़ा खुलता। उसके कदमों की आहट से सूने घर का आकाश डोलने लगता। मैं उसकी ओर मुड़ती। उसे देखते ही सब भूलकर जैसे बेहोशी में उसकी ओर भागने लगती।
‘तुम परेशान क्यों लग रही हो ?’

वह मेरी चिन्ता के बारीक से बारीक रेशे को भी देख लेता। उससे खुद परेशान हो जाता।
‘वे आज शाम यहाँ आना चाहते हैं।’
मैं कहीं और देखकर यह बोली थी। वह कुछ देर अवाक् खड़ा रहा। फिर हड़ब़ड़ाहट में चारों ओर फटी-फटी आँखों से ताकने लगा।
‘वे थोड़ी-सी देर बैठकर चले जायेंगे।’ मैं फुसफुसायी थी।
‘तुम कहो तो अभी कुछ देर हम घर ठीक कर सकते हैं ?

मैं थोड़ी दृढ़ता से बोली थी। यह सान्त्वना थी। एक ऐसी सान्त्वना जिसे कमरे की प्यासी हवा सोख लेती है। वह भागकर कमरे के उस कोने में गया जहाँ गन्दे कपड़ों का ढेर लगा था- वह कपड़े़ उतारकर फेंकता जाता, जब तक सारे कपड़े ढेर न हो जाएँ-पास ही जमीन पर किताबें और कागज बिखरे थे। वह कपड़ों को हटाने का प्रयास करने लगा। लेकिन निराश होकर मेरी ओर मु़ड़ गया।
‘वे यहाँ आएँगे...यहाँ, इस कचरे के ढेर पर वे खुद देख लेंगे, खुद...मेरी ज़िन्दगी की तमाम सम्भावनाएँ...अपनी बेटी को ऐसे आदमी से कैसे...? पढ़ाई। हाँ, हाँ, तुम्हारा कल से यहाँ आना बन्द हो जायेगा। ओफ़, कल से। हे ईश्वर मैं... मेरा क्या होगा ?’

वह लगभग चीख रहा था। उसकी चीख के भीतर जमा डर, आशंका और शून्यता पिघलना शुरू हो गये थे। वह मेरे कन्धे पर अपना सिर रखकर भी कमरे में पूरी तरह एकाकी हो गया था। उसकी आँखों में, उसकी बुदबुदाहट में, उसकी सांसों की काँपती आवाज़ में उस दिन मैंने पहली बार अभाव देखा था। खुद अपना न होना। क्या यह वही चीज़ है जिसे मैं बरसों से अपनी पीठ पर ढोती चली आ रही हूँ: अपना न होना जो उस दिन उस लगभग अँधेरे में मुझे अनायास ही मिल गया था।
वह मेज़ पर बिखरी चीज़ें जमाने लगा। मैं भागकर कपड़ों के ढेर को गुसलखाने में फेंक आयी। मुझे लौटना भी था। बेसिन पर सालों पुराना मैल चढा़ था।

ऊपर गर्मियों की बारीक धूल की परत थी जो पिछले बरामदे से हवा में घुलकर भीतर आ जाती थी। मैंने दुपट्टा कमर में बाँधा और झाडू उठाकर बीच के कमरे में चली गयी। पुरानी जंग लगी पेटी खुली पड़ी थी-शायद सुबह ही उससे कुछ निकाला गया था। फ़र्श पर दरी बिछी थी। वह जगह-जगह से ज़वाब दे गयी थी। उसके छेदों में धूल भरी थी। कमरे के हर कोने में मकड़ी के जाले झूल रहे थे। मैं स्टूल पर चढ़कर जालों की अन्तहीन योजना को ख़त्म करने में लग गयी। वह दरवाज़े पर खड़ा हो गया। हाथों में किताब का गट्ठर था। वह अपने कमरे से उठाकर लाया था। उन्हें रखने का स्थान तय नहीं कर पा रहा था।

‘उन्हें उसी कमरे में बिठाएँगे ?’ वह अनिश्चय से भरकर बोला।
‘उन्हें ही क्यों मैं भी तो उनके साथ अपने ‘टीचर’ से मिलने आऊँगी, तुम मुझे कहाँ बिठाओगे ?
वह चुप खड़ा मुझे देखता रहा। उसके चेहरे पर क्षण भर के लिए एक बारीक-सी राहत की रेखा उभरी। मैं उसे थाम लेना चाहती थी। लेकिन वह तुरन्त उसकी घबड़ाहट में डूब गयी। मुझे लौटना भी था।

जाले साफ़ होने को ही नहीं आ रहे थे। मेज़ पर रखी हफ़्तों पुरानी थालियाँ अन्दर आने के रास्ते में ही दिखाई दे रही थी। दीवान पर पड़ी चादर पर जगह-जगह स्याही गिरी हुई थी उसे धोने का वक़्त नहीं था। नयी चादर की पूछकर मैं उसे मुश्किल में डालना नहीं चाहती थी। अगले बरामदे में पड़े जर्जर स्टेण्ड पर रखी सूखी और टेढ़ी-मेढ़ी चप्पलें। घर में घुसते ही सबसे पहले दिखने वाले आले में रखे अधूरे पेन, उल्टा मिट्टी का दिया, चाबी का गुच्छा, चटखा काँच का गिलास। ओह, मैं खुद उसके घर को शायद पहली बार देख रही थी। और वह उस बिखराव में इस तरह भटक रहा था जैसे वहाँ राह भूलकर चला आया हो।

हम थक हार कर अपने प्रिय कमरे में वापस गये। एक दूसरे से आँखें चुराते हुए। वह देर तक दीवान पर बैठा हुआ कुछ सोचता रहा। मैं कमरे की चीजों को ठीक करने की हताश कोशिश में लगी रही। एकाएक उसका चेहरा ऊपर उठा। उसकी आँखें चमक रही थीं।
‘अब रहने दो। मैं कर लूँगा। मैं इस घर को उनके आने लायक कर लूँगा। मैं कर लूँगा। समझीं तुम। मैं कर लूँगा।’
वह भागता हुआ खिड़की के पास गया और उसे बंद कर दिया। चारों ओर कुछ भी दिखाई देना बंद हो गया। मैं जहां की तहां चुपचाप खड़ी रह गयी। अँधेरे में धीरे-धीरे कुछ चमकना शुरू हुआ। यह उसका स्पर्श था। फिर उसकी आँखें।

नगर के निर्जन एकान्त की दो मंज़िल इमारत में अधेड़ औरत कुछ लिखते-लिखते रुक गयी है। कलम काग़ज़ पर लुढ़क जाता है। वह खिड़की से बाहर झाँकती है। अपने साथ सूखे पत्तों को उड़ाती सिर्फ़ हवा है। वहाँ कोई नहीं है। अधेड़ औरत कुर्सी से उठती है। धीरे-धीरे रसोई की ओर बढ़ती है। सिंक का नल खोलकर उसमें अपना चेहरा डाल देती है। सूने मकान में सुबकने की आवाज़ भरने लगती है। वह रो रही है। वह रो रही है उस सब पर जो लिख रही है। वह रो रही है उस सब पर जो वह लिख नहीं पा रही। वह रो रही है उस सब पर जो बीत गया है। वह रो रही है उस सब पर जो चाहकर भी बीतता नहीं। हाथ में चाय का प्याला लिए अधेड़ औरत अपनी मेज़ की ओर वापस लौट रही है। उसके माथे पर भूरे बालों का कुछ लटें झूलने लगीं हैं। वह उन्हें हल्के से हटाती है जैसे किसी और के माथे से हटा रही हो।

वे उसके घर जाने को उत्साहित थीं। शाम होते ही उनका खाना बन चुका था। घर से निकलने से पहले ही वे अपने लौटने के बाद की शान्ति का पूरा इन्तिज़ाम कर लेती थीं। मैं समझ नहीं पा रही थी कि मम्मी इतनी खुश क्यों हैं। शाम अपने गहराते किनारों पर जा लगी थी। धुँधलका छाने लगा था। बुझी हुई बयार बहना शुरू हो गयी। मैं मन ही मन प्रार्थना कर रही थी कि पापा देर से आएँ। हमारा उसके घर जाना टल जाए। अगले दिन हमें वह घर ठीक करने का और समय मिल जाएगा। मुझे उसके कहने का ज़रा भी विश्वास नहीं था। उसने मुझे बहलाने के लिए कह दिया होगा कि वह सब कर लेगा। मम्मी बेचैन होकर टहलने लगीं। पापा ने लौटते ही जब घर के अँधेरे का जिक्र किया तब हमें याद आया कि हम बड़ी देर से बिना रोशनी के ही बैठे थे। अब उसके घर जाने का समय बीत-सा गया है।

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