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विविध उपन्यास >> दिगन्त की ओर

दिगन्त की ओर

विपिन बिहारी मिश्र

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2814
आईएसबीएन :81-8361-025-0

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जीवन और समाज की विडम्बनाओं और विद्रूपताओं पर आधारित उपन्यास...

DIGANT KI OR

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उम्र की ढलती साँझ में अपने गाँव में, अपने लोगों के बीच, अपने घर में रहने की इच्छा हरेक मनुष्य की होती है। ‘अपना घर’ ! कितना प्यारा शब्द है यह ! लेकिन क्या सबको नसीब होता है ! घर बनाने और बसाने में कितना मुश्किलें आती हैं और यह किसी भी मध्यवित्त व्यक्ति का सबसे तल्ख़ और संजीदा अनुभव होता है। दिगंत की ओर इन्हीं अनुभवों का प्रवाहपूर्ण भाषा में औपन्यासिक विस्तार है।

यह जीवन और समाज की विडम्बनाओं और विद्रूपताओं पर तो प्रकाश डालता ही है, जीवन-संध्या में बुजुर्गों की उपेक्षाओं और उम्मीदों को भी रेखांकित करता है।

उड़िया भाषा के इस महत्त्वपूर्ण उपन्यास का सुजाता शिवेन द्वारा किया सर्जनात्मक अनुवाद निश्चय ही हिन्दी पाठकों को रुचिकर और पठनीय लगेगा, ऐसा हमारा विश्वास है।
 जब तक हमने अपना मूल्य बोध नहीं गँवाया है तब तक हमारे व्यक्तित्व को कोई आँच नहीं आएगी। विपदा तो हमेशा आएगी, पर जो विपदा की उपेक्षा कर के साहस के साथ उसका सामना करता है, वही असल जिन्दगी जी पाता है, ठीक अभयंबे जनकः प्राप्तोषि की तरह। जनक जब ज्ञान की आखिरी सीमा में पहुँचे थे तब याज्ञवल्कय बोले, ‘‘जनक, तुम आज सिर्फ ज्ञानी ही नहीं हो। तुम आज से वीरता के शीर्ष स्थान पर पहुँच गये हो।

दिगन्त की ओर


तरुण बाबू को जब उनकी पत्नी ने यह याद दिलाया कि नौकरी से सेवानिवृत्त होने का समय अब नजदीक आ गया है तो उन्होंने इसे बहुत सहज भाव से लिया। उन्होंने पहले से ही इसके लिए अपने को तैयार कर लिया था। यहाँ तक कि उन्होंने कुछ समय पहले ही अपने किराएदार को घर छोड़ने की ताकीद करते हुए पत्र भी लिख दिया था। ऑफिस के सारे बकाए काम वह निबटा चुके थे। पेंशन के लिए सारी खानापूरी और कागजात भी उन्होंने तैयार करवा लिए थे।
इसीलिए पत्नी ने जब यह चर्चा छेड़ी, तो चाय की चुस्की लेते हुए दूर दिगंत को निहारते हुए उन्होंने पत्नी को समझाया, ‘‘नौकरी के इस आखिरी पड़ाव पर तो आना ही था एक न एक दिन। सबके साथ यही होता आया है, हमारे साथ भी होगा। नौकरी से अवकाश लेने के बाद अधिकांश लोग तो पेंशन लेकर अपने-अपने घर चले जाते हैं, कोई खुशी-खुशी तो कोई गमगीन होकर। पर कुछ थोड़े से व्यक्ति तो ऐसे भी होते हैं जो नौकरी से अवकाश लेने का समय जितना करीब आता जाता है, उतना ही वे नौकरी को जकड़ने की कोशिश करते हैं। दूसरी नौकरी पाने के लिए ऐरों-गैरों के पीछे दौड़ते हैं। आखिर वह नौकरी तो छूटेगी ही। एक साल, दो साल या फिर चार साल बाद। उसके बाद ? ऐसे में सम्मानपूर्वक पेंशन लेकर चले जाना क्या ठीक नहीं है ?’’

‘‘मैंने कब इनकार किया ? आत्मसम्मान की रक्षा करते-करते छत्तीस साल की नौकरी में बाईस बार आपका तबादला हुआ। कभी किसी से तबादला रुकवाने के लिए नहीं कहा। बच्चों को सात-आठ स्कूल बदलने पड़े। हर जगह नई किताबें, नई ड्रेस ऊपर से पढ़ाई का दबाव। अपनी परेशानी का जिक्र ना भी करूँ तो हर समय सामान की पैकिंग, नई जगहों में जाकर सरकारी क्वार्टर्स के इन्तजार में किसी गेस्ट हाउस के एक कमरे में ठुँसे हुए पड़े रहना। फिर भी मुझे किसी बात के लिए अफसोस नहीं है। पर मैं कह रही थी कि...’’
‘‘क्या कह रही थीं ?’’
‘‘यही कि लौटकर तो हम अपने ईश्वरपुर के मकान में ही जाएँगे। वहाँ जब सिर्फ हम दोनों को ही रहना है, तो फिर ऊपर का हिस्सा किराए पर चढ़ा देंगे और नीचेवाले हिस्से में हम दोनों रहेंगे।’’
‘‘नीचे क्यों ? हम ऊपर रहेंगे।’’

‘‘ना बाबा ना, उम्र बढ़ने के साथ-साथ कमरे व घुटनों में जिस तरह से दर्द उठने लगा है, उसमें ऊपर के तल्ले पर रहना असम्भव जान पड़ता है। नीचे रहने पर घूमना फिरना भी होता रहेगा।’’
‘‘अरे ! उधर देखो, वहाँ उन दो चिड़ियों को देख रही हो न, जो टेलीफोन के तार के ऊपर चुपचाप बैठी हैं। बीच-बीच में वे एक दूसरे की तरफ नजर भी डाल रही हैं और कभी-कभी एक दूसरे के गले से अपना गला भी घिस रही हैं। शाम होने से पहले ही वे भी उड़कर अपने नीड़ की ओर चल देंगी।’’

‘‘चिड़ियों के बारे में तो इतना कुछ सोच लेते हो, पर अपने बारे में यह सब ख्याल क्यों नहीं आ रहा है ? पिछले चार सालों में एक भी बार मकान देखने नहीं गए। पता नहीं उसकी क्या दशा होगी। हमारे रहने लायक है भी या नहीं, यह भी देखना है। विगत छत्तीस सालों से सरकारी मकान में ही रहे। हम जब सुजनपुर में थे तो कितना बड़ा दो-मंजिला मकान मिला था, है न ? डेढ़ एकड़ जमीन पर बने उस क्वार्टर का एक एक कमरा हमारे बेडरूम से भी दोगुना बड़ा था, और रहने वाले थे बस हम चार प्राणी। हम दोनों और हमारे दो बच्चे। तब वह मकान कितना अच्छा लगता था। उस क्वार्टर को छोड़कर आते समय मैं रुआँसी हो गई थी। जबकि आपकी पहली पोस्टिंग के समय मिले क्वार्टर के कमरे में कितने छोटे-छोटे खोलीनुमा-से थे। कम ऊँचाई वाली छत के कारण गर्मी के दिनों में ना तो घर के अन्दर सो पाते थे और न ही बाहर। पर तब भी हमने हिम्मत बाँधे रखी, इस आशा से कि दूसरी जगह पोस्टिंग होने पर अच्छा मकान मिलेगा और सचमुच उसके बाद की पोस्टिंग में जो क्वार्टर मिला वह काफी अच्छा था, है न ?’’

सुश्री देवी की हाँ में हाँ मिलाते हुए तरुण बाबू ने कहा, ‘‘हाँ, काफी अच्छा मकान था, बड़े-बड़े कमरे, बगीचे के लिए काफी जगह, पर उस मकान में भी क्या हम ज्यादा दिन रह पाए ? कुछ दिनों के बाद ही तबादला हो गया।’’
‘‘खैर छोड़िए इन सब बातों को। हमारी तो अब उम्र हो गई है। इसके साथ ही मकान भी पुराना होने लगा है। यों भी बीस साल पुराना मकान है। सोच रही हूँ कि अब बच्चों के प्रति हमारी कोई जवाब देही तो है नहीं, सौरभ अच्छी नौकरी में है, बेटी-दामाद भी मजे में हैं, तो ऐसे में बैंक में जो डेढ़-दो लाख रुपए रखे हैं, उन्हें निकालकर उन्हीं रुपयों से मकान की मरम्मत करवा लें। ऊपर के माले से अच्छा किराया मिले, तो उसी में हम नीचे आराम से रहेंगे।’’
‘‘अच्छे मकान में रहने वाले अगर आराम से रहते होते तो सारे अमीर आदमी सुखी होते। इसी दिल्ली में जो तुम ये सारे बड़े-बड़े खूबसूरत फ्लैट्स देख रही हो, क्या उनमें रहनेवाले सभी लोग सुख-शान्ति से हैं ? अरे बाबा, शान्ति तो मन के भीतर होती है, मौजाइक या मार्बल के फर्श में नहीं होती है।’’

‘‘मेहरबानी करके मुझे दर्शनशास्त्र न सुनाकर, छुट्टी लेकर ईश्वरपुर जाइए और वहाँ दो महीने रुककर घर की मरम्मत का काम कराइए। खर्च के बारे में फिक्र मत करिए।’’
तरुण बाबू मुस्कराए। उन्हें याद आया वह दिन जब उनकी नई-नई शादी हुई थी और एक दिन उनकी पत्नी ने कहा कि ईश्वरपुर में सरकारी जमीन के लिए एक दरख्वास्त दे दें।
पत्नी सुश्री देवी की बात सुनकर भौंचक से उनकी तरफ देखकर तरुण बाबू ने तब कहा था, ‘‘जमीन ? जमीन का क्या होगा ? जब गाँव में पापा की जमीन है तो ?’’
‘‘गाँव में तो सबकी जमीन है, फिर भी ज्यादातर लोग ईश्वरपुर में जमीन खरीदकर मकान बनवा रहे हैं। जिसने भी दरख्वास्त दिया, उसे जमीन मिल रही है। मेरी बात मानिए और एक जमीन आप भी ले लीजिए, मेरी माँ कह रही थी...’’
रूखे स्वर में तरुण बाबू ने कहा था, ‘‘मेहरबानी करके अपने घरवालों से कह दो कि हमारे व्यक्तिगत मामलों में वे टाँग न अड़ाएँ।’’

बात वहीं थम गई। जमीन के बारे में फिर सुश्री देवी ने कभी कुछ कहा नहीं। तरुण बाबू से उम्र में दस-बारह साल बड़े उनके सहकर्मी नायक बाबू का कहना था, ‘‘समझे तरुण बाबू, मकान बनवाने की गलती कभी मत करिएगा। नौकरी करने तक अच्छी तनख्वाह मिलती रहेगी और नौकरी से अवकाश लेने के बाद और कितने साल जिन्दा रहना है, यही दस-बारह या बहुत हुआ तो बीस साल। हजार या डेढ़ हजार रुपए देने पर एक अच्छा मकान किराए पर मिल जाएगा। जबकि वैसा ही एक मकान बनवाने में  डेढ़-दो लाख रुपए लग जाएँगे। जबकि उतना ही रुपया अगर बैंक में रख दें, तो सूद के पैसों से किराया देने के बाद भी कुछ रुपए बच जाएँगे। मैंने तो बाबा तय कर लिया है कि जमीन खरीदने या घर बनवाने के झंझट में नहीं फँसूँगा।’’

उस दिन तरुण बाबू नायक बाबू के इस कथन से पूरी तरह से सहमत हुए थे दो साल बाद उन्हीं नायक बाबू ने जमीन खरीदकर दो-मंजिला मकान बनवा लिया और ऊपरी मंजिल पर खुद रहने लगे और नीचे का हिस्सा दुकान के लिए किराए पर दे दिया। जब इस बाबत उनसे पूछा तो कैफियत देते हुए बोले, ‘‘क्या करूँ तरुण बाबू, पत्नी और बच्चे दिन-रात चौबीस घंटे मेरे कान खाने लगे, मजबूर होकर इस उजाड़ में एक जमीन खरीदी। पर ईश्वर की कृपा से सरकार ने जो रास्ता बनाया, वह हमारे मकान के सामने से निकला, जिसके चलते किराया भी अच्छा मिल रहा है।’’
तरुण बाबू ने गहराई से सोचा कि नायक बाबू जैसे ईमानदार व्यक्ति अगर मकान के किराए से दो पैसा नहीं पाते तो क्या पेंशन के पैसे से गुजारा कर लेते ? सरकार तो मकान बनाने के लिए लोन देगी ही, ऊपर से ब्याज की दर भी कम है। मकान बनवा लें तो किराया भी मिलेगा। बाद में मकान की कीमत भी बढ़ जाएगी। मन की बात जुबान पर लाते ही पत्नी तमतमाकर बोली, ‘‘हाँ-हाँ नायक बाबू ने कहा तो ठीक, मैं और मेरी मम्मी ने वही बात कही तो वह बकवास थी। उस समय अगर दरख्वास्त दे दी होती तो सस्ते में बड़ा प्लॉट मिल जाता। अब प्लाट पाना क्या उतनी सहज बात है पचास लोगों के आगे घुटने टेककर खड़ा होना होगा।’’

तरुण बाबू ने दरख्वास्त डाल दिया। होगा तो ठीक नहीं तो नहीं। सुश्री देवी कभी याद दिलाती तो बेपरवाह अन्दाज में जवाब देते, ‘‘जाने दो, जमीन मिलेगी तो ठीक है, नहीं तो नहीं। वैसे भी इतने लोगों की खुशामद मैं नहीं कर सकता।’’
बेटा-बेटी दोनों की यही इच्छा थी कि जमीन मिल जाए और पापा एक मकान बनवा लें। जीवन में और तो कुछ कर नहीं सके, एक मकान ही सही पर चाहने भर से ही क्या सब मिल जाता है ? अगर सभी की इच्छा पूरी हो जाती तो इतने झगड़े, द्वन्द्व, दुख इस संसार में होते ही क्यों ? सौ इच्छा करो तो उनमें से एक-आध भी पूरी होगी कि नहीं, शक है।
एक दिन सुबह बेटे ने अखबार पढ़कर बताया, ‘‘पापा अब लॉटरी के जरिए प्लॉट मिलेगा। अब तो तकदीर में होगा, तभी मिलेगी जमीन।’

तकदीर ! अगर तकदीर सही होती, बारह साल में सात बार ट्रांसफर होता ? बेटा भी अब तक उतनी ही बार स्कूल बदल चुका है। बेटी का भी वही हाल है। फिर हर बार दूर-दूर पोस्टिंग होने के कारण अपने माता-पिता को अपने साथ नहीं रख पाए। अब अगर लॉटरी में प्लॉट बाँटा जाएगा, तो हमें क्यों मिलेगा भला ?
लॉटरी में प्लॉट मिल रहा है, सुनकर पत्नी ने देवी के सामने खूब सिर नवाया, पूजापाठ किया। उनकी पूजा के कारण ही या फिर लॉटरी उठाने वाले की असावधानी के चलते, तरुण बाबू को प्लॉट मिल ही गया। खबर पाते ही तुरन्त बाबू दौड़े। ऑफिसवालों को कह-बोलकर प्लॉट का नम्बर जान लिया। कुछ और जोर देने पर कार्यालय अवधि के बाद एक ने उनके साथ चलकर प्लॉट भी दिखा दिया।

वाह, बढ़िया प्लॉट है। सामने रास्ता, बाएँ तरफ पार्क, दाहिनी तरफ खुला मैदान और पीछे किसी प्रोफेसर का मकान। तरुण बाबू को बताया गया कि अलॉटमेंट का ऑर्डर कुछ दिन बाद भेज दिया जाएगा।
प्लॉट मिला, वह भी काफी अच्छी जगह पर, यह जानकर सुश्री देवी भगवान के सामने बार-बार नतमस्तक होते हुए बोलीं, ‘‘कभी कटक या ईश्वरपुर पोस्टिंग होगी तो लोन लेकर मकान बनवाना शुरू करेंगे।’’
‘‘पर पहले जमीन तो मिल जाए। अभी तो तालाब भी नहीं खुदा और मगरमच्छों ने डेरा डाल दिया।’’ सुश्री देवी की प्लानिंग पर तरुण बाबू ने जब यह प्रतिक्रिया जताई, तो वह खीजकर बोलीं, ‘‘क्यों नहीं मिलेगा भला, आप तो प्लॉट का नम्बर देखकर आए हैं न ?’’
‘‘हाँ, वह सब तो ठीक है, पर कब क्या हो कौन जाने ?’’

सरकारी कामों में लेटलतीफी होने पर घबड़ाना नहीं चाहिए। फाइल ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर होकर ऑर्डर जारी होने में देर हो ही जाती है। आदमी का सबसे बड़ा हथियार है धैर्य। आपमें अगर धैर्य है तो फिर सरकारी गैरसरकारी कारण से होनेवाली असुविधाओं का मुकाबला कर सकते हैं। उसी मंत्र को आत्मस्थ करनेवाले तरुण बाबू कुछ दिनों तक सुस्ता गए। जमीन का ऑर्डर आज न सही कभी न कभी मिलेगा ही। और फिर इस मालभूमि इलाके में रहकर ईश्वरपुर में मकान बनवाने का अर्थ है, पृथ्वी पर रहकर चाँद पर तालाब खोदने जैसी बात। सुश्री देवी जब परेशान हो जातीं तो वे कुछ दिनों तक और सब्र करने की बात कहकर उन्हें समझा देते। कुछ और समय बीतने पर उनके साथवाले एक-एक प्लॉट पाने लगे। एक दिन तो उनके सहकर्मी ने कहा भी, ‘‘मेरा प्लॉट बड़ा है। एक सौ बीस फुट बाई सौ फुट। मैं सोच रहा हूँ प्लॉट बदल लूँ।’’
यह क्या बात हुई। उनके सहकर्मी तो जमीन बदलने तक की बात सोच रहे हैं और वह हैं कि अभी प्लॉ़ट मिलने की ही बाट जोह रहे हैं। जिस दिन सुधाकर बाबू मकान बनवाने की सरल विधि उन्हें बताने लगे, उस दिन तो उनके सब्र का बाँध टूट ही गया।

सुधाकर बाबू का तर्क था, ‘‘क्यों भाई, खाली कटक या ईश्वरपुर में ही रहने पर मकान बनवाया जा सकता है। नहीं तो नहीं ? लोग तो दिल्ली, मुम्बई में रहकर कटक और ईश्वरपुर में मकान बनवा रहे हैं। बड़ी-बड़ी कोठियाँ महल जैसी। कोई नहीं जान पाता है कि कौन बनवा रहा है। बहुत हुआ, तो कहेंगे हाँ कोई मुम्बई वाला बनवा रहा है। पर कटक या ईश्वरपुर में रहकर अगर मकान बनवाएँ, चाहे तीन कमरों का ही सही तो मकान बनते न बनते हजार बेनामी पेटिशनों का ढेर लग जाएगा। पैसा खा गया, सीमेंट, लोहे का छड़ ले गया। विराट् पैलेस खड़ा कर लिया। इससे तो अच्छा है दूर रहकर अपने साले या फिर ससुर को लोन का पैसा पकड़ा दो, वही मकान बनवा देंगे।’’
तरुण बाबू अपने साले के बारे में सोचने लगे, ‘बेचारा कॉलेज की पढ़ाई खत्म करके नई-नई नौकरी कर रहा है, वह क्या मकान बनवाएगा ? नौकरी से सेवानिवृत्त होने के बाद से ससुर हमेशा बीमार रहते हैं। घर से निकलते ही नहीं। उन्होंने तो खुद अपना मकान बनाया नहीं, तो फिर तरुण बाबू की क्या सहायता कर पाएँगे ?’’ पति पत्नी ने आपस में विचार विमर्श करके तय किया कि मकान वे खुद ही बनवा लेंगे। पहले चलकर प्लॉट देख लें, फिर मकान कैसे बनवाएँ, इस पर लोगों की राय ले लेंगे।

आखिर एक दिन शाम को सुश्री देवी को कार में बैठाकर तरुण बाबू प्लॉट दिखाने ले ही गए। पर यह क्या ? काफी खोजने पर भी उन्हें प्लॉट वहाँ नहीं मिला। अरे यहाँ तो मैदान था, वह कहाँ गया ? और वह पार्क ?
‘‘आप शायद बौरा गए हैं, मैदान, पार्क क्या उड़ गए ?’’ सुश्री देवी ने कहा।
‘‘नहीं, यही वह जगह है, वह देखो दास बाबू का क्लीनिक, मुझे ठीक से याद है। उनके पीछे वाली दीवार से सटकर ही तो था हमारा प्लॉट।’’
‘‘पर उस तरफ तो एक मकान बन रहा है। उस पर छत भी पड़ने जा रही है।’’
‘‘ऐसा कैसे हुआ ? यह प्लॉट तो हमारा था।’’ पत्नी के परामर्श पर प्लॉट से जुड़ी गड़बड़ी के बारे में तरुण बाबू ने ऑफिसर से पूछताछ की। उसने उन्हें दूसरे दिन कार्यालय में बुलाया और जब वह वहाँ पहुँचे, तो ऑफिसर ने एक लिस्ट निकालकर दिखा दी, ‘‘वह प्लॉट एक डाक्टर को दे दिया गया है। डॉक्टर सेनापति हैं, अरे वही जो हार्ट स्पेशलिस्ट हैं उन्हें। आपको एक दूसरा प्लॉट मिला है।’’

‘‘पर पिछली बार भी तो मैंने लिस्ट देखी थी, उसमें तो वह प्लॉट मेरे नाम से था।’’
मुस्कराकर ऑफिसर ने कहा, ‘‘आपने कौन सी लिस्ट देखी थी, मैं नहीं जानता पर मेरे पास जो लिस्ट है, मैं वही दिखा रहा हूँ। इस बार फिर कोई गड़बड़ी हो जाए उससे पहले आप अलॉटमेंट का ऑर्डर लेते जाइए।’’
तरुण बाबू ने अपने को आश्वस्त किया। ‘जितने बड़े बड़े हाकिम हैं, सबकी उम्र पचास से ऊपर है। सीढ़ी चढ़ेंगे, थोड़ा सा ज्यादा खा लेंगे या कुछ तेज आवाज में चिल्ला देंगे तो दिल की धड़कन बढ़ जाएगी। ऐसे में उन्हें उस समय हार्ट स्पेशलिस्ट की ही जरूरत पड़ेगी, न कि तरुण नामक व्यक्ति की। इसलिए अच्छी जमीन डाक्टर को मिल जाए तो अच्छी बात है, बड़े-बड़े हाकिमों के दिल की सुरक्षा करते रहेंगे वहाँ।’

वर्तमान में जो ऑफिसर उस ऑफिस में मौजूद थे, वह काफी सहानुभूतिशील व्यक्ति थे। उन्होंने तुरन्त सेक्शन ऑफिसर को बुलाकर अलॉटमेंट दे देने का आदेश दिया। सेक्शन बाबू का कहना था कि उनका टाइपिस्ट चला गया है, इसलिए टाइप करके ऑर्डर कल जरूर भेज देंगे।
उनके विनम्र नमस्कार और मधुर वचन से आश्वस्त होकर तरुण बाबू लौट गए और अलॉटमेंट ऑर्डर की प्रतीक्षा करने लगे।
‘‘चाय बहुत अच्छी बनी है आज। बहुत थकान लग रही थी, एक कप चाय पीते ही फिर से शरीर में ताजगी भर गई।’’
‘‘मैंने खुद अपने हाथों से जो बनाई थी चाय’’, सुश्री देवी ने खुश होकर कहा और फिर बात को इस तरह आगे बढ़ाया, ‘‘सौरभ को आज गणित पढ़ाया, जया को तो पढ़ाना नहीं पड़ता है, वह खुद से पढ़ लेती है। अरे हाँ, जमीन का क्या हुआ ? कह रहे थे न कि पाँच दिनों में ऑर्डर आ जाएगा।’’

‘‘अरे हाँ, सच ही में, ऑर्डर तो आया नहीं, इस बार कहाँ गया ? अच्छा किया जो तुमने याद दिला दिया। कल ईश्वरपुर टूर पर जाना है, तब पता करके आऊँगा।’’
इस बार ऑफिसर कुछ क्षुब्ध लगा। पूछने पर बोला, ‘‘क्यों साहब आप तो जमीन के लिए इतने व्यग्र रहो रहे थे उधर ऑर्डर जाकर वापस लौट आया। आपके पते पर जब ऑर्डर नहीं दिया जा सका तब मजबूरन हमें आपका ऑर्डर कैंसिल करने की कार्रवाई शुरू करनी पड़ी। देखिए ऑर्डर कैंसिल होने की फाइल मेरे टेबल पर ही रखी हुई है। आपका पता सही न होने से ऐसा हुआ।’’
‘‘मेरा पता सही नहीं है ? मैं खुद डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट...। फिर भी मेरी ही चिट्ठी मुझ तक नहीं पहुँची ? एक मिनट जरा फाइल तो दिखाइए।’’
बड़ी मुश्किल से ऑफिसर ने फाइल पलटी। दस बारह पृष्ठ पलटने के बाद एक मुड़ातुड़ा कागज और लिफाफा मिला। उसे देखकर तरुण बाबू गुस्से से लाल पड़ गए। लिफाफे पर पौस्टमैन ने लिखा था कि इस नाम का कोई व्यक्ति यहाँ नहीं रहता है।

चिट्ठी वर्तमान पते पर न भेजकर उनके स्थायी पते पर भेजी गई थी जहाँ तरुण बाबू तो क्या उनके पिता भी तीस साल से नहीं गए थे। उस दिन के बेबस सेक्शन बाबू ने आज सभी लाचारगी भरे स्वर में कहा, ‘‘सर, गवर्नमेंट ऑफिसरों का तो तबादला होता रहता है। इसलिए सोचा था कि स्थायी पते पर भेज देने से आपको जरूर मिल जाएगा हमें क्या पता था कि ऐसी गड़बड़ी हो जाएगी।’’
‘‘आपके इस सोच के लिए धन्यवाद। पर आपने मेरा नाम तरुण कुमार नायक क्यों लिख दिया ?’’
बिना विचलित हुए सेक्शन बाबू ने समझाया, ‘‘सर कितनी चिट्ठियाँ जाती हैं। थोड़ी-बहुत भूल-चूक तो हो ही जाती है।’’
‘हाँ, ऐसी भूल चूक तो होती ही रहती है।’ तरुण बाबू ने मन ही मन सोचा, ‘‘भूल से मुझे मिला हुआ अच्छा प्लॉट हार्ट स्पेशलिस्ट को मिल गया, एक और गलती के कारण ऑर्डर गाँव जाकर कैंसिल होने जा रहा था। सारी भूलें मेरे ही खिलाफ क्यों होती जा रही हैं।’’
‘‘तो आज ऑर्डर मिल जाएगा न ?’’

ऑफिसर ने कहा, ‘‘आज अगर टाइपिस्ट नहीं होगा तो मेरा स्टेनो ऑर्डर टाइप कर देगा। आप बैठिए ऑर्डर लेकर जाइए।’’
तरुण बाबू ऑफिसर की तरफ देखने लगे। काले बादलों से ढके हुए आकाश में भी कभी-कभी प्रकाश की छटा बिखरती ही है। इनके जैसे ऑफिसर इस जमाने में न होते तो जाने शासन का क्या होता !
ऑर्डर जेब में डालकर गेस्ट हाउस पहुँचे। पत्नी से कहा, ‘‘चलो चलकर प्लॉट देख आते हैं।’’
‘‘अच्छा ऑर्डर मिल गया। देखा ना, मेरे पीछे पड़े रहने से ही ऑर्डर मिला।’’
पति की कामयाबी में पत्नी का बहादुरी गाँठना और श्रेय लेना कोई नई बात नहीं है। इसलिए पत्नी की बात को पचाकर तरुण बाबू गाड़ी में बैठे। एक घंटा ढूँढ़ने के बाद जमीन मिली। एक सौ फुट बाई अस्सी फुट का प्लॉट बाईं ओर पेड़ों का झुरमुट बीच, का भाग ऊँट की पीठ जैसा ऊँचा। दाहिनी तरफ की जमीन के झुग्गी-झोंपड़ी वालों के पाखाने के रूप में इस्तेमाल होते रहने के प्रमाण मौजूद थे। बाईं तरफ के आखिरी हिस्से में एक पत्थर टिकाकर उस पर सिन्दूर लगाया गया था।

तरुण बाबू और उनकी पत्नी को गाड़ी से उतरते देखकर बिल में से चूहे निकलने की तरह तीन-चार व्यक्तियों के सिर झोंपड़ियों के दरवाजे से बाहर निकले। धीरे धीरे पाँच-दस आदमी औरत कुछ दूरी पर खड़े होकर उन्हें देखने लगे।
‘‘क्यों यह पत्थर, यह सिन्दूर, यह सब क्या है ?’’ पान चबाते हुए नंगी छाती और लाल धोती पहने एक व्यक्ति ने कहा, ‘‘बाबू शायद यहाँ नए आए हैं, हुजूर यह ग्राम देवी हैं। न जाने कब से पूजी जा रही हैं ?’’
‘‘कब से ?’’
‘‘देवी की क्या कोई उम्र होती है ? जब से उन्होंने आदेश दिया है, तब से पूजी जा रही हैं।’’
‘‘यह जमीन मुझे मिली है।’’
‘‘किसने दी ?’’
‘‘सरकारी ऑर्डर मिला है।’’
‘‘हुजूर, आप जरूर सरकारी व्यक्ति होंगे। सरकार अपने को ईश्वर से बड़ा मानती है, इसलिए ऑर्डर क्यों नहीं देगी ? पर हम आपको बता दें कि यह देवी की जमीन है। अगर आप जोर जबरदस्ती करेंगे तो...वैसे हुजूर, आपके कितने बाल बच्चे हैं ?’’


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