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विवेचनात्मक व उपदेशात्मक संग्रह >> उपनिषद एक रहस्य

उपनिषद एक रहस्य

विनय कुमार अवस्थी

प्रकाशक : भुवन वाणी ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :99
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2777
आईएसबीएन :81-7951-000-X

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आत्म और अनात्म तत्वों का निरूपण.....

Upnishad ek Rahasya

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

उपनिषद् क्या हैं ?

जानकारों द्वारा बार-बार समझाने पर भी, यह प्रश्न, मुझे आज भी उद्धिग्न करता रहता है। मैं जानता हूँ वेद के चार भाग हैं-संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद्: (१) संहिता में वैदिक देवी देवताओं की स्तुति के मंत्र हैं; (२) ब्राह्मण में वैदिक कर्मकाण्ड और यज्ञों का वर्णन है; (३) आरण्यक में कर्मकाण्ड और यज्ञों की रूपक कथाएँ और तत् सम्बन्धी दार्शनिक व्याख्याएँ हैं; और (४) उपनिषद् में वास्तविक वैदिक दर्शन का सार है।

उपनिषद् में आत्म और अनात्म तत्त्वों का निरूपण किया गया है जो वेद के मौलिक रहस्यों का प्रतिपादन करता है। प्राय: उपनिषद् वेद के अन्त में ही आते हैं। इसलिए ये वेदान्त के नाम से भी प्रख्यात हैं। वैदिक धर्म के मौलिक सिद्धान्तों को तीन प्रमुख ग्रन्थ प्रमाणित करते हैं जो प्रस्थान त्रयी के नाम से विख्यात हैं। उपनिषद्, ब्रह्म, सूत्र और श्री मद्भगवद्गीता।
मुझे उपनिषद् शब्द का साधारण अर्थ भी मालूम है-‘समीप उपवेशन’ (ब्रह्म विद्या की प्राप्ति के लिए शिष्य का गुरु के पास बैठना)। यह शब्द ‘उप’, ‘नि’ उपसर्ग तथा, ‘सद्’ धातु से निष्पन्न हुआ है। सद् धातु के तीन अर्थ हैं:
विवरण-नाश होना; गति-पाना या जानना तथा अवसादन-शिथिल होना।

उपनिषद् ब्रह्म विद्या का द्योतक है। कहते हैं इस विद्या के अभ्यास से मुमुक्षुजन की अविद्या, नष्ट हो जाती है (विवरण), वह ब्रह्म की प्राप्ति करा देती है (गति), जिससे मनुष्यों के गर्भवास आदि सांसारिक दु:ख सर्वथा शिथिल हो जाते हैं (अवसादन) फलत: उपनिषद् वे ‘तत्त्व’ प्रतिपादक ग्रंथ माने जाते हैं जिनके अभ्यास से मनुष्य को ब्रह्म अथवा परमात्मा का साक्षात्कार होता है।
ये तत्त्व क्या हैं ? 108 उपनिषदों में इनका वर्णन है जिनका आधार इस प्रकार बतलाया गया है:-
(१) ऋग्वेदीय        १० उपनिषद्
(२) शुक्ल यजुर्वेदीय    १९ उपनिषद्
(३) कृष्ण यजुर्वेदीय    ३२ उपनिषद्
(४) सामवेदीय        १६ उपनिषद्
(५) अथर्ववेदीय        ३१ उपनिषद्
कुल            १०८ उपनिषद्
इनके अतिरिक्त नारायण, नृसिंह, रामतापनी तथा गोपाल चार उपनिषद् और हैं। विषय की गम्भीरता तथा विवेचन की विशदता के कारण १३ उपनिषद् विशेष मान्य तथा प्राचीन माने जाते हैं। जगद्गुरु शंकराचार्य ने १० पर अपना भाष्य दिया है-(१) ईश, (२) ऐतरेय (३) कठ (४) केन (५) छांदोग्य (६) प्रश्न (७) तैत्तिरीय (८) बृहदारण्यक (९) मांडूक्य और (१०) मुंडक। और-

निम्न तीन को प्रमाण कोटि में रखा है
(१)    श्वेताश्वतर (२) कौषीतकि तथा (३) मैत्रायणी।
अन्य उपनिषद् तत्तद् देवता विषयक होने के हेतु तांत्रिक माने जाते हैं। ऐसे उपनिषदों में शैव, शाक्त, वैष्णव तथा योग विषयक उपनिषदों की प्रधान गणना है।
डा.डासन, डा.बेल्वेकर तथा रानडे ने उपनिषदों का विभाजन प्रतिपाद्य विषय की दृष्टि से इस प्रकार किया है:

प्राचीनतम
१.    ईश, २.ऐतरेय, ३.छांदोग्य, ४. प्रश्न, ५.तैत्तिरीय, ६.बृहदारण्यक, ७.मांडूक्य, और ८.मुंडक
प्राचीन
१.कठ, २.केन
अवांतरकालीन
१.    कौषीतकि, २.मैत्री (मैत्राणयी) तथा ३.श्वेताश्वतर
भाषा तथा उपनिषदों के विकास क्रम की दृष्टि से डा.डासन ने उनका विभाजन चार स्तर में किया है:
१. गद्यात्मक उपनिषद्
१.ऐतरेय, २. केन, ३.छांदोग्य, ४.तैत्तिरीय, ५.बृहदारण्यक तथा कौषीतकि;
इनका गद्य ब्राह्मणों के गद्य के समान सरल, लघुकाय तथा प्राचीन है।
२.पद्यात्मक उपनिषद्
१.ईश, २.कठ, ३. श्वेताश्वतर तथा नारायण
इनका पद्य वैदिक मंत्रों के अनुरूप सरल, प्राचीन तथा सुबोध है।
३.अवांतर गद्योपनिषद्
१.प्रश्न, २.मैत्री (मैत्रायणी) तथा ३.मांडूक्य
४.आथर्वण (अर्थात् कर्मकाण्डी) उपनिषद्
अन्य अवांतर कालीन उपनिषदों की गणना इस श्रेणी में की जाती है। उपनिषदों की भौगोलिक स्थिति मध्यप्रदेश के कुरुपांचाल से लेकर विदेह (मिथिला) तक फैली हुई है। उपनिषद् काल का आरम्भ बुद्ध से पर्याप्त पूर्व है। ‘ग्रेट एजेज आफ मैन’ के सम्पादक इसे लगभग ८०० ई.पू.बतलाते हैं।
१७ वी.सदी में दारा शिकोह ने अनेक उपनिषदों का फारसी में अनुवाद कराया। १९ वीं सदी में जर्मन तत्त्ववेता शोपेनहावर और मैक्समूलर ने इन ग्रन्थों में जो रुचि दिखलाकर इनके अनुवाद किए वह सर्वविदित हैं और माननीय हैं।
इतना सब जान लेने पर भी प्रश्न का उत्तर तो नहीं मिला-उपनिषद् क्या हैं ? उनमें कौन सा ऐसा तत्त्व छिपा है जो आज लगभग ३००० वर्ष से एक समान देदीप्यमान हो रहा है। इसी तत्त्व की ओर प्रत्येक उपनिषद् ने संकेत किया है।

उपनिषद् अध्ययन


हमारे आध्यात्मिक साहित्य का मूल स्रोत वेद हैं। यह चार भागों में विभाजित हैं: संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद्। उपनिषद् मुख्यत: ‘मूल तत्त्व’ निर्णायक हैं। जन साधारण की दृष्टि में यह एक शुष्क विषय है और इसकी ओर से उसकी रुचि दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है, आज के रंगीन युग में।
उपनिषद् काल में, आप जानते हैं गुरु शिष्य पास-पास बैठते थे। ज्ञान चर्चा के साथ-साथ ग्राम्य चर्चा भी चलती थी जैसा आप पीछे ‘शान्तिपाठ’ में पढ़ आए हैं। केवल ज्ञान चर्चा तो मनुष्य के जीवन वृक्ष को रूखा सूखा बना देती है। गुरु शिष्य के वाद-विवादों का समग्र संकलन एक तो सम्भव नहीं, दूसरे उसका पढ़ना मूलज्ञान की बात समझने में एक प्रकार से बाधक ही, सिद्ध होगा।
फिर भी, पाठकों के मनोरंजन के लिए हम यहाँ कुछ उदाहरण दे रहे हैं जिससे उन्हें विश्वास हो जाए कि ज्ञान चर्चा के साथ-साथ मिर्च मसाले वाली बातों का कितना महत्त्व हो सकता है, आज के वैज्ञानिक युग में:
(क)    आज जब हम वर्षा लाने के लिए यज्ञादि तो करते ही नहीं, पर यदि कोई इसकी बात भी करे तो उसे भी संदिग्ध दृष्टि से देखते हैं कि कैसी असंगत बातें करता है-कठोरपनिषद् में यमराज का नचिकेता को यह समझाना कि ऐसे यज्ञ के लिए किस-किस दिशा से कितनी-कितनी आहुतियाँ डालनी चाहिएँ।
(ख)    बृहदारण्यक- उपनिषद् में पति पत्नी सम्बन्धी सब प्रकार की बातें कही गई हैं, परिवार नियोजन तक की भी। आज के विद्वानों ने इन्हें अश्लील कह कर छोड़ दिया है। सो ठीक ही किया है। एक आरम्भिक उपदेश सुनिए-‘‘विवाह के अनन्तर यदि पत्नी पति को सहयोग न दे, तो उसे सुन्दर सुन्दर वस्तुएँ लाकर दे, यदि फिर भी....तो यष्टि से वा पाणि से उसकी खूब ताड़ना करे....इस उपदेश का पालन अथवा प्रचार यदि आज हम करें, तो अपनी ‘‘कौन विसात’’, किसी भी महापुरुष की धुनाई हो जाएगी।
(ग)    प्रश्नोपनिषद् में पहला प्रश्न जो ऋषि कबन्धी ने महर्षि पिप्पलाद से किया वह था:
‘‘भगवन् यह प्रजाएँ किससे उत्पन्न होती हैं ?’’

महर्षि ने संक्षेप में बतलाया कि जब प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा से प्रजापति ने तप किया तब एक जोड़ा उत्पन्न हुआ-प्राण और रयि का। वहीं से मिथुन सृष्टि का आरम्भ हुआ। आगे, सांसारिक मनुष्यों के लाभ के लिए पति-पत्नी के मेल जोल की विस्तार से चर्चा करते हैं। यहाँ तक कि उन दोनों को कब कब सहयोग करना चाहिए। आज के युग में ऐसी किसी शिक्षा की आवश्यकता हमें प्रतीत नहीं होती।
अत: हमने ऐसे सब प्रसंगों को भी छोड़ देने का निश्चय लिया है।

वैदिक ऋषियों में भी कवि हृदय था। वे कल्पना संजोते थे और उसे अलंकारिक भाषा में व्यक्त करते थे। संक्षिप्त सुन्दर कथाओं के माध्यम से। केनोपनिषद् में इन्द्र के पहुँचते ही ‘‘ब्रह्म’’ के लोप हो जाने में कितना भारी नाटकीय प्रभाव है, वैसा ही उमा के प्रकट होने में और कहना ‘‘वह बह्म था’’।
पाठक देख रहे हैं हमारा आध्यात्मिक साहित्य शुष्क ही शुष्क नहीं, रसमय भी है। आवश्यकता है उसे धीरे-धीरे दृढ़ विश्वास के साथ पढ़ने की।
उपनिषद् किस भाव और श्रद्धा से पढ़ना चाहिए इसका आपने ‘शान्तिपाठ’ में अध्ययन किया। अभी तक आपने दो उपनिषद्-‘कठ’ और ‘केन’ के विषय में पढ़ा है।
कठोपनिषद् में यमराज ने नचिकेता के प्रश्नों का उत्तर देते हुए उसे नित्य (तत्त्व) के बारे में समझाया, नित्य (तत्त्व) के अनेकानेक नाम लेकर:
प्रणव, ॐ (परम) पद, ब्रह्म, परब्रह्म, परमब्रह्म, विपश्चित्, आत्मा, परमात्मा, धातु, देव, महद्ब्रह्म विष्णु और फिर पुरुष। देही, हंस, अजन्मा, अन्तरात्मा, प्राण, काल, अमृत आदि भी उसी के नाम हैं।
यह एक ही तत्त्व सर्वत्र आच्छादित है और उसे ज्ञात कराने के लिए यमराज ने तर्क संगत आधार प्रदान किए हैं।
केनोपनिषद् में भी ऋषि ने कहा है कि देवताओं की शक्ति भी उसी नित्य (तत्त्व) ने प्रदान की है।

आगे तैत्तिरीयोपनिषद् के ऋषि अनेक वैदिक देवताओं का आह्वान करते हुए कहते हैं इन सभी देवताओं के (आत्मा स्वरूप) ब्रह्म को नमस्कार है, तुम ही प्रत्यक्ष ब्रह्म हो। मैं तुम्हें ही ब्रह्म कहूँगा। तुम ही प्रत्यक्ष ‘सत्य’ हो, मैं तुम्हें ‘सत्य’ अथवा ‘ऋत’कह कर पुकारूंगा।
और फिर वही ऋषि कहते हैं: वायुदेव तुम्हारे लिए नमस्कार है, तुम ही प्रत्यक्ष ब्रह्म हो, मैं तुम्हें ही ब्रह्म कहूँगा। मैं तुम्हें सत्य अथवा ऋत कहकर भी पुकारूँगा।
बृहदारण्यक उपनिषद् के ऋषि ने ब्रह्म की कल्पना ‘मृत्यु’ के रूप में की है। और ‘मृत्यु’ से कैसे पहले जड़जगत् उत्पन्न हुआ, जड़ के उत्पन्न होने के बाद कैसे चेतन उत्पन्न हुआ।
इस प्रकार उपनिषदों में जो ब्रह्म की कल्पना नाना रूपों में की गई है, उस पर मनन करने वाले सदा से भ्रमित रहे हैं। मनुष्य ही नहीं स्वयं देवता गण भी।
अत:आप उपनिषदों का अध्ययन करते समय इस बात का सदा ध्यान रखें कि चाहे जो भी नाम लिया जाए वह नित्य (तत्त्व) का ही द्योतक है-दोनों अभिन्न हैं। जब ऋषि ‘प्राण’ या ‘मृत्यु’ को ब्रह्म कह कर पुकारते हैं तो वे सब ‘प्रणव’ के ही पर्याप्य मानना चाहिए। परन्तु कल्पना नाम के अनुरूप अवश्य होती है, जैसे बृहदारण्यकोपनिषद् में अश्व की उपमा देकर सृष्टि का वर्णन किया है।
अध्याय के अन्त में हम शिव पुराण से एक छोटी सी कथा दे रहे हैं जिससे नित्य (तत्त्व) के अनेकानेक नामों का ठीक ठीक तात्पर्य और महत्त्व हमारे पाठक भली प्रकार समझ लें-
वामदेव बोले-
हे ज्ञान शक्ति के धर्ता स्वामिन् ! आप संसार चक्र का निवर्तक अद्वैत ज्ञान मुझे बतलाने की कृपा कीजिए।

स्कन्द जी ने कहा-
हे मुने ! जब मैं अभी दूध पीता बालक ही था तब यह तत्त्व ज्ञान भगवान् शंकर ने भगवती पार्वती को समझाया था। जिस प्रकार बिना चेतन कुम्हार के अचेतन घट नहीं बन सकता, उसी प्रकार चेतन परमात्मा के बिना प्रकृति के अचेतन कार्य नहीं हो सकते। देह में जीवरूप चेतन के बिना जड़देह की अचेतन इन्द्रियों में काम करने की शक्ति नहीं आ सकती।
उपर्युक्त महावाक्यों में प्रयुक्त चेतन शब्द प्राण अर्थात् परब्रह्म का बोधक है, और इस रूप में प्रणव का पर्याय है।
अत: नित्य (तत्त्व) के बिना प्रकृति का कोई कार्य नहीं हो सकता, नाम चाहे जो भी दिया जाए। देह जड़ है उसमें इन्द्रियों द्वारा कार्य करने की शक्ति नहीं आ सकती जब तक नित्य (तत्त्व) उनके लिए शक्ति प्रदान नहीं करता।
यही समस्त उपनिषदों का सारभूत उपदेश है। जिसे ऋषियों ने अनेक प्रकार से गाया है विविध छन्दों द्वारा, भिन्न भिन्न रीति से और ब्रह्म सूत्र के पदों में भी जो तर्क संगत हैं, और निर्णायक भी। (श्रीमद्भगवत् गीता अध्याय 13 श्लोक 4)

ईशावास्योपनिषद्


यह उपनिषद् अन्य उपनिषदों की पंक्ति से कुछ हटकर है। इसी कारण हमने इसे, जैसी परिपाटी है, सर्वप्रथम न लेते हुए, अन्त में लिया है इस उपनिषद् की विशेषता का पता महात्मा गाँधी के इस कथन से भी लगता है-यदि कभी हमारे सब धर्मग्रन्थ अनायास लुप्त हो जाएँ पर ईशावास्योपनिषद् का प्रथम मंत्र ही बचा रहे तो भी हिन्दु धर्म शाश्वत जीवित बना रहेगा।
यह उपनिषद् शुक्ल यजुर्वेद संहिता का चालीसवाँ अध्याय है, और ज्ञान काण्ड की विवेचना करता है। प्रथम उनतालीस अध्यायों में कर्मकाण्ड का विचार हुआ है। इस उपनिषद् के प्रथम मन्त्र में ईशावास्यम् शब्द आने से इसका नाम ईशावास्योपनिषद् पड़ गया है, जैसे केन शब्द पहले आने से केनोपनिषद् का। मनुष्य के आध्यात्मिक और सांसारिक प्रयास का जैसा अलौकिक समन्वय इस उपनिषद् में है, श्रीमद्भगवद्गीता में मानों उसी का अनुसरण है, विस्तार से। यह बात उपनिषद् के प्रथम मंत्र से ही स्पष्ट हो जाती है।
(क)    निष्काम कर्म करने का आदेश (मन्त्र 1 से 3)
(1)    यह जो कुछ भी अखिल ब्रह्माण्ड में जड़ चेतन है सब ईश्वर से व्याप्त है। तू इस का भोग कर-त्याग से।1 लोभ मत कर। यह धन (भोग-पदार्थ) किसका है ? (सब तो ईश्वर से व्याप्त है, सब उसी का है। तू ललचा मत। इसमें आसक्त  न हो)
(2)    जगत् में (अपने) कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करनी चाहिए। इस प्रकार (त्याग भाव) से किए जाने वाले कर्म मनुष्य में लिप्त नहीं होते (उसे बाँधते नहीं)। इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है-(कर्म् बन्धन से मुक्त होने का)2।
(3)    (अब ऋषि उन मनुष्यों की गति का वर्णन करते हैं जो त्याग भाव से कर्म नहीं करते, अपन् अहं को ही सर्वप्रथम स्थान दिए रहते हैं) ऋषि कहते हैं ऐसे मनुष्य असुर हैं, आत्मघाती हैं।

असुर जनों के अपने लोक हैं। सभी घोर अन्धकार से आच्छादित हैं। ये आत्मघाती लोग मर कर उन्हीं (अन्धकारमय लोकों) को प्राप्त होते हैं।
(ख)    ब्रह्म के विषय में (मंत्र 4 से 8)
(4)    मंत्र चार में ऋषि बतलाते हैं वह (ब्रह्म) कैसा है ? वह एक ही है, अचल पर, मन से भी अधिक तीव्र गति वाला है। सबका आदि है। उसे देवता भी नहीं जानते।3
वह स्वयं स्थित रहता हुआ भी अन्य सब दौड़ने वालों के आगे निकल जाता है (उसका वास सब कहीं होने से) उसकी शक्ति से वायु आदि देवता अपना कार्य सम्पन्न करते हैं (और मनुष्य भी)।
(5)    वह चलता है, वह नहीं भी चलता। दूर से भी दूर है और अत्यन्त समीप भी। वह इस समस्त जगत् के भीतर है और बाहर भी।
(6)    जो सब भूतों में परमात्मा को देखता है और सब भूतों को परमात्मा में देखता हैं वह इसके (ऐसा देखने समझने के) पश्चात् किसी से घृणा नहीं करता।4

(7)    जो जानता है कि समस्त भूतों में एक ही (परम्) आत्मा है उसके लिए कौन सा मोह रह जाता है और कौन सा शोक ? उसके लिए जो सब में एकत्व को देखता है। (वह शोक-मोह से रहित हुआ मुझमें रहता है)। (गीता 6.31: देखें फुटनोट 4)
(8)    वह (ब्रह्म) कैसा है ? अब उसके रूप की ऋषि कल्पना करते हैं। वह सर्वव्यापी है। तेजोमय है। अमूर्त है। अभेद्य है। शिराओं से रहित है। वह शुद्ध है। पवित्र है पाप रहित। वह कवि है-सर्वद्रष्टा। सर्वव्यापी। सर्वज्ञानी स्वयंभू। उसने अनादि काल में सम्पूर्ण पदार्थों (पाँचों महाभूतों) की यथायोग्य रचना की है।
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1.समस्त कर्मों के फल के त्याग को बुद्धिमान लोग त्याग कहते हैं। (गीता 18.2 गीता प्रकाश पृष्ठ 368)
2.कितने संक्षेप में उपनिषद्कार ने गीता-उपदेश का सार बतला दिया है।
3.न देवता लोग जानते हैं मेरी उत्पत्ति को, न महर्षिगण। वास्तव में मैं देवताओं का आदि-आरम्भ हूँ; सब प्रकार से (गीता 10.2 गीता प्रकाश पृष्ठ 228)
4.जो अपने को सब चराचर में और सब चराचर को अपने में देखता है, जो हर कहीं मुझ को देखता है और, और सब को मुझ में देखता है। सारी सृष्टि में स्थित मुझ को जो भजता है, एकत्व में लीन हुआ; वह समदर्शी है, मैं उसके लिए कभी लुप्त नहीं होता, वह योगी है, कहीं भी रहते हुए, मुझ में रहता है। (गीता 6.29-31) गीता प्रकाश पृष्ठ 164-165)
(ग) विद्या और अविद्या के विषय में (मन्त्र 9 से11)
(9) जो मनुष्य (केवल) अविद्या5 की उपासना करते हैं वे घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं, और जो विद्या6 में ही रत रहते हैं वे उससे भी अधिक अंधकार में प्रवेश करते हैं।
ये विद्या में रत रहने वाले समझ लेते हैं उनके करने के लिए कुछ नहीं है यह मिथ्याभिमान है संसार में हैं और कर्म नहीं ? ऋषि कहते हैं वे कर्म काण्डियों से भी निकृष्ट हैं। कर्मकाण्डी अपना कर्त्तव्य कर्म तो करता जाता है, चाहे उसमें ज्ञान न हो।
(10) कहते हैं विद्या से एक फल मिलता है, अविद्या से दूसरा। धीर पुरुष के ये वचन हमने सुने हैं। इस विषय को उन्होंने भलीभाँति व्याख्या करके समझाया है।
(11) जो मनुष्य विद्या और अविद्या, दोनों के तत्त्वों को यथार्थत: जान लेता है वह अविद्या से मृत्यु को पार करके, विद्या से अमृत को प्राप्त कर लेता है, ब्रह्ममय हो जाता है।
विद्या और अविद्या के सम्बन्ध में ऋषि का कहना है कि ये दोनों अलग अलग अन्धकार की ओर ले जाने वाली हैं, परन्तु जो दोनों का एक साथ अनुष्ठान7 करता है, अपना कर्त्तव्य कर्म ज्ञान पूर्वक करता है, (त्याग भाव से), वह अमृत को प्राप्त कर लेता है।
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5.अविद्या = केवल कर्मकाण्ड।
6.विद्या = केवल ज्ञानकाण्ड, ज्ञान वाद।
7.किसी क्रिया का प्रारम्भ। शास्त्र विहित कर्म को नियमपूर्वक करना।
(घ) सम्भूति8 और असम्भूति9 के विषय में (मन्त्र 12-14)
ऊपर विद्या और अविद्या के विषय में जो कहा गया है, लगभग वही सम्भूति और असम्भूति के विषय में कह रहे हैं। ये तीन मन्त्र ऊपर कहे तीन (9-11) मन्त्रों की पुनरावृत्ति मात्र ही हैं। वही भाषा, वही भाव। (चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने अपनी लघु पुस्तिका ‘‘उपनिषद्’’ में इन को छोड़ दिया है)
(12) जो मनुष्य केवल असम्भूति10 की उपासना करते हैं वे घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं, और जो सम्भूति11 में ही रत रहते हैं वे उससे भी अधिक अन्धकार में प्रवेश करते हैं।
(13) कहते हैं असम्भूति से एक फल मिलता है, ‘सम्भूति’ से दूसरा। धीर पुरुषों के ये वचन हमने सुने हैं। इस विषय को उन्होंने भलीभाँति व्याख्या करके समझाया है।
(14) जो मनुष्य असम्भूति और सम्भूति दोनों को यथार्थत: जान लेता है वह विनाशशील प्रत्यक्ष जगत् (सम्भूति) से मृत्यु को पार करके अप्रत्यक्ष (असम्भूति) द्वारा अमृत प्राप्त कर लेता है, ब्रह्ममय हो जाता है।
सम्भूति को ऋषि ने विनाशशील कहा है। अर्थात् यह जो कुछ उत्पन्न हुआ है (प्रत्यक्ष जगत्) विनाशशील है। असम्भूति अप्रत्यक्ष है इसका ज्ञान होने से प्रयाण के पश्चात् अमृत की प्राप्ति होती है।
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का मत है कि मन्त्र 9 और 14 के अर्थ स्पष्ट नहीं है। हमने अपने अध्ययन से जैसा समझा दर्शाने का प्रयास किया है।
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8.एक साथ उत्पन्न हुआ। उत्पात्त। प्रत्यक्ष जगत्।
9. सम्भूति का विरूद्धार्थ। जो पैदा न हुआ हो। अप्रत्यक्ष।
10. जो अप्रत्यक्ष में ही रत रहते हैं, मानों इस प्रत्यक्ष जगत् में उनका कोई कर्त्तव्य ही नहीं।
11.वेद वाक्य में रत, पार्थ ! जो अज्ञानी इस भाँति की आलंकारिक बाते करते हैं कि (प्रत्यक्ष जगत् के अतिरिक्त) और कुछ नहीं है, उन के लिए स्वर्ग ही सर्वोच्च है। (गीता 2.42,43 गीता प्रकाश पृष्ठ 71)
(ङ) भगवत् दर्शन के विषय में (मन्त्र 15 से 18)
ईशावास्योपनिषद् के शान्तिपाठ (अध्याय चार) में आप ने पढ़ा कि जो ब्रह्माण्ड में व्याप्त है वही मनुष्य के भीतर भी है। इस विचार ने गुरु और शिष्य के व्यक्तित्व को उस नित्य (तत्त्व) के समानान्तर ला खड़ा किया। अत: वे उसके बराबर होकर बात करते हैं :
(15) हे सूर्य ! सत्य का मुख स्वर्णमय पात्र से ढका हुआ है। तू उसके आवरण को हटा दे जिससे मैं, जो सत्यधर्म का पालन करने वाला हूँ, उसे देख सकूँ।
(16) हे सूर्य ! तू सब का भरण-पोषण करने वाला है, तू एक अकेला ही है; तू यम है। सब का नियंत्रण करने वाला।
हे प्रजापति के पुत्र ! तू अपनी किरणों को एकत्र करले, अपने तेज को समेट ले जिससे मैं तेरे कल्याणमय (आंतरिक) स्वरूप को देख सकूँ।
जो तेरे भीतर पुरुष है, मैं (भी) वही हूँ।12
(17) (ऊपर मन्त्र 16 में कहे सूर्य के भीतर छुपे पुरुष के दर्शन के पश्चात्) मेरे प्राण वायु तत्त्व में लीन हो जाएँ। यह शरीर भस्म हो जाए। ॐ ! हे मन ! तू उस ब्रह्म का स्मरण कर, स्मरण कर अपने किए हुए कर्मों का, ब्रह्म का स्मरण कर, अपने किए कर्मों का स्मरण कर।13
(18) हे अग्नि ! आप हमारे कर्मों को भलीभाँति जानते हैं। हमें सुखशान्ति की ओर ले चलो। सुन्दर शुभ मार्ग से। इस मार्ग में जो पाप इत्यादि प्रतिबन्धक हों, उन्हें दूर कर दीजिए।14
आपको बार बार नमस्कार है। बार बार नमस्कार है।
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12.देखिए यहाँ गुरु शिष्य के विचारों ने उनको कितना ऊपर उठा दिया है, स्वयं ही ब्रह्म हो गए हैं।
13.हमें यहाँ दार्शनिक डा.इकबाल की इन पंक्तियों का बरबस स्मरण हो आता है:
खुदी को कर बुलन्द इतना कि हर तकदीर से पहले।
खुदा बन्दे से खुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है।।
कबीर तो और दो हाथ आगे बढ़ गये हैं :
मन ऐसो निर्मल भयो जैसे गंगा नीर।
पीछे पीछे हरि फिरें कहत कबीर कबीर।।
14.श्री हरि कृष्ण दास गोयन्दका ने इस मन्त्र के उत्तरार्ध का अर्थ इस प्रकार किया हैं :
हे ॐ ! यज्ञमय भगवन् ! आप मुझ को स्मरण करें। मेरे द्वारा किए हुए कर्मों का स्मरण करें। आप मुझ भक्त का स्मरण करें कर्मों का स्मरण करें। (अन्तकाल में मैं आप की स्मृति में आ गया तो फिर निश्चय ही आप की सेवा में पहुँच जाऊँगा)
भक्त भगवान से कहता है कि तू मेरा स्मरण कर। मेरे किए कर्मों का स्मरण कर। वास्तव में, उपनिषद्काल का भक्त ऐसे ही आत्म विश्वास से बोलेगा, वह भक्तिकाल का भक्त नहीं है जो अपने को भगवान् के दासानुदास का दास कहने में भी लजाता है। परन्तु हमारा अर्थ कुछ कुछ वही है जो जगद्गुरु ने दिया है।







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