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कछुए

इंतजार हुसैन

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2748
आईएसबीएन :81-7119-594-6

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यथार्थवाद पर आधारित कहानियाँ....

Kachhue

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कछुए-यह इंतजार साहब का बहुचर्चित कहानी-संग्रह है जिसमें कछुए के अलावा दो और ऐसी कहानियों (पत्ते वापस) शामिल हैं जो भाषा, शिल्प और कथ्य गरज की हर पहलू से उन कहानी से अलग है जिसे हम प्रेमचन्द के जमाने से आज तक पढ़ते आए हैं। वह कहानी अपने यथार्थ वाद के जानी गई और समय-समय और समय के प्रयोग के तौर पर होने वाले थोड़े बहुत फेर बदल के साथ उसका जो यथार्थ के सम्भव प्रमाणिक चित्रण पर ही रहा। इस संग्रह की ये चार, और इसके बाहर की इसी ढंग की कई अन्य कहानियाँ यथार्थ के दृश्य वैभव से बाहर की कहानियाँ हैं, वे समय और स्थान की निर्धारित सीमाओं को लाँघकर हमें ज्यादा व्यापक अनुभव तक ले जाती है। इंतजार हुसैन खुद (अगर इनको किसी खाने में रखना ही हो तो) इन कहानियों को जातक कहानी लिखता हूँ। एक नई हैं या पुरानी, पता नहीं। इतना पता है सन् 36 की हकीकतनिगारी वाली कहानी से इनका कोई नाता नहीं हो सकता है कि जातक कहानी हकीकत के उस महूदूद तसब्बुर की नफी है पर हकीकतनिगारी की इमारत खड़ी है और उस इनसान दोस्ती की जो उस अफसाने की ताज समझी जाती है। जातक कहानी पड़ने के बाद सन 36 की इनसान दोस्ती मुझे फिरकापरस्ती नजर आती है। जातकों में आदमी कोई अलग फिरका नहीं है। सब जीव जन्तु एक बिरादरी है। (इसी संग्रह में शमिल नए अफसानानिगार के नाम से)
इनके अलावा बाकी की ज्यादातर कहानियों (किश्ती, दीवार रात ख्वाब और तकदीर)में भी यह जातक-तत्त्व भरपूर ढ़ंग से जाहिर है, हाँलाकि इनकी पृष्ठभूमि दूसरी है।
शेष कहानियों (कदामत पसंद लड़की, 31 मार्च शोर आदि) में भी यथार्थ और आधुनिक आग्रहो के अंकर्विरोध को रेखांकित करते हुए उनके हास्यास्पद बौनेपन को खामोश और बादल कुछ खेलती हुई सी कहानियाँ हैं जो अपने विषय के साथ, बिना कोई जटिल मुद्रा बनाए, एक बेहद समाज की मानवीय निस्मय के साथ पेश आती हैं।
निःसंदेह हुसैन की जानी-पहचानी चुटीली-चटकीली कहानी तो हर कहानी का हिस्सा है ही।

क़दामतपसंद लड़की


वह चुस्त क़मीज़ पहनती थी और अपने आपको क़दामतपसंद1 बताती थी। क्रिकेट खेलते-खेलते अज़ान की आवाज़ कान में पहुँच जाती तो दौड़ते-दौड़ते रुक जाती, सिर पर आँचल डाल लेती और उस वक़्त तक बाउलिंग नहीं करती जब तक अज़ान ख़त्म न हो जाती।

ये उस लड़की का ज़िक्र है जो महात्मा बुद्ध की पैरो2 थी और तीसों रोज़े रखती थी। पिक्चर का प्रोग्राम हो या क्रिकेट का मैच, रोज़ा उसका कभी कज़ा3 नहीं हुआ। गोले की आवाज़ पर वह पर्स से इलायची निकालती, रोज़ा अफ़तारती4 और फिर मसरूफ़ हो जाती, और इंटरकालेजिएट तक़रीरी मुक़ाबले5 में एक मर्तबा वह सिर्फ़ इस वजह से हार गई थी कि जब उसकी बारी आई तो मग़रिब की नमाज़6 का वक़्त हो चुका था। और, वह नमाज़ कज़ा नहीं कर सकती थी।
मगर वह फ़िरकापरस्त नहीं थी। वह महात्मा बुद्ध की पैरो थी और इनसानदोस्ती उसका मसलक7 था; यह अलग बात है कि उसने मोहसिन को जो स्वेटर अपने हाथ से बुनकर दिया था, उसका मतलब मोहसिन ने इनसानदोस्ती के सिवा कुछ जाना। यह स्वेटर पहनकर उसने जज़्बे की गरिमा महसूस की और एक क़दम आगे बढ़ा दिया। मगर उसे फ़ौरन पीछे हटना पड़ा। मोहसिन ने मआज़रत8 की और साजिदा नियाज़ ने जवाब दिया।

‘‘मैं महात्मा बुद्ध की पैरो हूँ और माफ़ कर दिया करती हूँ।’’
इस जवाब से मोहसिन को बहुत ढारस हुई। वह खुद भी तलवार से इस्लाम फैलाने का क़ायल नहीं था। उसने अमनो-आस्ती9 की फ़िज़ा में अपने जज़्बे की खामोश तब्लीग़10 का तसव्वुर किया और मुत्मइन11 हो गया। जज़्बे की ख़ामोश पुरअग्म तब्लीग़ से उसने चंद दिनों में ज़मीन को हमवार पाया और तजवीज़ पेश की कि ‘‘चलो, पिक्चर देखें।’’
उसने ग़ौर से देखा और संजीदगी से बोली, ‘‘देखिए, मैं बहुत क़दामतपसंद हूँ।’’
मोहसिन को एक दफ़ा फिर मआज़रत करनी पड़ी और चूँकि वह महात्मा बुद्ध की पैरो थी, उसने इसे माफ़ कर दिया।
1. पुरातनपंथी 2. अनुयायी 3. छूट, नाग़ा 4. तोड़ती, खोलती 5. वाद-विवाद प्रतियोगिता 6. शाम की नमाज़ 7. सरोकार 8. खेद व्यक्त करना 9. शांति वह मित्रता 10. संतुष्ट।

चंद दिनों में इसने खोया हुआ एतिमाद1 फिर पा लिया और एक रोज़ जब वो मिले तो मौसम बहुत खुशगवार था। इसने मौसम को इशारा-ए-ग़ैबी2 जाना और तजवीज़ पेश की कि, ‘‘दरिया पर चलें !’’
वह फिर संजीदा हो गई और बोली, ‘‘देखिए, मैं बहुत क़दामतपसंद हूँ और मर्दों के साथ बोटिंग नहीं किया करती।’’
मोहसिन ने जब यह मुक़दमा अशरफ़ के सामने पेश किया तो वह बहुत हँसा, ‘‘लड़की और क़दामतपसंद ?’’
‘‘हाँ यार, वो बहुत क़दामतपसंद है।’’
अशरफ़ हँसते-हँसते रुका और संजीदगी से बोला, ‘‘अहमक़, लड़की कभी क़दामतपसंद नहीं होती।’’
‘‘क्या मतलब ?’’

‘‘मतलब ये है कि लड़की तवारीख़3 में कभी क़दामतपसंद नहीं हुई। क़दामतपसंद सिर्फ़ दो चीज़ें होती हैं—बूढ़ी औरत और नौख़ेज4 लड़का। तीसरी कोई मख़्लूक़5 क़दामतपसंद नहीं होती।’’
मोहसिन ने अशरफ़ के नुक़्त-ए-नज़र से इत्तेफाक नहीं किया। अशरफ़ का इन मुआमलात में नुक़्तःए-नज़र इतना मुख़्तलिफ़ था कि मोहसिन को उससे कभी इत्तेफ़ाक़ नहीं हो सका। अशरफ़ रोमांटिक होने के सख़्त खिलाफ़ था। यहाँ तक कि जब अतिया ने नींद की गोलियाँ खाकर ख़ुदक़ुशी का तहैया6 किया, उस वक़्त भी वह रोमांटिक नहीं हुआ। और अतिया ने आँखों में आँसू भरकर कहा, ‘‘मैंने तो नींद की गोलियाँ खाईं और बच गई, मगर तुम एक दिन शाही मस्जिद के मीनार से कूदकर ख़ुदकुशी करोगे।’’

अशरफ़ ने निहायत सादगी से जवाब दिया, ‘‘नहीं, मैं शाही मस्जिद के मीनार पर चढ़ा हूँ। ख़ुदकुशी के लिए वह निहायत नामुनासिब मुक़ाम है।’’
मगर ऐसा भी नहीं कि अशरफ़ को ख़ुदकुशी का ख़याल कभी आया ही न हो। अतिया के खातिर ख़ुदकुशी करने के लिए वह सचमुच तैयार हो गया था। कई दिन वह इस खयाल से बावाल बना फिरता रहा। मगर वह बे-सोचे-समझे क़दम उठाने का क़ायल नहीं था। उसने मुतानत7 से अपने इस जज़्बे पर गौर किया और फिर उसका ज़िक्र सैयद हसन से किया। सैयद निहायत सिक़ह8 और समझदार आदमी थे और आजादी-ए-इज़हार के सख़्त हामी। उन्हें यह बात मालूम थी कि ख़ुदकुशी भी इज़हारे-ज़ात की एक सूरत है। बस उन्होंने इसमें बराहे-रास्त9 मुख़िल10 अपने उसूल के ख़िलाफ़ जाना, अलबत्ता इतना कहा, ‘‘डॉक्टर असग़र से मशविरा किया ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘क्यों ?’’
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1.विश्वास 2. ईश्वरीय संकेत 3. इतिहास 4. किशोर 5. प्राणी 6.निश्चय 7. समझदारी 8. विश्वस्त 9. बाक़ायदा 10.संलग्न।

ये बात अशरफ़ के दिल को बहुत लगी। वो फ़ौरन डॉ. असग़र के पास गया। जब वह वहाँ से वापस आया, उसका इरादा बदल चुका था—‘‘बात ये है,’’ उसने निहायत मतानत से कहा, ‘‘मैंने अपनी उलझन को समझ लिया है। मैं असल में इडीपस काम्पलेक्स का शिकार हूँ। मेरी वालिद महरूम का रंग साँवला था और अतिया की रंगत भी साँवली है।’’

यूँ इसके बाद भी अशरफ़ साँवली लड़कियों के पीछे दीवाना होता रहा मगर इस नफ़्सियाती बसीरत1 के साथ कि वह इडीपस काम्पलेक्स का शिकार है और इसलिए ख़ुदकुशी के खयाल ने उसे फिर कभी नहीं घेरा।

सैयद हसन किसी काम्पलेक्स के शिकार नहीं थे। उनमें सक़ाफ़त2 और दानिश्वरी3 इस दरज़ा फ़रावाँ4 थी कि वह किसी काम्पलेक्स में मुब्तिला हो ही नहीं सकते थे। अलबत्ता वो लंदन के नोस्टेल्जिया के मुब्तिला थे। शाम को वो रोज़ ब्रिटिश काउंसिल महज़ इस वजह से जाते थे कि वो गोशा5 उन्हें लंदन का गोशा लगता था। लाहौर से बेज़ार थे, कहते थे कि, ‘‘यहाँ आकर दुनिया से कट गया हूँ। लंदन के अख़बार यहाँ हफ़्ता-भर बाद पहुँचते हैं।’’

जब वो लीडर्ज़ प्रोग्राम में अमरीका गए थे तो वहाँ से सिर्फ रेफ़्रीजरेटर और एक बुद्ध की मूर्ति लाए थे। कार उन्होंने बहुत बाद में ख़रीदी थी और फिर कार होने के बावजूद वह हफ़्ते में एक दिन बस में सफ़र ज़रूर करते ताकि अवाम से उनका6 राबिता क़ायम रहे और वो तबक़ाती अलहद-पसंदी7 का शिकार नहीं हो जाएँ। वो खद्दर का कुरता पहनते थे और शहर के फाइव स्टार में बैठते थे और अपने अंग्रेज़ी फूलों की क्यारी में उन्होंने मोतिया की क़लम भी लगाई थी ताकि देसी कल्चर फ़रामोश8 न हो जाए। सादिक़ा जैनुल-आबिदीन ने इन फूलों के बारे में यह सवाल उठाया कि इनमें महक तो है ही नहीं। मगर जब सैयद हसन ने उसे समझाया कि, ‘‘खुशबू और महक का मुतालबा9 ख़ाम जमालियाती मज़ाक़10 का मुतालबा है,’’ तो वह अपने ऐतराज़ पर खुद ही शर्मिन्दा हो गई। फिर उसने ख़ुशबूदार देसी फूलों को भूलकर सैयद हसन के अंग्रेज़ी फूलों को इस तरह पसंद करना शुरू किया जैसे नए-नए तहज़ीबयाफ़्ता11 हल्के-फुल्के गानों से तर्क़े-तआल्लुक12 करके क्लासिक मौसिक़ी13 से इश्क़ करते हैं।

सादिका जैनुल-आबिदीन ने आद्रे हेबर्न की तर्ज पर अपनी जुल्फ़ें तरशवाई थीं। आशुरा14 के दिन वो इन ज़ुल्फों में कंघी नहीं करती थी और काला लिबास पहनती थी। काले लिबास पर दोस्तों ने उँगलियाँ उठाईं तो सैयद रक़ीक़ुलक़ल्ब15 हो गए और बोले, ‘‘मुहर्रम में काली क़मीज़ पहनना मज़हब नहीं है, कल्चर है।’’
इस पर सब चुप हो गये क्योंकि कलचर के तो सब ही क़ायल थे। और, जब सैयद
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1.मनोवैज्ञानिक धारणा 2. संस्कृति 3. विद्वता 4. सक्रिय 5. कोना 6. संबंध 7. अलगाववाद 8. विस्मृत 9. माँग 10. अपरिपक्व सौंदर्यबोध 11. सभ्य 12. संबंध-विच्छेद 13. संगीत 14. मुहर्रम की दसवीं तारीख 15. भावुक।

हसन ने अपने घर मजलिस मुनक़्क़द1 की तो उसमें सब शरीक हुए। सादिक़ा जैनुल-आबिदीन ने इस रोज़ न बालों में तेल डाला था, न कंघी की थी। मलगज़ी स्याह कमीज़ के पहलू वाले टच–बटन सब खुले हुए थे। सैयद हसन का दिल इस दिन यूँ भी गुदाज़2 हो जाता था। यह देखकर वह और भी बेचैन रहे। और, उसने सैयद हसन के घर पहुँचकर महात्मा बुद्ध की मूर्ति पर अपना रुमाल डाल दिया और दीवार में आवेज़ाँ3 न्यूड को उल्टा कर दिया। फिर उसने नज्मुल हसन की बनाई हुई तजरीदी4 तसवीर जुलजिनाह5 को कारनिस पर सजाया और बड़ी अक़ीदत6 के साथ अगरबत्तियाँ सुलगाईं। सैयद हसन ने अपनी अंग्रेजी फूलों की क्यारी से फूल लाकर हार गूँधा और नज्मुल हसन की पेंटिंग पर डाल दिया। फिर सादिक़ा जैनुल-आबिदीन का बाजू बनकर सोज़7 पढ़ा। सैयद हसन सोज़ पढ़कर हटे और बोले, ‘‘जुलजिनाह और अलम8 सलीब से बड़े सिंबल हैं। पता नहीं हमारे पेंटर इनसे क्यों मुतआस्सिर नहीं हुए ?’’ अशरफ़ ने जो पिछले एक साल से मुस्तकिल मुसलमानों के मिथ का मुतलाशी9 था, यह सुना और मुतअस्सिर हुआ और कमीज़ उतारकर मातम किया। उसने ऐलान किया था कि अगले बरस वह भी काली कमीज़ पहनेगा। मगर चूँकि चंद ही माह बाद मार्कीट में एक नई किताब आ गई और अशरफ़ को जुग से चंद दर चंद इख़्तिलाफ़ात हो गए, इसलिए ये इरादा पूरा न हो सका। मगर मोहसिन के तरीक़े में एक एतिदाल10 था। ख़ुदा के वजूद से इनकार तो उसने मैट्रिक में फर्स्ट डिवीज़न लेते ही कर दिया था और अब तो ख़ैर वो एम. ए. था, मगर इस्लाम का वो एक सोशल मूवमेंट के तौर पर हमेशा क़ायल रहा। समाजी इस्लाहात11 के इस प्रोग्राम को समाज के दुश्मनों से बचाने के लिए इमाम हुसैन ने जो क़ुरबानी दी, उसे वो मानता था। अलबत्ता मुहर्रम में वह रिफार्म का तालिब12 था ताहम13 सैयद हसन के घर की मजलिस में बैठने और रो लेने में उसे मुज़ायक़ा14 नज़र नहीं आया।

साजिदा नियाज़ को मोहसिन के गिरयः15 पर कोई ऐतराज़ नहीं हुआ। उसने बेतआल्लुक़ी16 के अंदाज़ में कहा, ‘‘कोई राफ़्जी हो या मिरज़ाई17, इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है। मैं तो महात्मा बुद्ध की पैरो हूँ।’’

ये संजीदा क़िस्म की बेतआल्लुक़ी उसका दूसरा मख़्सूस18 वस्फ़19 थी और नाजुक से नाज़ुक मौक़े पर बरकरार रहती थी। जब उसने ‘लेडी चैटरली’ज़ लवर’ का सालिम20 एडीशन ख़त्म किया और क़िरदारों के रवैये पर मोहसिन से तबादला-ए-ख़याल शुरू किया तो मोहसिन को एक मर्तबा फिर ज़मीन हमवार नज़र आई और उसने बहस की गर्मी-गर्मी में उसका हाथ थाम लिया। साजिदा नियाज़ बोलते-बोलते रुकी, मुकम्मल बेतआल्लुक़ी से अपने हाथ को मोहसिन के हाथों में देखा और संजीदगी से बोली, ‘‘आपको यह मालूम है कि मैं एक क़दामतपसंद लड़की हूँ ?’ इस पर मोहसिन के हाथों की गिरफ़्त

1. आयोजित 2. हरा-भरा 3. लगाए हुए 4. नग्न 6. इमाम हुसैन का घोड़ा 6. श्रद्धा 7. मुहर्रम में पढ़ी जानेवाली नज़्म 8. झण्डा 9. खोज करनेवाला 10. संतुलन 11. सुधार 12. इच्छुक 13. तो भी 14. आपत्ति 15. रुदन 16. निस्संगता 17. मुसलमानों के संप्रदाय 18. खास 19. गुण 20. संपूर्ण।

आप ही आप ढीली पड़ गई और साजिदा नियाज़ ने निहायत मुतानत से अपना हाथ खींच लिया। साजिदा नियाज़ मोहसिन ही को नहीं, अपनी बहन ज़ाहिदा को भी गैरसंजीदा जानती थी और ज़ाहिरा वाक़ई गैरसंजीदा थी। उसके कमरे में बग़ैर दस्तक दिए घुस आती और अगर वह सोती होती लाहाफ़ उठाकर अलग फेंक देती। इसी लडंगेपन में वह आला तालीम से महरूम रह गई थी। घर के कमरों से लेकर अक़ब के बगीचे तक कुलाँचें लगाती फिरती थी। जब अफ़ू गर्मियों की छुट्टियाँ ख़ाला के घर गुज़ारने आया तो साजिदा नियाज़ ने उसे मुतलक़1 मुँह नहीं लगाया। मुँह क्या लगाती, फर्स्ट इयर का तो वह तालिबे-इल्म था। मगर ज़ाहिदा एक दिन के अन्दर-अन्दर उससे घुल-मिल गई। ख़ैर, पहला दिन तो कच्ची अमियाँ तोड़ते ही गुजर गया और दोनों इससे ऐसे ग़र्क़ हुए कि उन्हें एक-दूसरे के वजूद का अहसास तक नहीं हुआ। दूसरे दिन जब उन्हें एक दूसरे के वजूद का अहसास हुआ तो भी अजीब तरह से। न उन्होंने रोमांटिक बातें की थीं, न एक-दूसरे के हाथ थामा था, न आइडियलिज़्म बघारी थी। हुआ यूँ कि जब वो अमियाँ तोड़कर दरख़्त से जाहिदा का सहारा लेकर उतर रहा था तो उसकी साँस तेज और गर्म हो गई। और गर्मी उस वक़्त बहुत थी। उस तपती दोपहरी में दरख़्तों के दरमियान घूमते-घूमते उनके जिस्म भीगने लगे थे। जाहिदा के गोरे गाल गर्म होकर सुर्ख़ हो गए थे और कमीज़ पसीने से भीगकर बेबनियाइन वाली भरी पुश्त पर चिपकने लगी थी और उसके शानों के सहारे दरख़्त से नीचे उतरते-उतरते अफ़ू की साँस तेज हो गई और बाँहे उस भीगी कमर के इर्द-गिर्द लिपटतीं चली गईं और जैसे गर्म दोपहरी में दाना चुगते-चुगते एकाएकी मुर्गा़ फूलने लगता है और मुर्गी बैठने लगती है और फिर दोनों गुत्थम-गुत्था हो जाते हैं, बस इसी तरह खड़ी दोपहरी में एक अँधेरे ने उन्हें आनन-फ़ानन आ लिया।

जब अँधेरा छट गया तो उन्होंने अपने आपको बहुत हल्का और बहुत पाक़ीज़ा2 महसूस किया। बस, उन्हें यूँ लगा कि कच्ची अमियाँ खाते-खाते उन्होंने कोई मीठा, रस भरा आम चूस लिया है।

मगर साजिदा नियाज़ को आम और अमियों से नफ़ूर3 था। रेफ़्रिजरेटर में लगे हुए सरदे को निकालकर चीनी की सफेद प्लेट में बड़े सलीक़े से उसकी दो फाँके तराशती, फाँकों को क़लता-क़लता करती और एक मुतानतआमेज़ बेतआल्लुक़ी से उन्हें काँटे से तनाउल4 करती। मज़हबी अक़ीदे से लेकर सरदे क़ाश5 तक उसने ये मुतानतआमेज़ बेतआल्लुक़ी बरक़रार रखी थी। मगर मोहसिन और उसके दरमियान फिर भी लड़ाई होकर रही। हुआ यूँ कि एल्विस प्रीस्ले का मस्ला दरमियान में आ गया। मोहसिन उसे दीगर कहता था। बात बढ़ गई और साजिदा नियाज़ ने ऐलान कर दिया कि, ‘‘मेरे और आपके दरमियान नज़रियाती इख़्तिलाफ़ 6 पैदा हो चुका है।’’

1. क़तई 2. पवित्र 3. नफ़रत 4. खाना 5. फाँक 6. वैचारिक मतभेद
मोहसिन ने जब ये तश्वीशनाक़1 इत्तिला अशरफ़ को दी तो उसने उसे झटक दिया, ‘‘फ़िजूल बातें मत करो। औरत औऱ मर्द के दरमियान नज़रियात का इख़्तिलाफ कभी पैदा नहीं होता।’’
‘‘मगर वो हो गया है।’’
‘‘हो गया है तो या तुम मर्द नहीं हो या वो औरत नहीं।’’

अशरफ़ का नज़रिया ये था कि नज़रियात आदमी की हिमाक़त हैं। औरत के नज़रियात नहीं होते, अहसासात2 होते हैं। मगर साजिदा नियाज़ को यह अहसास था कि वो नज़रियात रखती है। उसके इस अहसान में मोहसिन ने क्या कुछ नहीं सोचा—कि वो ख़ुदकुशी कर ले, वो कपड़े फाड़कर जंगल में निकल जाए और साधु बन जाए।
सैयद हसन ने इनमें से किसी तजवीज़ पर साद4 नहीं किया। उनका ख़याल था कि ये सब इज़हारे-ज़ात के रिवायती साँचे हैं। ‘‘और इश्क़,’’ उन्होंने अपने दानिश्वराना लहजे में कहा, ‘‘कोई तख़रीबी5 ताक़त नहीं है।
‘‘और जो आशिक सहराओ में नहीं गए और तेशे से सिर फाड़कर मर गए, उनके मुतआल्लिक़ क्या इरशाद है ?’’ मोहसिन ने जलकर सवाल किया।
‘‘वह इश्क़ नहीं था, मरीज़ाना दाख़्लीयतपसंदी6 थी।’’ सैयद हसन ने वुसूक़7 से कहा।

मोहसिन, कि अक़ीदतपसंद था, इस इस्तेदलाल8 का क़ायल हो गया। उसने जीने का हौसला पैदा किया और साजिदा नियाज़ को टेलीफोन कर डाला। साजिदा नियाज़ उस दिन रोज़े से थी। सहरी9 खाने के फ़ौरन बाद वह सितार लेकर बैठ गई थी। जब अज़ान हुई तो उसने वज़ू करके फ़रीज़ा-ए-सहरी10 अदा किया। फिर तिलावत11 करने बैठ गई। सुबह हुए पर उसने क़ुरआन जुज्वान12 में बंद किया, रेडियो ऑन किया और जालंधर से भजन सुनने लगी। इतने में मोहसिन का टेलीफोन आया। उसने निहायत बेतआल्लुक़ी से मोहसिन की बात सुनी और बड़ी शाइस्तगी से जवाब दिया—
‘‘मोहसिन साहब, माफ़ कीजिए, मेरे और आपके दरमियान नज़रियात का फ़र्क है। मैं अपने आपको आपसे बहुत दूर महसूस करती हूँ। इसलिए आने से माजूर13 हूँगी। शुक्रिया।’’ और वो टेलीफोन बंद करके जब बरामदे में आई तो सामने बाद में जाहिदा दुपट्टे से बेनियाज सलवार के पाँयचे चढ़ाए अमरूद के पेड़ पर चढ़ रही थी। अफ़ू ने उसकी दोनों टाँगे पकड़ी हुई थीं और उसे ऊपर चढ़ाने में सहारा दे रहा था। जाहिदा ने एक कच्चा अमरूद तोड़कर आधा खाया और आधा पलटकर अफ़ू से सिर पर खींच मारा। अफ़ू ने कचकचाकर उसकी नंगी पिंडली में काट लिया। रोज़ेदार साजिदा नियाज़ को इस बेहूदगी पर सख़्त गुस्सा आया। वह वापस अपने कमरे में चली गई। कुछ देर

1. अफ़सोसनाक़ 2. भावनाएँ 3. कष्ट 4. सही 5. विनाशकारी 6. विकृत हस्तक्षेप की प्रवृत्ति 7. दृढ़ता 8. तर्क़ 9. रोज़े में सुबह का खाना 10. सुबह की नमाज़ 11. क़ुरान का पाठ 12. किताब रखने का बस्ता 13. असमर्थ।

बेइत्मीनान-सी बैठी रही। समझ में न आया कि रोज़े का लंबा दिन कैसे काटा जाए। आख़िर उसने फिर सितार उठाया और रोज़े के वक़्त तक मश्क1 जारी रखने की ठानी।
मोहसिन ने जीने का हौसला उस टेलीफ़ोन के बाद भी नहीं हारा। उसने अब अपने इश्क़ को एक तरबीयती2 कोर्स तसव्वुर कर लिया था और अपने हिज्र3 को एक तख़्लीक़ी4 तज़िबा5 समझकर मुत्मइन था। मगर बार-बार उस पर दौरा-सा पड़ता। साजिदा उसे बेतरह याद आती और फिर उसे यूँ लगता कि उसका इश्क़ तामीरी ताक़त6 बनने की बजाय मायल-ब-तख़रीब7 है और वह बीमार क़िस्म की दाख़्लीयतपसंदी का शिकार हो रहा है।
अशरफ़ ने उसकी आँखों में आँखें डालीं और सीधा सवाल किय़ा—
‘‘तुमने उसे....’’
मगर मोहसिन इस सवाल पर इतना सिटपिटाया कि अशरफ़ का फ़िकरा पूरा नहीं होने दिया और जवाब दिया—
‘‘नहीं, नहीं।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘बस, नहीं।’’
‘‘अहमक़,’’ अशरफ़ ने तहक़ीरआमेज़8 लहजे में कहा, ‘‘वो महात्मा बुद्ध की पैरो है, माफ़ कर देती। महात्मा बुद्ध की पैरो होने का मतलब इसके सिवा कुछ नहीं होता।’’
मोहसिन ने दुख-भरी नज़रों से उसे देखा और चुप रहा। फिर वह सोच में डूब गया। फिर उसने ठंडी साँस भरी और बोला, ‘‘खैर, अब तो वो गई।’’

‘‘गई ? कौन गई ? तू निरा गावदी है। दो चीज़ें आकर नहीं जाया करतीं : बुढ़ापा और औरत।’’
‘‘क्या मतलब ?’’
‘‘मतलब ये है कि फिर आएगी।
मोहसिन ने मायूसाना9 कंधे बिचकाए और चुप हो गया।
‘‘मैं सही कहता हूँ,’’ अशरफ़ ने फिर कहा, ‘‘तारीख़ और औरतें, ये दो ताक़तें हमेशा अपने आपको दोहराती हैं। जो औरत आ गई है वो नहीं जाएगी। मगर जानेवाली एक मर्तबा जरूर जाती है औऱ सोचने की मोहलत देती है और जाने वाली एक मर्तबा अदबदाकर पलटती है, तय बात है कि वो फिर आएगी।’’
और उसके बाद अशरफ़ रोज़ मिलने पर उससे पहला सवाल यही करता, ‘‘आई ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘इंतज़ार करो, आएगी।’’
‘‘और एक रोज़ मोहसिन ने इत्तिला दी, मगर मरी हुई आवाज़ में, ‘‘यार, वो आई थी।’’

1. अभ्यास 2. शैक्षणिक 3. जुदाई 4. रचनात्मक 5. प्रयोग 6. रचनात्मक शक्ति 7. विनाश पर आमादा 8. उपेक्षापूर्ण 9. निराशापूर्वक।

‘‘देखा मैं न कहता था, मान लो हमें उस्ताद।’’
मगर मोहसिन ने अशरफ़ के इस इफ़्तिख़ार1 को कोई अहमियत नहीं दी रुककर बोला, ‘‘ये स्वेटर जो मैं पहने हुए हूँ, ये मुझे साजिदा ने प्रज़ेंट किया था।’’
‘‘फिर ?’’ अशरफ़ ने भौंचक्का होकर पूछा।
‘‘फिर ये कि साजिदा आई। उसने कहा, ‘‘हम आप नज़रियाती तौर पर अलग हो चुके हैं, मेहरबानी फ़रमाकर हमारा स्वेटर हमें वापस कर दीजिए।’’
‘‘अच्छा ?’’ अशरफ़ हैरान रह गया, ‘‘फिर ?’’
मोहसिन, कि इश्क़ से ज़िंदा रहने के आदाब सीख रहा था, बोला, ‘‘फिर क्या ? मामला तो ख़त्म हो गया। मगर तुम जानते हो कि ये दिसम्बर का महीना है। जनवरी का महीना पूरा पड़ा है। मैंने साफ़ कह दिया कि सर्दियों-सर्दियों में ये स्वेटर वापस करने से माज़ूर हूँगा।’’
‘‘माक़ूल बात है, क्या कहा उसने ?’’
‘‘क्या कहती, वो महात्मा बुद्ध की पैरो है, फिर उसने माफ़ कर दिया। कह गई है—मैं आपके मसले को समझती हूँ, बहरहाल, मार्च के पहले हफ़्ते में स्वेटर मेरे पास पहुँच जाना चाहिए।’’
मोहसिन यह कहकर चुप हो गया, मगर फिर भी बेइत्मीनान-सा रहा। अशरफ़ ने उसे ग़ौर से देखा और कहा, ‘‘अब क्या मुश्किल है तुम्हें ?’’
‘‘यार, मैं सोचता हूँ, तुम सही ही कहते थे।’’ मोहसिन रुका और बोला, ‘‘मैं सोचता हूँ ख़ता मुझसे हुई, वो महात्मा बुद्ध की पैरो है, बहरहाल माफ़ कर देती।’’

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