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कहानी संग्रह >> सुरंग

सुरंग

संजय सहाय

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2741
आईएसबीएन :9789387462861

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प्रस्तुत है कहानी संग्रह....

Surang

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

गया की एक अनजान-सी रेलवे गुमटी से लेकर अमेरिका के एक ख्यातिप्राप्त मनोरंजक स्थल तक की पृष्ठ भूमि खुद में समेटे संजय सहाय का कथा-संसार किसी मानों पंख की तरह सतरंगा है जो ठोस यथार्थ से उपजी होने के बावजूद यथार्थ से बाहर झाँकने की हमारी आदिम इच्छा को संतुष्ट करती हैं। कहानी में ‘प्लॉट’ होना इस सदी के उत्तरार्द्ध में पिछड़ी और गुजरे जमाने की बात माना जाने लगा है। शायद यह इस भय के चलते हुआ है कि ‘प्लॉट’ की अंधी खोज यथार्थ को अक्सर अनदेखी कर देती है। संजय सहाय की ये कहानियाँ इस बात की गवाह हैं कि खोजने के लिए यथार्थ को अनदेखा करना कतई जरूरी नहीं है। यथार्थ के ऐसे-ऐसे बीहड़ नमूनों में से संजय ने प्लॉट खोजे या रचे हुए कि दाँतों तले उँगली दबानी पड़ती है।

संजय सहाय की कहानियों में मौजूद कौतूहल और उनकी पठनीयता ने उन्हें सिर्फ एक किस्साग़ों बनाकर छोड़ दिया हो, ऐसा भी नहीं है। आश्चर्यजनक तेजी से घट रही घटनाओं के जरिए कहानी बुनते हुए जब वे ‘क्लाइमेक्स’ की ओर बढ़ रहे होते हैं तब उनकी स्थित ‘रिगं’ के बाहर से तमाशा देखते दर्शक की नहीं होती। उनके रचनाकार में छिपा उनका विचारक घटनाक्रम के भीतर से उभर रहे मानव-नियति संबंधी प्रश्नों पर गहरी नजर रखता है। कहानी जब खत्म होती है तो आप उत्तेजित होकर रीत जाने के बोध से ग्रस्त नहीं होते, बल्कि वहाँ पहुँचते-पहुँचते आपका विचार-तत्व सक्रिय हो चुका होता है और कहानी से निकलने के बाद आप एक अधिक विचारवान व्यक्ति के रूप में रोजमर्रा की परिचित अपरिचित दुनिया में प्रवेश कर रहे होते हैं।

 

शेषांत

 

जब तक मालगाड़ी खुली नहीं, किसी मरे हुए भीमकाय जानवर-सी नजर आती थी।
हरकत में आते ही गाड़ी चरमराई-चर्र-मर्र-क्रींऽऽ-चेंऽऽ-कड़-कड़-जैसे भूतहा सिनेमा में मुर्दा कब्र में जागता है। खासकर जाड़े की रात हो और मालगाड़ी मानपुर जैसे वीरान स्टेशन से खुले तक तक निश्चय ही ऐसा महसूस किया जा सकता है। थोड़े सस्पेंस के बाद उसका दमाग्रस्त इंजन और सत्तर बूढ़े डिब्बे एक-दूसरे को लंगड़ी लगाते स्टेशन पार कर गए।
‘‘गाड़ी खुल गया।’’ आर.पी.एफ. का सब इंसपेक्टर बहुत दूर रेंगती बत्ती देखते अपने साथी से बोला।
‘‘खुल गया तो क्या करें ? साथी चिढ़कर बोला, ‘‘साला कोई दम नहीं है।....का बाबू साहब ?.....ई कहाँ लाकर पटक दिया है.... बेटी.....!’’

‘‘हर चीज का समय होता है, यादवजी।......देखिए, सब लाइन पर आ जाएगा।....पाँच साल पहिले भी थे न यहाँ पर, यहाँ के बारे में आपको आइडिया नहीं है.....हमसे पूछिए तो ई जगह लाख गुना अच्छा है।’’
‘‘घंटा अच्छा है !’’
‘‘आप महाराज धीरज छोड़ देते हैं। अभी डी. आर.एम. से लेकर जी.एम. तक सब लोग आँख गड़ा दिया है, अकबकाने से कोई फायदा नहीं होगा।’’
‘‘मुँह मराए साला सब। अपने तो ठाठ से हीटर चलाकर मेहरारू के गोदी में बैठा होगा......यहाँ मारे जाड़ा के हड्डी तक जम गया है। ........बेफालतू का गुलामी करिए, ऊ भी रूखा-सूखा !’’
‘‘ओ: हो, तो इसी जल्दबाजी में चल गया पिछला वाला सब। रखिए ! देखिए, छूटता है कि नहीं। हमकों तो एक पाई का उम्मीद नहीं है। अब यूनियन कुछ देर करे !’’
‘‘आपका चेला चार बार से घूम जा रहा है....बात काहे नहीं करते हैं ?.....कुछ हलका ही सही, सावधानी लेकर सुरू तो हो।’’

‘‘कौन ? मथुरा ! अरे बड़ा भाई हरामजादा है। धीरज रखिए। उपाय ऐसा होना चाहिए कि सब गोटी लाल पड़े.....देखते तो जाइए !’’
दोनों पटरी के किनारे रोड़ों पर चल दिए। उनके बूटों की टकराहट उनकी ढीठ सत्ता और उच्छृंखलता को बहुत देर तक गुंजाती रही.....खटक-खड़ाक खटक-खड़ाक.....
‘‘सब काम, आराम से, धीरे-धीरे करने का आदत डालो।’’ फोरमैन सीताराम नए मिस्त्री को समझाते हुए बोला।
‘‘हम ठहरे नया आदमी.....मनेजमेंट खड़े निकाल देगा।’’ रामप्रवेश बोला।
‘‘अरे बुड़बक !....फिटर को कोई नहीं निकालता है। थोड़ा और छोटा शहर रहता न बाबू तो मामूली वेल्डर भी मनेजमेंट के कपार पर चढ़कर मूत सकता था। ई कोई दिल्ली-कलकत्ता है कि जब चाहिए खट से नया मिस्त्री मिल जाएगा ?’’
‘‘जो भी कहिए, लेकिन कुछ तो काम का हिसाब देना पड़ेगा न।’’

‘‘हिसाब ! मिस्त्री से कौन हिसाब ले सकता है जी ? और सुनो, हम तो भाई, कोई नया काम छूते हैं, उस पर पहले ही मान टान लेते हैं। जब काम फँसा हो, चार दिन एबसेंट हो जाओ।....कह दो, जनानी बीमार है, पईसा के इंतजाम में लगे हैं, जब हो जाएगा तब ही आ पाएँगे काम पर। देखना, दो दिन में मनेजमेंट मदद के नाम पर पईसा भी देगी और मनेजर चार बार दौड़ेगा मनाने के लिए।’’ सीताराम दाँत दिखाते हुए बोला। ‘‘ड्यूटी में खाली टेप और कैलीपर लेकर नापी-जोखी किया करो।.....काम भूलकर भी मत छूना, नहीं तो ओ.टी. का सब मज़ा खतम।’’
‘‘मान गए आपको भी, उस्ताद !’’ रामप्रवेश श्रद्धा के साथ बोला।
‘‘अरे: चालू करो।’’ सीताराम ने हेल्पर को घुड़का।

‘‘टाँका मारो......पहले टाँका मारो। वेल्डिंग कम से कम तीन बार में टानना (खींचना) चाहिए। नापी तो आउट हो गया तब ? जल्दबाजी क्या है ?’’ सीताराम वेल्डर को हड़काते हुए बोला।
वेल्डर ने धुआँया शीशा आँख पर लगाया और वेल्डिंग राड़ को लोहे के अधूरे जंजाल में सटाया। दर्जनों फ्लैश-बत्तियों-सा प्रकाश अँधेरे को चीर गया।

‘‘देखो, साला कैसे सटा है ?’’ रामप्रवेश पचास गज दूर गुजराती मालगाड़ी देखते हुए चिल्लाया।
बेहयाई से शहर बनता कस्बा, और तीन-तीन विधानसभा क्षेत्रों पर धौंस जमाता हुआ कस्बा। और उसकी परिधि के एक टुकड़े पर पसरा यह कारखाना। और कारखाने के पिछवाड़े में रेलवे साइडिंग। और साइडिंग से सटे गुजरती थीं, ग्रैंड कार्ड लाइनें। बालुई नदी पर एक लंबा रेलवाई पुल और उससे लगा एक तीखा घुमाव, लगभग नब्बे डिग्री का, कारखाने को अपने छोर पर ही समेट लेता था। हर गाड़ी का धीरे हो जाना एक तकनीकी मजबूरी थी और वह घुमाव अपने से सटे उस छोटे, ऊबड़-खाबड़ कस्बाई हिस्से की अर्थव्यवस्था का एक छोटा मगर मजबूत हिस्सा था।.....हलका-फुलका फायदा तो सभी को होता रहता था। लेकिन मथुरा और उसके चेले, जब मिल-जमकर सक्रिय हो गए, यहाँ तक कि आर.पी.एफ. के जवान खुद ही माल पार करवाने लगे तो बात हद से गुजर गई। ऐसे भी भौगोलिक कारणों से यह जगह रेलवे की ‘थेफ्ट-प्रोन एरिया’ की लिस्ट में काफी ऊँचा स्थान रखती थी। सीनियर अफसरों की कोप दृष्टि पड़ ही गई, और आ.पी.एफ. की तीन वर्षों से बसी टीम रातोरात उजड़ गई। दो लोग सस्पेंड भी हो गए। काँछकर सोए थे और ट्रक पर माल लद रहा था।

बचे हुए लोगों का फौरन तबादला हो गया था और दूसरे स्थान से आर.पी.एफ. की टीम ने अपना चार्ज ले लिया था।.......नए-पुराने सारे लोग सकते में थे। मथुरा उस काम में नहीं था, सो उसका अदना-सा साम्राज्य किसी हद तक सुरक्षित तो था, मगर बेरोजगार हो गया था। आशा की एक किरण जगी थी। नई आर.पी.एफ. टीम का सब-इंसपेक्टर आर.डी. सिंह ! पाँच साल पहले इसी एरिया में था और मथुरा से खासा संबंध था उसका ! लेकिन जब मथुरा के बहुत प्रयास के बावजूद उसने बातचीत में कोई रुचि नहीं दिखाई तो मथुरा चकरा गया था।

‘‘बहनचो...फालतू में टाइम मत खराब कर’’ आर.डी. सिंह ने बस इतना ही कहा था। और उसके बाद तो मिलने से भी इनकार कर दिया था उसने।
चेलों में बेसब्री बढ़ रही थी।....चिंतित रहता था मथुरा।
‘‘धड़ाक...! ! !’’ सीताराम का कमेंट गोली के धमाके में दब गया।

गोली उसका कान छूते हुए निकली और सड़ते लोहे को छेदकर पार कर गई। वेल्डिंग की चौंध में वह अचक्के में धरा गया था। सोमर डिब्बे से और सट गया था। उसकी खाल ठंडे लोहे से रगड़ खाकर जवाब दे रही थी। कड़कड़ाते जाड़े में भी माथे पर पसीना चुहचुहा गया था। आर.पी.एफ. के जवानों की भद्दी-मोटी गालियाँ बढ़ती दूरी से उसका पीछा कर रही थीं। खैर था गाड़ी घुमाव काटने लगी थी। रोशनी भी यकायक गुप्प हो गई थी। तेज चमक के बाद अंधियारा और करिया गया था, नहीं तो बचना मुश्किल था। जब उसका डिब्बा घुमाव के बीच उगी झाड़ियों तक पहुँचा, सोमर कूँद गया।  

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