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पीठ पीछे का आँगन

अनिरूद्ध उमट

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2728
आईएसबीएन :81-267-0610-4

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अजनबी के अन्वेषण पर आधारित उपन्यास...

Peeth Pichhe Ka Aangan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अज्ञेय के अन्तिम उपन्यास के पात्र निरन्तर किसी ऐसे अजनबी के अन्वेषण में रत हैं जिसके सम्मुख वे अपनी मृत्यु का वरण कर सके। अनिरूद्ध के इस उपन्यास के पात्रों और संभवतः स्वयं आख्याता के लिए ऐसी अजनबी भाषा है। भाषा के सम्मुख ये पात्र अपनी मृत्यु का नहीं, उस अन्य की मृत्यु का विलंबित वरण करते हैं जिसका नाम उनकी पीठ पीछे लिखा है और ऐसा करते हुए जैसे वो अपनी मत्यु को, मृत्यु मात्र के अतिरिक्त को अन्ततः एक विलंबित वैधता देते हैं। यह विलंबित वरण उस शोक का, मृत्युकृत अनुपस्थित का है जिससे इन अनाथ संज्ञा-शून्य पात्रों का लोक और लोकोत्तर प्रतिकृत है। शोक और भाषा एक-दूसरे के अनन्य आलंबन हैं। वे एक-दूसरे के द्वारा अविष्कृत हैं। भाषा इन शोकरत पात्रों के आस्तित्व का विन्यास है जिनका पात्र होना भी होने की न्यूनतम अर्हताओं से निर्मित है और जो इस गल्प के भीतर घटित हो रहे एक अन्य गल्प के ही पात्र हैं। भाव आविष्कृत भाषा और भाषा आविष्कृत भाव के इस गल्प में बिम्ब और वस्तु भी एक-दूसरे के अनन्य हैं, रेलगाड़ी के डिब्बे जैसा दिखता हुआ घर रेलगाड़ी का डिब्बा ही हो जाता है जो फिर घर जैसा दिखने लगता है। भाव और भाषा, बिम्ब और वस्तु की अनन्यता यथार्थ की सुसंगत एक रेखिक संरचना को अस्थिर, समस्याग्रस्त और अंततः विखंडित करते हुए ऐसी काव्य संरचना को निर्मित करती है जो सिर्फ उपन्यास ही हो सकता है।

अनिरूद्ध के लेखन की प्रस्तुति या प्रशस्ति असंभव है। इस उपन्यास के पात्रों और आख्याता की भाँति स्वयं उनके लिए भाषा ऐसी अजनबी है जिनके सम्मुख वे लेखक के रूप में अपनी मृत्यु का वरण करने के लिए खड़े हैं। उनके लिए लिखना इस तरह आत्महत्या है और एक दृग्विषय के रूप में आत्महत्या सूचना, विज्ञापन या अभिलेखन के लिए सर्वथा अयोग्य सामग्री है।
अनिरुद्ध का लेखन लेखन मात्र के सम्मुख अपनी मृत्यु का वरण करने के लिए किसी अजनबी के अन्वेषण में रत है।

दरवाजा अधूरे मन से या अधूरी आस से यूँ बन्द था कि कोई चाहे तो दस्तक दे दे चाहे तो हल्के हाथ से उसे धक्का दे दे....वह खुल जाएगा। लड़की का हाथ पहले दस्तक के लिए फिर धक्का देने के लिए दरवाजे तक पहुँचा और लौट आया। दरवाजे की दरार में से उसने देखा, वहाँ आँगन में कोई चक्कर लगा रहा था। लड़की ने दस्तक देने के बजाय दरवाजे को धीमें से धक्का दिया। उसके दोनों हिस्से झिझकते से पीछे खिसक गए।
सामने आँगन के सूनेपन को कोई मथ रहा था।

कोई उसके कान में कुछ कह रहा था यह किसी को कुछ कहने के लिए पीछे-पीछे भाग रहा था और भागने में उसके कहने के टुकड़े बिखरे जा रहे थे। वह कहने और सुनने के विपरीत मार्गों पर भाग रहा था पिछड़ रहा था हाँफ रहा था।
कोई उसे रोके तो कैसे रोके ?
लड़की दूर खड़ी उसे देख रही थी। यह बिल्कुल ही अलग तरह की स्क्रिप्ट थी जिसमें दूसरे का प्रवेश बहुत ही सँकरे समय में ही, सम्भव था।
‘‘कब तक भागोगे ?’’
‘‘....।’’
लड़की ने उसे पकड़ लिया। वह उसे देखने लगा।
‘‘किसके पीछे भाग रहे हो ?’’
‘‘तुम कौन हो ?’’
‘‘भागने से कुछ हासिल नहीं होगा।’’
‘‘मैं भाग नहीं रहा।’’
‘‘क्या तुम उसे जानते हो जो हमें कहीं भी कहीं का भी होकर नहीं रहने देता।’’
‘‘मगर तुम कौन हो ?’’
‘‘यह सवाल पूछने का कोई अर्थ नहीं है असल बात यह है कि हम उसे ढूँढें जो हमें भगा रहा है।’’

हर एक पीठ पर अपनों ने किसी अन्य का नाम लिख रखा है एक-दूसरे की पीठ पर अपने लेख देखकर हम एक-दूसरे को जानते-पहचनाते हैं तेरी पीठ पर लिखा है मेरा सपना आनेवाले
मेरे घर पीठ के रुख आना मैं तुझे तुरन्त ही पहचान लूँगा

-हरिभजन सिंह

1


जिस सड़क पर मैं खड़ा था पीठ पीछे के अँधेरे से किसी अन्तहीन काली ऊन की तरह मेरी आँखों के आगे दौड़ती जा रही थी। जहाँ फिर कोई यही देख रहा था कि उसकी छाती के सामने की सड़क पीठ पीछे यूँ जा रही थी जैसे उसे कोई उसकी पीठ पीछे खींच रहा हो, लपेट रहा हो।
मैं ऐसी ही सड़क पर खड़ा था। पता नहीं सड़क पर खड़ा मैं भला था या बुरा ।
मैंने आँखें बन्द कर लीं। बन्द करते ही किसी आईने की तरह वह सड़क मेरी आँखों में बल खाने लगी...उलझे हुए धागे की तरह। मैं उसे सुलझा रहा था। वह मुझे उलझा रहा था।
वह सामने खड़ी हँस रही थी।

मैंने उस उलझे काले धागे को उस पर फेंक दिया। वह धागा उसके सिर पर जा उसके खुले बालों की तरह लहराने लगा। वह उसे यूँ हटा रही थी जैसे उलझे बालों को सुलझा रही हो और टूटे बालों को उड़ा रही हो। वे टूटे बाल उसके हाथों से लहराते मेरे चेहरे पर आ रहे थे।
वह हँस रही थी और उसे मैं भी देख मैं भी उसकी तरफ दौड़ता हुआ हँसने लगा।
जैसे ही उन बालों ने किसी काली सड़क की मोटी रस्सी की तरह हम दोनों को बाँधा, मेरी आँख खुल गईं।
सामने वही सड़क मरे साँप की तरह पड़ी थी। आगे अँधेरा उस मरे साँप के काले खून की तरह जमा था।


2


मैंने दरवाजा खटखटाया। खटखटाने के बाद याद आया, कितने बरस हुए मैंने दरवाजा नहीं खटखटाया। यह खतरा पूरी देह पर दौड़ने लगा कि दरवाजा कहीं मेरी पीठ पीछे न आ जाए। मैं तुरन्त पीठ वाली जगह मुँह कर खड़ा हो गया। मेरी पीठ पर कोई अपना हाथ टिकाए खड़ा था।

3


जब तक वहाँ नहीं रहो लगता है कहीं कोई घर है इसलिए, दुनिया में भटक लेना चाहिए....जब कभी थकेंगे, हारेंगे या मरेंगे तो एक घर तो है ही...आ जाएँगे। यूँ वह घर अपनी लगभग पूरी उम्र पहली बार जाते लोगों की पीठ की स्मृति में ऊँघता-झड़ता रहता है।
यह ऊँघना-झड़ना इतना अधिक गहरा जाता है कि ऐसे में अगर कोई यहाँ आ जाए तो उसे इस घर का चेहरा नहीं, पीठ ही दिखाई देगी।

पूरा घर औंधा पड़ा मानो किसी का इन्तजार कम शोक अधिक करता लगता है। जितना ही शोक अपने भीतर धँसने लगता है उतना ही उस पर झुका आदमी और अधिक सुध-बुध खोया सा उस जगह को घूरने लगता है इतना कि उसकी आँखों से आँसू आने लगते हैं।
दूर से देखने पर लगेगा, दूर से यानी यदि घर का दरवाजा खुला हो तो वहाँ से, यदि खिड़की खुली हो तो वहाँ से, यदि घर में ही कोई दूसरा हो तो उसे....लगेगा जैसे उसका उस जगह कुछ खो गया है....या जो खो गया है उसे उस जगह के अँधेरे ने लील लिया है...या उस लीलने में भी कुछ अंश बाहर रह गया है जो घूरने वाले की आँखों की जकड़ में है...यदि उसने पलक भी झपकाई तो वह चीज पूरी तरह भीतर धँस जाएगी।

ऐसे में दरवाजे पर दस्तक ! मगर जो बाहर खड़ा है उसे तो यूँ लगता है जैसे उसके जाने की घड़ी के बाद से ही—जब से दरवाजा बन्द किया है, कुंडी लगाई है-तब से-बन्द करने वाला दरवाजे से हटा ही नहीं है। उसका चेहरा अब भी दरवाजे के सामने ही है। ऐसे में यदि दरवाजा खोलने में देरी हुई तो वह यही सोचेगा कि मेरे जाने की घड़ी देखी जा रही थी।
वह दस्तक करते वक्त कैसे और क्यों सोचेगा कि जिस घर पर के दरवाजे के बाहर वह खड़ा है उसी घर के भीतर ऐन आँगन के बीच कुछ धँस-फँस गया है—या तो उसे खींच लिया जाए या दरवाजा खोल लिया जाए। काफी देर तक सोचने के बाद तय किया जाता है कि पहले दरवाजा ही खोल लेना चाहिए। नहीं तो कहीं यह न हो जाए कि जब दरावाजा खोलें तो पाएँ, वहाँ से जिसे भीतर आना था वह बाहर से ही चला गया है।
बरसों से किसी दस्तक पर जिसने दरवाजा न खोला हो...जिस दरवाजे पर बरसों तक कोई दस्तक न हो तो भीतर बैठे आदमी के लिए बड़ी मुश्किल हो जाती है। जिधर से कुंडी खोलनी चाहिए वह उधर से उसे निरन्तर घुमा-घुमाकर बन्द करता रहता है।


4


‘‘अरे खुल ही नहीं रहा...कल तो खोला था।’’ तब बाहर से हँसता हुआ कोई कहेगा, ‘‘हो सकता है आज जैसे खोल रहे हो कल वैसे बन्द किया हो।’’
‘‘इसे कैसे मालूम ?’’ वह खोलने को (या बन्द करने को) बीच में ही छोड़ सोचने लगा।’’
‘‘कुछ तुम भी कोशिश करो बाहर से...पुराना दरवाजा है...एक बार बन्द होने पर आसानी से खुलता नहीं है।’’ तब भीतरवाला कहेगा और यह कह कुछ राहत महसूस करेगा कि अब दरवाजे के खुलने या न खुलने में सिर्फ वह ही जिम्मेदार नहीं होगा।
‘‘बाहर से तो खुला ही है...कहो तो बन्द कर सकता हूँ...मगर तब तुम कैसे खोलोगे ?’’ उसका कहना इतना सीधा होगा कि भीतरवाला खीज में अपने पैर पटकने लगेगा।

‘‘अच्छा ठीक है...तुम बाहर से ही बन्द कर दो..हो सकता है तब यह भीतर से खुल जाए।’’
बाहर खड़ा आदमी हँसने लगा।
‘‘यानी तुम चाहते हो अन्त में दरवाजा मैं खोलूँ...मगर मेरे खोलने से होगा क्या ? मैं तो बाहर का बाहर ही रहूँगा ना...मुझे तो भीतर आना है।’’
भीतरवाला आदमी कुछ देर चुप रहने के बाद कहेगा, ‘‘अच्छा ठीक है, जब तुम इतनी देर बाहर खड़े रहे हो तो कुछ देर और रह लो....तब तक मैं कोई उपाय सोचता हूँ ...अगर तुम्हें प्यास लग रही हो तो सामने वाले घर का दरावाजा खटखटा लो...तुम वहाँ से पानी माँग सकते हो। बाहरवाला आदमी मुड़कर इस दरवाजे के सामनेवाले घर के दरवाजे की तरफ देखने लगा। वहाँ ताला लगा था।

5


भीतर वह फिर से आँगन में उसी जगह पर उसके चारों तरफ घूमने लगा—जैसे परिक्रमा कर रहा हो। फिर उकड़ू बैठ गया—जैसे कुछ याद आ रहा हो।
‘‘जो भीतर धँस गया है, लील लिया गया है उसे खींचने में कहीं मैं ही न धँस जाऊँ !’’ इतना सोचते ही उसकी पूरी देह पर पसीना चमकने लगा। बाहर जो खड़ा है वह अगर यह काम करे तो ज्यादा ठीक रहेगा—वह धँसेगा नहीं क्योंकि उसे यह पता नहीं है कि धँसनेवाला धँसा कैसे था।
‘‘तुम गए तो नहीं ?’’ उसने आँगन से ही आवाज लगाकर पूछा।

‘‘जाता कैसे तुमने तो कहा था कि दरवाजा खोलने का उपाय ढूँढ़ रहे हो।’’ बाहरवाले आदमी का गला सूख रहा था।
‘‘तो ठीक है तुम दरवाजे को अन्दर धकेलो, मैं बाहर धकेलूँगा...तब कुंडी कभी इधर-कभी उधर घूमती खुल जाएगी।’’
दोनों दरवाजे को धकेल रहे थे। एक भीतर से बाहर को, एक बाहर से भीतर को...दोनों की साँसें फूल रही थीं। फूलती साँसों पर दरवाजे के चरमराने का शोर था। दोनों की देह पर पसीना बह रहा था। दूर से देखने पर लगता जैसे वे नहीं हिल रहे हैं बल्कि वह घर ही हिलहिलकर उन्हें हिला रहा है।

पता नहीं वे कितनी देर तक हिलाते रहे। काफी देर से उनमें आपस में कोई बात नहीं हुई।
बाहर वाला आदमी थकान और प्यास के बीच फिर से उस दरवाजे की तरफ देख रहा था जहाँ से उसे पानी पी लेने को कहा गया था और जहां ताला लगा था। वह इस वक्त दरवाजे के खुलने की चिन्ता से दूर खड़ा यह सोच रहा था, अगर उसे कोई पानी पिलाता तो वह कैसे पीता—यह सोचता वह निरन्तर लोटे पर लोटा पीए जा रहा था..यह आखिरी बार था इसके बाद यह कहा जानेवाला था कि अब पानी खत्म हो गया है। तब उसे पता चलता कि उसने कितना पानी पी लिया है ?
वह सोचने लगा। उसे अपनी प्यास का स्मरण ही नहीं रहा था। बल्कि उसे लग रहा था उसने इस कदर पानी पी लिया है कि उससे अब न तो खड़ा हुआ जा रहा है न ही बैठा जा रहा है।

6


‘‘देखो आखिरी बार कह रहा हूँ भीतर आना है तो आ जाओ पानी-वानी पीओ..कब से प्यासे खड़े हो ।’’
वह दरवाजा खोले खड़ा था।
उसे देख पहली बार बाहरवाले को लगा जैसे दरवाजा उसने खोला है। जैसे उस तरफ भी वही है ।
‘‘लो ...पानी पीओ।’’
‘‘पानी तो मैं पी चुका।’’
‘‘कहाँ से ...?’’
‘‘उस घर से।’’
‘‘मगर वहाँ तो ताला लगा है !’’
 ‘‘हो सकता है मुझे पानी पिला वे लोग कहीं चले गए हों।’’
वह अचानक बाहर से आए आदमी पर झपटा और भीतर खींच दरवाजा बन्द करने लगा। उसकी पीठ दरवाजे पर थी।
‘‘क्या सचमुच उसने तुम्हें पानी पिलाया ?’’
‘‘हाँ...पिलाया।’’
‘‘कैसी थी वह ?’’

‘‘यह तो मैंने देखा ही नहीं।’’
‘‘फिर भी कुछ तो देखा होगा ?’’
‘‘मुझे प्यास बहुत तेज लग रही थी...मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि मुझे किसने पानी पिलाया...किसी औरत ने या...।’’
‘‘मगर वह तुम्हें पानी कैसे पिला सकती है ?’’
‘‘क्यों...क्यों नहीं पिला सकती ?’’
‘‘यह तुम नहीं समझोगे।’’
‘‘मगर मैंने पीया है...क्यों नहीं समझूँगा।’’




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