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योग और योगासन

स्वामी अक्षय आत्मानन्द

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :198
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2655
आईएसबीएन :81-7315-460-0

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योग के द्वारा स्वास्थ्य को स्वस्थ रखने पर आधारित पुस्तक....

Yog aur yogasan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘योगश्चित्तः वृत्ति निरोधः’। इस सूत्र का अर्थ है-योग वह है जो देह और चित्त की खीच-तान के बीच मानव को अनेक जन्मों तक भी आत्मा दर्शन से वंछित रहने से बचाता है। चित्तवृतियों का निरोध दमन से नहीं, उसे जानकर उत्पन्न ही न होने देना है।’
प्रस्तुत पुस्तक में स्वास्थ्य की पूर्ण परिभाषा दी गई है। स्वास्थ्य क्या है, स्वस्थ किसे कहते हैं आदि। कहावत है कि स्वस्थ्य शरीर में ही स्वस्थ मन का वास होता है। यदि शरीर स्वस्थ्य नहीं होगा तो मन का स्वस्थ्य रहना कहाँ सम्भव होगा। इस पुस्तक को पढ़कर पाठकों के मन में निश्चय ही ‘जीवेम शरदः शतम्’ की भावना जाग्रत होगी।
योग-जगत के अति श्रद्धास्पद अधिकारी गुरु के रूप में प्रख्यात स्वामी अक्षय आत्मानंद द्वारा योगासन, प्राणायाम, अध्यात्म विज्ञान, सम्मोहन विज्ञान और चिकित्सा विज्ञान आदि पर अत्यन्त सरल-सुबोध भाषा एवं तार्किक शैली में अति रोचक एवं महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की गई है। स्वामी जी का साहित्य इतना लोकप्रिय हुआ है कि उनके ग्रन्थों के कई-कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।

 

योग-एक परिचय

कोई व्यक्ति अपने ही घर में कुछ ही दिनों बाद लौटता है और उसे उसके ही आश्रित जन, उसके ही परिवार के लोग पहचानने से इनकार कर दें और उस व्यक्ति को अपना ही स्थान वापस प्राप्त करने के लिए अपना परिचय देने को विवश होना पड़े। जरा सोचिए, ऐसी स्थिति आपको कैसा लगेगी, जबकि वह व्यक्ति आप ही हों ? ‘योग’ भी आज इसी स्थिति का सामना कर रहा है।
भारत सदैव से योगियों, ऋषियों, दार्शिनकों और अन्वेषकों का देश रहा है। यही कारण है कि इस विशाल भूभाग का नाम ‘भारत’ पड़ा था। भारत शब्द दो शब्दों के मेल से बना है। वे शब्द हैं-भा=ज्ञान, रत=लगे रहना। इसका पूरा अर्थ है-वह भूभाग, जिसके निवासी सदैव ही ज्ञान की खोज में लगे रहते हों।
आज सारा विश्व इस बात को जानता है कि आधुनिक विज्ञान कितने भा नए-से-नए आविष्कार कर ले, वैज्ञानिक कर ले, वैज्ञानिक आविष्कारों से कितनी भी बड़ी-से-बड़ी सुविधाएँ प्राप्त कर ले, फिर भी वह अधूरा, अतृप्त और अशांत ही बना रहेगा। उसे मन की शांति कहीं भी न मिल सकेगी।

पाश्चात्य देशों के अधिकांश निवासी, जो सुविधाओं और संपन्नताओं के बड़े-बड़े कीर्तिमान स्थापित कर चुके हैं, उन्हें अपने बौनेपन का एहसास पागल बना रहा है। और इस पागलपन के कारण ही उनके देश में पलायनवादी वृत्तियाँ पनप रही हैं। उनकी नई पीढी़ दिशाहीन सी बढ़ रही है। तरह-तरह के नशे, खुला और स्वतंत्र यौनाचार भी उनकी कुंठाओं को तोड़ नहीं पा रहा। फलस्वरूप ऊबकर आत्महत्या करने वालों की संख्या में दिनोदिन वृद्धि हो रही है।

भारत के वे लोग, जो पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति के अंधानुयायी बन रहे हैं, उन्हें उन देशों के परिणामों की चिंता नहीं है। उनके मन में गुलामी की आदत घर कर गई है। सैकड़ों वर्षों की गुलामी का सबसे अधिक प्रभाव उन लोगों पर ही पड़ा है, जो अपनी सुख-सुविधाओं के लिए, अपनी सुरक्षा के लिए अपने आकाओं पर निर्भर रहे हैं। यदि उनके आका अपनी नीतियों के कारण असफल होकर इस देश से भागने पर विवश हुए हों तो भी उनकी स्मृति को, अपनी स्वामीभक्ति का परिचय देने के लिए ही, वे उनके पीछे बचे हुए अवशेष स्मृति-चिह्नों की पूजा कर उसे ही अपनी संस्कृति मान बैठे हैं। वे पूरी तरह यह भी भूल चुके हैं कि उनकी वास्तविकता क्या है। दुम हिलाने की आदत पड़ जाने के कारण आदेशों का यथावत् पालन करते-करते तो कुछ पीढ़ियों बाद शेर भी यह भूल जाता है कि वह कुत्ता नहीं, शेर है।
सैकड़ों वर्षों की गुलामी ने न जाने कितने परिवारों और पीढ़ियों का यह एहसास भी भुला दिया है कि वे उन भारतीय ऋषियों की संतानें हैं, जिनके ज्ञान और आविष्कारों का डंका सारे विश्व में बजता था। भारत सदैव विश्वगुरुओं का देश रहा है। भारतीय ज्ञान और दर्शन की वैचारिकता को लेकर स्वामी रामतीर्थ और स्वामी विवेकानंद ने भारतीय ज्ञान व दर्शन को विदेशों में उच्च स्थान दिलाया।

रेडियो, टी.वी. और भारतीय साहित्य ने हजारों वर्ष प्राचीन महर्षि पतंजलि के योग-दर्शन को प्रस्तुत कर सारे विश्व के स्वास्थ्य वैज्ञानिकों के बीच अन्वेषण की एक नई दिशा दी। वही योग विदेशी ठप्पा लगाकर जब अपने ही देश में, अपने ही परिवार और अपनी ही संतानों के बीच लौटा है, तब उसी योग को ‘योगा’ कहकर गुलाम मनोवृत्ति वालों ने उसे अपने परिवार का सदस्य मानने से ही इनकार कर दिया। योग का नाम विकृत कर देने वाले भारतीयों से मुझे यह सबसे बड़ी शिकायत है।

 

भारतीय दर्शन

 

 

भारत में अनेक धर्मों का जन्म हुआ, जिसमें से हिन्दू प्रमुख है। इतिहास-वेत्ताओं का कथन है कि प्राचीन युग में नदियों के किनारे ही आबादी हुआ करती थी। सिंधु नदी के किनारे पनपी और विकसित हुई सभ्यता के चिह्न हडप्पा और मोहनजोदड़ों में प्राप्त हुए, इस तथ्य के साक्षी हैं। सिंधु नदी के पूर्व में बसे हुए लोगों का ही ‘सिंधु’ के नाम पर अपभ्रंश रूप में ‘हिंदू’ पुकारा जाने लगा। मुगल शासकों के कालांतर में हिन्दू सभ्यता के नाम पर इस विशाल भूभाग को ‘हिंदुस्थान’ नाम दिया था।

वास्तव में भारत में आर्य और अनार्य दो संस्कृतियाँ ही प्रमुख थीं। आर्यों का धर्म अलग-अलग काल में अलग-अलग नामों से जाना गया है। इसे कभी सनातन धर्म, कभी वैदिक धर्म तो कभी हिन्दू धर्म कहा गया है। बाद में जैन धर्म और बौद्ध धर्म भी प्रकाश में आए।
विश्व में सबसे अधिक धर्म और उससे कहीं अधिक दर्शनों का जन्म भारत में ही हुआ। दर्शन-मीमांसाओं के कारण भारत में हजारों सम्प्रदाय बन गए। सबकी मान्यताओं और परंपराओं के आधार पर शास्त्र एवं ग्रंथ भी रचे गए। फिर भी सब मूल रूप से एक ही हैं।

भारतीय मनीषियों ने मानव मन से संबंधित गहनतम अध्ययन किया है। किसी वैज्ञानिक उपकरण की सहायता लिये बिना ही इन ऋषियों ने मन और मानव से संबंधित अनेक सूक्ष्मतम प्रयोग किए। प्रयोगों से प्राप्त निष्कर्षों पर हर पहलू से चिंतन और मनन भी किया। अंत में जो सिद्धांत प्रतिपादित किए गए, वे ही भारतीय दर्शन के नाम से जाने जाते हैं। भारतीय दर्शन को उसकी समग्रता में ही जानना आवश्यक है।
विश्व भर में केवल भारत ही एक ऐसा देश है, जिनके सभी धर्मों ने एक मत होकर आत्मा और देह का अलग-अलग अस्तित्व-बोध कराया है, पुनर्जन्म का सिद्धांत प्रतिपादित किया है, आत्मा के परमात्म-पद में विलय होने का मार्ग सुझाया है।

भारतीय ऋषि-परंपरा में एक नाम ‘महर्षि पतंजलि’ का विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिन्होंने आत्म-साक्षात्कार का परम वैज्ञानिक मार्ग सुझाया है। आज के सभी उन्नत पाश्चात्य देशों में महर्षि पतंजलि के योग-दर्शन के अनेक सूत्रों पर अनेकानेक वैज्ञानिक परीक्षण हो रहे हैं। बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी उन निष्कर्षों की सत्यता से चमत्कृत और स्तब्ध हैं। प्रस्तुत ग्रंथ भी महर्षि पतंजलि के सूत्रों पर आधारित सिद्धांतों की मीमांसा को बिलकुल नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने का ही एक प्रयास है।

 

भारतीय दर्शनों की विशेषता

 

 

भारतीय धर्मों के दर्शनों में एक विशेष व्यवस्था दृष्टिगोचर होती है। वह यह कि प्रत्येक भारतीय अपनी क्षमता के अनुसार आचरण कर धर्म-साधना कर सकता है। आचरण की इन विभिन्नताओं के कारण ही प्रत्येक धर्म में अनेक संप्रदाय, श्रेणियाँ और वर्ग बनते गए तथा साधना की विशिष्ट गहराइयों में उतरते चले जाने के कारण ही साधकों के प्रति भारतीयों के मन में श्रद्धा, आदर और प्रतिष्ठा का जन्म होने लगा।

भारत में एक-एक धर्म में अनेक जातियाँ व उपजातियाँ बनती गईं, मत-मतांतर माने-जाने लगे। वैदिक धर्म में वर्ण-व्यवस्था को स्थान मिला। परन्तु यह वर्ण-व्यवस्था जन्म-परंपरा पर आधारित नहीं थी, वरन् मनुष्य की साधना और ज्ञान का प्रतीक थी। निचले वर्ग से श्रेष्ठ वर्ग तथा निचले वर्ण की ओर बढ़ने की खुली छूट तथा अवसर सुलभता से उपलब्ध थे।
भारतीय दर्शन और विचारधारा में तन, मन, आत्मा, मुक्ति और तप की अलग-अलग साधनाएँ निरूपित की गई हैं। देह चूँकि नश्वर है, इसलिए देह के संबंधों से निर्मित यह सृष्टि ‘माया’ प्रपंच और भ्रम के रूप में वर्णित की गई है। अत: तप के द्वारा सभी सुख-सुविधाओं व संबंधों को तिलांजलि देकर अपने ‘आत्मस्वरूप’ के दर्शन कर लेना ही अभीष्ट माना गया और परमात्म-पद तक पहुँचना या ‘मुक्ति’ प्राप्त करना ही लक्ष्य निर्धारित किया है।

 

पातंजल दर्शन

 

 

महर्षि पतंजलि भी चूँकि भारतीय ऋषि और दार्शनिक थे, अत: वे भी अपने निष्कर्षों से आत्मा और मुक्ति के लक्ष्य से भटक नहीं पाए। परन्तु इस लक्ष्य तक पहुँचने का मार्ग उन्होंने ‘तप’ या ‘पलायन’ नहीं रखा। जहाँ तक मैं पातंजल दर्शन को समझ सका हूँ, वहाँ तक कह सकता हूँ कि महर्षि पतंजलि ने अपने द्वारा प्रतिपादित मार्ग को एक बिलकुल ही नया शब्द और नया नाम दिया है और वह है ‘योग’।

महर्षि पतंजलि ने केवल एक ही वाक्य में मानवमात्र को चरम लक्ष्य तक पहुँचाने का सूत्र दिया है और वह है ‘योगश्चितः वृत्ति निरोधः’। इस सूत्र का अर्थ है-योग वह है जो देह और चित्त की खीच-तान के बीच मानव को अनेक जन्मों तक भी आत्मा दर्शन से वंचित रहने से बचाता है। चित्त वृतियों का निरोध दमन से नहीं, उसे जानकर उत्पन्न ही न होने देना है।’
पतंजलि के ‘योग’ शब्द का अर्थ है ‘मिलाना’। यह मानव देह या मनुष्य जन्म ही तुम्हें मुक्ति तक पहुँचाता है। दूसरी कोई भी देह इतनी सक्षम और विकसित नहीं है, जिसमें मानव देह जैसा सर्वशक्तिमान मन या चित्त वास करता हो।

देह की आवश्यकताएँ और तुष्टि जब पूर्ण न होंगी चित्त तब तक व्याकुल ही रहेगा। चित्त की व्याकुलता जब तक समाप्त न होगी तब तक आत्मदर्शन संभव न होगा। आत्मा की भी एक व्याकुलता है, आकांक्षा है। और वह है बार-बार के जन्म-मरण से ऊब, इस भटकन से मुक्ति, अपने शुद्ध-बुद्ध स्वरूप में स्थित हो जाना; जहाँ न जन्म है, न मरण; जहाँ सारे समाधान स्वयं ही हो जाते हैं। जहाँ चिरविश्रांति है, सत्-चित्-आनंद की चिरसमाधि है।

महर्षि पतंजलि के योग-दर्शन की एक अन्य विशेषता यह भी है कि उन्होंने अपनी विचारधारा को, अपने दर्शन को किसी धर्म या संप्रदाय का रूप प्रदान नहीं किया। मेरी दृष्टि में विश्व के सभी धर्मों, संप्रदायों और वादों के मानव को भेड़-बकरियों की तरह अपने खूँटे से बाँध लेने का प्रयास किया है। उन धर्मों ने पंडे-पुजारियों, पादरी, मुल्लाओं के हाथ में चाबुक देकर किसी भी खूँटे से बँधे आदमी को स्वतंत्र चिंतन न करने देने की चिर स्थायी व्यवस्था की है। सिर्फ उनकी बनाई हुई लीक पर ही चलकर उनके द्वारा सुझाई गई मुक्ति प्राप्त करने की जोर-जबरदस्ती भी की गई है। अपने धर्म को ही पृथ्वी का सर्वश्रेष्ठ धर्म और सच्चा मुक्तिदाता निरूपित किया गया है। भला बँधे रहकर मुक्ति कैसी ?

महर्षि पतंजलि के दर्शन में एक पूर्ण धर्म के सारे तत्त्व मौजूद हैं। उनकी विचारधाराओं में, क्रियाओं में पूर्ण वैज्ञानिकता है; एक अद्भुत् सामंजस्य, समाधान और तादातम्य है, जो हर कसौटी पर खरा उतरता है। ऊँच-नीच, धनी-निर्धन, श्रेष्ठ-निकृष्ट का भेदभाव किए बिना ही, विश्व के मानव मात्र के लिए, उन्होंने अपना ज्ञान बड़े ही निस्पृह भाव से सौंप दिया है और स्वयं बीच में से हट गए हैं।

वैसे आधुनिक महत्त्वाकांक्षा में फँसे हुए तथा कथित योगियों ने अपने-अपने बाड़े निर्मित कर, महर्षि पतंजलि की पवित्र धरोहर से भी अपनी स्वार्थ-पूर्ति के लिए, अपने आपको महान् और सर्वज्ञ बताकर लोगों को अपने खूँटों से बाँधना प्रारंभ कर दिया है। महर्षि पतंजलि के ‘योग-दर्शन’ पर अपनी छाप और ठप्पा लगाकर उसे ही सच्चा योग निरूपित करने का दुष्चक्र भी चला दिया है। मुझे भय है कि कोई चालाक व्यक्ति इस सर्व-सुलभ एवं सर्वथा सार्वजनिक वस्तु पर अपना अनधिकृत कब्जा कर इसे अपनी संपत्ति ही घोषित न कर दे।

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