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अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद

मेजर जनरल विनोद सहगल

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2638
आईएसबीएन :81-7315-446-5

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अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद पर आधारित पुस्तक....

Anterrastiya Aatankvad a hindi book by Major General Vinod Sahgal - अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद - मेजर जनरल विनोद सहगल

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने स्थापित तथ्यों की सरल गलियों के परे जाकर अन्तरराष्ट्रीय आतंकवाद के खिलाफ युद्ध की बड़ी ही कष्टकारी झलक दिखाई देती है, युद्धों की बदलती प्रवृत्ति को उजागर करते हुए आतंकवादी कृत्यों से सम्बन्धित विषमता के तत्व से निपटने के सम्बन्ध में वह एक नया दृष्टिकोण प्रदान करते हैं और बताते हैं कि किस प्रकार कई वैकल्पिक रणनीतियों को उपेक्षित करते राष्ट्रीय प्रतिक्रिया प्रारूप, अब भी परिशोधात्मक क्षमता के अभाव तथा प्रतिशोधात्मक अति विनाशकारी क्षमता के बीच मँडराते हैं।
ऐसे क्षेत्र को खँगालते हुए, जिस पर इस विषय पर लिखने वाले विद्वानों तथा विशेषज्ञों ने शायद ही पहले कभी ध्यान दिया है, जनरल सहगल का नवीन दृष्टिकोण, खासकर इन विषयों पर, उनके मतों में देखा जा सकता है-
1- पारिभाषिक गतिरोध समाप्त करना, जिससे राष्ट्रों के समूह हिचकिचाते हैं।
2- इराक से परे देखना।
3- आत्मघाती हमलों का बचाव सोचना।
4- अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के संकट से निपटने कि लिए भावी योजनाएँ।
यह पुस्तक सुबोध तरीके से उजागर करती है कि विश्व प्रभुत्व के लिए सभ्यता संबंधी चालबाजी सैमुअल हटिंगटन की प्रसिद्ध प्राक्कल्पना के अस्तित्व में आने से काफी पहले आरम्भ हो चुकी थी। जनरल सहगल की पुस्तक ‘ अंतररा्ष्ट्रीय आतंकवाद’ आतंकवाद के सम्बन्ध में संयुक्त राष्ट्र, सरकारों, कूटनीतिज्ञों, विद्वानों, नीति-निर्धारक समूहो, सैन्य तथा इंटेलिजेंस विशेषज्ञों और आम जनता के दृष्टिकोणों पर प्रभाव डालेगी।

आमुख

आतंकवाद ने विश्व के विभिन्न देशों के इतिहास पर बड़ा असर डाला है। उन्होंने राजा महाराजाओं, राजनेताओं, सरकारों और आरंभिक समय में राजवंशों के परिवर्तन को भी प्रेरित किया है। ऐसी घटनाएँ युद्धों की भी, यहाँ तक कि प्रथम विश्वयुद्ध का भी, कारण रही हैं। हालाँकि बहुत सी जानी-मानी आतंकवादी घटनाओं ने व्यक्तियों तथा राष्ट्रों के भाग्य को-और शायद इतिहास के रुख को भी बदला है। 11 सितंबर की आतंकवादी घटना कई रुपों में अनूठी है। इसने एक सीमित युद्ध, यानी अफगानिस्तान में अमेरिकी हस्तक्षेप, को जन्म दिया। और वह अफगानिस्तान से आगे अन्य देशों तक विस्तृत होगी अथवा नहीं, यह तो भविष्य ही बताएगा। आधुनिक विकसित हथियारोंवाले देशों के बीच आधुनिक युद्धों की अवधि सामान्यतः सीमित होती है, क्योंकि यदि किसी विरोधी देश के पास अत्याधुनिक हथियार हैं या वे उनका इस्तेमाल करने का फैसला करते हैं तो भयानक विनाश की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। वर्तमान संकट के एक स्थायी विभाजन के रूप में स्थिर हो जाने की समस्या एक ऐसा पक्ष है, जिसका गहन विश्लेषण करने की जरूरत है। इसके लिए अमेरिका तथा पश्चिमी देशों की ओर से अत्यंत समझदारी तथा मुसलिम देशों की ओर से गहन आत्मविश्लेषण करने की आवश्यकता होगी, ताकि अतीत की त्रासदियों का दुहराव न हो। वर्तमान मामले में भौतिक कानून तथा कार्मिक कानून, दोनों की भूमिका है-क्रिया-प्रतिक्रिया, कारण और प्रभाव। यह कहा जाता है कि विपक्षी से निपटने के लिए जितनी अधिक ताकत का इस्तेमाल किया जाएगा उतनी ही जोरदार प्रतिक्रिया होगी-यदि विपक्षी पूरी तरह नष्ट न हो जाए, जैसा अमेरिका में उन स्वदेशी जातियों का हुआ जिन्होंने पश्चिमी उपनिवेशवादियों का सामना किया, तो वह तात्कालिक और व्यापक प्रतिरोध होगा या, जहाँ तक विपक्षी के पास समान सैन्य-शक्ति नहीं होगी, वहाँ मामला लंबा खिंच सकता है। वर्तमान मामले में दूसरा पक्ष महत्त्वपूर्ण है, यदि धार्मिक आधार पर एक विशाल टकराव विकसित होता है। आनेवाले लंबे समय तक, विभिन्न देशों के बीच सैन्य असंतुलन आतंक द्वारा जवाब देने की परंपरा को बढ़ावा देगा और अमेरिका इतना शक्तिशाली बना रहेगा कि उसकी सैन्य-श्रेष्ठता की बराबरी करने का कोई मौका अन्य देशों के पास नहीं होगा।

इस प्रकार, प्रतिरोध की असमर्थता निर्बल पक्षों के दिलों-दिमाग में धीमा जहर भरने का काम करेगी। समय आने पर ऐसे जहर के विनाशक प्रभाव विपक्षी को दिग्भ्रमित करेंगे। यदि ऐसा होता है तो 11 सितंबर जैसी घटना फिर हो सकती है।
जब 11 सितंबर, 2001 को ओसामा बिन लादेन ने वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन पर आतंकवादी हमला किया तो वह खुद को आश्रय देनेवाले देश में अपनी काररवाई के परिणामों से बेखबर होगा या फिर उसे इससे कोई मतलब नहीं था। इस कैलिबर और क्षमतावाले व्यक्ति को यह पता होगा कि अमेरिका इन हमलों का बदला लेने की प्रक्रिया में जितनी क्षति इसलामी जेहाद को पहुँचा सकता है, उससे बहुत अधिक नुकसान अफगानिस्तान को पहुँचा सकता है। फिर भी, यदि वह इस षड्यंत्र का वास्तविक सूत्रधार था तो उसने पाकिस्तान के अपने शुभचिंतकों और अन्य अज्ञात समर्थकों की मदद से एकाग्रचित होकर अपना लक्ष्य प्राप्त किया। वह उस सजा से बेखबर नहीं बल्कि लापरवाह था, जो इसलामी आतंकवाद जारी रहने पर निश्चित रूप से प्राप्त होगा। वह बुद्धि या समझ का अभाव नहीं था, बल्कि मसीहा बनने का जोश था। उसने निर्णय की शक्ति को अवरुद्ध कर दिया था। बाद में क्या हुआ, यह सभी को पता है। और क्या हो सकता है यह अटकलबाजी का विषय है।

अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश ने इसलामी जेहाद द्वारा सामने रखी गई चुनौती की प्रतिक्रिया में अपने देश के प्रयास को लामबंद करने के लिए प्रभावी और बलपूर्ण नेतृत्व प्रदान किया। उन्होंने बदला लेने का वादा किया और अपना यह वादा पूरा किया। वह एक आँख के बदले एक आँख से कहीं अधिक था। उनके देशवासियों ने इसके लिए उनकी प्रशंसा की। इस प्रशंसा के साथ बुश ने एक व्यक्ति और एक राष्ट्रपति के रूप में अपनी स्थिति मजबूत की। इस प्रक्रिया में उन्होंने वही मसीहाई छवि विकसित की, जिसने इसलामी जेहाद की शक्तियों को अमेरिका पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। वे नहीं जानते थे कि रुकना कहाँ है। पूरी दुनिया इस आशंका के साथ अमेरिकी राष्ट्रपति की इस असमर्थता को देख रही है कि किस सीमा-रेखा के बाहर उनका आतंकवाद-विरोधी अभियान आतंकवाद की काररवाइयों से अधिक खतरनाक हो सकता है। अमेरिका के विरोधी उसे नहीं रोक सकते। उसे केवल उसके सहयोगियों द्वारा ही नियंत्रित किया जा सकता है।
इक्कीसवीं शताब्दी की शुरुआत में जो थोड़ा-सा अंतरराष्ट्रीय संतुलन विद्यमान है-जिसमें विश्व की किन्हीं बड़ी शक्तियों के बीच व्यापक टकराव का कोई तात्कालिक या अनुमानित खतरा नहीं है-को किसी भी कीमत पर बरकरार रखा जाना चाहिए। पूरे विश्व में राष्ट्रों और गैर-राष्ट्रीय नायकों की सूची में उच्च क्षमतावाले खतरनाक हथियार और जनसंहार के सामान बढ़ते जा रहे हैं। ऐसे प्रसार के लिए दोष विद्यमान महाशक्ति पर डाला जा सकता है। अपने व्यापक प्रभाव से वह विश्व को एक अधिक तर्कसंगत व्यवस्था की ओर प्रेरित कर सकता था। इस प्रक्रिया द्वारा परमाणु निरस्त्रीकरण और व्यापक विनाश के हथियारों का उन्मूलन संभव हो सकता था, भले ही इस प्रक्रिया में बीस, तीस या पचास वर्ष लग जाते। शीतयुद्ध के अंत के बाद दुनिया को अंतरराष्ट्रीय एकता की दिशा की ओर प्रेरित करने के लिए अपनी सर्वोच्चता का सही इस्तेमाल करने की बजाय अमेरिका ने विनाशकारी शक्ति के प्रसार को बढ़ावा दिया। अब भी इतनी देर नहीं हुई है कि अमेरिका अपनी दिशा न बदल सके। पूरा विश्व उसकी अपील मानेगा। यदि वह परिवर्तन नहीं होता है तो कभी-न-कभी व्यापक विनाश के हथियार प्रभावी होंगे।

इसी बीच दुनिया में लोगों की असंवेदनशीलता का स्तर बढ़ता ही जा रहा है, सामान्यतः अमेरिका तथा एंग्लो-अमेरिकी विश्व द्वारा नियंत्रित माध्यमों द्वारा ही हिंसा की जा रही है। कुछ दशकों पहले कुछेक लोगों की ही हत्या खबर बन जाती थी। किंतु अब लोगों को आतंकित करने के लिए मृतकों की संख्या हजारों में होनी चाहिए, यदि हत्याएँ, दुनिया की दूसरी ओर, या साधन-संपन्न और साधनहीन लोगों के बीच विभाजन की दूसरी ओर हुई हों, तो लोगों की प्रतिक्रिया आतंक का उपहास करना होता है। पिछले अनुभव को देखते हुए समय आने पर उच्च क्षमतावाले घातक हथियारों से भारी क्षति होने पर ही दुनिया एकमत होना शुरू करती है।

आतंकवाद-विरोधी काररवाइयों का सबसे बड़ा परिणाम नागरिक स्वतंत्रताओं के नष्ट होने से संबद्ध है, जो किसी-न-किसी रूप में विश्व में मौजूद है। ऐसे उपाय अस्थायी प्रकृति के होते हैं, खासकर जहाँ पर ये आक्रमण के विरुद्ध अपील करने के अधिकार को भी स्वीकृति नहीं देते। सरकारें तब भी अपने कठोर उपायों को निरस्त नहीं करतीं, जब उस उपाय को प्रेरित करनेवाले खतरे पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया गया हो या उससे निपट लिया गया हो। बीसवीं शताब्दी में मानवाधिकारों के हनन को सर्वाधिकारी शासन से संबद्ध किया जाता था। यह एक ऐसा क्षेत्र था, जिसका समर्थन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, उदारवादियों, बुद्धिजीवियों, कानून, मीडिया और बहुसंख्यक समाज द्वारा तथाकथित ‘मुक्त विश्व’ में किया जाता था। नागरिक स्वतंत्रताओं को संहिताबद्ध करने में पीढ़ियों का समय लगा, जो लोकतांत्रिक शासन-पद्धति का प्रतीक बन गया। 11 सितंबर, 2001 की घटना के बाद एक के बाद एक देश में इन्हें त्याग दिया गया। नागरिक-स्वतंत्रताओं को जल्दबाजी में किसी भी समय बहाल करना लगभग असंभव होना एक ऐसा पहलू है, जो मानवीय मूल्यों पर विश्वास करनेवाले सभी लोगों के लिए एक बड़ी चिंता का विषय होना चाहिए, क्योंकि मानवता आपसी भाईचारे से ही उत्पन्न होती है। अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में शामिल मुख्य देशों द्वारा दिखाए जा रहे अड़ियलपन को देखते हुए भविष्य में अंतरराष्ट्रीय उपायों में एक तर्कशीलता लाने की आवश्यकता है जिसे सभी देशों को सामूहिक रूप से ग्रहण करना चाहिए। जब तक अपनी धारणाओं के लिए विनम्रता और दूसरों की धारणाओं के लिए सम्मान का भाव नहीं होगा, विश्व के फिर से उन सख्त विभाजनों की ओर प्रेरित होने का खतरा है, जो शीतयुद्ध-काल में अनुभव किया गया था। यदि ऐसा होता है तो ‘सभ्यताओं का टकराव’ शुरू हो जाएगा। वह अच्छे-खासे समय तक जारी रह सकता है, जिसके परिणामस्वरूप एक अर्द्ध-निर्जीव ग्रह रह जाएगा, जो किसी भी विजयी सभ्यता के लिए उपयोगी नहीं होगा।
मेजर जनरल विनोद सहगल (से.नि.)

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परिचय


‘क्या मानवता का भाईचारा इसलाम के भाईचारे से ऊपर है?’
‘अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद’ शीर्षक से यह स्पष्ट है कि यह पुस्तक अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के विषय पर लिखी गई है। इसका केंद्रबिंदु अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद है, जो 11 सितंबर 2001 के बाद से विश्व के सामने आया और बाद में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा प्रस्ताव संख्या 1373 के अनुच्छेद द्वारा पुष्ट किया गया। इसलिए इस विषय पर वर्तमान बहस में इसलामी जेहाद द्वारा अभिव्यक्त अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद और आतंकवाद के अन्य रूपों का अंतर ध्यान में रखना जरूरी है। आतंकवाद के प्रत्येक पक्ष को विस्तृत रूप से शामिल करके बहस का विस्तार करना उलटा परिणाम दे सकता है। यह पहले ही एक पारिभाषिक गतिरोध को प्रेरित कर चुका है, जो इस विषय पर अंतरराष्ट्रीय आम सहमति न बनने में एक बड़ा कारक रहा है।

अधिकतर मामलों में आतंकवाद की जड़े राजनीति के दामन में मिलेंगी। इस रूप में कि जहाँ अपहरण और हिंसा शुद्ध रूप से आपराधिक गतिविधि नहीं होती, सामान्यतः एक प्रसुप्त, अवचेतन या प्रबल इच्छा आतंक के सूत्रधारों को सत्ता पर कब्जा करने के लिए प्रेरित करती है, ताकि वे उन सिद्धांतों को लागू कर सकें, जिन्हें सामान्य रूप से नहीं थोप सकते। कभी-कभी ऐसी शासन-व्यवस्था हिंसा का कारण होती है, जो असंतोष या उचित राजनीतिक गतिविधि को मुखर नहीं होने देती। थोड़ा सा परिवर्तित कर देने पर युद्ध स्वयं आतंकवाद का एक रूप बन जाते हैं। यहाँ तक कि क्रांतियाँ भी एक प्रकार का आतंक उत्पन्न करती हैं। यूरोप के इतिहास में सन् 1789 की फ्रांसीसी क्रांति ने रॉबस पियरे, जो खुद को फाँसी लगने से पहले हजारों लोगों का सिर कलम करवा चुका था, के नेतृत्व में आतंक का प्रभुत्व स्थापित किया। उस आतंक का इतना स्थायी प्रभाव पड़ा कि वह आधुनिक युग की शुरुआत में पूरे विश्व की चेतना में व्याप्त हो गया। रूसी क्रांति ने इस स्तर पर आतंक फैलाया कि फ्रांसीसी क्रांति के दौरान हुई हत्याएँ बौनी प्रतीत होने लगीं। वास्तव में, आतंक अधिकतर क्रांतियों का मुख्य तत्त्व बन जाता है। बीसवीं शताब्दी में आतंक के निरंतर इस्तेमाल द्वारा साम्यवाद ने जनता पर नियंत्रण बरकरार रखा-उसी तरह, जिस तरह इसलामी कट्टरवादी मान्यताओं का समर्थन करनेवाले कुछ शासक करते हैं। अमेरिकी सेना भी अपने तरीके से हाई-टेक, अर्द्ध-अमानवीय बर्बरता द्वारा व्यापक पैमाने पर विध्वंस और आतंक फैलाने के लिए बदनाम है। आरंभिक युग की युद्धनीति में ऐसे उपाय नहीं अपनाए जाते थे। बहरहाल, आज का विश्व जिस अंतरराष्ट्रीय आतंक का सामना कर रहा है, उससे निपटने की प्रणालियों की तलाश अलग से किए जाने की आवश्यकता है। अपने विरोधियों को आतंकित करने या उनपर दबाव डालने के लिए देशों द्वारा जान-बूझकर बल के अत्यधिक इस्तेमाल के उदाहरण प्रस्तुत करके इस मुद्दे को जटिल बनाने से हम मुख्य मुद्दे से भटक सकते हैं।

अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के अन्य रूप चाहे जो भी हों, 11 सितंबर, 2001 के बाद, सही या गलत, वह इसलामी जेहाद का समानार्थी बन चुका है। इसे सभ्यताओं का टकराव कहें या किसी अन्य प्रकार का टकराव, आधुनिकता तथा स्वतंत्रता का समर्थक शक्तिशाली समाज तथा रूढ़िवादिता और दमन के अतिवादी रूप के अंतिम गढ़ों के बीच संघर्ष अनिवार्य था। अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद या उससे निपटने के प्रयासों के विषय में बात करते समय ध्यान स्वतः ही देशों पर चला जाता है, जिनकी भागीदारी अधिकतम है, जैसे पाकिस्तान और अमेरिका। हालाँकि अफगानिस्तान में हस्तक्षेप के आरंभिक चरण में तालिबान को कुचलने में पाकिस्तान की प्रमुख भूमिका थी, मगर बाद के चरणों में उसकी भूमिका अस्पष्ट रही है। एक ओर उसे अमेरिका का सहयोग करते हुए देखा जाता है तो दूसरी ओर वह उतनी ही आसानी से अमेरिका की विरोधी शक्तियों को मजबूत करता है। इस प्रकार, चाहे इसे अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई कहें या गठबंधन, यह तथ्य अपनी जगह है कि आनेवाले कुछ समय तक इस युद्ध में मुख्य विरोधी अमेरिका और पाकिस्तान प्रायोजित तत्त्व ही होंगे, जो अमेरिका के प्रति शत्रुतापूर्ण प्रवृत्ति रखते हैं।

जवाबी काररवाई का पहला चरण अपेक्षाकृत छोटी अवधि का था। अमेरिका द्वारा तालिबान को सत्ता से बाहर करने में केवल कुछ माह का समय लगा। दूसरा चरण लंबा चल सकता है-कितना लंबा, कोई नहीं जानता; यहाँ तक कि परिणाम भी अनिश्चित हो सकता है। इसलामी आतंकवाद, जो विश्व के कई भागों में अमेरिका को निशाना बनाता रहा है, के खिलाफ लड़ाई तभी एक अंतरराष्ट्रीय लड़ाई बनी, जब अमेरिका पर सीधा हमला किया गया। अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद, मुख्यतः इसलामी कट्टरवाद, के खिलाफ गठबंधन इसलिए उभरा, क्योंकि इसका नेतृत्व अमेरिका कर रहा था। चूँकि उसने इसलामी जेहाद के आरंभिक प्रशिक्षण और उसे धन उपलब्ध कराने में बड़ी भूमिका निभाई थी और बाद में वह उसी का शिकार बना, अतः अंतरराष्ट्रीय खतरे के प्रति उसकी प्रतिक्रिया आतंकवाद से निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय नीतियों में मुख्य तत्त्व रहेगी। यही कारण है कि इस पुस्तक में अमेरिका पर अन्य सत्ताओं या पुस्तक के शीर्षक से संबद्ध विषयों की बजाय अधिक ध्यान दिया गया है।

यदि 11 सितंबर, 2001 को अमेरिका में वह आतंकवादी घटना घटित नहीं होती तो पाकिस्तान की इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस (आई.एस.आई.) समर्थित अलकायदा आतंकवादियों का प्रभाव बढ़ना जारी रहता। इस विकास को किसी निश्चित सीमा में बाँधना कठिन होगा। बस, यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यदि इसे कुछ और वर्षों तक नियंत्रित नहीं किया जाता तो उसमें इनमें से कोई या सभी क्षमताएँ विकसित हो सकती थीं-

• चेचन्या के युद्ध को अन्य रूसी गणतंत्रों में विस्तृत किया जा सकता था।
• कश्मीर में गतिविधियों को उस स्तर तक विस्तृत किया जा सकता था, जहाँ भारत सरकार को पाकिस्तान के साथ युद्ध करने का फैसला लेना पड़ सकता था।
• इंडोनेशिया, फिलीपींस, सिंगापुर और मलेशिया में अधिक हिंसक इसलामी आंदोलन शुरू किए जा सकते थे।
• अफगानिस्तान पर पूरी तरह कब्जा किया जा सकता था।
• मध्य एशिया के कई भागों पर प्रभावी प्रभुत्व स्थापित किया जा सकता था।
• विद्यमान सऊदी सत्ता पलट दी जाती या इसके कगार पर होती।
• यूरोप, भारत, ऑस्ट्रेलिया और अन्य देशों के कई भागों में 11 सितंबर की तरह आतंकी हमले करने की प्रभावी क्षमता स्थापित की जा सकती थी
• परमाणु क्षमता का विकास किया जा सकता था।
• रासायनिक और जैविक हथियार विकसित किए जा सकते थे।
• अमेरिका तथा उसके हितों को पूरे विश्व में अधिक उच्च स्तरों पर नुकसान पहुँचाने की क्षमता विकसित की जा सकती थी।
• मध्य-पूर्व और अन्य स्थानों पर सत्तापलट करने के लिए इसलामी दस्तों के पूर्ण विकसित प्रशिक्षण केंद्र के रूप में अफगानिस्तान को विकसित किया जा सकता था।
• पाकिस्तान का तालिबानीकरण हो सकता था या पाकिस्तानी सेना और आई.एस.आई. के तत्त्वों के साथ पर्याप्त तालमेल किया जा सकता था।
• मध्य पूर्व और मध्य एशियाई तेल उत्पादन तथा प्रवाहों को नियंत्रित करने के प्रयास किए जा सकते थे।
• नशीले पदार्थों का अंतरराष्ट्रीय व्यापार स्थापित किया जा सकता था।
• अमेरिका, पश्चिम और विश्व में अन्य कहीं रह रहे मुसलमानों को उनकी आय का एक हिस्सा इसलामी कोषागार में देने के लिए आतंकित किया जा सकता था।
• विश्व पूँजी-प्रवाह को प्रभावित करने के लिए कई नकली कॉरपोरेशनों द्वारा विश्व की चुनिंदा कंपनियों को टेक-ओवर किया जा सकता था।
• बँगलादेश का जेहादीकरण किया जा सकता था।

• धमकियों या सुनियोजित हत्याओं द्वारा भारतीय मुसलमानों की मानसिकता को काबू में किया जा सकता था।
यदि आई.एस.आई. तथा अल-कायदा के नेटवर्क ने अमेरिका को निशाना नहीं बनाया होता और अपनी गतिविधियों को यूरोप, रूस, भारतीय उपमहाद्वीप और अन्य स्थानों तक सीमित रखने का फैसला किया होता तो वे दुनिया भर में व्यापक क्षति पहुँचा सकते थे और तब अमेरिका केवल मूक दर्शक बना रहता। यह भी संभव है कि फोकस का ऐसा परिवर्तन पाकिस्तान और अफगानिस्तान के मदरसों में दी जा रही तालीमों की प्रकृति के कारण इस प्रकार के परिणाम उत्पन्न नहीं कर पाता। ‘अमेरिका को मौत’ आदि नारों द्वारा युवा मस्तिष्कों में भरी जा रही स्थायी नफरत ने उन उत्साहित लोगों को आत्मघाती हमले करने के लिए एक सुनिश्चित आधार दिया।

अमेरिका के अलावा विश्व के शायद ही किसी देश में पाकिस्तान, तालिबान व अल-कायदा गठबंधन को निर्णायक तरीके से नियंत्रित करने की क्षमता होती। कुछ सफलता के साथ उससे निपटने का प्रयास कर सकनेवाला एकमात्र दूसरा देश भारत था। उसे पाकिस्तान के खिलाफ एक पूर्ण युद्ध शुरू करना पड़ता। पाकिस्तान की सैन्य पराजय स्वतः ही अफगानिस्तान में तालिबान अल-कायदा को कमजोर बना देती। तब निस्संदेह भारत को इसकी बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ती।
अफगानिस्तान में तालिबान शासन के द्वारा जो शक्ति-प्रदर्शन किया जा रहा था, उसकी क्षमता को निकट से देखते हुए यह निष्कर्ष निकलता है कि इसलाम का कोई तत्त्व शक्ति-प्रदर्शन को प्रेरित नहीं कर रहा था, बल्कि इसका उद्देश्य इसलामवादियों द्वारा पूरे मध्य एशिया को कब्जे में करना था। विस्तृत होने पर, उग्रवादी इसलामी शासकों की स्थिति मजबूत होना मध्य एशियाई हाइड्रोकार्बन भंडारों के विपणन पर उनका प्रभुत्व उसी प्रकार सुनिश्चित करता जिस प्रकार ओपेक तेल गठबंधन द्वारा प्रभुत्व स्थापित किया गया, या अमेरिका द्वारा खाड़ी पर सैन्य प्रभुत्व स्थापित किया गया; अंतर यह है कि मध्य एशिया में दोनों पक्ष एक साथ एक ही समूह के हाथों में आ जाते। यह एक अलग मुद्दा है कि किसी स्तर पर तालिबान, जिसकी इसलामी व्याख्या कुछ अधिक रूढ़िवादी थी, अपनी आजादी पर बल दे सकते थे। फिर भी, उनकी भौतिक लालसा वही रहती।

नशीले पदार्थों के एक विस्तृत अवैध व्यापार द्वारा और क्षेत्र की हाइड्रोकार्बन समृद्धि के पूर्ण विपणन द्वारा इसलामवादियों के पास प्रचुर धन रहने के कारण वे एक उल्लेखनीय अंतरराष्ट्रीय प्रभाव विकसित कर सकते थे। उस स्थिति में वे अमेरिका या किसी अन्य महाशक्ति के प्रभाव में नहीं आते। सशक्तीकरण की प्रक्रिया में वे परमाणु हथियार और उन्हें इस्तेमाल करने की तकनीक हासिल कर लेते। उग्रवादी अंतरराष्ट्रीय मुसलिम समुदाय के एक बड़े हिस्से पर आधुनिकता-विरोधी धार्मिक रूढ़िवादिता को लागू करके एक अंतरराष्ट्रीय पहचान हासिल कर लेता। चंद वर्षों, या चंद दशकों बाद, अगला चरण तेजी से बढ़ते मुसलिम समुदायों द्वारा यूरोप और अमेरिका में उनकी शक्ति का विस्तार होता। उस समय तक मुसलिम समुदायों को पश्चिम में अच्छी-खासी संख्या में बसा दिया जाता। जो लोग उनसे सहमत नहीं होते उन्हें हिंसा और आतंक द्वारा रास्ते पर लाया जाता, जैसा पाकिस्तान, अफगानिस्तान और कुछ अन्य देशों में पहले से ही हो रहा है।

इससे जो बात उभरती है, वह यह है कि 11 सितंबर से पहले इसलामिक आतंकवाद अंतरराष्ट्रीय शक्ति बनने की राह पर अग्रसर था। खुद को एक टकराव के लिए तैयार करते इसलामिक आतंकवादियों को दो अत्यंत शक्तिशाली मुसलिम देशों-सऊदी अरब और पाकिस्तान से सशक्त सहयोग प्राप्त था। तथाकथित ‘धर्म के हाशिए पर स्थित सीमांत तत्त्व’ वास्तव में उन्हें समर्थन दे रहे देशों के भू-रणनीतिक दृष्टिकोण के अगुआ थे। उन्हें पूरे विश्व में बड़ी संख्या में मौजूद मुसलिम समुदाय के लोगों से सहयोग मिल रहा था, जो इसलामी धार्मिक संस्थाओं को दान देकर उनके खजाने को भरते थे। इन संस्थाओं के धन को उन देशों के निवासियों के स्वास्थ्य, शिक्षा या विकास-संरचना में सुधार के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाता था बल्कि इसलाम को उग्र बनाने के लिए किया जा रहा था। वह इक्कीसवीं शताब्दी की शुरूआत में विश्व-शांति के लिए सबसे जोरदार खतरा बनने की राह पर था।

इसलामी जेहाद की बात करते हुए एक ऐसी विचारधारा का उल्लेख किया जाता है, जिसका उद्देश्य एक इसलामी राज्य की स्थापना है और इसके लिए हिंसा सहित किसी भी उपाय का सहारा लिया जा सकता है। सद्भभावनापूर्ण सह-अस्तित्व की ओर वापस मुड़ने का रास्ता तभी प्राप्त किया जा सकता है, जब सर्वप्रथम अंतरराष्ट्रीय मुसलिम समुदाय में इस अवधारणा के प्रति समर्थन के स्तर के बारे में ठीक-ठीक पता लगाया जा सके। इससे यह पता चलता है कि इसलाम के समर्थकों की अच्छी-खासी संख्या इस विचारधारा को प्रोत्साहित करती है, फिर वह सहज रूप से सभ्यताओं का टकराव बन जाता है। उस स्थिति में, दोनों पक्षों के रुकने या किसी एक पक्ष के स्पष्ट विजेता के रूप में उभरने से पहले जो लड़ाई लड़ी जाएगी, वह एक लंबी और थकाऊ लड़ाई होगी। दूसरी ओर, यदि यह पता चलता है कि उस धर्म के अनुयायियों की छोटी संख्या ने इसलाम के तथाकथित दुश्मनों के दिलों-दिमाग में आतंक फैलाने का ठेका ले रखा है तो न्यूनतम रक्तपात और संप्रदायों के बीच न्यूनतम अलगाव के साथ स्थिति को नियंत्रण में किया जा सकता है।

11 सितंबर की घटनाओं के तुरंत बाद देश के नाम अपने संदेश में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश ने ‘भवनों में विमानों के घुसने, भयानक आग लगने, विशाल भवनों के ढहने के दृश्यों से लोगों में अविश्वास, भयावह उदासी और एक मौन क्रोध पनपने’ की बात कही। उसके बाद जल्द ही अमेरिकी हस्तक्षेप द्वारा अफगानिस्तान को तालिबान और उसके सहयोगियों के आतंकी पंजे से आजाद करा लिया गया। भयानक प्रतिशोध द्वारा अपने घोर शत्रु को कुचलने के साथ ही अमेरिका का गुस्सा काफी हद तक शांत हो जाना चाहिए था। और यदि ऐसा नहीं हुआ तो अमेरिकी जनता के साथ-साथ पूरे विश्व की जनता यह जानना चाहेगी कि इस क्रोध का अंत कब होगा-जब अमेरिकी प्रतिष्ठान के दिल में प्रतिशोध की ज्वाला बुझ जाएगी तब या जब अत्यधिक रक्तपात के कारण इसलामी आतंकवादियों की नई पीढ़ी के हृदय में प्रतिशोध की नई ज्वाला प्रज्वलित होगी, तब ? कौन फैसला करेगा कि ‘अब बहुत हो गया है’ ?



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