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ठहरी हुई नाव और सतरंग मोरपाखी

निशि श्रीवास्तव

प्रकाशक : प्रतिभा प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2624
आईएसबीएन :81-88266-43-4

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एक उत्कृष्ठ सामाजिक उपन्यास...

Thahari Hui Nav Aur Satranga Morpakhi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

जीवन रूपी नाव की पतवार साधने का कुशल नाविक जैसे कार्य जितनी कुशलता से स्त्री कर रही है, पुरूष कदाचित नहीं। स्त्री का निस्वार्थ प्रेम, वात्सल्य, त्याग, सेवा और समर्पण जैसे गुणों ने ही उसे स्त्रीत्व की उच्च गरिमा दी है। निशि श्रीवास्तव के इस उपन्यास में स्त्रीत्व के उसी आदर्श एवं गरिमा-युक्त स्वरूप की झाँकी प्रस्तुत की गई है। इसमें स्त्री जीवन के समग्र पक्ष को सर्वथा नूतन दृष्टि से उकेरा गया है।

ठहरी हुई नाव और सतरंगा मोरपाखी 

एक


टन-टन-टन-टन !
आर्य कन्या स्कूल में सुबह-सुबह प्रार्थना की घंटी बजी। छात्राएँ अपनी-अपनी कक्षा से निकलकर कतार में लगकर मैदान में आकर खड़ी होने लगीं।

स्कूल के उस बड़े मैदान में बरगद के एक पुराने वृक्ष के नीचे होनेवाली इस प्रार्थना का नियम करीब तीस वर्षों से चला आ रहा था। बरगद के उस वृक्ष के पास हर नई प्रिंसिपल, अध्यापिकाओं और छात्राओं के आते-जाते चेहरों का लेखा-जोखा था। उस बरगद के पेड़ के चारों ओर सीमेंट का एक चबूतरा था। उस पर बैठकर छात्राओं की हर समस्या का समाधान निकल आता। चाहे मासिक टेस्ट में खराब नंबर आए हों, टीचर से डाँट पड़ी हो या फिर प्रिय सहेली से मन-मुटाव हुआ हो, उस चबूतरे पर बैठ बतियाकर लड़कियाँ कोई-न-कोई हल ढूँढ़कर हलके मन से अपनी-अपनी कक्षा में दौड़ जातीं।

उस दिन भी सुबह प्रार्थना सभा के लिए मैदान में होने वाली आवा-जाही थी। चबूतरे पर हारमोनियम पर हाथ साधे बैठी म्यूजिक टीचर मिस पटनायक की कुछ चुनी हुई शिष्याओं के मीठे सधे गले से आरम्भ हुई गीत की पंक्तियाँ। सभी छात्राओं ने एक स्वर में प्रार्थना-गीत गाना आरम्भ किया—

‘‘वह शक्ति हमें दो दयानिधे, कर्तव्य मार्ग पर डट जावें।
पर सेवा पर उपकार में हम जग-जीवन सफल बना जावें।’’

गीत समाप्त हुआ तो सबकी नजरें प्रिंसिपल मिस चक्रवर्ती की ओर थीं। कुछ देर की खामोशी के बाद मिस चक्रवर्ती ने बात शुरू करने से पहले भूमिका बाँधने के लिए अपने चश्मे की कमानी को सीधा किया और गले को पकड़कर खाँसने का उपक्रम किया।
‘‘जैसाकि आपको मालूम है, यह वर्ष पूज्य महात्मा गांधी की जन्म-शताब्दी का है, इसलिये हमारे स्कूल प्रांगण में अगला सप्ताह गांधी जन्म शताब्दी के रूप में मनाया जाएगा।’’
‘‘यानी एक हफ्ते की छुट्टी।’’ साइंस क्लब की प्रेसीडेंट रेखा फुसफुसाई।
‘‘धत्त ! प्रैक्टिकल्स का क्या होगा ?’’ बारहवीं की छात्रा मर्सी ने डपटा।
‘‘सुनो ! सुनो ! मिस क्या कह रही हैं ?’’

‘‘परसों सोमवार को सप्ताह का प्रारंभ स्कूल के मैदान में दरिद्रनारायण के लिए आयोजित एक भोज के साथ होगा।’’
‘दरिद्रनायारण !’ अटपटा शब्द सुनते ही ग्यारहवीं बी की छात्राओं की हँसी फूट पड़ी। पास खड़ी क्लास टीचर मिस जोशी की तीव्र दृष्टि से सहमकर मृदुला अपने मोजे से तिनके निकालने के बहाने नीचे झुकी, मगर तब तक रोज की तरह एक बार फिर स्कूल की प्रार्थना के समय जबरन ओढ़ाए गए मौन को भंग करती हँसी छुतहे रोग की तरह ग्यारहवीं कक्षा की छात्राओं की पंक्तियों को पार करती अंत तक फैल गई थी। पंक्ति के अंत में खड़ी पत्ना और सुमन ने जल्दी से अपनी हथेलियों को मुँह से ढँक लिया। इस दौरान मिस चक्रवर्ती के द्वारा उद्घोषित साप्ताहिक कार्यक्रमों को सुनने से वंचित रह गई सुमन ने रत्ना के हाथ को धीरे से दबाकर कहा, ‘‘सुनो ! सुनो !’’

मिस चक्रवर्ती उस दिन की प्रार्थना-सभा को समाप्त करती हुए बोलीं, ‘‘इंटर स्कूल चित्रकला प्रतियोगिता के लिए हमारे स्कूल से भेजे जाने वाले चित्र का चयन हो गया है। वैसे तो कई छात्राओं का प्रयास बहुत सराहनीय था, परंतु चूँकि एक ही चित्र भेजा जाना है, इसलिए प्रथम स्थान मिला है ग्यारहवीं की सुमन माहेश्वरी के चित्र को। यही चित्र प्रतियोगिता में भेजा जाएगा।’’

‘‘और रत्ना !’’ कोई जोर से बोली। पता नहीं, यह सुनकर या स्वयं ही, मिस चक्रवर्ती ने तुरंत खुलासा किया--
‘‘रत्ना सहाय के चित्र को दूसरा स्थान मिला है।’’
प्रार्थना-सभा समाप्त हुई। खामोश चलती रत्ना चुपचाप क्लास में आई और गुमसुम बैठी रही। क्लास में फुसफुसाहट जारी थी-‘‘रत्ना तो इतनी अच्छी पेंटिंग करती है।’’
‘‘फिर ?’’
‘‘पता नहीं ?’’
आधे दिन तक चलती फुसफुसाहट तब रुकी जब खाने की छुट्टी में रत्ना रो पड़ी। मंगला और सुमन-दोनों ने सुबकती रत्ना का हाथ पकड़ा और धीरे-धीरे चलकर मैदान में बरगद के चबूतरे के एक खाली कोने में जा बैठी। थोड़ी देर रोने के बाद रत्ना का मन हल्का हो गया।

खाने की छुट्टी के बाद ही क्राफ्ट पीरियड था, जिसमें जाने से रत्ना कतरा रही थी, मगर जाना तो था ही। रत्ना को पता था कि उसी क्राफ्ट रूम में रखा होगा उसका चित्र, जो प्रतियोगिता में जाने से वंचित रह गया था। क्राफ्ट क्लास में रत्ना की सूजी हुई आँखें और लाल चेहरा देखते ही ड्राइंग टीचर मिस विश्वास सबकुछ समझ गईं। अटेंडेंस लेकर उन्होंने रजिस्टर बन्द किया और चुने हुए चित्रों को क्लास मानीटर द्वारा स्टाफ रूम से मँगवा लिया। थोड़ी देर बाद कंचन लौटी तो उसने टीचर के कहने पर रत्ना के हाथों बने चित्र को छाँटकर निकाला और मिस विश्वास के सामने पड़ी मेज पर फैला दिया।
‘‘रत्ना ! आओ !’’

मिस के बुलाने पर रत्ना धीरे-धीरे आकर पास उदास खड़ी हो गई और अपने चित्र को देखने लगी। तब मिस ने कहा-
‘‘लाओ, हम बताते हैं कि क्या कमी रह गई।’’
मिस ने अपनी आँखें चार्ट पेपर पर बने रंगीन चित्र पर दौड़ाईं। चित्र में सुबह के उगते सूरज की ललाई से ढका नीला स्वच्छ आकाश था, जिसे ढकने की कोशिश भूरे-भूरे पहाड़ कर रहे थे। छोटी-छोटी पहाड़ियों के पीछे से झाँकता हरी-भरी झाड़ियों का झुरमुट बहुत सजीव लग रहा था। पहाड़ियों और झाड़ियों के बीचोबीच खड़ा एक छोटा सा कॉटेजनुमा घर अपनी ओर आकर्षित कर रहा था, जिसकी दो खिड़कियाँ स्पष्ट रूप से चित्रित की गई थीं।

घर के बीचोबीच खुलते दरवाजे से ही एक हल्के भूरे रंग का मार्ग दर्शाया गया था, जो टेढ़ा-मेढ़ा होकर सर्पिल आकार ग्रहण करता ढलान से नीचे फिसलते जाने के लिए मजबूर था। मिस ने ध्यान से देखा; चित्र की मौलिकता को देखकर उनकी आँखों में प्रशंसात्मक भाव उभरा।
चित्र के निचले भाग में स्वच्छ पानीवाली सफेद बुंदकियों से ढकी एक नीली नदी बहती हुई दिखाई गई थी, जिसके भीतर से सिर उठाई कुछ मछलियाँ चित्रकार की बचकानी उम्र का वास्ता देती हुई ताक-झाँक कर रही थीं। पानी से झाँकती मछलियों को अपनी उपस्थिति अनावश्यक लग रही थी। यह भाव देखकर मिस हँस पड़ीं तो रत्ना हतप्रभ हो गई। उसने मिस की तरफ देखा, मगर वह अभी भी चित्र को बारीकी से चुपचाप परखे जा रही थी। पता नहीं, क्या सोचकर चित्रकार ने बहुत मनोयोग से चित्र का समापन नदी के किनारे एक नाव बनाकर किया था। मिस को बहुत अचरज हुआ कि नाव में बैठाई गई लड़की का चेहरा एवं उसकी दो चोटियों में बँधे लाल रिबन के फूल जितनी सजीवता पूरे चित्र को प्रदान कर रहे थे, उसे कम कर रहा था नाव का सादापन।

मिस को नाव का बेरंगा रूप खटक गया। ‘‘रत्ना ! तुम यदि इस नाव में भी रंग भर देतीं या कोई चित्रकारी कर देतीं तो यही चित्र पूर्णता पाकर बहुत ही सुन्दर बन जाता !’’
‘‘टाइम ही नहीं बचा था, मिस !’’
रत्ना भारी मन लिये सिर उठाए वापस अपनी सीट पर लौट गई। पीरियड खत्म हुआ तो घंटे की टन-टन के साथ टीचर उठ खड़ी हुईं। कंचन टीचर का रजिस्टर, फाइल समेटकर स्टाफ रूम में पहुँचाने के लिए पीछे-पीछे चल पड़ी। पुराने खत्म हुए पीरियड और नए शुरू हुए पीरियड के बीच के समय को पकड़ती हुई लड़कियाँ जल्दी-जल्दी व्यस्त हो गईं। कोई अपनी डेस्क में छिपाए गए कैथा के आधे टुकड़े को निकालकर जल्दी से खा रही थी, तो कोई बाथरूम की तरफ दौड़ पड़ी। पानी पीने के लिए जाने के बहाने तीन लड़कियों का गुट बाहर निकलने को था, मगर मैथ्स की टीचर को आते देखकर लौट पड़ा। टीचर के आते ही पूरी क्लास में एक फिर शांति छा गई। रत्ना भी अब सामान्य होकर मैथ्स टीचर द्वारा दिए हुए सवालों को मन लगाकर हल कर रही थी। उसका मन कुछ-कुछ हलका हो गया था।

रत्ना ने घर लौटकर अपना वह चित्र आलमारी में रख दिया और मन में निश्चय किया कि वह किसी दिन उसको पूरा करेगी। समय के अभाव में अधूरा रँगा वह चित्र पूरा करने के लिए रत्ना ने समय को पकड़ना नहीं चाहा या भागता समय उसकी पहुँच के बाहर रहा, यह न तो समय को पता चला और न ही वह समझ पाई।
बीतते समय के इन बरसों में रत्ना की दोनों दीदियों की शादी हो गई। घर में रह गए छोटे भाई पीयूष और माँ-पापा के साथ रत्ना। मन होते हुए भी वह कभी उस चित्र को पूरा नहीं कर सकी। जब जब वह सोचती तब-तब घर में नियम से होते किसी आयोजन की प्रमुखता दिलाता समय मुँह बिचकाकर रत्ना को चिढ़ाता हुआ भाग खड़ा होता। कभी बड़ी दीदी के लड़के का मुंडन तो कभी छोटी दीदी की बेटी का अन्नप्राशन तो कभी छोटे भाई की सालगिरह। रत्ना सभी आयोजनों में व्यस्त रहती और अपना बचा हुआ समय अपनी निरंतर बढ़ती जाती पढ़ाई के भार को सौंप देती तथा अचानक किसी रात आत्मग्लानि से भर उठती-‘‘क्यों नहीं पूरा कर पाई अपने उस चित्र को मैं ?’’

बहुत दिनों के बाद उस दिन घर में पूरी शांति छा गई। रत्ना की एम.ए. की परीक्षा खत्म हुई थी। फुरसत का बहुत सा समय पाकर रत्ना को फिर अपना अधूरा काम याद आ गया। छोटा भाई पियूष कुछ दिनों के लिए ननिहाल गया था। पापा के लौटने में बहुत वक्त था। इसलिए रत्ना ने कुछ सोचा और दृढ़ निश्चय के साथ उठकर चार्ट पेपर पर बना अपना चित्र अलमारी से उतारा और रंग लेकर बैठ गई। चित्र में बनी बेरंगी नाव को देखते ही रत्ना के मुँह से सुरीले गीत के बोल फूट पड़-

‘‘मोरे सँइयाँजी उतरेंगे पार हो नदिया धीरे बहो !’’

बहुत देर से बैठी, गुनगुनाती रत्ना ने ब्रश में लाल रंग लगाया ही था कि दरवाजे की कुंडी खड़की। अम्मा शायद पूजाघर में थी, इसलिए मन मसोसकर रत्ना उठी, यह सोचते हुए कि जरूर पड़ोस की मिश्रा चाची होंगी। दरवाजा खोलते ही रत्ना आश्चर्य से बोली, ‘‘पापा ! आप इतनी जल्दी लौट आए ?’’
‘‘क्यों ? तीन तो बज गए हैं।’’
‘‘ओ !’’ समय का पता ही नहीं चला !’’

उस दिन समय ने अपने ऊपर लगे बरसों पुराने अभियोग से अपने आपको मुक्त किया था। मगर पता नहीं, क्या हुआ कि रत्ना उस अभियोगमुक्त समय को फिर भूल नहीं पाई।
पापा ने रत्ना के हाथ से पानी का गिलास लिया और आराम-कुरसी पर टेक लगाते हुए पूछा, ‘‘तुम्हारी अम्माँ कहाँ हैं ?’’
इतने साल हो गए, रत्ना ने कभी नहीं देखा कि पापा लौटकर अम्मा को पूछें। शायद इसलिए कि उन्हें विश्वास था कि उस घर की चारदीवारी के नियम और दिनचर्या में बँधी पत्नी कहाँ जाएगी। इसीलिए पापा लौटकर, अम्मा की तरफ से निश्चिंत होकर उससे बिना कुछ बोले लाडली बिटिया रत्ना से बात करते। उसकी पढ़ाई, सहेलियों या फिर सामयिक खबरों के महत्व के अनुसार ही पिता और बेटी के बीच वार्तालाप होता आया था। पीयूष छोटा था, इसलिए उससे पापा की बातचीत कम होती थी। मगर उस दिन पापा की गंभीर मुद्रा से रत्ना को लगा कि कुछ बदल-सा गया है वह सहम गई।

‘‘अम्मा, पापा बुला रहे हैं।’’ कहकर रत्ना आँगन में फैले कपड़ों को उठाकर अंदर चली गई। बाहरी बरामदे में अम्मा और पापा के असामयिक संवाद से उदासीन हुई रत्ना अभी भी कपड़े तह करती हुई उँगलियों पर लगे लाल रंग को देख रही थी, तभी पापा की नई बात पर चौकन्नी हो गई।
‘‘प्रो. रामेश्वर प्रसाद का नाम तो सुना है न ?’’
‘‘वही, जो इलाहाबाद में हैं ?’’
‘‘हाँ-हाँ, वही ! उन्हीं का स्टूडेंट है सागर लाल !’’

रत्ना बरामदे के खंभे की आड़ में खड़ी होकर भौंचक्की बनी पापा की बात न सुनना चाहकर भी सुनने के लिए ठिठकी थी। ‘‘गुड्डो के लिए उनकी पत्नी ने भाई साहब के यहाँ कहलवाया है। उनके लड़के का जनेऊ था। भाभी के मायके की तरफ से कुछ रिश्तेदारी है उनकी, इसलिए वो भी आई थीं शायद।’’
‘‘हाँ ! देखा तो था हमने !’’
अम्मा ने लौकी के छिलके को उतारकर चाकू की नोक से लौकी को बीचोबीच फाड़कर बीज तलाशना शुरू कर दिया। अम्मा की निश्चिंतता रत्ना को अच्छी नहीं लगी।
अम्मा अब लौकी के छोटे-छोटे टुकड़े कर रही थीं। लौकी की सब्जी पर गुस्सा तो रत्ना को बहुत आता था, मगर वह कभी कुछ कहती नहीं थी। तभी अम्मा कुछ सोचकर बोली, ‘‘मगर गुड्डो तो अभी इक्कीसवें में ही लगी है। बहुत बचपना है उसमें !’’

अम्मा के जवाब को सुनकर रत्ना का गुस्सा कुछ कम हुआ।
‘‘सोच लो। रिटायमेंट के पहले मुझे इस जिम्मेदारी से निपटना है या नहीं फिर, लड़का बहुत मेधावी है, यूनिवर्सिटी में लेक्चरर है, प्रो. प्रसाद की ही देख-रेख में पढ़ा-लिखा है। उन्हीं के गाँव का है, और घर-परिवार में कोई नहीं है, सिवाय बूढ़ी माँ के !’’ कहते-कहते पापा हाँफ से उठे।
पापा इतना ज्यादा कभी बोलते नहीं, वो भी माँ से। माँ से हर बात वह रत्ना या पीयूष को माध्यम बनाकर ही करते; मगर उस दिन माँ और पापा के बीच होती बातचीत का विषय बनना रत्ना को बहुत अखरा। वह एकदम से बरामदे में आई और बोली, ‘‘फिर लौकी की सब्जी ?’’

थोड़ी देर पहले होती बात को इंगित करती हुई माँ पति से बोल पड़ी, ‘‘देख लिया आपने !’’
लेकिन सीधे-सादे पापा अपनी जिद पर उतारू थे। जूते के शेल्फ पर जूता रखकर, पाँव में चप्पल डालकर बाथरूम की तरफ बढ़कर उन्होंने बात खत्म कर दी।
‘‘हम कल ही इलाहाबाद जा रहे हैं प्रो. प्रसाद से मिलने। सुबह जल्दी निकलेंगे।’’ पापा ने रत्ना को पुकारा, ‘‘बेटा गुड्डो ! जरा तौलिया तो देना !’’

एक ही बार में मानो डॉ. सहाय ने अपनी पत्नी-और रत्ना-दोनों को आने वाले बदले समय के लिए मन को तैयार कर लेने की सलाह दे दी।
रत्ना पापा को तौलिया थमाकर हारी सी जा बैठी नाव के पास, अभी-अभी रंगा था। नाव को इतना सुंदर रूप देकर वह फूली नहीं समा रही थी।
अचानक ही माँ को रत्ना पर बहुत प्यार उमड़ पड़ा।
‘‘गुड्डो ! लौकी नहीं खाओगी तो तुम्हारे लिए आलू-बरी बना देते हैं, ठीक है ?’’
‘‘नहीं, रहने दो, अम्मा ! जो काट चुकी हो वही बना लो !’’
बरामदे पर रखे तख्त पर बैठकर रत्ना ने सुबह के अखबार के अंदर अपना रुआँसा चेहरा छिपा लिया।

:दो:


गाँव के घर में आजी (दादी) के छोटे कमरे, जो प्रायः सूना पड़ा रहता था, में चहल-पहल थी। आजी के एकमात्र पुत्र सागर छुट्टी पर मिलने आए हुए थे। शहर में यूनिवर्सिटी कैंपस में मिले अपने छोटे भाई से क्वार्टर में सागर किताबों के निरंतर बढ़ते बोझ से जब घबरा जाते तो खुली हवा में साँस लेने के लिए माँ के पास आ जाते। मगर उनका यह आना क्षणिक होता और छह-सात महीने बाद ही संभव हो पाता। आजी और सागर से ज्यादा बात नहीं होती, मगर एक-दूसरे की उपस्थिति में परिचित भावों के आदान-प्रदान से दोनों का बोझ बहुत कुछ हल्का हो जाता। दो-तीन दिनों बाद अपने पैरों पर झुकते पुत्र को मन-ही-मन कुछ बुदबुदाकर आजी विदा कर देतीं। माँ का पैर छूकर सागर एक झटके में बाहर निकल जाते और आजी तुरंत जाकर अपने कमरे में बिछी चारपाई पर जा पड़तीं। पता नहीं कितने साल से यह नियम चलता आ रहा था।
पता नहीं, कब और क्यों सागर की माँ को उस गाँव में सबने ‘आजी’ कहकर पुकारना शुरू कर दिया था। पति की मृत्यु के बाद उनको घर की बड़ी-बजुर्ग की पदवी क्या प्राप्त हुई, उनकी युवावस्था को अनदेखा करके वैधव्य को प्रमुखता प्रदान कर सभी ने उनको ‘आजी’ नाम दे दिया। सागर भैया के आने का उत्सव और जाने का खालीपन आजी समेत चचेरे बड़े भाई नंदकिशोर और उनकी पत्नी महसूस करती आ रही थीं। मगर उस दिन माहौल ही कुछ और था। आजी के कमरे में पूरा घर जुटा हुआ था।

बड़ी भाभी आजी के सिर में तेल लगा चुकी थीं और अब उनका धीरे-धीरे उनका माथा दबाने लगीं। प्रो, प्रसाद की पत्नी, जिन्हें सब ‘चाची’ कहते थे और आजी ‘कुसुमी’ कहकर पुकारती थीं, उस दिन ही शहर से गाँव आई थी।
कमरे में उस दिन एक और तख्त आ गया था, जिस पर बेफिक्री से सागर लेटे हुए थे। चाची के कमरे में घुसते ही सागर ने बड़े अदब से उठकर चाची को बैठने की जगह दी। कमरे में सागर की दोनों चचेरी बहनें भी मौजूद थीं।
सागर की शादी को लेकर फिर बहस हो रही थी। सागर, जो पिछले पाँच साल से पहले रिसर्च, फिर नौकरी मिलने की दुहाई दे-देकर शादी की बात खत्म कर देते थे, आज फिर बहनों और भाभियों के घेरे में फँसे मुसकरा रहे थे।
‘‘भैयाजी ! इस बार आप ‘हाँ’ कह दीजिए, फिर वापिस जाइए।’’ बड़ी भाभी ने सकुचाकर देवर से मनुहार की।
‘‘कैसी हाँ ?’’ सागर ने बनावटी अचरज से बोले।
भाभी के हाथ में तीन फोटो थे। तीन ब्याह योग्य कन्याओं की फुल साइज तसवीरें पन्नी में दबी हुई थीं।
तीनों फोटों को हाथ में लेते हुए चाची ने दृढ़ता से कहा, ‘‘सागर बेटा ! अब अपनी आजी को और परेशान मत करो। ये तीनों फोटो छाँटकर हम लोगों ने अलग की हैं। देख लो और अपनी पसंद बता दो।’’

‘‘तीनों को हाँ कह दें ?’’
‘‘चुप।’’ आजी ने हँसकर बेटे को डपटा।
‘‘चाची ! हम क्या फालतू के हैं, जो बस तीन फोटो में से एक के लिए हाँ कह दें !’’
यह सुनकर भाभी ने तीनों फोटो सागर के हाथ में जबरदस्ती थमा दीं।
बड़े अनमने भाव से सागर ने पहली फोटो पर निगाह फिराई, जैसे किसी नई आई किताब का मुआयना कर रहे हों। काली प्रिंट की साड़ी पहने हुए हाथ में पर्स ली हुई लड़की के नाक-नक्श बुरे नहीं थे। मगर हाथ में पर्स ?    



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