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इच्छा

भगवान अटलानी

प्रकाशक : ज्ञान गंगा प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2583
आईएसबीएन :81-85829-82-9

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ये कहानियाँ चारों ओर बिखरे बिंबों के माध्यम से काल का अतिक्रमण करती है....

Ichha

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

‘‘मुझे तकलीफ है, बिल्लू, बहुत तकलीफ है। लेकिन उसके इलाज डॉक्टर के पास नहीं है। दुनिया में सिर्फ तुम्हारे पास इलाज है उसका।’’ ‘‘मेरे पास’’ बिल्लू उसकी बात और उनकी स्थिति दोनों को समझ नहीं पा रहा था। ‘‘हाँ, सिर्फ तुम्हारे पास। मैं जिन्दगी में किसी के के सामने झुका नहीं हूँ। आज तुम्हारे सामने झोली फैलाकर भीख मागता हूँ। मेरा मनचाहा दे दो मुझे।’ ’
‘‘मुझे शर्मिदा मत करिए, पापा। आज्ञा दीजिए, आप जान कहेंगे तो वह भी दे देँगा।’’ उनकी आँखों में धार-धार आँसू बहने लगे रोते-रोते ही उन्होंने कहा, ‘‘अगर कुछ हुआ है तो भी उसे भूल जाओं, बेटा, तुम्हारे परिवार का दुःख मुझसे देखा नहीं जाता।’’ बिल्लू के चेहरे का रंग उतर गया। उसके होंठ कस गए।
उन्होंने अपने आँसुओं पर हालाँकि कब्जा कर लिया था, लेकिन मन फिर भी रो-रो कर बरसने को आतुर था।
विविधाएँ जीवन की उस अविभाज्य पहलू हैं। क्षण प्रति क्षण दौहिक व दैहिक स्तर पर होने वाले परिवर्तनों के हम सब साक्षी हैं। फिर भी बहुत कुछ ऐसा है जो समय स्थान और व्यक्ति परक भिन्नताओं के बावजूद हमेशा एक जैसा रहता है। प्रख्यात कथाकार व उपन्यास लेखन भगवान अटलानी की कहानियाँ चारों ओर बिखरे बिंबों के माध्य से काल का अतिक्रमण करती हैं। प्रस्तुत संग्रह ‘इच्छा’ में शामिल उनकी कहानियाँ पठक को दृष्टि-संपन्य तो बनाती हैं, भावनात्मक और वैचारिक उदात्तता भी प्रदान करती हैं।

अभिव्यक्ति की तड़प


साहित्य ऐसी रिले यात्रा है, जो विरासत के रूप में एक से दूसरे धावक के माध्यम से आगे बढ़ती है। इस यात्रा का न तो धावक निश्चित या निर्धारित होता है और न उसकी तयशुदा मंजिल होती है। अज्ञात मस्तिष्क न जाने किन प्रेरणाओं और संस्कारों के वशीभूत निरंतर रचनात्मकता के क्रम को गति प्रदान करते चलते हैं। उतार-चढ़ाव, दुःख-दर्द, चिंता-व्याधि जैसी जीवन के साथ अनिवार्यतः जुड़ी संभावनाओं के बीच खुद को अभिव्यक्त करने की छटपटाहट साहित्य की यात्रा को प्रवहमान बनाए रखती है। स्थितियाँ-परिस्थितियाँ जिनती विपरीत होती जाती हैं, अभिव्यक्त करने की छटपटाहट उतनी ही बढ़ती है।
1993 में घुटने से नीचे की हड्डियाँ—फिबूला और टीबिया—तीन स्थानों से टूटीं। ट्रेक्शन लगा। सीधा लेटना और छत को देखते रहना ही एकमात्र काम रह गया था गोया। मिजाजपुर्सी के लिए आनेवाले स्वजन। पाँवों की ओर टेलीविजन सेट। सिरहाने रेडियो-कम-टेपरिकॉर्डर। तकिए के पास किताबें। पलंग की बगल में टेलीफोन। समय गुजारने के लिए यथासंभव भरपूर व्यवस्थाएँ थीं। अनेक पुस्तकें थीं, जिन्हें दोबारा पढ़ना चाहता था। अनेक गैर फिल्मी व फिल्मी गीत, गजलें थीं, जिन्हें जी भरकर सुनना चाहता था। जीवन की आपाधापी ये चाहतें पूरी करने नहीं देती थी। उन दिनों ये सभी इच्छाएँ पूरी कीं।

इन सबके बावजूद मेरी विवशता थी कि मैं बैठ नहीं सकता था; इसलिए लिखना संभव नहीं था। करवट बदलकर लेटने की भी मनाही थी। बहुत कुछ था, जिसे मैं व्यक्त करना चाहता था। ताजा अनुभूतियाँ तो थीं ही, मुद्दत से सोच की धीमी आँच पर पकते कथाबिंब भी थे। समय था; किंतु लिख सकूँ, ऐसी स्थिति नहीं थी। इस समय समस्या से निकलने के उपाय ढूँढ़ रहा था कि एक संपादक मित्र ने बोलकर लिखवाने का परामर्श दिया। साहित्यिक लेखन इस ढंग से कभी किया नहीं था। फिर भी, प्रयोग के तौर पर स्टेनोग्राफर को डिक्टेशन देकर खुद को अभिव्यक्त करने का निर्णय लिया। आपबीती पर आधारित पहली हास्य-व्यंग्य रचना ‘टाँग टूटने का सुख’ लिखवाने के बाद लगा कि यह प्रयोग जारी रखा जा सकता है। यह रचना तब दिल्ली से कन्हैयालाल नंदन के संपादन में प्रकाशित होनेवाले साप्ताहिक ‘संडे मेल’ में विशिष्ट साज-सज्जा के साथ दूसरे सप्ताह में ही छपी, तो जैसे मेरे निर्णय पर मोहर लग गई। इस अवधि में युवा स्टेनोग्राफर राम नाथानी के सहयोग से सत्रह रचनाएँ लिखी गईं। इनमें पंद्रह कहानियाँ और एकांकी शामिल हैं। बाद में ये सभी कहानियाँ देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। एकांकी पुरस्कृत भी हुई और एकाधिक बार मंचित भी हुई। प्रस्तुत संग्रह में उन सभी कहानियों को सम्मिलित किया गया है।

व्यक्ति सदैव सकारात्मक परिस्थितियों की आकांक्षा करता है; किंतु शायद बेहतर परिणाम विपरीत परिस्थितियों की ही उपज होते हैं। लेखन मुझे सदैव अनिर्वचनीय सुखानुभूति प्रदान करता रहा है। मगर इन कहानियों ने इतना अधिक तोष दिया है कि कभी-कभी समानांतर परिस्थितियों की इच्छा आकार लेने लगती है....। बहरहाल, सृजन की निरंतरता के वाहक—अभिव्यक्ति की तड़प के वशीभूत—साहित्य की यात्रा को अनंतकाल तक जारी रखेंगे, यह संग्रह इस सच्चाई का प्रमाण तो है ही।

इच्छा


तुम्हें पत्र लिखने की प्रेरणा एक कहानी ने दी है। आज शाम को वह कहानी पढ़ते समय तुम लगातार मेरे सामने घूमती रहीं। आज जो हो रहा है वह अच्छा नहीं है, यह तो मैं जानती हूँ; किंतु कल उसमें सुधार आएगा या बिगाड़, सचमुच मैं इस बात को लेकर पिछले कुछ समय से बहुत आशंकित रहने लगी हूँ।
संयुक्त परिवार के लाभ और हानियाँ दोनों हैं। तुम्हें और आशीष को संयुक्त परिवार की पाबंदियाँ स्वीकार्य नहीं हैं, इसलिए तुम लोगों ने पुश्तैनी मकान होते हुए भी किराए के मकान में रहना पसंद किया है। जो चाहा, तुम लोगों को मिल गया। किंतु इसकी कीमत कितनी देनी होगी, यह प्रश्न यक्ष पश्न की तरह मुझे मथ रहा है। घर के छोटे-मोटे काम, जरूरी चीजों की खरीदारी, आना-जाना, सुख-दुःख, साझी आमदनी व खर्च—संयुक्त परिवार के ऐसे लाभ हैं, जिन्हें लोग बहुधा गिनाते हैं। किंतु पति-पत्नी के बीच में कभी-कभार होने वाली खटपट, अनबोलेपन, कहा-सुनी और भोजन-त्याग की स्थिति में भी संयुक्त परिवार के बुजुर्ग सदस्यों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है, यह अहसास मुझे आज शाम को कहानी पढ़कर ही हुआ। मनमुटाव की भनक मिलते ही माँ या भाभी बहू-बेटे या भौजाई-देवर को समझाकर—और जरूरत हुई तो डाँटकर स्थितियाँ सामान्य करने में मदद करते हैं। स्वयं पति-पत्नी भी इतने मुखर होकर एक-दूसरे से कहा-सुनी नहीं कर पाते जितनी अकेले रहते हुए करना उनके लिए संभव होता है।

शायद एक पहलू और भी है, जिसकी तरफ हम लोगों का ध्यान नहीं जाता। अवरोध पति-पत्नी के बीच में शारीरिक आकर्षण बढ़ाते हैं। संयुक्त परिवार में मन चाहे समय पर, मन चाहे तरीके से शारीरिक कामनाओं की पूर्ति या निकटता पति-पत्नी के लिए संभव नहीं होती। किंतु अकेले रहने पर एक-दूसरे के प्रति उकताहट दोनों के मन में बहुत जल्दी भर जाती है। यही उकताहट बढ़ते-बढ़ते कई बार संबंधों के टूटने का कारण बन जाती है। जरूरी नहीं कि अकेले रहनेवाले पति-पत्नी इन छोटे-मोटे हादसों से गुजरते हुए अंततः अलग ही हो जाएँ; किंतु संयुक्त परिवार में रहनेवाले पति-पत्नी की तुलना में एकाकी परिवार में संबंधों को ग्रहण लगने की संभावना अपेक्षाकृत अधिक होती है।
मैं सोचना भी नहीं चाहती कि तुम लोगों के मामले में कोई स्थिति इस मोड़ तक पहुँचे। किंतु जो कुछ देख-सुन रही हूँ, उसके कारण एक आशंका मेरे हृदय में लगातार चुभन पैदा करती रहती है कि कहीं आशीष और तुम्हारी गृहस्थी भी अंततः....।

तुम्हारा और आशीष का प्रेम विवाह है। तुम्हें मैंने कभी पाबंदियों में नहीं रखा। तुम्हारी समझ पर पूरा भरोसा करते हुए मैंने तुम्हें अधिकतम आजादी दी है। मैं नहीं कहती कि आशीष से प्रेम करके तुमने मेरे विश्वास को तोड़ा है। किंतु बेटी, जितनी आजादी मैंने तुम्हें दी थी उतनी आजादी इस धरती पर तुम्हें और कोई नहीं देगा; आशीष भी नहीं।
तुमने पहली बार जब आशीष को मुझसे मिलवाया था तो तुम्हें याद होगा कि मैंने कुछ देर उससे अकेले में बात की थी। हालाँकि आशीष ने उस बातचीत का पूरा ब्योरा तुम्हें दे दिया होगा, किंतु तुम्हें शायद यह नहीं मालूम होगा कि मैंने आशीष से अकेले में बात क्यों करनी चाही थी। दरअसल में जाँचना-परखना चाहती थी कि आशीष तुम्हारे प्रति कितना गंभीर है। बहुत पैसा, बहुत सुख-समृद्धि, बड़ा पद-प्रभाव, ऊँचा खानदान मेरे लिए कभी महत्त्वपूर्ण नहीं रहा है। आशीष अपना व्यवसाय करता है, गुजारे लायक ठीक आमदनी उसे होती है, यह पर्याप्त था मेरे लिए। किंतु बाकी सब बातों को मैं केवल इसी शर्त पर छोड़ सकती हूँ कि आशीष तुम्हें पूरे मन से चाहता है।

तुम मेरी इकलौती बेटी हो। जन्म के बाद जल्दी ही तुम्हारे पिता का देहांत हो गया था। मैं पहले से ही विश्वविद्यालय में पढ़ाती थी, इसलिए कोई आर्थिक संकट सामने नहीं आया था। लेकिन पुरुषप्रधान समाज में एक युवा विधवा अपने चरित्र के दामन पर कोई दाग लगाए बिना एकाकी कैसे जीती है, यह बात मैं ही जानती हूँ। जीवन के प्रति विश्वास, मानव के प्रति सदाशयता और आत्मीयों के प्रति स्नेहभाव मेरी आस्थाओं के दृढ़ स्तंभ रहे हैं। तुम्हारा लालन-पालन इन्हीं आस्थाओं की छत्रच्छाया में हुआ है। फिर भी, बेटी के सुखी जीवन के प्रति माँ की स्वाभाविक चिंता मुझे परेशान करती थी। तुम्हारी अनुपस्थिति में आशीष से बातचीत करके मैं विश्लेषण करना चाहती थी कि अपनत्व और प्यार की ठंडी फुहारों में आशीष तुम्हें कितना सींच पाएगा।

आशीष से उस दिन बात करके मुझे संतोष की सीमा तक अच्छा लगा था। उसने कहा था कि पति को गृहस्थी के हर कार्य में पत्नी का और पत्नी को व्यवसाय के हर कार्य में पति का सहयोग करना चाहिए। घर के बरतन, झाड़ू-पोंछा, रसोई और इसी प्रकार के दायित्व केवल पत्नी के नहीं होते। पति को कोई हक नहीं होता कि अखबार पढ़ते हुए वह पत्नी को आवाज लगाकर चाय लाने के लिए कहे; क्योंकि पत्नी नौकरानी नहीं होती, उसकी जीवनसाथी होती है।

आशीष ने यह भी कहा था कि व्यवसाय के कारण भले ही पति को घर से बाहर रहना पड़ता हो, किंतु उसके समय पर पत्नी का पूरा अधिकार होता है। मेहमानों और आगंतुकों के कारण पत्नी पर अतिरिक्त बोझ डालना किसी भी रूप में ठीक नहीं है। शहर में होटल ऐसे अवसरों के लिए ही होते हैं। परिवार के लिए नियमित रूप से समय निकालना और पत्नी के मनोरंजन का पूरा ध्यान रखना पति का उतना ही बड़ा दायित्व है जितना परिवार के निर्वाह के लिए आजीविका कमाना।
मैंने उससे पूछा था कि यदि घर और व्यवसाय को पति-पत्नी मिलकर सँभालेंगे तो निश्चय ही पत्नी को पति के साथ व्यावसायिक कार्य भी करने पड़ेंगे। तुम क्या यह चाहते हो कि गृहस्थी की जिम्मेदारियों से मुँह मोड़कर पत्नी व्यवसाय में पति का हाथ बँटाए ? जवाब में आशीष ने कहा था कि जब घर के सब काम पति और पत्नी मिलकर करेंगे तो पत्नी को व्यवसाय में पति के साथ काम करने में कोई भी कठिनाई नहीं होगी। फिर पति-पत्नी मिलकर काम करेंगे तो किसी और भागीदार के मुकाबले अधिक अपनत्व होने के कारण व्यवसाय अधिक फूलेगा और फलेगा। पत्नी और पति के सभी हित परस्पर साझे होते हैं। इसलिए दोनों बहुत निरपेक्ष भाव से ऐसे निर्णय लेने में सक्षम होते हैं, जो उनकी हित की दृष्टि से उत्तम हों। इस दृष्टि से भी घर और व्यवसाय में पति-पत्नी की सहभागिता बहुत लाभदायक सिद्ध होती है।

मुझे लगा था कि चाहे आशीष के पास ढेर सारा रुपया नहीं है; आर्थिक दृष्टि से बहुत समृद्ध पृष्ठभूमि नहीं है; किंतु वैचारिक दृष्टि से आशीष जो सोचता है, मेरी बेटी के सुख के लिए पर्याप्त है। अंततः पति-पत्नी को बाँधती तो प्रेम की डोर ही है। पैसा, सुख-सुविधाएँ और गाड़ी, स्कूटर निश्चय ही उनके संबंधों को वह सघनता प्रदान नहीं कर सकते, जो प्रेम करता है।
मुझे विचार करने के लिए समय माँगने की जरूरत महसूस नहीं हुई। मेरी बेटी ने जो चुनाव किया है वह उसके सुखद भविष्य के लिए अनुपम है, यह भरोसा हो जाने के बाद विचार का कोई बिंदु नहीं रह जाता था। मैंने केवल भरपूर निगाहों से आशीष को देखा था। उसके चेहरे और आँखों में वह सबकुछ सुगमता से पढ़ा जा सकता था, जो अभी-अभी उसने मेरे सामने रखा था। मैंने कहा था—‘‘आशीष बेटा, स्वाति के लिए तुम मुझे पसंद हो। जो कुछ तुमने अभी-अभी थोड़ी देर पहले कहा है, स्वाति का चरित्र-गठन उसके अनुरूप है। उसका सोच, उसकी रुचियाँ और उसका रुझान—सबकुछ वैसा ही है जैसे तुम्हारे विचार हैं।’’
आशीष ने खड़े होकर मेरे पैर छू लिए थे। भावविह्वल होकर कहा था—‘‘आपका आशीर्वाद रहा तो, ममा, मैं आपकी बेटी को इतने सुख दूँगा कि वह आपको भूल जाएगी।’’
‘‘स्वाति तुम्हें—और केवल तुम्हें याद रखे, यह तो मुझे अच्छा लगेगा; किंतु जीवन के किसी मोड़ पर वह या तुम मुझे भूल जाओ, ऐसी नौबत कभी मत आने देना।’’ मैंने भावुक होकर कहा था।

‘‘आप विश्वास रखिए, ममा, आपकी इच्छा के अनुसार ही सबकुछ होगा। केवल एक अनुरोध आपसे करना है—आपके पास जीवन का विशाल अनुभव है। स्वाति को आपने अपने बूते पर बड़ा किया और गढ़ा है। उसे जितना संबल आपने दिया है, उतना ही बल आप मुझे भी देती रहें। अपना यह छोटा सा व्यवसाय मैंने घरवालों के विरोध के बावजूद जिद करके शुरू किया है। कोई मित्र, कोई रिश्तेदार मुझे सलाह देने वाला नहीं है। अपनी जरूरत के अनुसार पैसा तो मैं जुटा लूँगा; किंतु समस्याओं से जूझने और संघर्षों में विजयी होने के लिए मुझे आपकी सलाह एवं सहारा चाहिए।’’
आशीष की साफगोई मुझे अंदर तक कहीं छू गई थी। मैंने कहा था—‘‘बेटा, मनसा-वाचा-कर्मणा मेरे पास जो कुछ भी है, वह और किसके लिए है ? मेरी किसी भी चीज को तुम अनुरोध करके नहीं, अधिकारपूर्वक माँग सकते हो।’’
जब मुझे पता लगा था कि विवाह के तुरंत बाद आशीष और तुम किराए के मकान में अलग रहने लगे हो तो मैं तय नहीं कर पाई थी कि यह ठीक हुआ या नहीं। संयुक्त परिवार में तुम्हारे ऊपर पाबंदियाँ रहतीं, तुमसे कुछ विशेष प्रकार की अपेक्षाएँ की जातीं। संभवतः आशीष के साथ व्यवसाय में तुम्हार जुटना संयुक्त परिवार में पसंद नहीं किया जाता।

गृहस्थी की दृष्टि से जो कुछ भी खरीदा जाता, वह संयुक्त परिवार का ही बन जाता। विवाह के तुरंत बाद कुछ वर्ष अकारण संघर्ष करके गुजारने का रास्ता चुना ही क्यों जाए ? कुछ वर्षों के बाद यदि अकेले रहने की बात सोचनी ही है तो फिर आज क्यों नहीं ? दूसरी ओर, नई बहू के लिए अपेक्षाकृत आवश्यक परंपरा एवं संस्कारगत कारण मुझे अलग रहने के खिलाफ जाते महसूस हुए थे। कुल मिलाकर अनिर्णय की स्थिति थी—और उसके कारण इस सूचना को मैंने तटस्थतापूर्वक ही ग्रहण किया था। पक्ष या विपक्ष में किसी प्रकार की प्रतिक्रिया मैंने न आशीष को दी थी और न तुम्हें।
प्रारंभ में तो ठीक वैसा ही चला जैसा आशीष ने कहा था। केवल एक बात ऐसी थी, जो मुझे प्रायः असहज कर जाती थी—और वह थी आशीष का बड़बोलापन। अपनी बातों से आशीष बड़े-बड़े स्वप्न महल खड़े कर देता था। उसके शिखरों की नक्काशी कर देता था—और स्वयं यह जानते हुए भी कि जो कुछ वह कह रहा है, सच नहीं है, आत्मविश्वास के साथ इस तरह प्रस्तुत करता था गोया दुनिया का सबसे बड़ा सच वही है। मैंने हँसते हुए तुमसे चर्चा भी की। तुमने कहा, ‘‘ममा, मैंने ठीक यही बात महसूस ही नहीं कि बल्कि आशीष से इसके बारे में बात भी की है। दरअसल पाँच या दस साल बाद जो कुछ कर लेने या पा लेने का आशा उन्हें है, उसकी वे आज ही घोषणा कर देते हैं। अब यह जरूरी तो नहीं है कि इनसान का सोचा हुआ सब कुछ सही हो जाए। जो कुछ वह चाहता है, उसका एक अंश भी जीवन में मिल जाए तो बहुत मानना चाहिए। मगर आदत पुरानी है, दूर होते-होते ही जाएगी।’’

सच कहूँ तो इसके बाद मुझे आशीष की बताई हुई उन बातों पर भी मन में संशय उठता महसूस होता था, जो उसने तुम्हारे साथ अपने भविष्य के बारे में कही थीं।
आशीष का तुम्हारे प्रति प्यार और व्यवहार का रूप देखकर मुझे अपनी आशंका व्यर्थ प्रतीत हुई। मुझसे भी वह बहुत अनौपचारिक रूप से मिलता-जुलता। मैं रसोईघर में होती तो वहाँ भी चला आता। भूख लगी होती तो माँगकर खा लेता। महत्त्वपूर्ण समस्याओं पर मुझसे मशविरा लेता। व्यवसाय संबंधी ऐसे पत्र, जिनके दूरगामी परिणाम निकल सकते थे, मुझसे लिखवाता। मुझे लगता रहता कि आशीष की विश्वसनीयता पर मेरा संशय करना ठीक नहीं है; क्योंकि मैं मन से भी यही चाहती थी कि उसकी विश्वसनीयता कभी गलत साबित न हो, इसलिए अपने संशय को थपकियाँ देकर सुलाने में मुझे अधिक कठिनाई नहीं हुई थी।

तुम लोगों की शादी हुए दो वर्ष हुए हैं। इस बीच तुम एक बेटे की माँ बन गई हो। किंतु आशीष ने जो नहीं कहा था वह तो अनकिया है ही, उसने जो कहा था, उसका रूप भी बदलता जा रहा है। बार-बार कहने के बावजूद प्रारंभिक दो-चार अवसरों को छोड़कर आशीष ने कभी व्यवसाय में तुम्हारा सहयोग नहीं लिया। व्यवसाय की समस्याएँ, भविष्य की दृष्टि से योजनाएँ और आशीष की व्यवसाय के संबंध में महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों से मुलाकातें भी कभी तुम्हारी और आशीष की व्यवसाय के संबंध में महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों से मुलाकातें भी कभी तुम्हारी और आशीष की चर्चा का विषय नहीं बनीं। तुम्हारे कहने के बावजूद व्यवसाय में तुम्हें सहभागी बनाने के मामले में उसका टाल-मटोलवाला रवैया चलता रहा। अब तो वह तुम्हें रात को लौटकर सूचना देता है कि दिल्ली से कम्पनी के कुछ लोग आ गए थे और वह भी उनके साथ होटल में भोजन करके आया है।

विवाह के तुरंत बाद व्यावसायिक कार्य के लिए दिल्ली जाते समय आशीष तुम्हें अपने साथ ले जाता था। तुम्हें भले ही दिन भर अकेले होटल के कमरे में ऊबना पड़ता था; किंतु दिल्ली तक आने-जाने का सफर साथ करेंगे, आशीष का यह आग्रह रहता था। अब शाम को या रात को वह तुम्हें केवल इतना बताता है कि सुबह पाँच बजेवाली बस से उसे दिल्ली जाना है। कब लौटना है, यह तो तुम्हें बताता है; किंतु किसलिए जाना है, किससे मिलना है, किस प्रकार के व्यापारिक हित दिल्ली जाने से सधेंगे या किस विषय पर किससे क्या बातचीत होगी, इस बारे में वह तुमसे चर्चा तक नहीं करता।

मैं समझ सकती हूँ कि व्यावसायिक दृष्टि से संभव है, आशीष को तुम्हारी उपादेयता न लगी हो; किंतु किराए के मकान में पत्नी और बेटे के साथ रहनेवाला आशीष परिवार की छोटी-छोटी जरूरतों को भी अनदेखा करेगा, यह समझ में नहीं आता। सब्जी वह कभी लाएगा नहीं। गरमियाँ शुरू हो जाएँ, पंखा खराब पड़ा है तो उसे ठीक कराने के लिए वह कुछ करेगा नहीं। सुबह देर से उठता है, अफरा-तफरी में तैयार होकर काम पर चला जाता है, इसलिए डेयरी से दूध लेने जाएगा नहीं। तुम लोग दूसरी मंजिल पर रहते हो। ऊपर पानी की टंकियाँ तो हैं, तुम लोग दूसरी मंजिल उतरकर नीचे पीने का पानी लेने जाते हो। आशीष कभी नीचे से पानी भरकर लाएगा नहीं। और तो और, टंकियों का पानी जिस नल से तुम्हारे फ्लैट में आता है, उसका वॉशर खराब हो जाए या वॉशर गल जाए और पानी बहता रहे तो वह स्वयं वॉशर बदल दे या मिस्त्री को भेजकर ठीक करवाए, इतना ध्यान भी उसे रहेगा नहीं।

कभी-कभी जब वह अच्छी मनःस्थिति में होता है तो तुमसे वादा जरूर करता है कि दूसरे दिन से सुबह दूध लाने और पानी भरने का काम वह स्वयं करेगा; किंतु दूसरे दिन सुबह, उसीके कहे अनुसार, जगाने पर वह झुँझलाता है। छोटी-छोटी बातों तुम लोग तनावग्रस्त हो जाते हो। एकाध बार भावुक होकर आशीष ने तुमसे कहा भी है—‘‘यह मकान अमंगलकारी है। जब से यहाँ आए हैं, हम झगड़ते ही रहते हैं।’’ सीमेंट, मिट्टी, बजरी, कंकरीट और पत्थर की दीवारें भावनाओं से भरे हृदयों पर कब से भारी पड़ने लगीं, यह बात मेरी समझ से बाहर है।

बाकी सब बातें छोड़ो। तुमने भी महसूस किया होगा, बेटी, कि लगभग छह महीनों से आशीष का मेरे प्रति व्यवहार बदल रहा है। अब वह मुझसे व्यवसाय संबंधी कोई चर्चा नहीं करता। पूछती हूँ तो बता जरूर देता है, किंतु अपनी ओर से कभी कुछ नहीं कहता। उससे और तुमसे मिले कई-कई दिन गुजर जाते हैं। घर में फोन है नहीं। आशीष को फोन करती हूँ तो बात हो जाती है। आशीष अपनी ओर से फोन तक नहीं करता। तुम्हारे मकान मालिक के पास टेलीफोन है; किंतु आशीष ने बहुत जरूरी होने पर ही मकान मालिक के टेलीफोन पर बात करने की हिदायत दी है। ‘हिदायत’ शब्द का इस्तेमाल मैं जानबूझकर कर रही हूँ। यह बात कही तो संकोच के साथ थी उसने, किंतु उसके लहजे में कुछ था, उसे ‘हिदायत’ के सिवाय और कुछ नहीं कहा जा सकता है।

तुम्हें ध्यान होगा, पिछले महीने बीस-बाईस दिन तबीयत खराब होने के कारण मैं बिस्तर पर ही पड़ी थी। आशीष ने औपचारिक रूप से ही सही, मगर एक बार भी नहीं कहा कि ‘‘ममा, स्वाति यहीं रह जाएगी।’’ कुल मिलाकर तीन बार तुम लोग मेरा हालचाल पूछने के लिए आए। इस बीच आशीष ने कभी टेलीफोन करने की जरूरत महसूस नहीं की। जब मेरे प्रति आशीष में यह परिवर्तन आ गया है तो तुम्हारे मामले में उसकी स्थिति की कल्पना मैं बखूबी कर सकती हूँ।
इस तरह की बातें मुझे तुम विस्तार से नहीं बतातीं। तुम्हें लगता होगा, ममा परेशान होंगी। किंतु बेटी, तुम्हारे न बताने से मेरी परेशानी और बढ़ जाती है। मैं शुभ-अशुभ न जाने क्या-क्या सोचती रहती हूँ। लगातार सोचते रहने के कारण मेरे स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। तुम विस्तार से यदि सबकुछ बताओ तो संभव है, मैं और ज्यादा परेशान हो जाऊँ; किंतु विस्तार से सब कुछ सुन लेने के बाद अंदर-ही-अंदर खौलते रहने का सिलसिला तो कम हो जाएगा।

लेकिन तुम मुझे खुलकर सबकुछ बताओ या न बताओ, व्यावहारिक दृष्टि से विशेष अंतर नहीं पड़ता। मैं तो अपना जीवन कमोबेश जी ही चुकी हूँ। आशीष और तुम्हारे सामने पूरी जिंदगी है। मुझे यह कल्पना दुःख देती है कि तुम्हारी जिंदगी में तनाव है। इसीलिए आज शाम को कहानी पढ़कर मैं डर गई थी और उसके नायक-नायिका से तुम्हारी और आशीष की तुलना कर बैठी थी। अपने अंदर खौलते रहने के बजाय सदाशयतापूर्वक एक-दूसरे के सामने खुलने की जरूरत मुझे इसी कारण महसूस होती है।
आशीष ने पहली मुलाकात के दौरान जो कुछ मुझसे कहा था, उससे बहुत ज्यादा तुमसे कहा होगा। आशीष ने जो कुछ मुझसे या तुमसे कहा था, उसे याद करके वह जीवन में उतारने की कोशिश शुरू करे तो कई समस्याएँ अपने आप सुलझ जाएँगी। आग्रहमुक्त होकर स्वाभाविक जीवन जीना ही जिंदगी का मूलमंत्र है। मकान बदलने से कुछ नहीं होगा, बेटी। अभी देर नहीं हुई है। स्थितियाँ अंधे मोड़ पर पहुँचे, उससे पहले तुम लोगों को सँभलना होगा। मैं नहीं कहती कि आशीष को तुमसे कोई शिकायत नहीं होगी। उसकी शिकायतों को तुम और तुम्हारी शिकायतों को वह खुले मन से दूर करने की चेष्टा करो।
यदि मैं तुम दोनों की जिंदगी से निकल जाऊँ तो मुझे तनिक भी बुरा नहीं लगेगा—और तुम भी इसका बुरा मत मानना, बेटी। तुम दोनों एक-दूसरे के, एक-दूसरे के लिए बने रहो—यही मेरी पहली और अंतिम इच्छा है।

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