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हिन्दी और हम

विद्यानिवास मिश्र

प्रकाशक : ग्रंथ अकादमी प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2554
आईएसबीएन :81-85826-84-6

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इसमें हमारी मातृभाषा हिन्दी के साहित्य का उल्लेख किया गया है....

Hindi Aur Hum

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


कितने लोग नई उम्र वाले तैयार होंगे एक हारी हुई लड़ाई लड़ने के लिए ललकारने के लिए –हमें नहीं चाहिए हिंदी का प्रतिबंधित संवैधानिक दरजा, हमें हिंदी का अधिकार चाहिए ? वह अधिकार पैतृक नहीं, मातृक है। आकाश से पृथ्वी बड़ी होती है, पिता से माता बड़ी होती है। हिंदी जिनके लिए माँ नहीं है उनके लिए क्या विद्यान हो, वे जानें, पर हिंदी के अतिरिक्त कोई माँ नहीं है, जिनके पास हिंदी के अलावा कोई दाई माँ नहीं, नई माँ नहीं, उनके स्वरूप को कोई क्यों छीनता है ? कितने आदमी तैयार मिलेंगे अपने भविष्यत अँधकार को अपनी मज्जा की उर्जा से जलाए मशाल से चीरने के लिए ? कितने आदमी तैयार मिलेंगे इस बात पर जेल भरने के लिए हिंदी में जिस वस्तु का नाम लिखा हो उसे नहीं खरीदेंगे, हिंदी में निमंत्रण न आये तो उस निमंत्रण को अस्वीकार करने के लिए ?

कुछ पानीदार पत्रकार, लेखक, अध्यापक, छात्र, अधिकारी, किसान, मजदूर, डॉक्टर, इंजीनियर, मिस्त्री अपने-अपने क्षेत्र में हिंदी के पानी का मान रखने को सन्नद्ध हो जाएँ तो हिंदी भाषी इस देश में द्वितीय श्रेणी के नागरिक न रह जाएँ। हिंदी के माध्यम से ज्ञान-विज्ञान का विकास करने वाला व्यक्ति विद्या-जगत् से अस्पृश्य न रह जाए। हिंदी में काम करने वाला बाबू लल्लू न रह जाए। एक-दूसरे का मुँह जोंहेंगे तो लड़ाई नहीं लड़ी जा सकेगी, क्योंकि इस मुँहा-मुँही में हिंदी भाषी गूँगा हो गया है।

भूमिका

इस संग्रह में समय-समय पर हिंदी भाषा के प्रति हमारी क्या भावना है, हमने कितनी अपनी जिम्मेवारी निबाही है-इस पर लिखे गए निबंधों और दिए गए वक्तव्यों का संकनल है। हिंदी के प्रति जो उदासीनता है-कुछ राजनीति के कारण, कुछ राजनीति के विचित्र आत्महंता मोड़ों के कारण, कुछ हिंदी भाषी जन के जाति-विद्वेषी लपटों में घिरे रहने के कारण और कुछ हिंदी के प्रबुद्ध जनों की विश्व- यारी के कारण इसी उदासीनता का निदान करने की नादानी करता रहा हूँ। मेरे संस्कार कुछ ऐसे रहे कि हिंदी की उपेक्षा मुझे कभी सह्य नहीं हुई। इसलिए मेरी प्रतिक्रियाएँ तीखी ही रही हैं। आज उन्हें संकलित करने का कारण यह है कि हिंदी के कहे जानेवाले हम लोग क्षेत्र, जाति और वाद के पार, जाकर हिंदी के बारे में सोचें और हिंदी को स्वरूप-विमर्श का प्रमुख घटक बनाएँ। हम इस प्रकार का विमर्श करेंगे तो हिंदी को लाचार नहीं समझेंगे और इसे राजनीति, विशेषतः सत्ता की राजनीति, के हाथों में जिबह के लिए छोड़ नहीं देंगे। हिंदी का वर्तमान गौरवपूर्ण है। उसकी भूमिका आज भी सामान्य जन को जोड़ने में सभी भाषाओं की अपेक्षा सबसे अधिक कारगर है।

हिंदी के बारे में यदि कोई संभ्रम है तो केवल मजबूरी की ओट लेने वाले उदारमना बुद्धिजीवी के मन में। मेरे इस संग्रह के संबोध्य मुख्यतः बुद्धिजीवी ही हैं। यदि कुछ भी इन ठंडे दिमागों में जमा बर्फ गल सके तो मैं अपने को कृतार्थ मानूँगा।
हिंदी की निष्ठा की दीक्षा जिन महापुरुषों से मुझे साक्षात् मिली उनके प्रति आभार व्यक्त करना चाहता हूँ। राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन, पं, श्रीनारायण चतुर्वेदी, महापंडित राहुल सांकृत्यायन, और डा. राममनोहर लोहिया-इन लोगों के गहन संपर्क में मैंने सीखा कि जो भाषा इतने विशाल समुदाय को न केवल जोड़ने वाली है बल्कि उन्हें दूसरी भाषाओं से जुड़ने की प्रेरणा देने वाली भी है, उसका हम सब पर ऋण है और उस ऋणबोध से प्रेरित होकर ही हमें हिंदी के बारे में, विनम्र पैमाने पर ही सही, कुछ न कुछ करते रहना है।
यह संग्रह तैयार करने में आयुष्मती कुमुद शर्मा ने परिश्रम किया है, उन्हें आशीर्वाद।

विद्यानिवास मिश्र


भाषा और अस्मिता



कई वर्ष पूर्व अमेरिका में चुनाव हो रहे थे, मैं वहाँ था। चुनावी भाषा के स्वरूप पर टिप्पणी करते हुए मेरे एक कवि मित्र ने कहा था, तुम लोग भाग्यशाली हो, तुम्हारी भाषाएँ अब भी अपनी गरिमा बचाए हुए हैं। यहाँ राजनीतिक प्रचार ने भाषा को या तो इतना अशिष्ट बना दिया है कि उस भाषा के घटियापन पर लज्जा आती है या फिर इतना ढोंगी और कपटी बना दिया है कि उसके सही अर्थ ढूँढ़े नहीं मिलते; हमेशा उसके छली होने की आशंका बनी रहती है। समझते थे कि हिंदुस्तान की भाषा के बारे में बड़ी सजगता रही है, क्योंकि यहाँ वाक् या वाणी ही सृष्टि का बीज है; यहाँ भाषा से संस्कार करते रहने पर और शब्दों के समीचीन प्रयोग पर बड़ा बल रहा है। उन्हें क्या पता कि ये बातें अब स्वप्न हैं। कभी भाषा देश से जुड़ी थी, देश को जोड़ती थी; पूरा देश स्वाधीनता की खोज में एक ऐसी भाषा के सूत्र तैयार कर रहा था, जो खादी की तरह सामान्य की सेवा और स्वाभिमान से बँटकर बना हो। वह भाषा हमारी ही गलती से राजभाषा हो गई। हमारी गलती इसलिए कह रहा हूँ। कि यदि हमने नेहरू की बात मानकर हिंदुस्तानी को देश की भाषा का दरजा दे दिया होता तो हमारी छाती पर, हम सब भारतीय भाषा भाषियों की छाती पर अंग्रेजी ‘मूँग नहीं’ दलती। 1950 से पहले ही देश स्तर के व्यवहार की भाषा हिंदुस्तानी हो गई होती। हमें आचार्य नरेंद्र देव के सुझाव का आदर करते हुए लिपि देवनागरी स्वीकार करनी चाहिए थी।

पर जो नहीं हुआ, उस पर क्या पछताएँ; पछताकर पाएँगे भी क्या ? कालांतर में वह राजभाषा संपर्क भाषा कहलाई और उसके सिर पर दूसरा विकल्प मढ़ दिया गया। भविष्य में अंग्रेजी को रोकने या उसका व्यवहार बंद करने पर जनसंख्या में छोटे-छोटे राज्य अपने निषेधाधिकार का प्रयोग कर सकते हैं, यह व्यवस्था कर दी गई, ताकि युग-युगांत तक अंग्रेजी बनी रहे। अब हिंदी शब्द का राजकाज में नाम भी नहीं लिया जाता। उसे ऑफिशियल लिंक लैंग्वेज-सरकारी संपर्क भाषा कहा जाता है, मानो जनता से उसका कोई संबंध ही न रहा हो, न होने वाला हो। हरेक शिक्षा आयोग ने ब्रिटिश शासनकाल से लेकर स्वाधीन भारत तक में जनभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने पर बल दिया ! पर व्यवहार में न केवल अंग्रेजी माध्यम के गैर-सरकारी स्कूलों की बाढ़ आई, अपितु सरकारी केंद्रीय स्कूलों ने अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों व उनके अध्यापकों को प्रतिष्ठा दी। यह तब जब अधिकतर हिंदी भाषी प्रदेशों में विश्वविद्यालय स्तर तक की पढ़ाई अंग्रेजी में लगभग समाप्त हो गई हो। इतनी बड़ी संख्या में हिंदी माध्यम से उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थी हिंदी भाषी क्षेत्रों में भी द्वितीय श्रेणी के नागरिक जैसे हो गए हैं। वे केवल इतनी माँग करते हैं कि अंग्रेजी की अनिवार्यता हटा ली जाए; किंतु केंद्रीय सरकार के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती।

इस स्थिति में भाषा की गरिमा कहाँ तक बची रहेगी ? पहले राजनीति में जो हिंदी में नहीं बोल पाता था, क्षमायाचना करता था। अब स्थिति उलटी है; जो अंग्रेजी नहीं जानता, वह क्षमायाचना करता है। हिंदी अब क्षमायाचना का पर्याय हो गई है। भाषा के प्रति यह हीनभाव साहित्य के प्रति भी हीनभाव पैदा करने लगता है।

अंग्रेजी की बघार के बिना हिंदी बड़ी गँवारू लगती है; मगर यह बघार केवल शब्दों के उधार तक सीमित रहती तो कोई बात नहीं थी, कुछ हद तक हिंदी बाहर के शब्दों को पचाने की क्षमता रखती है। परंतु अब अंग्रेजी का वाक्य-विन्यास हिंदी को जकड़ रहा है; अंग्रेजी का मुहावरा हिंदी में अनूदित होकर आ रहा है। हिंदी को अंग्रेजी का प्रतिरूप बनाने के लिए कई सरकारी उपक्रम लगे हुए हैं। यह हिंदी कैसी अस्मिता बनाएगी ? या तो आदमी हिंदी एकदम छोड़कर अंग्रेजी की ओर जाएगा, भले ही वह अंग्रेजों की समझ में न आनेवाली अंग्रेजी हो या फिर मनमानी भाषा का प्रयोग करेगा। हर आदमी भाषा के बारे में स्वयंभू हो जाएगा। उसे अपने संप्रेष्य समाज की चिंता नहीं रहेगी।

मुझे याद है, एक सज्जन अंग्रेजी की वकालत करके विदेश के विश्वविद्यालय में पहुँचे और वहाँ उन्होंने घंटे भर तक एक भाषण अंग्रेजी की खूबियों और अंग्रेजी की हिंदुस्तान में अनिवार्यता के बारे में दिया। भाषण समाप्त हुआ तो एक अमेरिकी महिला उठीं। बड़ी शालीन भाषा में उन्होंने कहा, ‘कृपा करके अंग्रेजी में अपने सुंदर भाषण का संक्षेप बता दीजिए।’ बेचारे का अंग्रेजी स्त्रोत्र एकदम व्यर्थ हो गया और वे परेशान हो गए। ऐसी विडंबनापूर्ण स्थिति देखकर ही अंग्रेज कवि स्पेंडर ने कभी लिखा था कि हिंदुस्तान के लोग अपनी इतनी समृद्ध भाषाओं के रहते हुए अंग्रेजी में रचना क्यों करते हैं, समझ में नहीं आता।’’

यह आवश्यक है कि हम अंग्रेजी नहीं रचते, अंग्रेजी हमें रचती है। हम कुछ दूसरे होते जा रहे हैं। हम हिंदी भी बोलेंगे, तमिल भी बोलेंगे तो उसे समझने के लिए उसकी मूल भाषा अंग्रेजी की कल्पना करनी होगी, तभी अर्थ खुलेगा। हमारा व्यक्तित्व इस दबाव में जाने कितना बौना, कितना अष्टावक्र होता चला जा रहा है। हमारी सहजता हमसे दूर होती जा रही है और हम भाषा का अभिमान खोते जा रहे हैं। जिसे अपनी भाषा का अभिमान होगा उसे दूसरे के भाषाई अभिमान की चिंता होगी, उसके लिए आदर होगा। जिसे अभिमान नहीं होगा, उसके लिए भाषा लड़ाई का मुद्दा होगी।

जिसे भाषा का अभिमान होगा, उसे अपने भाई का दर्द होगा, भाषा और अस्मिता का गठजोड़ न होगा तो आदमी विभक्त मनवाला हो जाएगा। अंग्रेजी चलती है, चलने दें, उदार हो जाएँ; हिंदी वाले को अनुवादक, शोध सहायक या अधिक से अधिक हिंदी अधिकारी पद मिल जाए, यह कम अवसर का लाभ नहीं है; हिंदी तो इतने में ही धन्य हो जाएगी कि कभी एकाध पंक्ति में अंग्रेजी पत्र में उसकी चर्चा हो जाए, या किसी अनुष्ठान के अवसर पर कोई राजपुरुष हिंदी की बात ऊँचे मन से करते हुए फतवा दे दे कि हिंदी को पूरे देश में समग्र ज्ञान देने के लिए योग्य बनाना होगा; मानो योग्य बनाने का काम किसी दूसरे का है।




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