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कर्मभूमि

प्रेमचंद

प्रकाशक : भूमिका प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2551
आईएसबीएन :000000

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इसमें विभिन्न राजनीतिक समस्याओं को कुछ परिवारों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है...

Karmbhoomi

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

प्रेमचन्द का कर्मभूमि उपन्यास एक राजनीतिक उपन्यास है जिसमें विभिन्न राजनीतिक समस्याओं को कुछ परिवारों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। ये परिवार यद्यपि अपनी पारिवारिक समस्याओं से जूझ रहे हैं तथापि तत्कालीन राजनीतिक आन्दोलन में भाग ले रहे हैं। उपन्यास का कथानक काशी और उसके आस-पास के गाँवों से संबंधित है। आन्दोलन दोनों ही जगह होता है और दोनों का उद्देश्य क्रान्ति है। किन्तु यह क्रान्ति गाँधी जी के सत्याग्रह से प्रभावित है। गाँधीजी का कहना था कि जेलों को इतना भर देना चाहिए कि उनमें जगह न रहे और इस प्रकार शक्ति और अहिंसा से अंग्रेज सरकार पराजित हो जाए।

इस उपन्यास की मूल समस्या यही है। उपन्यास के सभी पात्र जेलों में ठूस दिए जाते हैं। इस तरह प्रेमचन्द क्रान्ति के व्यापक पक्ष का चित्रण करते हुए तत्कालीन सभी राजनीतिक एवं सामाजिक समस्याओं को कथानक से जोड़ देते हैं। निर्धनों के मकान की समस्या, अछूतोद्धार की समस्या, अछूतों के मन्दिर में प्रवेश की समस्या, भारतीय नारियों की मर्यादा और सतीत्व की रक्षा की समस्या, ब्रिटिश साम्राज्य के दमन चक्र से उत्पन्न समस्याएँ, भारतीय समाज में व्याप्त धार्मिक पाखण्ड की समस्या पुनर्जागरण और नवीन चेतना के समाज में संचरण की समस्या, राष्ट्र के लिए आन्दोलन करने वालों की पारिवारिक समस्याएँ आदि इस उपन्यास में बड़े यथार्थवादी तरीके से व्यक्त हुई हैं।

प्रेमचन्द की रचना कौशल इस तथ्य में है कि उन्होंने इन समस्याओं का चित्रण सत्यानुभूति से प्रेरित होकर किया है कि उपन्यास पढ़ते समय तत्कालीन राष्ट्रीय सत्याग्रह आन्दोलन पाठक की आँखों के समक्ष सजीव हो जाता हैं। छात्रों तथा घटनाओं की बहुलता के बावजूद उपन्यास न कहीं बोझिल होता है न कहीं नीरस। प्रेमचन्द हर पात्र और घटना की डोर अपने हाथ में रखते हैं इसलिए कहीं शिथिलता नहीं आने देते। आदर्शोन्मुख यथार्थवाद से ओतप्रोत कर्मभूमि उपन्यास प्रेमचन्द की एक प्रौढ़ रचना है जो हर तरह से प्रभावशाली बन पड़ी है।

निवेदन

संसार में कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो उपन्यास को इतिहास की दृष्टि से पढ़ते हैं। उनसे हमारा यह निवेदन है कि जिस तरह इस पुस्तक के पात्र कल्पित हैं, उसी तरह इसके स्थान भी कल्पित हैं। बहुत सम्भव है कि लाला समरकान्त और अमरकान्त, सुखदा और नैना, सलीम और सकीना नाम के व्यक्ति संसार में हों; पर कल्पित और यथार्थ व्यक्तियों में वह अन्तर अवश्य होगा, जो ईश्वर और ईश्वर के बनाये हुए मनुष्य की सृष्टि में होना चाहिए।

उसी भाँति इस पुस्तक के काशी और हरिद्वार भी कल्पित स्थान हैं। और बहुत सम्भव है कि उपन्यास में चित्रित घटनाओं और दृश्यों को संयुक्त प्रान्त के इन दोनों तीर्थस्थानों में आप न पा सकें। हम ऐसे चरित्रों और स्थानों को ऐसे नाम आविष्कार न कर सकें, जिनके विषय में यह विश्वास होता है कि इनका कहीं अस्तित्व नहीं है। तो फिर अमरकान्त और काशी ही क्या बुरी। अमरकान्त की जगह टमरकान्त हो सकता था और काशी की जगह टासी, या दुलमुल, या डम्पू; लेकिन हमने ऐसे-ऐसे विचित्र नाम सुने हैं कि ऐसे नामों के व्यक्ति या स्थान निकल आयें, तो आश्चर्य नहीं। फिर हम अपने झोपड़ें का नाम ‘शान्ति उपवन’ और ‘सन्त धाम’ रखते हैं और अपने सड़ियल पुत्र का रामचन्द्र या हरिश्चन्द्र तो हमने अपने पात्र और स्थानों के लिए सुन्दर से सुन्दर और पवित्र से पवित्र नाम रखे तो क्या कुछ अनुचित किया ?

पहला भाग 

1

हमारे स्कूलों कालेजों में जिस तत्परता से फ़ीस वसूल की जाती है, शायद मालगज़ारी भी उतनी सख़्ती से नहीं वसूल की जाती। महीने में एक दिन नियत कर दिया जाता है। उस दिन फ़ीस का दाख़िला होना अनिवार्य है। या तो फ़ीस दीजिए, या नाम कटवाइए, या ज़ब तक फ़ीस न दाख़िल हो, रोज़ कुछ ज़ुर्माना दीजिए। कहीं-कहीं ऐसा भी नियम है कि उसी दिन फ़ीस दोगुनी कर दी जाती है, और किसी दूसरी तारीख़ को दुगुनी फ़ीस न दी तो नाम कट जाता है। काशी के क्वींस कालेज में यही नियम था। सातवीं तारीख़ को फ़ीस न दो, तो इक्कीसवीं तारीख़ को दुगुनी फ़ीस देनी पड़ती थी, या नाम कट जाता था। ऐसे कठोर नियमों का उद्देश्य इसके सिवा और क्या हो सकता था, कि ग़रीब के लड़के स्कूल छोड़कर भाग जायँ। वही हृदयहीन दफ्तरी शासन, जो अन्य विभागों में है, हमारे शिक्षालयों में भी है। वह किसी के साथ रिआयत नहीं करता।

चाहे जहाँ से लाओ, कर्ज़ लो, गहने गिरवी रखो, लोटा-थाली बेचो, चोरी करो, मगर फ़ीस ज़रूर दो, नहीं तो दूनी फ़ीस देनी पड़ेगी, या नाम कट जाएगा। ज़मीन और जायदाद के कर वसूल करने में भी कुछ रियायत की जाती है। हमारे शिक्षालयों में नमीं को घुसने नहीं दिया जाता। वहाँ स्थायी रूप से मार्शल-लॉ का व्यवहार होता है। कचहरी में पैसे का राज, हमारे स्कूलों में भी पैसे का राज है, उससे कहीं कठोर, कहीं निर्दय। देर में आइए तो जुर्माना; न आइए तो जुर्माना; सबक़ न याद हो तो जुर्माना; किताबें न खरीद सकिए तो जुर्माना; कोई अपराध हो तो जुर्माना; शिक्षालय क्या है, जुर्मानालय है। यही हमारी पश्चिम शिक्षा का आदर्श है, जिसकी तारीफ़ों के पुल बाँधे जाते हैं। यदि ऐसे शिक्षालयों से पैसे पर जान देने वाले, पैसे के लिए ग़रीबों का गला काटने वाले, पैसे के लिए अपनी आत्मा को बेच देने वाले छात्र निकलते हैं, तो आश्चर्य क्या है ?

आज वही वसूली की तारीख़ है। अध्यापकों की मेज़ों पर रुपयों के ढेर लगे हैं। चारों तरफ़ खनाखन की आवाज़ें आ रही हैं। सर्राफ़े में भी रुपये की ऐसी झंकार कम सुनाई देती है। हरेक मास्टर तहसीलदार का चपरासी बना बैठा हुआ है। जिस लड़के का नाम पुकारा जाता है, वह अध्यापक के सामने आता है, फ़ीस देता है और अपनी जगह पर आ बैठता है। मार्च का महीना है। इसी महीने में अप्रैल, मई और ज़ून की फ़ीस भी वसूल की जा रही है। इम्तिहान की फ़ीस भी ली जा रही है। दसवें दर्जे में तो एक-एक लड़के को चालीस रुपये देने पड़ रहे हैं।
अध्यापक ने बीसवें लड़के का नाम पुकारा—‘अमरकान्त !’
अमरकान्त ग़ैरहाजिर था।

अध्यापक ने पूछा—‘क्या आज अमरकान्त नहीं आया ?
एक लड़के ने कहा—‘आये तो थे, शायद बाहर चले गये हों।’’
‘क्या फ़ीस नहीं लाया है ?’
किसी लड़के ने जवाब नहीं दिया।
अध्यापक की मुद्रा पर खेद की रेखा झलक पड़ी। अमरकान्त अच्छे लड़कों में था। बोले—‘शायद फ़ीस लाने गया होगा। इस घंटे में न आया, तो दूनी फ़ीस देनी पड़ेगी। मेरा क्या अख़्तियार है। दूसरा लड़का चले—गोबर्धनदास !’

सहसा एक लड़के ने पूछा—‘अगर आपकी इज़ाज़त हो तो मैं बाहर जाकर देखूँ।’ अध्यापक ने मुस्कराकर कहा—‘घर की याद आयी होगी। ख़ैर जाओ; मगर दस मिनट के अन्दर आ जाना। लड़कों को बुला-बुला कर फीस लेना मेरा काम नहीं है।’
लड़के ने नम्रता से कहा—‘अभी आता हूँ।’ क़सम ले लीजिए, जो हाते के बाहर जाऊँ।’
यह इस कक्षा के सम्पन्न लड़कों में था, बड़ा खिलाड़ी, बड़ा बैठकबाज़। हाज़िरी देकर ग़ायब हो जाता, तो शाम की ख़बर लाता। हर महीने फ़ीस की दूनी रकम जुर्माना दिया करता था। गोरे रंग का, लम्बा, छरहरा, शौक़ीन युवक था जिसके प्राण खेल में बसते थे। नाम था मोहम्मद सलीम।

सलीम और अमरकान्त दोनों पास-पास बैठते थे। सलीम को हिसाब लगाने या तर्जुमा करने में अमरकान्त से विशेष सहायता मिलती थी। उसकी क़ापी से नकल कर लिया करता था। इससे दोनों में दोस्ती हो गयी थी। सलीम कवि था। अमरकान्त उसकी गज़लें बड़े चाव से सुनता था। मैत्री का यह एक और कारण था।

सलीम ने बाहर जाकर इधर-उधर निगाह, दौड़ाई, अमरकान्त का कहीं पता न था। ज़रा आगे बढ़ा, तो देखा, वह एक वृक्ष की आड़ में खड़ा है। पुकारा—‘अमरकान्त ! ओ बुद्धूलाल ! चलो, फ़ीस जमा करो, पंडितजी बिगड़ रहे हैं।’
अमरकान्त ने अचकन के दामन से आँखें पोंछ लीं और सलीम की तरफ़ आता हुआ बोला—‘क्या मेरा नम्बर आ गया ?’
सलीम ने उसके मुँह की तरफ़ देखा, तो आँखें लाल थीं। वह अपने जीवन में शायद ही कभी रोया हो ! चौंककर बोला—‘अरे तुम रो रहे हो ! क्या बात है ?’

अमरकान्त साँवले रंग का, छोटा-सा दुबला-पतला कुमार था। अवस्था बीस की हो गयी थी; पर अभी मसें भी न भीगी थीं। चौदह-पन्द्रह साल का किशोर-सा लगता था। उसके मुख पर एक वेदनामय दृढ़ता, जो निराशा से बहुत-कुछ मिलती जुलती थी, अंकित हो रही थी, मानो संसार में उसका कोई नहीं है। इसके साथ ही उसकी मुद्रा पर कुछ ऐसी प्रतिभा, कुछ ऐसी मनस्विता थी कि एक बार उसे देखकर फिर भूल जाना कठिन था।
उसने मुस्कराकर कहा—‘कुछ नहीं जी, रोता कौन है।’
‘आप रोते हैं और कौन रोता है। सच बताओ क्या हुआ ?’

अमरकान्त की आँखें फिर भर आयीं। लाख यत्न करने पर भी आँसू न रुक सके। सलीम समझ गया। उसका हाथ पकड़कर बोला—‘क्या फ़ीस के लिए रो रहे हो ? भले आदमी, मुझसे क्यों न कह दिया। तुम मुझे भी ग़ैर समझते हो। क़सम ख़ुदा की, बड़े नालायक आदमी हो तुम। ऐसे आदमी को गोली मार देनी चाहिए ! दोस्तों से भी यह ग़ैरियत ! चलो क्लास में, मैं फ़ीस दिए देता हूँ। ज़रा-सी बात के लिए घण्टे भर से रो रहे हो। वह तो कहो मैं आ गया, नहीं तो आज जनाब का नाम ही कट गया होता।’

अमरकान्त को तसल्ली तो हुई; पर अनुग्रह के बोझ से उसकी गर्दन दब गयी। बोला--‘क्या पंडितजी आज मान न जायेंगे ?’
सलीम ने खड़े होकर कहा—पण्डितजी के बस की बात थोड़े ही है। यही सरकारी क़ायदा है। मगर हो तुम बड़े शैतान, वह तो ख़ैरियत हो गयी, मैं रुपये लेता आया था, नहीं ख़ूब इम्तिहान देते। देखो, आज एक ताज़ा गज़ल कही है। पीठ सहला देना—

आपको मेरी वफ़ा याद आयी,
खैर है आज यह क्या याद आयी।
अमरकान्त का व्यथित चित्त इस समय गज़ल सुनने को तैयार न था; पर सुने बग़ैर काम भी तो नहीं चल सकता। बोला, ‘नाजुक चीज़ है। ख़ूब कहा है। मैं तुम्हारी ज़बान की सफ़ाई पर जान देता हूँ।’
सलीम—यही तो ख़ास बात है भाईसाहब ! लफ़्जों की झंकार का नाम गज़ल नहीं है। दूसरा शेर सुनो—
फिर मेरे सीने में एक हूक उठी,

फिर मुझे तेरी अदा याद आयी।
अमरकान्त ने फिर तारीफ़ की—लाजवाब चीज़ है। कैसे तुम्हें ऐसे शेर सूझ जाते हैं ?
सलीम हँसा—उसी तरह, जैसे तुम्हें हिसाब और मज़मून सूझ जाते हैं। जैसे एसोसिएशन में स्पीचें दे लेते हो। आओ, पान खाते चलें।

दोनों दोस्तों ने पान खाए और स्कूल की तरफ़ चले। अमरकान्त ने कहा—‘पंडितजी बड़ी डाँट बतायेंगे।’
‘फीस ही तो लेंगे।’
‘और जो पूछें, अब तक कहाँ थे ?’
‘कह देना, फ़ीस लाना भूल गया था।’

‘मुझसे तो न कहते बनेगा। मैं साफ़-साफ़ कह दूँगा।’
‘तो तुम पिटोगे भी मेरे हाथ से !’
संध्या समय जब छुट्टी हुई और दोनों मित्र घर चले, अमरकान्त ने कहा—‘तुमने आज मुझ पर जो अहसान किया है...’
सलीम ने उसके मुँह पर हाथ रखकर कहा—बस ख़बरदार, जो मुँह से एक आवाज़ भी निकाली। कभी भूलकर भी इसका जिक्र न करना।

‘आज जलसे में आओगे ?’
‘मज़मून क्या है, मुझे तो याद नहीं।’
‘अजी वही पश्चिमी सभ्यता है।’

‘तो मुझे दो-चार पाइंट बता दो, नहीं मैं वहाँ कहूँगा क्या ?’
‘बताना क्या है। पश्चिमी सभ्यता की बुराइयाँ हम सब जानते ही हैं। वही बयान कर देना।’
‘तुम जानते होगे, मुझे तो एक भी नहीं मालूम।’
‘एक तो यह तालीम ही है। जहाँ देखो वहीं दुकानदारी। अदालत की दुकान, इल्म की दुकान, सेहत की दुकान। इस एक पाइंट पर बहुत कुछ कहा जा सकता है।’
‘अच्छी बात है, जाऊँगा।

2


अमरकान्त के पिता लाला समरकान्त बड़े उद्योगी पुरुष थे। उनके पिता केवल एक झोंपड़ी छोड़कर मरे थे; मगर समरकान्त ने अपेन बाहुबल से लाखों की सम्पत्ति जमा कर ली थी। पहले उनकी एक छोटी-सी हल्दी की आढ़त थी। हल्दी से गुड़ और चावल की बारी आयी। तीन बरस तक लगातार उनके व्यापार का क्षेत्र बढ़ता ही गया।

अब आढतें बन्द कर दी थीं। केवल लेन-देन करते थे। जिसे कोई महाजन रुपये न दे, उसे वह बेखटक दे देते और वसूल भी कर लेते ! उन्हें आश्चर्य होता था कि किसी के रुपये मारे कैसे जाते हैं। ऐसा मेहनती आदमी भी कम होगा। घड़ी रात रहे गंगा-स्नान करने चले जाते और सूर्योदय के पहले विश्वनाथजी के दर्शन करके दुकान पर पहुँच जाते। वहाँ मुनीम को ज़रूरी काम समझा कर तगादे पर निकल जाते और तीसरे पहर लौटते। भोजन करके फिर दुकान पर आ जाते और आधी रात तक डटे रहते। थे भी भीमकाय। भोजन तो एक बार ही करते थे, पर खूब डटकर।

दो ढाई सौ मुग्दर के हाथ अभी तक फेरते थे। अमरकान्त की माता का उसके बचपन में ही देहान्त हो गया था। समरकान्त ने मित्रों के कहने-सुनने से दूसरा विवाह कर लिया था। उस सात साल के बालक ने नयी माँ का बड़े प्रेम से स्वागत किया; लेकिन उसे जल्दी मालूम हो गया कि उसकी नयी माता उसकी ज़िद और शरारतों को क्षमा दृष्टि से नहीं देखतीं, जैसे उसकी माँ देखती थीं। वह अपनी माँ का अकेला लाडला था, बड़ा जिद्दी, बड़ नटखट।

जो बात मुँह से निकल गयी, उसे पूरा करके ही छोड़ता। नई माताजी बात-बात पर डाँटती थी। यहाँ तक कि उसे माता से द्वेष हो गया। जिस बात को वह मना करतीं, उसे वह अदबदाकर करता। पिता से भी ढीठ हो गया था। पिता और पुत्र में स्नेह का बंधन न रहा। लालाजी जो काम करते, बेटे को उससे अरुचि होती। वह मलाई के प्रेमी थे, बेटे को मलाई से अरुचि थी। वह पूजा-पाठ बहुत करते थे, लड़का इसे ढोंग समझता था। वह परले सिरे के लोभी थे; लड़का पैसे को ठीकरा समझता था।

मगर कभी-कभी बुराई से भलाई पैदा हो जाती है। पुत्र सामान्य रीति से पिता का अनुगामी होता है। महाजन का बेटा महाजन, पण्डित का बेटा पण्डित, वकील का बेटा वकील, किसान का किसान होता है; मगर यहाँ इस द्वेष ने महाजन के पुत्र को महाजन का शत्रु बना दिया। जिस बात का पिता ने विरोध किया, वह पुत्र के लिए मान्य हो गयी, और जिसको सराहा, वह त्याज्य। महाजनी के हथकण्डे और षड्यंत्र उसके सामने रोज़ ही रचे जाते थे।

उसे इस व्यापार से घृणा होती थी। इसे चाहे पूर्व संस्कार कह लो; पर हम तो यही कहेंगे कि अमरकान्त के चरित्र का निर्माण पिता-द्वेष के हाथों हुआ।
ख़ैरियत यह हुई कि उसके कोई सौतेला भाई न हुआ। नहीं तो शायद वह घर से निकल गया होता। समरकान्त अपनी सम्पत्ति को पुत्र से ज्यादा मूल्यवान समझते थे। पुत्र के लिए तो सम्पत्ति की कोई जरूरत न थी; पर सम्पत्ति के लिए पुत्र की जरूरत थी। विमाता की तो इच्छा यही थी उसे वनवास देकर अपनी चहेती नैना के लिए रास्ता साफ कर दे; पर समरकान्त इस विषय में निश्चल रहे। मज़ा यह था कि नैना स्वयं भाई से प्रेम करती थी, और अमरकान्त के हृदय में अगर घर वालों के लिए कहीं कोमल स्थान था, तो वह नैना के लिए था। नैना की सूरत भाई से इतनी-मिलती-जुलती थी, जैसे सगी बहन हो। इस अनुरूपता ने उसे अमरकान्त के और भी समीप ला दिया था।

माता-पिता के इस दुर्व्यवहार को वह इस स्नेह के नशे में भुला दिया करता था। घर में कोई बालक न था और नैना के लिए किसी साथी का होना अनिवार्य था। माता चाहती थीं, नैना भाई से दूर-दूर रहे। वह अमरकान्त को इस योग्य न समझती थीं कि वह उनकी बेटी के साथ खेले। नैना की बाल-प्रकृति इस कूटनीति के झुकाए न झुकी। भाई-बहन में यह स्नेह यहाँ तक बढ़ा कि अन्त में विमातृत्व से मातृत्व को भी परास्त कर दिया। विमाता ने नैना को भी आँखों से गिरा दिया और पुत्र की कामना लिए संसार से विदा हो गयीं।

अब नैना घर में अकेली रह गयी। समरकान्त बाल-विवाह की बुराइयाँ समझते थे। अपना विवाह भी न कर सके। वृद्ध-विवाह की बुराइयाँ भी समझते थे। अमरकान्त का विवाह करना जरूरी हो गया। अब इस प्रस्ताव का विरोध कौन करता ?

अमरकान्त की अवस्था उन्नीस साल से कम न थी; पर देह और बुद्धि को देखते हुए, अभी किशोरावस्था ही में था। देह का दुर्बल, बुद्धि का मंद। पौधे को कभी मुक्त प्रकाश न मिला, कैसे बढ़ता, कैसे फैलता ? बढ़ने और फैलने के दिन कुसंगति और असंयम में निकल गये। दस साल पढ़ते हो गये थे और अभी ज्यों-त्यों करके आठवें में पहुँचा था। किन्तु विवाह के लिए यह बात बातें नहीं देखी जातीं। देखा जाता है धन, विशेषकर उस बिरादरी में, जिसका उद्यम ही व्यवसाय हो।

लखनऊ के एक धनी परिवार से बातचीत चल पड़ी। समरकान्त की तो लार टपक पड़ी। कन्या के घर में विधवा माता के सिवा निकट का कोई सम्बन्धी न था, और धन की कहीं थाह नहीं। ऐसी कन्या बड़े भागों से मिलती है। उसकी माता ने बेटे की साध बेटी से पूरी की थी। त्याग की जगह भोग, शील की जगह तेज, कोमल की जगह तीव्र का संस्कार किया था। सिकुड़ने और सिमटने का उसे अभ्यास न था। और वह युवक-प्रकृति ब्याही गयी युवती-प्रकृति के युवक से, जिसमें पुरुषार्थ का कोई गुण नहीं। अगर दोनों के कपड़े बदल दिये जाते, तो एक-दूसरे के स्थानापन्न हो जाते। दबा हुआ पुरुषार्थ ही स्त्रीत्व है।

विवाह हुए दो साल हो चुके थे; पर दोनों में कोई सामंजस्य नहीं था। दोनों अपने-अपने मार्ग पर चले जाते थे। दोनों के विचार अलग, व्यवहार अलग, संसार अलग। जैसे दो भिन्न जलवायु के जन्तु एक पिंजरे में बन्द कर दिये गये हों। हाँ, तभी अमरकान्त के जीवन में संयम और प्रयास की लगन पैदा हो गयी थी। उसकी प्रकृति में जो ढीलापन, निर्जीवता और संकोच था वह कोमलता के रूप में बदलता जाता था। विद्याभ्यास में उसे अब रुचि हो गयी थी। हालाँकि लालाजी अब उसे घर के धन्धे में लगाना चाहते थे—वह तार-वार पढ़ लेता था और इससे अधिक योग्यता की उनकी समझ में ज़रूरत न थी—पर अमरकान्त उस पथिक की भाँति, जिसने दिन विश्राम में काट दिया हो, अब अपने स्थान पर पहँचने के लिए दूने वेग से क़दम बढ़ाये चला जाता था।

3


स्कूल से लौटकर अमरकान्त नियमानुसार अपनी छोटी कोठरी में जाकर चरखे पर बैठ गया। उस विशाल भवन में, जहाँ बारात ठहर सकती थी, उसने अपने लिए यही छोटी-सी कोठरी पसन्द की थी। इधर कई महीने से उसने दो घण्टे रोज सूत कातने की प्रतिज्ञा कर ली थी और पिता के विरोध करने पर भी उसे निभाये जाता था।

मकान था तो बहुत बड़ा; मगर निवासियों की रक्षा के लिए उतना उपयुक्त न था, जितना धन की रक्षा के लिए। नीचे के तल्ले में कई बड़े-बड़े कमरे थे, जो गोदाम के लिए बहुत अनुकूल थे। हवा और प्रकाश का कहीं रास्ता नहीं। जिस रास्ते से हवा और प्रकाश आ सकता था, उसी रास्ते से चोर भी तो आ सकता है। चोर की शंका उसकी एक-एक ईंट से टपकती थी। ऊपर के दोनों तल्ले हवादार और खुले हुए थे। भोजन नीचे बनता था। सोना-बैठना ऊपर होता था। सामने सड़क पर दो कमरे थे—एक में लालाजी बैठते थे, दूसरे में मुनीम। कमरों के आगे एक सायबान था, जिसमें गायें बँधती थीं। लालाजी पक्के गोभक्त थे।

अमरकान्त सूत कातने में मग्न था कि उसकी छोटी बहन नैना आकर बोली—क्या हुआ भैया, फ़ीस जमा हुई या नहीं ? मेरे पास बीस रुपये हैं, यह ले लो। मैं कल और किसी से माँग लाऊँगी।
अमर ने चरखा चलाते हुए कहा—‘आज ही तो फ़ीस जमा करने की तारीख़ थी। नाम कट गया। अब रुपये लेकर क्या करूँगा।’
नैना रूप-रंग में अपने भाई से इतनी मिलती थी कि अमरकान्त उसकी साड़ी पहन लेता, तो यह बतलाना मुश्किल हो जाता कि कौन यह है, कौन वह ! हाँ, इतना अन्तर अवश्य था कि भाई की दुर्बलता यहाँ सुकुमारता बनकर आकर्षक हो गयी थी।
अमर ने तो दिल्लगी की थी; पर नैना के चेहरे का रंग उड़ गया। बोली—‘तुमने कहा नहीं, नाम न काटो, मैं दो-एक दिन में दे दूँगा ?’

अमर ने उसकी घबराहट का आनंद उठाते हुए कहा—‘कहने को तो मैंने सब कुछ कहा; लेकिन सुनता कौन था ?’
नैना ने रोष भाव से कहा—‘मैं तो तुम्हें अपने कड़े दे रही थी, क्यों नहीं लिए ?’
अमर ने हँसकर पूछा—‘और जो दादा पूछते, तो क्या होता ?’
‘दादा से बतलाती ही क्यों ?’

अमर ने मुँह लम्बा करके कहा—‘चोरी से कोई काम नहीं करना चाहता नैना ! अब खुश हो जाओ, मैंने फ़ीस जमा कर दी।’
नैना को विश्वास न आया बोली—‘फ़ीस नहीं, वह जमा कर दी। तुम्हारे पास रुपये कहाँ थे ?’
‘नहीं नैना, सच कहता हूँ, जमा कर दी।’
‘रुपये कहाँ थे ?’
‘एक दोस्त से ले लिए।’
‘तुमने माँगे कैसे ?’

‘उसने आप-ही-आप दे दिए, मुझे माँगने न पड़े।’
‘कोई बड़ा सज्जन आदमी होगा।’
हाँ, है तो सज्जन, नैना। जब फ़ीस जमा होने लगी तो मैं मारे शर्म के बाहर चला गया। न जाने क्यों उस वक्त मुझे रोना आ गया। सोचता था, मैं ऐसा गया-बीता हूँ कि मेरे पास चालीस रूपये नहीं। वह मित्र ज़रा देर में मुझे बुलाने आया। मेरी आँखें लाल थीं। समझ गया। तुरन्त जाकर फ़ीस जमा कर दी। तुमने कहाँ पाये ये बीस रुपये ?’
‘यह न बताऊँगी।’

नैना ने भाग जाना चाहा। बारह बरस की यह लज्जाशील बालिका एक साथ ही सरल भी थी और चतुर भी। उसे ठगना सहज था, उससे अपनी चिन्ताओं को छिपाना कठिन था।
अमर ने लपककर उसका हाथ पकड़ लिया और बोला—‘जब तक बताओगी नहीं, मैं जाने न दूँगा। किसी से कहूँगा नहीं, सच कहता हूँ।’
नैना झेंपती हुई बोली—‘दादा से लिए।’

अमरकान्त ने बेदिली के साथ कहा—‘तुमने उनसे नाहक माँगे नैना। जब उन्होंने मुझे इतनी निर्दयता से दुत्कार दिया, तो मैं नहीं चाहता कि उनसे एक पैसा भी माँगूं। मैंने तो समझा था, तुम्हारे पास कहीं पड़े होंगे; अगर मैं जानता कि तुम भी दादा से ही माँगोगी तो साफ़ कह देता, मुझे रुपये की ज़रूरत नहीं। दादा क्या बोले ?’
नैना सजल नेत्र होकर बोली—बोले तो नहीं। यही कहते रहे कि करना-धरना तो कुछ नहीं, रोज रुपये चाहिए, कभी फ़ीस; कभी किताब; कभी चंदा। फिर मुनीमजी से कहा बीस रुपये दे दो। बीस रुपये फिर देना।
अमर ने उत्तेजित होकर कहा—तुम रुपये लौटा देना, मुझे नहीं चाहिए।

नैना सिसक-सिसककर रोने लगी। अमराकान्त ने रुपये ज़मीन पर फेंक दिए थे और वह सारी कोठरी में बिखरे पड़े थे। दो में एक भी चुनने का नाम न लेता था। लाला समरकान्त आकर द्वार पर खड़े हो गए। नैना की सिसकियाँ बन्द हो गयीं और अमरकान्त मानो तलवार की चोट खाने के लिए अपने मन को तैयार करने लगा। लालाजी दोहरे बदन के दीर्घकाय मनुष्य थे। सिर से पाँव तक सेठ—वही खल्वाट मस्तक, वही फूले हुए कपोल, वही निकली हुई तोंद। मुख पर संयम का तेज था, जिसमें स्वार्थ की गहरी झलक मिली हुई थी। कठोर स्वर में बोले—चरखा चला रहा है। इतनी देर में कितना सूत काता ? होगा दो चार रुपये का।
अमरकान्त ने गर्व से कहा—‘चरखा रुपये के लिए नहीं चलाया जाता।’
‘और किसलिए चलाया जाता है ?’
‘यह आत्म-शुद्धि का एक साधन है।

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