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कृष्ण द्वादशी

महाश्वेता देवी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :111
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2548
आईएसबीएन :81-7119-601-2

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इसमें बंगाल का अतीत, उसकी विडंबनाएँ, विसंगतियों का उल्लेख किया गया है...

Krishnadwadashi

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

शीर्षक समेत कथा संकलन में महाश्वेता देवी की तीन कहानियाँ संग्रहीत हैं। सभी कहानियों का अपना ऐतिहासिक महत्त्व है। अथक परिश्रम और शोध के मंथन-निष्कर्षों के बाद यह कहानियाँ वजूद में आई हैं। बंगाल के अतीत और उसकी बिडम्बनाएं विसंगतियाँ लेखिका के प्रिय विषय रहे हैं। मूलता आप लोक कथाओं तथा किंवदंतियों की वैज्ञानिक सत्यता की भी पड़ताल करती हैं। संग्रह में शामिल सभी कहानियों के माध्यम से इतिहास की रोशनी में मौजूदा समय की नब्ज को टटोलने की कोशिश की गई है।

कृष्णद्वादशी तथा केवल किंवदंती कहानियों के कथानक बंगाली जाति का इतिहास तथा बृहत् बंग ग्रंथ से लिए गए हैं। नीहार रंजन दिनेशचन्द्र और सुकुमार से इतिहासकारों ने वणिक-वधू माधवी का उल्लेख किया है। प्राचीन बंगाल में राजा बल्लाल के समय सुवर्ण-वणिकों के साथ क्रूर बर्ताव किया गया था। राजा वर्ग और वर्ण के आधार पर अपनी नीतियों का पालन करता था। महिलाओं की स्थिति सर्वाधिक त्रासद थी।

कृष्णद्वादशी की माधवी में द्रौपदी की झलक देखने को मिलती है। ‘केवल किंवदंती’ की वल्लभा अन्नया है ही। यौवन कहानी के केन्द्र में ईस्ट इंडिया कंपनी का विद्रूप चेहरा है। तब बंगाल से भारत लाए जाने वाले सैनिक बीच में विद्रोह कर देते तो उन्हें जेल में ठूस दिया जाता था। कई सैनिक इस अमानुषिक माहौल से तंग आकर भाग जाया करते, ऐसे सैनिक को भागी गोरा कहा जाता था। महाश्वेताजी ने इस ऐतिहासिक समय को लगभग 30-32 वर्ष पूर्व ‘नृसिंहदुरावतार’ शीर्षक कहानी में विश्लेषित करने की कोशिश की थी। यौवन उसी कथा का शीर्षक है। इसी कहानी में लुप्त हो रही ‘मनुष्यता’ का अन्वेषण है।

 

भूमिका

 

 

प्रस्तुत संकलन की तीनों कहानियाँ इतिहास पर आधारित हैं। गत कई वर्षों से अनुभव करती रही हूँ कि मैं अपने लेखक ‘मैं’ के प्रति अन्याय कर रही हूँ। उसके लिए और कोई नहीं, खुद मैं जिम्मेवार हूँ। यदि समय और कार्यालय पर तत्कालिकता हावी हो तो लेखन की उपेक्षा होती है। इसके लिए मुझे कोई पछतावा नहीं, क्योंकि लेखन की भले ही उपेक्षा हुई हो, लेखनी की नहीं। साहित्य नहीं लिखा गया, पर अनेक अन्य जरूरी कामों के लिए प्रयास लेखनी द्वारा ही किए गए। जिस जरूरी लेखन का दबाव मैं हमेशा अनुभव करती रही हूँ, उसकी चर्चा आत्मकथा में की जाएगी।

मेरे सर्वप्रथम लेखन से लेकर आज तक इतिहास ही मेरे लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रहा है। और पिछले कई वर्षों से अनुभव करती रही हूँ कि चूँकि हम इतिहासमनस्क नहीं हैं, इसीलिए जाति-धर्म-वर्ण-विभाजन और विद्वेष, स्त्रियों के बारे में समाज की मानसिकता की अंधी संकीर्णता जैसी अनेक समस्याओं को हम संपूर्णता में समझ नहीं पा रहे हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि अपने इस दौर के लेखन द्वारा मैंने कुछ समझाने की कोशिश की है। इस वर्ष के शारदीय साहित्य में मेरे लेखन के पीछे है मेरी अन्वेषणा। इतिहास पर भरसक रोशनी डालकर मैं केवल वर्तमान को समझने की चेष्टा कर रही हूँ।

ऐसी मानसिक स्थिति में नीहाररंजन राय, सुकुमार सेन और एक बार पहले पढ़ी दिनेशचंद्र सेन आदि की पुस्तकें फिर से पढ़नी शुरू कीं। अखबारों में जो स्तंभ लिख रही थी, उन्हें बंद करना पड़ा। पहले की आदतों को फिर से जिंदा करने की कोशिश की। ये थीं अनुशीलन और इतिहास-निष्ठता की आदतें। इसमें पूरी तरह तो सफल नहीं हो सकी, पर थोड़ा-बहुत पुराना अभ्यास लौट आया। इसे बनाए रखने की कोशिश कर रही हूँ। इस कोशिश को छोड़ना नहीं है, देखा जाएगा।
इतिहास के समय और समाज की पुनर्निर्मित में मैं सहज  और स्वच्छंद महसूस करती हूँ।

बंगाल के इतिहास के विभिन्न कालखंडों को लेकर कितना तो लिखा है ! ‘चर्यापद’ के काल को लेकर ही कुछ नहीं लिखा। मगर आठवीं शताब्दी से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक के समाज और मनुष्य को लेकर अनेक कहानियाँ और कुछ उपन्यास तो लिखे हैं। लोककथाओं पर मूलतः केंद्रित करके मैं लिखती हूँ। कह सकती हूँ कि इस संकलन की कहानियों के लिए मुझे बहुत कम मेहनत करनी पड़ी है। ‘कृष्णद्वादशी’, ‘केवल किंवदंती’ कहानियों के आख्यान ‘बांगालीर इतिहास’ और ‘वृहत् अंग’ पुस्तकों के लिए गए हैं। ‘नीहाररंजन, दिनेशचंद्र और सुकुमार सेन—तीनों ने ही ‘सेक शुभोदया’ से वणिक-वधू माधवी की कथा का उल्लेख किया है।

‘कृष्णद्वादशी’ की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बारे में यथार्थ यह है कि राजा बल्लाल सेन ने सचमुच सुवर्ण-वणिकों पर चरम अत्याचार किया था। बल्लाल सेन द्वारा वर्ण-विभाजन और ब्राह्मण-तंत्र की स्थापना के फलस्वरूप, नीहाररंजन के मतानुसार :

‘‘..पालचंद्र के समय में सामाजिक आदर्श और अनुशासन में एक उदारता थी। इसके अनंत उदाहरण हैं। ब्राह्मण वर्ग भी सामाजिक आदर्श को ही एक समन्वित, समीकृत आदर्श का रूप देने की सजग चेष्टा करता था। अन्य सामाजिक तर्क-पद्धतियों, आदर्शों और व्यवस्थाओं को अस्वीकार करने की चेष्टा नहीं होती थी। कोई एकाधिकारी मनोवृत्ति सक्रिय नहीं थी। सेनवर्मन शासनकाल में, मगर ऐसी स्थिति न रही। समाज-व्यवस्था में कोई उदारता न रही, ब्राह्मण धर्म के अलावा अन्य आदर्शों तथा व्यवस्थाओं की कोई स्वीकृति न रही। संस्कार और संस्कृति तथा तदनुयायी समाज और वर्ण-व्यवस्था एकात्म हो उठी। उनका ही सर्वव्याप्त अधिनायकत्व राष्ट्र की इच्छा और निर्देश में प्रतिष्ठित हो गया।
‘कल जो होना था, साथ-साथ हुआ।’’

इसी से ब्राह्मण तंत्र को सर्वोच्च अधिकार-दान और वर्गीय स्वार्थ के अनुरूप जाति-वर्ण विभाजन सामने आया। इन सबके फलस्वरूप होने वाले पाप ने समाज की देह को जला डाला। समाज को खंड-खंड और दुर्बल कर डाला। हम आज भी उसी के उत्तराधिकार को ढो रहे हैं।

ऐसे अंधकाराच्छन्न समय में नारी की सामाजिक स्थिति कैसी थी, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। मगर माधवी (कृष्णद्वादशी) और वल्लभा (केवल किंवदंती) सिर्फ किंवदंती अथवा कपोल कल्पना नहीं हो सकतीं। इन दो स्त्रियों की कथा प्रसिद्ध और लिपिबद्ध हुई, यह इस बात का यथेष्ट प्रमाण है। इसको जानने के लिए ‘बांगालीर इतिहास’, ‘वृहत् बंग’ के अलावा दुर्गाचरण सान्याल कृत ‘बंगेर सामाजिक इतिहास’ (मैंने इसे चालीस वर्ष पूर्व पढ़ा था) इसको पढ़ा जा सकता है। माधवी की कथा द्रौपदी की तुलना में कहीं ज्यादा गर्व की बात है। वल्लभा तो है ही अनन्या।

‘यौवन’ कहानी की ऐतिहासिकता के बारे में इतना ही कहूँगी कि 1961-’62 वर्ष में ‘बेंगाल : पास्ट ऐंड प्रेजेंट’ पत्रिका के किसी अंक में मैंने एक निबंध पढ़ा था कि ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा भारत लाए गए सैनिकों में से कुछ बीच-बीच में विद्रोह कर देते थे। वे कुछ ही दिन बाद समझ जाते थे कि ‘बंगाल जाओगे तो नवाब हो जाओगे’ का प्रलोभन पूरी तरह झूठा था। फौज छोड़कर भागने पर उन्हें हरिनबाड़ी (आज की प्रेसीडेंसी) जेल में बुरे हाल में रखा जाता था।
 
इसलिए ये फ्रांसीसी शासन वाले चंदननगर या डच-प्रशासित श्रीरामपुर भाग जाते थे। बंदूक बेचकर जो पैसे मिलते उससे गुजारा करते हुए वहीं रह जाते। इन पलातक सैनिकों, जिन्हें ‘भागी गोरा’ कहा जाता था, को पकड़ने पर ईस्ट इंडिया कंपनी मोटी बख्शीश देती थी। इस कहानी को पढ़कर मैंने उन्हीं दिनों ‘चतुष्पर्णा’ पत्रिका में ‘नृसिंहदुरवतार’ शीर्षक कहानी लिखी थी। आज 30-32 वर्ष बाद ढूँढ़ने पर भी वह पत्रिका मुझे नहीं मिली। ‘यौवन’ उसी कहानी का नया (1993 का) संस्करण है। इस कहानी में प्रकृति और प्राकृतिक, मूल और आदिम को आक्रांत रूप में दिखाने की बात मेरे लिए मूल्यवान है, क्योंकि तथाकथित सभ्यता के दबाव में आज मनुष्य के सहज-स्वाभाविक आदिम प्रकृति और उसके अरण्य-जल-पर्वत-आरण्यक-जलजाल सब-कुछ खो चुके हैं। और आज मानव-समाज में एकांत, सहज, स्वाभाविक आदिम मनुष्य भी विपन्न हैं। ‘यौवन’ कहानी में प्रतिवाद और वाक्-हीन, गूँगा, क्रुद्र चीत्कार कहाँ है, इसे पाठक खुद खोज लेंगे। वह कासिम सब-कुछ जानता था।

मगर उनकी कथा सुनने की बात तो हम भूल ही चुके हैं। किसी-किसी विरल मनुष्य को यह समय और समाज इसी तरह बांध कर रखता है। उस आदमी का खून निःशब्द बहता रहता है। मैंने यह पुस्तक सही आदमी को समर्पित की है।

 

कृष्णद्वादशी

 

 

सेन राजाओं की महिमा का जो भी बखान है, वह उनकी राजसभा के कवियों के कंठों से ही निकला है। उनकी जो थोड़ी-बहुत स्मृति बची है यह केवल ब्राह्मण स्मृति-शासित समाज के उच्चतर वर्गों तक ही सीमित है।...सेन राजाओं में से किसी एक के लिए भी कोई लोक गीत नहीं रचा गया। बांग्ला साहित्य की लोक-स्मृति में सेन राजवंश का अस्तित्व समाप्त हो गया है।’

-नीहाररंजन राय : ‘बांगालीर इतिहास’ (बंगाली जाति का इतिहास)
गंगा और महानंदा नदियों के संगम पर, गंगा के उत्तरी किनारे के समानांतर कई योजन में फैली है लक्ष्मण सेन की राजधानी लक्ष्मणावती। पूंड्रवर्धन अथवा रामावती की तरह लक्ष्मणावती भी एक ही परिकल्पना पर निर्मित है। मूल नगरी तीन ओर से एक खाई द्वारा घिरी हुई है। दक्षिण दिशा में गंगा है। बीच में राजा का महल है। उसके चारों ओर संपन्न राजकर्मचारियों, ब्राह्मणों, वैद्यों और करणकायस्थों की बस्तियाँ हैं। नगरी का यह भाग ही सर्वाधिक समृद्ध है।

इनके बाद वणिकपल्ली है। गौड़ बंगाधिप लक्ष्मण सेन को ‘वाणिज्ये बसति लक्ष्मी’* पर विश्वास नहीं है। अपने पूर्वज बल्लाल सेन की तरह ही कभी वे वणिकों से स्पष्ट होते हैं, कभी उदासीन। सुवर्णवणिकों और शंखवणिकों का प्राचीन गौरव समाप्त हो गया है। वणिक लोगों को पता नहीं कि वे अपने पुरखों के गौरव को फिर से प्राप्त कर सकेंगे या नहीं।
नगरी पूर्व से पश्चिम की ओर लंबाई में फैली है। नगरी में रहने वालों की स्थिति से पता चलता है कि किनका समाज में क्या स्थान है। जुलाहे, कहार, कुम्हार, माली, तेली, मल्लाह, मोची आदि तीसरी श्रेणी में आते हैं।
अंतिम श्रेणी के लोग नगर के बाहरी इलाके में रहते हैं। मोदक, शौंडिक, मछरे चौथी श्रेणी में आते हैं।

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*वाणिज्य में लक्ष्मी का वास है।

ये बातें राजकवि गोवर्धनाचार्य बता रहे थे युवक पुरंदर को, जो केंदूबिल्व से आया था। पुरंदर एक भाग्यान्वेषी युवक है। लक्ष्मण सेन की राजसभा में केंदूबिल्व के जयदेव की प्रतिष्ठा और सफलता की चर्चा राष्ट्रभूमि के बच्चे-बच्चे की जुबान पर है। लक्ष्मणावती का नाम गाँव के कवियशोप्रार्थी, महत्त्वाकांक्षी युवकों को आकर्षित करता था।
‘‘समझ रहे हो न, युवक ?’’
‘‘जी हाँ।’’

‘‘ग्वाले, नाई और धोबी पाँचवी श्रेणी में आते हैं। और वह जो झोपड़ियाँ दूर पर दिखाई दे रही हैं, उनमें तुम्हें अलग-अलग बसे हुए बाउड़ी, चमार, पाटनी, डोली ढोने वाले, ब्याध, डोम, बागातीत, बेदिया, चंडाल, शबर, पुलिंद, निषाद आदि अनेक जातियों के लोग मिलेंगे।’’
‘‘नगरी बड़ी समृद्ध है।’’

‘‘हाँ !...समृद्ध तो है ही। पर जानते हो, वृद्धावस्था के निकट आकर राजा ने नई नगरी की स्थापना की।’’
‘‘वह तो करना ही था।’’
‘राजवृत के अनुसार एक राजा दूसरे राजा द्वारा स्थापित नगरी में नहीं रहता।’’
‘‘सूर्य प्रायः अस्त होने वाला है। ऐसे समय में नदी तट पर माल बेचने के लिए बैठे हैं। भीड़ भी तो कम नहीं !’’
‘‘खेती में पैदा हुई चीजें बेचने आए हैं। जो चीजें, बिक्री नहीं हुई हैं, उन्हें भी बेचकर, नाव में बैठकर दूसरे किनारे उतरकर घर चले आएँगे।’’

‘‘लगता है, यहाँ खेती-बाड़ी खूब होती है। हमारे इलाके में ऐसा नहीं होता।’’
‘‘वरेंद्री में भूमि की प्रकृति ही ऐसी है कि सभी को कृषि के अनुकूल प्राकृतिक दक्षता मिली है। चलो, उस ओर चलते हैं।’’
राजपथ खूब चौड़ा है। दोनों पश्चिम दिशा में चल पड़े।
अचानक पुरंदर ठमककर खड़ा हो गया।

कारण यह है कि एक अपूर्व सुंदरी रमणी गंगाघाट पर खड़ी थी। साड़ी बदन पर लिपटी थी और केश जैसे-तैसे लपेट लिए गए थे। माँग में सिंदूर और हाथ में शंख की चूड़ियाँ थीं। बिना किसी प्रसाधन के भी वह समुद्र से निकली जलपरी जैसी दिख रही थी।
गोवर्धनाचार्य की भौंहों पर बल पड़ गए।
‘‘माधवी !’’
रमणी ने धीरे से मुँह फेरा। फिर भूमि पर सिर रखकर प्रणाम किया।

‘‘संध्या होने में देर नहीं है। ऐसे समय भला कोई कुलवधू घाट पर आती है ?’’
‘‘बनिए की बहू क्या करे, ठाकुर ? उसे तो हर रोज दिया तैराना पड़ता है।’’
‘‘तुम्हारे स्वामी अभी लौटे नहीं ?’’

‘‘नहीं ठाकुर ! कितने महीने बीत गए। आश्विन मास में उन्होंने यात्रा शुरू की थी। फिर आश्विन आने वाला है। ध्वजापूजन का दिन आ गया...आज्ञा दें ठाकुर...जाऊँ मैं ?’’
‘‘अकेली तो नहीं आई हो न, बेटी ?’’

‘‘नहीं ठाकुर ! दासी है, दनू है।’’
‘‘तुम्हारी और भी तो घाट है ?’’
‘‘इसी घाट से वह गए थे न ! इसलिए इसी घाट पर दिया तैराने आना पड़ता है। मेरी सास अंधी हैं, कुछ समझतीं ही नहीं, रोज कहती हैं—जिस घाट में उसने नाव छोड़ी थी, उसी घाट पर दिया प्रवाहित करना है। शाम हो गई है, चलती हूँ।’’
माधवी चली गई। गोवर्धनाचार्य ने सिर हिलाया। बोले, ‘‘इसकी यह अपूर्व सुंदरता ही इसके सर्वनाश का कारण बनेगी। लक्ष्मणावती के दिन अच्छे नहीं हैं। संध्या समय पथ-घाट निरापद नहीं रहे।’’
‘‘नगर में भी तो लुटेरों को डर है ?’’

‘‘नहीं, ये लुटेरे उनसे अलग हैं। धन-रत्न नहीं। रूप और यौवन के भी लुटेरे होते हैं !’’
‘‘क्या रूप है ! जैसे वासंती दुर्गा की प्रतिमा !’’
‘‘स्त्री के लिए इतना रूप अच्छा नहीं।’’
‘‘रूप तो जन्मजात होता है।’’

‘‘होता है, पर इतना रूप ? लक्ष्मणावती में तो इसके रूप को लेकर कितनी ही कहानियाँ प्रचलित हैं। सात कन्याओं की गोद में एक पुत्र। मानिक दत्त ने बहुत खोज-बीन करने के बाद इसे अपनी पत्नी बनाया था।’’
पुरंदर ने सहज आंतरिकता से कहा, ‘‘देखकर मन में श्रद्धा उपजती है।’’
‘‘और मुझे चिंता होती है। मैं उसके पिता को जानता हूँ। इसे भी इसके बचपन से देखा है। चलो, अब लौटते हैं।’’
‘‘आहा ! लक्ष्मणावती जैसे दीपमालिका है। कितनी रोशनी है ! क्या शोभा है !’’
‘‘नगर है, गाँव तो नहीं।’’

‘‘वह दूर पर किस चीज की रोशनी है ?’’
‘‘वह जय स्कंधवार का आलोक है। इस समय तो...जानते हो क्या स्थिति है ? नगर में सेना नहीं है। सेनावास दूर चला गया है।’’
‘‘किंतु महाराज तो...’’
‘‘हाँ ! एक समय था जब वे हाथी घोड़े पर ही सवार रहते थे। किशोरावस्था पार करते ही युद्ध करने निकल पड़ते थे। कहाँ कलिंग और कहाँ कामरूप ? और पश्चिम में तो प्रयाग तक उन्होंने अपनी विजय-ध्वजा फहराई थी।’’
अचानक गोवर्धनाचार्य का स्वर जैसे कड़वा हो उठा। बोले, ‘‘चलो, चलो। संध्या-वंदन करना है। मंदिर में संध्या-आरती देखेंगे।’’

‘‘चलिए, आचार्य !’’ पुरंदर ने कहा।
‘‘लक्ष्मणावती के मंदिर में देवदासी का नृत्य जिसने नहीं देखा उसका जीवन व्यर्थ है।’’
पुरंदर चुप रहा।
‘‘कभी देखा है ?’’
‘‘नहीं आचार्य।’’

‘‘देखते कहाँ से ? गाँव में है ही क्या ? खेती, गाय-गोरू पालना, मछलियाँ पकड़ना और बेचना; एकदम बँधा हुआ जीवन।’’
‘‘कविकुलशेखर जयदेव तो गाँव से ही आए थे, आचार्यदेव !’’
‘‘स्वीकृति तो पाई नगर में आकर ही।’’
‘‘जी नहीं, गाँव में भी उनकी ख्याति अपार है।’’
‘‘गाँव को भूल जाओ, पुरंदर। तुम कवियशोप्रार्थी होकर नगर में आए हो।’
‘‘अभी तक जो देखा है...’’

‘‘कुछ भी नहीं देखा। धीरे-धीरे देखोगे।’’
शांत, स्वच्छ अंधकार में श्वेत पत्थर की तरह झलकती एक मुखाकृति, असावधानीपूर्वक बाँधी गई केशराशि, दुख के भार से आक्रांत दो आँखों और उनमें झलकती क्लांत हताशा ने पुरंदर को अभी भी घेर रखा था।
गोवर्धनाचार्य तीक्ष्ण बुद्धि के आदमी हैं।
उन्होंने कहा, ‘‘हाँ ! माधवी ! स्वाभाविक सौंदर्य एक स्वर्गीय देन है। सजा हुआ, बिना सजावट के, हर हाल में स्वतंत्र।’’

 

दो

 

 

माधवी पीतल के दर्पण के सामने बाल बाँध रही थी। बालों का बोझ अब असह्य लगता है उसे। सुदूर अतीत में सायन ने एक बार कहा था, ‘‘आज वेणी बाँधना। तुम्हारी चोटी खींचने का मन कर रहा है।’’
कभी वह फूल खरीदकर लाता और कहता, ‘‘आज तुझे फूलों से सजाऊँगा।’’

तब वह कोई और माधवी थी। सरसों की खली से देह की सफाई करती और घाट पर बैठकर अपने बाल सुखाती थी। हमेशा चिकन की डोरिया साड़ी पहनती थी। मोम और शंख से माँजा गया साड़ी का पाड़ झलमलाता रहता था। उस माधवी के गले में सोने का सतलड़ा हार, हाथों में चूड़ियाँ और कंगन, कानों में झुमके, नाक में नथ, ललाट पर बिंदी और माँग में सिंदूर चमकते रहते। पाँवों में आलता हमेशा भरा रहता था।
उसे सायन चन्द्रमुखी कहता था।
और अब !

माधवी ने दासी से कहा, ‘‘जैसे-तैसे बाँध दे, जट कल छुड़ा लूँगी।’’
चोटी बाँधकर माधवी ने गीले गमछे से मुँह पोंछा फिर माँग में सिंदूर भरा और माथे पर बिंदी लगाई।
दासी ने उसे निहारते हुए कहा, ‘‘बहूरानी ! तुम कितनी सु्दर हो ! इतने से ही जैसे रूप फटा पड़ा रहा है।’’
‘‘रहने दे गौरी। रूप की बात अब मुझसे सुनी नहीं जाती। क्या होगा रूप लेकर ?’’
‘‘बनिया जल्दी ही घर लौंटेंगे।’’

‘‘जानती हूँ, पर आते क्यों नहीं ? कभी इतनी देरी नहीं करते थे। इस बार क्या हो गया ?’’
माधवी ने तुलसी के चौरे पर दिया जलाया, शंखध्वनि की। हर कमरे में दिया दिखाकर गंगाजल के छीटें मारे। कभी सास ने उसे यह सब सिखाया था। अब माधवी अभ्यासवश यह सब करती है। जैसे कोई उससे यह सब कराता है।
सास आँगन में बैठी थीं। माधवी ने जाकर उनका हाथ पकड़ा।
 ‘‘घर चलिए माँजी !’’

‘‘चल बेटी। अच्छा ! तारे निकल आए हैं क्या ?’’
‘‘हाँ ! एक-दो निकले हैं।’’
‘‘जरा अपना हाथ दिखाना।’’
‘‘मेरा हाथ तो आपके हाथ पर ही है।’’
‘‘कमजोर हाथों से सास ने माधवी के हाथ टटोले, फिर बोलीं, ‘‘दुबली हो गई है तू।’’
‘‘नहीं माँ ! दुबली हुई होती तो चूड़ियाँ ढल-ढल करतीं।’’
‘‘मैं कर भी क्या सकती हूँ। मेरे से तो कुछ होता ही नहीं। तुझ अकेली पर सारी गिरस्ती का भार आ पड़ा है। ऊपर से मेरा भार...’’

‘‘माँ भी कहीं भार होती हैं ? चलिए, उठिए।’’
‘‘मेरी आँखें क्यों ले लीं, भगवान ? देख नहीं पाती, इसका मुझे बड़ा दुख है बेटी।’’
‘‘मैं ही आपकी आँख हूँ माँ। आइए, चलिए।’’
बड़ी सावधानी से सास का हाथ पकड़े माधवी उन्हें कमरे में ले गई। बड़े जतन से कपड़े बदलवाए। फिर पीढ़े पर बिठाकर थाली में खोई और मुरमुरे, कटोरे में गरम दूध परोसकर कहा, ‘‘माँ, लीजिए खाइए।’’
‘‘और तुम सब ?’’

‘‘उस बेला की तरकारी पड़ी हुई है। बस, भात पकाना है।’’
‘‘बच्चों को भी भेजकर छुट्टी पा गई।’’
‘‘ध्वजापूजन के पहले ही आ जाएँगे। मेरा भी मन बच्चो के बिना नहीं लगता। घर खाली-खाली सा लगता है।’’
‘‘वह ध्वजापूजन अब कहाँ ! हमने अपने बचपन में जैसी ध्वजापूजन देखी थी, वैसी अब नहीं होती। होगी कहाँ से ? बनियों की वह साख अब कहाँ ? हमारी माँ के घर भी तीन-तीन नावें थीं। उन दिनों हर बनिए के घर नावें होती थीं। मरद लोग घर में टिकते कहाँ थे ?’’

माधवी ने ये सब बातें कितनी ही बार सुनी हैं।
उसने कहा, ‘‘इस बार वे आएँ तो फिर न जाने दूँगी।’’
‘‘ऐसा भी कहीं होता है बेटी ? व्यापार करने के लिए बाहर निकले बिना काम चलता है... हमारे पास खेती-बाड़ी तो है नहीं।’’

‘‘नगर में न हो तेल, फुलेल, मसालों आदि कि एक दुकान लेकर बैठें। लड़का पाठशाला जाने लगा, लड़की भी नौ साल की होने को आई। अब उन्हें घर पर ही रहना चाहिए।’’
सास ने गहरी साँस ली, फिर बोलीं, ‘‘ऐसा ही कहना, मैं भी कहूँगी। घर है, पोखरा है, बाग में आम, केला और कटहल के पेड़ हैं। गोहाल में गाय-बैल हैं। चिंता की क्या बात है ? आहा ! दूध-खोई खाते समय मन कैसा तो होता है ! सीता और सुधाकर को दूध-खोई बहुत पसन्द है।’’

माधवी ने सास को सांत्वना देते हुए कहा, ‘‘अब कितने दिन हैं ! बस, आने ही वाले हैं। कभी जाते तो हैं नहीं। इस बार मेरी माँ ने बड़ी चिरौरी करके बुलवाया था। नाती-नातिन को देखने का उसका बड़ा मन था...’’
‘‘हाँ ! वह तो है। भाई के ब्याह में भी तू नहीं गई थी। बच्चों ने भी नई मामी को नहीं देखा था। कैसी है नई बहू ? तेरा भाई आदित्य तो राजकुमार जैसा है।’’

‘‘सुना है, बड़ी धीर-स्थिर और अच्छे लच्छन वाली है।’’
‘‘वैसी ही चाहिए। तुम लोगों का खानदान तो रूप का खजाना है। सुंदरता में तुम्हारे खानदान से पार पाना मुश्किल है। तुम्हारा रूप देखकर ही तो सायन के बाप ने...’’

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