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सुवर्णलता

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :464
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2547
आईएसबीएन :81-263-0713-7

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भारतीय नारी का एक शताब्दी का इतिहास अपने विकास क्रम में...

Suvarnalata

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

यों तो देखने में सुवर्णलता एक जीवन कथा है। लेकिन यह एक विशेष काल का आलेख है। इस काल ने शायद आज भी समाज पर अपनी छाया फैला रखी है। उपन्यास का प्रमुख पात्र सुवर्णलता उसी बन्धन-जर्जरित काल की मुक्तिकाम आत्मा की आकुल यन्त्रणा की प्रतीक है।

सुवर्णलता का जीवन और उसके परिवेश से सम्बद्ध पात्रों के कार्यकलाप, मनोभाव, रहन-सहन, बातचीत सब-कुछ इतना सहज स्वाभाविक है और मानव मन के घात-प्रतिघात इतने मनोवैज्ञानिक हैं कि परत-दर-परत रहस्य खुलते चले जाते हैं। निस्सन्देह इसमें लेखिका का स्वर एक बहुआयामी विद्रोहिणी का स्वर है।

यह उपन्यास अपनी कथा-वस्तु और शैली शिल्प में इतना अद्भुत है कि एक बार पढ़ना आरम्भ करने के बाद इसे बीच में छोड़ पाना कठिन है। सुवर्णलता आशापूर्णा देवी के उन तीन उपन्यासों के मध्य की कड़ी है जिनके माध्यम से भारतीय नारी का एक इतिहास अपने विकासक्रम में प्रस्तुत हुआ है श्रृंखला की पहली कड़ी है प्रथम प्रतिश्रुति और उत्तरवर्ती तीसरी कड़ी है बकुल कथा।
हिन्दी पाठकों को समर्पित है ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका आशापूर्णा देवी के इस उपन्यास का नया संस्करण।


प्रस्तुति


(प्रथम संस्करण)

‘ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित श्रीमती आशापूर्णा देवी की लेखनी से सृजित यह उपन्यास ‘सुवर्णलता’ अपनी कथा वस्तु को और शैली-शिल्प में इतना अद्भुत है कि पढ़ना प्रारम्भ करने के बाद इसे छोड़ पाना कठिन है। जब तक सारा उपन्यास समाप्त नहीं कर लिया जाता तब तक प्रमुख पात्र, सुवर्णलता के जीवन तथा परिवेश से सम्बद्ध पात्रों- मुक्तकेशी (उसका सास), प्रबोध (उसका पति); सुबोध (उसका जेठ), प्रभास और प्रकाश (दोनों देवर), इनकी पत्नियाँ, सुवर्णलता की ननदें- सब मन पर छाए रहते हैं। क्योंकि ये सब इतने जीते-जागते पात्र हैं; इनके कार्य-कलाप, मनोभाव, रहन-सहन, बातचीत सब कुछ इतना सहज स्वाभाविक है, और मानव मन के घात-प्रतिघात इतने मनोवैज्ञनिक कि परत-दर-परत रहस्य खुलते चले जाते हैं। लेकिन कहीं कोई आकस्मिकता नहीं, रोमांच चाहे जितना हो। आकस्मिकता यदि है तो एक पूरे अचल, निष्ठुर, जड़ युग के अन्धकार में पग-पग को उजालते चलनेवाली सुवर्णलता के जीवन की दीप-ज्योति कितने झोके-झकोरे ! और अन्त में कितने आंधी तूफ़ान ! उपन्यास में एक पूरे-का पूरा युग बोलता है, आत्मकथा कहता है।

‘‘सुवर्णा नौ साल की उम्र में इनके घर आयी है, तब से यहीं है। माँ है नहीं, लिवा कौन जाये ? बाप ने साहस ही नहीं किया। निकट पास की एक फुआ है। उसने एक बार लिवा लाना चाहा था, इन लोगों ने भेजा नहीं। कहा, ‘उस कुल से नाता रखने की अब जरूरत नहीं। कभी-कभार बाप मिलने आ जाता है, यही बहुत है। वह भी घूँघट काढ़कर इन लोगों के सामने मिलना ! सम्भवताः इसी दुःख से अब बाप भी अधिक नहीं आता। अतएव सुवर्णा को इन्हीं के साथ रहना होगा। इसलिए इन्हें आदमी बनाने की इच्छा होती है उसे। इच्छा होती है कि ये सौकीन हों, सभ्य हों, रुचि-पसन्द का मतलब समझें। इनके साथ घर-गिरस्ती करेगी वह।

वास्तव में श्रीमती आशापूर्णा देवी ने बंगाल के हिन्दू समाज का घर-गृहस्थी, आचार-विचार, रीति-रिवाज, धार्मिक-वैचारिक समस्याएँ रूढ़ियाँ और उदीयमान नवयुग के चिन्तन के सौ वर्ष का इतिहास तीन काल खण्डों में, तीन चरित्र-नायिकाओं के माध्यम से तीन उपन्यासों में प्रस्तुत किया है।

‘सुवर्णलता’ मध्यकाल की कड़ी है और भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित ‘बकुल कथा’ आधुनिक युग के उदय की गाथा है- सुवर्णलता की पुत्री बकुल के चरित्र के माध्यम से। तब फिर पहला युग ? उसकी नायिका ? वह है सत्यवती, सुवर्णलता की माँ जो अपने युग के काल–ख्ण्ड का प्रतिनिधित्व करती है, ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित उपन्यास ‘प्रथम प्रतिश्रुति’ में। ‘प्रथम प्रतिश्रुति’ की कथा चरित्र-चित्रण, पात्रों की क्रिया-प्रतिक्रिया और युग के परिवेश का चित्रण भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा ही प्रकाशित ‘प्रथम प्रतिश्रुति’-लघु नाट्य रूपान्तर में हुआ है, जिसकी प्रस्तावना सुवर्णलता के जीवन की पृष्ठभूमि को उसकी माँ सत्यवती के सन्दर्भ में इस प्रकार अंकित करती हैः

 ‘‘नित्यानन्दपुर के कविराज रामकली चेटरजी की एकमात्र पुत्री सत्यवती ने असंख्य बाधाओं और विपत्तियों के बीच अपने चलने का रास्ता इसी तरह स्वयं तैयार कर लिया था। जीवन-संग्राम में विजायिनी होने के हेतु अग्रसर, अन्त में उसे हार माननी पड़ी अपनी सास एलोकेशी के सामने। उसका संस्कार-मुक्त मन स्तब्ध रह गया जब एलोकेशी ने सत्यवती की एकमात्र बालिका कन्या सुवर्णलता का विवाह उसको बिना बताये कर दिया। संसार के सब बन्धन छिन्न-भिन्न कर क्षोभ और दुःख से आहत सत्यवती, अपने पति, संसार, सन्तान, सब कुछ को त्यागकर चली गयी। पीछे छोड़ गयी इस घटना की स्मृति-अपनी मां के नाम लड़कियों के लिए स्कूल स्थापित करने की आशा लेकर।’’

सुवर्णलता का जीवन जब निःशेष होने को हुआ तो युग का छन्द बदल चुका था। सुवर्णलता उपन्यास की ही पंक्तियाँ हैं:
‘‘सुवर्णलता परिपूर्णता की प्रतीक है।
फल, फूल, व्याप्ति, विशालता में वनस्पति के समान।
सुवर्णलता की मृत्यु ऐसी उम्र और ऐसी अवस्था में  हुई कि वह मृत्यु अवहेलना से भूल जाने को नहीं, शोक से हाहाकार करने की भी नहीं।
जगर-मगर जीवन, जगर-मगर मृत्यु !

सुवर्णलता से आजीवन किसने ईर्ष्या नहीं की ? उसकी जिठानी-देवरानियाँ, ननदें, पड़ोसिनें ये-वे। बचपन से ही डटकर चली। किसी से डरकर नहीं चली, किसी पर रियायत नहीं की। वैसी दुर्धर्ष महिला मुक्तकेशी, उन्हें भी सुवर्णालता से हार माननी पड़ी। वह वैसा ही रौब-दाब चलाती आयी सदा। भाग्य भी सहाय हुआ। आसपास के बहुतों से सुवर्णलता का सिर ऊँचा हो उठा था।
रुपये-पैसे, घर द्वार, सुख-सम्पत्ति, क्या नहीं हुई ? संसार में गृहस्थ-घर की बेटी-बहू की जो भी कामना की वस्तु है सभी सुवर्णलता को नसीब हुई।’’

बाहरी परिदृश्य यही है। लेकिन सुवर्णलता के जीवन का अभाव क्या उसके बेटे-बहुओं ने भी कभी देखा ? सुवर्णा के अन्तिम संस्कार के समय आयी, घर की ताई जयावती। लड़को से बोलीः

‘‘मन का बात खोलकर वह ज्यादा मुझसे ही कहती थी न ! बातों–बातों में कितनी ही बार वह हँसते-हँसते कहती थी, ‘जनम में खाट पर कभी सोयी नहीं जया-दी, मरने पर अब बेटों के कन्धों पर चढ़कर जाऊँगी, वे तब एक पालिशदार खाट पर मुझे ले जाएं।’

‘‘जनम में खाट पर कभी नहीं सोयी
खाट पर !
जनम में कभी !
यह कैसी अजीब भाषा है !
लड़कों ने अवाक् होकर ताका !
मन की आँखों से सारे घर की ओर ही ताका। ताककर वे अवाक् हो गये, हक्के-बक्के रह गये। इतना बड़ा घर हर कमरे में जोड़ा पलंग ....और सुवर्णलता, की यह शिकायत यह अभियोग !’’
जया ने शान्त भाव से कहा :

‘‘तुम्हीं बताओ बेटे, सोना नसीब ही कब हुआ ? जब पहले मकान में थी। तब की तो बात ही छोड़ दो। ईँटों से ऊँची की हुई पाया टूटी चौकी फूल-शय्या हुई थी-कितने ही दिन उसी पर काटे। दरज़ीपाड़ा का नया घर बनाने के बाद हर कमरे में एक-एक चौकी हुई !
 ...खाट नहीं, चौकी ! गोदी का लड़का लुढ़डकर कहीं गिर न जाये, इसलिए उस पर ही नहीं सोयी; सदा ज़मीन पर ही सोती रही। तुम्हारे लिए ये बातें भूलने की नहीं होनी चाहिए !...... उसके बाद बिगड़कर ज़िद करके उस गुफा से आगे निकल आयी थी, मकान भी हुआ मगर भोग कर सकी ? तुम लोग एक-एक करके बड़े हुए, एक-एक करके बहुए आयीं, उस बेचारी को अपना कहने को कोई कमरा भी कहाँ रहा ? रात को रोशनी जलाकर किताब पढ़ने का रोग था उसे, लेकिन उससे तुम्हारे बाप की नींद में खलल...’’ जयावती ज़रा, ‘‘हँसी, ‘‘प्रबोध बाबू के उठने-बैठने के लिए फिर भी बैठका है, उसके अपना कहने को कहीं क्या है ? अन्तिम दिन तो उसने बरामदे में ही सोकर बिता दिए।’’

‘‘अन्तिम बेला की इस दारुण स्थिति में, रोयी नहीं केवल उतनी बड़ी क्वाँरी लड़की बकुल। वह काठ हुई-सी चुपचाप बैठी रही। उसने शायद अवाक् होकर यह सोचा कि होश आने के समय से जो कभी भी अपरिहार्य नहीं मालूम हुई, उसके आँख मूँदते ही आज इस तरह से पांव तले की ज़मीन खिसकी क्यों जा रही है ? सुवर्णा के वयस्क लड़के पहले रो पड़े थे, ‘अनेक अनुभूतियों के आलोड़न से अकुला उठे थे, अब सँभाल लिया। उन पर ज़िम्मेदारी बहुत है। अब वे विषाद-गम्भीर होकर जो कर्तव्य है, करने लगे।’’

‘‘रोज़ के संघर्ष की ग्लानि से जो वन-खण्ड छिन्न और समाज असमान लगता है दूर परिप्रेक्ष्य में वही जीवन स्मृति की महिमा, व्याप्ति की महिमा से एक अखण्ड सम्पूर्णता लिये उज्जवल हो उठता है। बहुत निकट से जो आग केवल दाह और उत्ताप की अनुभूति देती  है, दूर जाने पर वही आग उजाला देती है।’’

‘‘बकुल श्मशान नहीं गयी। माँ कि चिता को जलते नहीं देखा था उसने। संभावतः इसलिए वह अपलक आँखों से उधर देखती रही।....धीरे-धीरे जब आग बुझ गयी, तो उसे और एक दिन की बात याद आयी।  इसी छत के ही कोने में उसने दूसरी एक चिता को जलते देखा था। वह यह भी नहीं समझ सकी कि उस दिन कौन-सी चीज़ राख हुई थी !
आज सोने से पहले माँ की छोड़ी हुई सारी चीजों को एक-एक कर देख गयी वह। कोई पंक्ति, कोई हस्ताक्षर कहीं नहीं मिला सुवर्णलता निरक्षर नहीं थी। अपने इस परिचय को सुवर्णलता एकबारगी धो-पोंछ गयी थी ! बकुल छत के उस कोने में जहाँ चिता जली थी, अँधेरे में चुपचाप बैठी रही।’’

बकुल ने बहुत कोशिश की कि उसकी माँ सुवर्णलता की आत्म-जीवनी की, उसके सघर्षों की कथा की स्फुट उद्गारों की कही कोई पाण्डुलिपी मिले। अन्तिम दृश्य में बकुल छापाखाना चलानेवाले ताऊजी, जग्गू के पास जाती है-
‘‘अच्छा ताउजी, जो पाण्डुलिपियाँ छपती हैं, वे सारी फेंक दी जाती हैं ?’’
जग्गू ने सन्दिग्ध गले से कहा, ‘‘क्यों, बात क्या है, बता तो सही ?’’
‘‘यों ही जानना चाहती हूँ।’’
जग्गू ने वैसे ही स्वर में कहा, ‘‘यों ही ? या-या तू अपनी मां की वही कापी ढूँढ़ने आयी है ?’’
‘‘न-न, यों ही, आप बैठिए न !  पाण्डुलिपि रहती नहीं हैं ?’’
‘‘रहती हैं। थीं भी,’’ जग्गू सहसा चिल्ला-से उठे, ‘‘गुदामघर में ढेर लगी पड़ी थीं। आदि-अन्तकाल का सारा कुछ। वह कम्बख्त निताई ....दूध केला खिलाकर मैंने साँप पाल रखा था एक ...उसी ने जब देखा कि प्रेस उठ रहा है, सारा कुछ झाड़-पोछकर शीशी बोतल वाले को बेच दिया। ऐसा भी सुना है कभी ? ऐसा चमार देखा हैं तूने ? मैं भी वैसा ही हूँ। कमबख्त बाहर कर दिया। अब ज़रा इधर को क़दम तो बढ़ाये वह ! ...आ, बैठ।’’
‘‘रहने दीजिए आज चलती हूँ।’’


बकुल ने संकल्प किया।
‘‘माँ, मेरी माँ ! तुम्हारी जल गयी, खो गयी, लिखी-अनलिखी सारी ही बातें मैं ढूँढ निकालूँगी, नये सिरे से मैं सबको लिखूँगी। मैं अन्धकार की गूँगी पीड़ा का इतिहास दिन के उजाले की पृथ्वी को बता जाऊँगी।....

‘‘यदि यह पृथ्वी इस इतिहास को सुनना नहीं चाहे, यदि अवज्ञा की आँखों देखे तो समझूँगी, उजाला उजाला नहीं झूठी चमक की छलना है। उसने अभी भी ऋण चुकाने का पाठ नहीं लिया है !’’

उस अगले युग के इतिहास का कालखण्ड श्रीमती आशापूर्णा देवी के उपन्यास ‘बकुल-कथा’ में चित्रित है- इतना ही सजीव और रोमांचकारी।


लक्ष्मीचन्द्र जैन

 
‘‘यों तो देखने में ‘सुवर्णलता’ एक जीवन कहानी है। लेकिन केवल यही इस पुस्तक की विशेषता नहीं है। ‘सुवर्णलता’ एक विशेष काल का आलेख है। उस काल ने शायद आज भी समाज पर अपनी छाया फैला रखी है। ‘सुवर्णलता’ उसी बन्धन-जर्जरित काल की मुक्तिकाम आत्मा की आकुल यन्त्रणा की प्रतीक है।
 
और यह बात कह देना आवश्यक है। मेरी ‘प्रथम प्रतिश्रुति’ पुस्तक के साथ इसका योगसूत्र है। वह योगसूत्र कहानी की दृष्टि से नहीं किसी एक भाव को परवर्ती काल की भावधारा के साथ जोड़न की दृष्टि से है।

समाजशास्त्री समाज के परिवर्तन का इतिहास लिखा करते हैं। मैंने एक कहानी द्वारा उसी विवर्तन को रेखांकित करने की सामान्य चेष्टा की थी।’’

आशा पूर्णा देवी

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