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मेघनाद वध

मैथिलीशरण गुप्त

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :343
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2530
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है मेघनाद वध का चित्रण....

Meghnad vadh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मेघनाद-वध का काव्य माइकेल मधुसूदनदत्त की प्रतिभा के पूर्ण विकास के समय की सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण रचना है।
रामायण की एक घटना लेकर इस काव्य की रचना की गई है। परन्तु फिर भी इसमें बहुत-सी नई बातें हैं। इस काव्य के राक्षस वीभत्स प्रकृतिमय नर-भोजी नहीं। वीरत्व, गौरव, ऐश्वर्य और शरीर सम्पत्ति में साधारण मनुष्यों से श्रेष्ठ होने पर भी वे मनुष्य ही हैं। आचार-व्यवहार और पूजा-पाठ में आर्यों से उनमें विशेषता भिन्न नहीं। वे शिव और शक्ति के उपासक हैं। सहगमन की रीति भी उनमें प्रचलित हैं।

योगीन्द्रनाथ वसु

मेघनाद-वध में मधुसूदन ने अपनी कविता-शक्ति की चरम सीमा दिखलाई है। इसमें उन्होंने अमित्राक्षर छन्दों की योजना की है। इस काव्य में सब 9 सर्ग है, और उसमें तीन दिन दो-रात की घटनाओं का वर्णन है। यह वीर रस का प्रधान काव्य है। इसकी कविता में कहीं-कहीं वीर रस का इतना उत्कर्ष हुआ है कि पढ़ते-पढ़ते भीरूओं के भी मन में उस रस का सन्चार हो आता है। ऐसी विलक्षण रचना ऐसा उद्धव भाव और ऐसा रस-परिपाक शायद ही और किसी अर्वाचीन काव्य में हो।

महावीर प्रसाद द्विवेदी

मित्राक्षर


मैं तो उसे भाषे, क्रूर मानता हूँ सर्वथा
दु:ख तुम्हें देने के लिए है गढ़ी जिसने
मित्राक्षर-बेड़ी। हा ! पहनने से इसने
दी है सदा कोमल पदों में कितनी व्यथा !
जल उठता है यह सोच मेरा जी प्रिये,
भाव-रत्न-हीन था क्या दीन उसका हिया,
झूठे ही सुहाग में भुलाने भर के लिए
उसने तुम्हें जो यह तुच्छ गहना दिया ?
रँगने से लाभ क्या है फुल्ल शतदल के ?
चन्द्रकला-उज्जवला है आप नीलाकाश में।
मन्त्रपूत करने से लाभ गंगा-जल के ?
गन्ध ढालना है व्यर्थ पारिजात-वास में।
प्रतिमा प्रकृति की-सी कविता असल के
चीनी वधू-तुल्य पद क्यों हों लौह-पाश में ?

चतुर्दश पदावली से अनूदित।

‘‘भाव कुभाव अनख आलसहूँ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ।।’’
हरि अनंत हरि-कथा अनंता।
कहहिं सुनहिं बहुविधि श्रुतिसंता।’’

निवेदन


माइकेल मधुसूदनदत्त के ‘व्रजाङ्गना’ और ‘वीरांगना’ नामक दो प्रसिद्ध काव्यों का पद्यानुवाद राष्ट्रभाषा में उपस्थित किया जा चुका है। आज उन्हीं दुर्बल हाथों से उक्त महाकवि के सबसे बड़े और प्रसिद्ध काव्य ‘मेघनाद-वध’ का पद्यानुवाद प्रस्तुत किया जाता है।

मनुष्य का मन कुछ विचित्र ही होता है। वह बहुधा अपनी योग्यता का विचार भी भुला देता है। जिस वस्तु पर वह जितना मुग्ध होता है उसे अपनाने के लिए उतना ही आग्रही भी होता है। इसी कारण मनुष्य कभी-कभी साहस कर बैठता है। प्रस्तुत पुस्तक के अनुवाद के विषय में भी यही बात हुई।

नहीं तो कहाँ मेघनाद-वध काव्य और कहाँ अनुवादक की योग्यता ? यही वह ग्रन्थ है, जिसकी रचना से मधुसूदनदत्त उन्नीसवीं शताब्दी के सबसे बड़े प्रतिभाशाली और युग-प्रवर्तक पुरुष माने गये हैं ! ऐसे ग्रन्थ-और वह भी काव्य ग्रन्थ-का अनुवाद करके यश की आशा करना अनुवादक जैसे जन के लिए पागलपन है, इसमें सन्देह नहीं। परन्तु यश के लिए यह साहस नहीं किया गया, पाठक विश्वास रक्खें। मेघनाद-वध-सदृश काव्य एक प्रान्त का ही धन न रहे, राष्ट्रभाषा के द्वारा वह राष्ट्रीय सम्पत्ति बन जाय; इतना न हो सके तो अन्तत: उस रत्न की एक झलक हिन्दी भाषा भाषियों को भी देखने को मिल जाये। इसी के लिए यह साहस कहिए, प्रयत्न कहिए या परिश्रम कहिए, किया गया है। इस उद्देश की सफलता पर ही उसकी सार्थकता अवलम्बित है। परन्तु इसके विचार करने का अधिकार आप लोगों को है, अनुवादक को नहीं।

हिन्दी में अतुकान्त कविता का कुछ-कुछ प्रचार हो चला है; परन्तु शायद अब भी एक बड़ा समुदाय उसे पढ़ने के लिए प्रस्तुत नहीं। अभ्यास से ही उसकी ओर लोगों की रूचि बढ़ेगी। बङ्गभाषा-भाषियों ने भी पहले इस काव्य का आदर न किया था। बात यह है कि एक प्रकार की कविता सुनते-सुनते जिनके कान अभ्यस्त हो रहे हैं, उन्हें तद्विपरीत रचना अवश्य खटकेगी। यह स्वाभाविक है। बङ्गाल की बात ही क्या, जिस मिल्टन कवि के आदर्श पर मधुसूदन ने इस तरह की कविता लिखी है, सुना है, पहले पहल अँगरेजी के साहित्यसेवियों ने उसका भी विरोध किया था।

वह खटक दूर कैसे हुई ? अभ्यास से,-इस तरह की कविता की बार-बार आवृत्ति करने से। इस विषय में माइकेल मधुसूदनदत्त का यही कहना था। एक बार उनके मित्र बाबू राजनारायण वसु ने अपने छन्द की गठनप्रणाली के विषय में पूछा। मुधुसूदन ने कहा- ‘‘इसमें पूछने और बताने की कोई बात नहीं। इसकी आवृत्ति ही सब बातें बता देंगी। जो इस हृदयग्म करना चाहें वे बार-बार पढ़ें। बार-बार आवृत्ति करने पर जब उनके कान दुरुस्त हो जायेंगे तब वे समझेंगे कि अमित्राक्षर क्या वस्तु है ?’’ यति के संबंध में उन्होंने कहा था कि जहाँ-जहाँ अर्थ की पूर्णता और श्वास का पतन हो वहीं-वहीं इसकी यति समझनी चाहिए।

साधारण जनों की तो बात ही क्या, बड़े-बड़े विद्वान भी पहले इस काव्य के पक्षपाती न थे। प्रसिद्ध बंगीय पण्डित श्रीश्चन्द्र विद्यारत्न ने भी इसके विपक्ष में अपना मत प्रकट किया था। एक दिन प्रख्यात नाटककार दीनबन्धु मित्र ने उनसे कहा-अच्छा, आप सुनिए, देखिए, मैं मेघनाद-वध पढ़ता हूँ। यह कहकर दीनबन्धु मित्र पढ़ने लगे। थोड़ी ही देर में पण्डित श्रीश्चन्द्र उनके मुँह की ओर देखकर बोले-आप कौन-सा काव्य पढ़ रहे हैं ? यह तो बहुत ही सुन्दर है। यह पुस्तक तो वह पुस्तक नहीं जान पड़ती ?

स्वयं पण्डित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर पहले अमित्राक्षर छन्द के पक्षपाती न थे। किन्तु मेघनाद-वध पढ़ कर उन्होंने अपनी राय बदल ली थी और वे भी मधुसूदन के एकान्त पक्षपाती हो गये थे।
हिन्दी के एक विद्वान ने लिखा है कि ‘‘जिन लोगों को अनुप्रास का प्रतिबन्ध बाधा देता है। उन्हें पद्य लिखने का साहस ही क्यों करना चाहिए ? वे गद्य ही क्यों न लिखें। अर्थ और भाव को बिगाड़ना तो दूर, अनुप्रास उल्टा उसे बनाते हैं और नई सूझ पैदा करते हैं।’’ इत्यादि।

एक दूसरे विद्वान ने अपनी वक्तृता में कहा है- ‘‘अच्छा साहब, बेतुकी ही कहिए, पर उसमें कुछ सार भी तो हो।’’ वक्ता के कहने का ढंग स्पष्ट बता रहा है कि वह ऐसी कविता से भड़कता है। यदि उसमें कुछ सार हो तो उसे सुनना ही पड़ेगा। मतलब यह कि मीठे के लिए झूठा खाना पड़ेगा। अमित्राक्षर छन्द के विषय में हिन्दी के कुछ विद्वानों की ऐसी ही राय है।

जो लोग यह कहते हैं कि अनुप्रास नई सूझ पैदा करते हैं, वे कृपा कर इस विषय में फिर विचार करें। अनुप्रास नई सूझ पैदा करते हैं, यह कहना किसी कवि का अपमान करना है। वे यह कहते कि अनुप्रास का बन्धन कवि का अपमान एक बात थी। परन्तु क्या वास्तव में ऐसा ही है ? इसे भुक्तभोगी ही जान सकते हैं कि कभी तुक के कारण कितनी कठिनाई उठानी पड़ती है। जिनका काफिया तंग नहीं होता, निस्सन्देह वे भाग्यवान हैं; परन्तु वे भी यह मानने के लिए तैयार न होंगे कि अनुप्रास के कारण हमें नई सूझ होती है। जो लोग ऐसा मानते हों वे दया के पात्र हैं। क्योंकि अनुप्रास की कृपा से उन बेचारों को भाव सूझ जाता है।

संभव है, कभी-कभी, अनुप्रास से कोई बात ध्यान में आ जाय; परन्तु कौन कह सकता है कि अनुप्रास के कारण जो भाव सूझा है, उसके बिना उससे भी बढ़ कर भाव न सूझता ? बहुधा ऐसा होता है कि अनुप्रास के लिए भाव भी बदल लेना पड़ता है। शब्दों के तोड़-मरोड़ की तो कोई बात ही नहीं। कभी-कभी अनावश्यक और अनर्थक पद का प्रयोग करने के लिए भी विवश होना पड़ता है। यह कविता के लिए ठीक प्रतिकूल होता है। जो बात गौण होती है उसे प्रधानता देनी पड़ती है और जो प्रधान होती है उसे गौण बनना पड़ता है कवि के स्वाभाविक धारा-प्रवाह को धक्का लगाता है कि सारा चल-विचल हो जाता है। कवि जिस शब्द का प्रयोग करना चाहता है उसके बदले, लाचार होकर, उसे दूसरा शब्द रखना पड़ता है।
सच तो यह है कि तुक एक कृत्रिमता है। जहाँ तक कानों का संबंध है, वह भले ही अच्छी मालूम हो; किन्तु हृदय हिला देने वाली वस्तु दूसरी ही होती है। जो अतुकान्त कविता को ‘बेतुकी’ कहकर उसकी हँसी उड़ाते हैं उन्हें याद रखना चाहिए कि वाल्मीकि, व्यास और कालिदास ने तुकबन्दी नहीं की। जब से शब्दालंकारों की ओर लोग झुक पड़े तब से कविता में कृत्रिमता और आडम्बर का समावेश हुआ। महाकवि मिल्टन ने भी तुकबन्दी नहीं की। माइकेल मधुसूदनदत्त के सामने आदर्श थे ही; फिर वे क्यों ‘झूठे सुहाग’ में अपनी कविता-कामिनी को भुलाते ? उन्होंने देखा कि मित्राक्षर के कारण कविता के स्वाभाविक प्रवाह को धक्का लगता है। प्रत्येक चरण के अन्त में श्र्वासपतन के साथ-साथ भाव पूरा करना पड़ता है। इससे एक ओर जिस तरह भाव को संकीर्ण करना पड़ता है, उसी तरह दूसरी भाषा के गाम्भीर्य और कल्पना की उन्मुक्त गति में भी बाधा पड़ती है। इसीलिए उन्होंने इस श्रृंखला को तोड़ कर अपनी भाषा में अमित्राक्षर छन्द की अवतारणा की। उन्होंने छन्द की अधीनता न करके छन्द को ही अपने अधीन बनाया। आरम्भ में लोगों ने उनकी अवज्ञा की; परन्तु आज बंगाली उनके नाम पर गर्व करते हैं। बंकिम बाबू ने लिखा है-

‘‘यदि कोई आधुनिक ऐश्वर्य्यगर्वित यूरोपीय हमसे कहे तुम लोगों के लिए कौन-सा भरोसा है ? बंगालियों में मनुष्य कहलाने लायक कौन उत्पन्न हुआ है ?’’ तो हम कहेंगे- धर्म्मोपदेशकों में श्रीचैतन्यदेव, दार्शिनकों में रघुनाथ, कवियों में जयदेव और मधुसूदन।
‘‘भिन्न-भिन्न देशों में जातीय उन्नति के भिन्न-भिन्न सोपान हैं। विद्यालोचना के कारण ही प्राचीन भारत उन्नत हुआ था। उसी मार्ग से चलो फिर उन्नति होगी’’
‘‘अपनी जातीय पताका उड़ा दो और उस पर अंकित करो- ‘श्रीमधुसूदन !’ ’’

           

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