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हिन्दू

मैथिलीशरण गुप्त

प्रकाशक : साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2518
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है हिन्दू काव्य-संग्रह...

Hindu

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

श्रीगणेशायनमः

भूमिका

क्रम विकास के अनुसार उन्नति करता हुआ कवित्व आजकल स्वर्गीय हो उठा है। अपनी लक्ष्य सिद्ध के लिए वह जो विचित्र चाप चढ़ाने जा रहा है, हमें भी कभी-कभी, मेघों के कन्धों में चढ़कर, वह अपनी झाँकी दिखा जाता है, उसे उठाने के लिए जिस सूक्ष्मता अथवा विशालता अथवा स्वर्गीयता की आवश्यकता होगी, कहते हैं, कवित्व उसी की साधना में लगा हुआ है। हम हृदय से उसकी सफलता चाहते हैं।

उसका लक्ष्य क्या है ? हमें जब वही नहीं दिखाई देता तब उसके लक्ष्य की चर्चा ही क्या ?—


सम्मुख चन्द्र-चकोर, सम्मुख मेघ-मयूर,
वह इतना ऊँचा उठा, गया दृष्टि से दूर !


परन्तु सुनते हैं, वह लक्ष्य है-‘‘सुन्दरम्’’ और केवल ‘‘सुन्दरम।’’ ‘‘सत्यम्’’ और ‘‘शिवम्’’ उसके पहले की बातें हैं ! कवित्व के लिए अलग से उनकी साधना करने की आवश्यकता नहीं, औरों के लिये हो तो हो ? फूल में ही तो मूल के रस की परिणति है, फल तो उपलक्ष्य मात्र है।

कला में उपयोगिता के पक्षपातियों से कहा जाता है कि सच्चे सौन्दर्य का विकास होने पर अशोभन के लिए अवकाश ही नहीं रहता, उसकी अनुभूति से मन में जो आनन्द की उत्पति होती है उसमें विकार कहाँ ? अपवाद तो सभी विषय में पाए जाते हैं परन्तु फूलों में सम्भवतः सुगन्धि ही होती है, (दुर्गन्ध) नहीं। ठीक है। परन्तु सब ‘‘फूल सूंघकर’’ ही नहीं रह सकते और यह भी तो परीक्षित हो जाना चाहिए कि कहीं फूलों में तक्षक नाग तो नहीं छुपा बैठा है। अनंत सौन्दर्य के आधार श्रीराधाकृष्ण की सौन्दर्य सुमन-राशि में भी जब हमारे प्रमाद से, उसका प्रवेश संभव हो गया तब औरों की बात ही क्या?


फूल उठ आनंद से हे फूल,
निज नवल दल-दोल पर तू झूल,
धन्य मंगल मल तेरा मूल,

तदपि फल की बात भी मत भूल।
चढ़ सुरों पर तू उन्हीं के योग्य,
किन्तु भव में फल सकल-जन-भोग्य।


कवित्व फिर भी निष्काम है। सम्भवतः वह स्वयं एक सुफल है, इसी से उसे किसी फल की उपेक्षा नहीं। निस्सन्देह बड़ी ऊँची भावना है। भगवान से प्रार्थना है कि वह हम लोगों को भी इतना ऊँचा कर दे कि हम भी उसका अनुभव कर सकें। कदाचित् इसी भावना ने कवित्व को स्वर्गीय होने में सहायता दी गई है। परमार्थ के पीछे उसने स्वार्थ का सर्वथा परित्याग कर दिया है। इसलिए वह न तो देश से आबद्ध है न काल से सार्वदेशिक और सर्वकालिक हो गया है। लेखक उसके ऊपर अपने आपको निछावर कर सकता है। परन्तु वह आकाश में है और यह पृथ्वी पर ! ऐसी दशा में उसे भक्ति भाव से प्रणाम करके ही सन्तोष करना पड़ेगा।
कवित्व की यह उदारता अथवा सार्वभौमिकता बड़ी ही प्यारी लगती है। ‘‘वसुधैवकुटुम्बम’’ अपनी ही तो बात है। परन्तु हाय !

व्यर्थ विश्व-मैत्री की बात,
आज दीन-दुर्बल तुम तात !

यह औदार्य नहीं उपहास !!
तुम्हें जानते हैं सब दास !!!


जो हो, हमें कवित्व की क्षमता पर विश्वास है। आज भी वह निराकारों को आकार और निर्जीवों को जीवन दान कर रहा है। ‘‘सुन्दरम्’’ की प्राप्ति के लिए वह नये-नये पन्थों का नई-नई गतियों का, अथवा नये-नये पदों का अविष्कार कर रहा है। हम तो उनके साधन पर ही मुग्ध हो गये, साध्य न जाने कैसा होगा ? परन्तु सुना है कि उसका निर्माण निष्काम है। जो हो, और तो सब ठीक है, परन्तु एक कठिनाई है। वह यह कि सार्वदेशिक होने पर भी वह एक देशीय रसिकों के ही उपभोग के योग्य रह जाता है।

एक बात और है। सोने का पानी चढ़ा देने से ही सब पदार्थ सोने के नहीं हो जाते। कभी-कभी उनकी चमक-दमक असल से भी कुछ अधिक दिखाई देती है। परन्तु ‘‘निर्घर्षणच्छेदन ताप ताडनैः’’ उनकी परीक्षा कर लेनी चाहिए। लेखक के लिए यह आवश्यक ही बड़ी बात होगी जो उसकी समझ में नहीं आती !

उसके रसिकों में भी तो स्वर्गीय भावुकता अथवा मार्मिकता होनी चाहिये। इस संसार में वह दुर्लभ है। एक बाधा के साथ दूसरी चिन्ता लगी हुई है। भव की भावना के अनुसार स्वर्ग भी भिन्न-भिन्न प्रकार के सुने जाते हैं। सौन्दर्य के आदर्श अलग-अलग हैं। अपने घर में ही देखिए न। एक महानुभाव को खद्दर में कुरूपता दिखाई देती है। कला की कुशलता का अभाव तो स्पष्ट ही है। उधर दूसरे महापुरुष को उसमें भूखों का भोजन और रुग्णों का आरोग्य दिखाई देता है। जीवन की सरलता का कहना ही क्या ? यदि सौन्दर्य स्वयं एक बड़ा भारी गुण है तो गुण भी भारी सौन्दर्य है ? हमारे लिए दोनों ही वदान्य और मान्य है। एक महाकवि है और दूसरा महात्मा।

इस यन्त्रों के युग में ‘‘हाथ कते’’ और ‘‘हाथ बुने’’ में सचमुच सौन्दर्य दुर्लभ है। जहाँ है भी वहां वह बहुत महँगा पड़ता है, फिर सर्वसाधारण का शौक कैसे पूरा हो ?

शौक रहने दीजिए, पहले सर्वसाधारण की क्षुधा- निवृत्ति और सज्जा की रक्षा तो हो जाय। इन यन्त्रों ने ही तो इतनी विषमता फैलाई है। सम्भवताः इसीलिए मनु ने ‘‘महायन्त्रप्रवर्तनम्’’- बड़े यन्त्रों के प्रचार का पाप बताया है।

तथापि वह पाप उत्पन्न हो ही गया और संसार में फैल भी गया। वहाँ कलयुग के पहले ही से फैला हुआ है। ऐसी दशा में ‘‘स्वदेशी को छोड़कर कौन-सी गति है ? परन्तु स्वदेशी से कवित्व की विश्वभावना जो भंग हो जाती है ! राम राम ! फिर भी वही संकीर्णता !
कवित्व ही इसका उपाय सोचेगा। संसार के सम्मिलित स्वर्ग की कल्पना का भार भी उसी पर छोड़ देना चाहिए। वही हमें विश्व के सौन्दर्य-स्वर्ग का अनुभव करा सकता है। क्योंकि वह हमें लोकोत्तर आनन्द देता रहा है।

परन्तु हम अपना भय प्रकट कर देना उचित समझते हैं। स्वर्ग की वह भावना ऐसी न हो कि संसार अचल हो जाए। विशेषकर जब तक संसार संसार है।

महाभारतीय युद्ध के समय, कुरुक्षेत्र में अर्जुन को जो करुणा और ममता उत्पन्न हुई थी वह भी एक स्वर्ग की भावना थी। ईश्वर न करे कि कभी फिर कोई महाभारत का-सा प्रसंग उठ खड़ा हो। परन्तु संसार में इससे भी बड़ा महाभारत हो चुका है। इसलिए ऐसे प्रसंग पर अर्जुन का मोह देखकर, सौन्दर्य लोभी कवित्व उससे


विषम वेला में तुझको, ओह !
कहां से उपजा यह व्यामोह ?

कहने के बदले कहीं स्वयं मोह से ही न कह उठे कि

कहाँ ओ कम्पित पुलकित मोह ?
अरे हट, किन्तु ठहर ओह !
देख लूँ क्षण भर तेरा रूप
सगद्गद रोम रोम सरकूप।


अर्जुन की वह ममता स्वर्गीय थी तो वह सुहृदयता, मार्मिकता अथवा सौन्दर्योपासना भी स्वर्गीय है ! अर्जुन की ममता, करुणा, अथवा उदारता स्वर्गीय न होती तो वह कैसे अपने राज्य हरने-और उससे भी अधिक अपनी पत्नी पांचाली का अपमान करने वालों को अयाचित क्षमाप्रदान करने को तैयार हो जाता। उसने तो यहां तक कह दिया था कि—


मुझ निरस्त्र को अस्त्र समेत,
मारें धार्तराष्ट्र समवेत।
करूँ न मैं उनका प्रतिकार,
तो मेरा कल्याण अपार !


बौद्धों की क्षमा भी इसी प्रकार की थी। जातकों में हमें ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं कि महानुभावों ने दारा-पहारी आततायियों को भी क्षमा कर दिया है। ईश्वरात्मज प्रभु यीशु भी हमें स्वर्ग का सन्देश सुना गये हैं कि यदि कोई तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारे तो तुरन्त दूसरा गाल उसके सामने कर दो। परन्तु उसके अनुयायिओं ने ही सर्वापेक्षा इसकी उपेक्षा की है। स्वयं भगवान् परस्वापहारियों के प्रति अर्जुन के इस भाव को ‘‘अस्वर्ग्य’’ समझते हैं-


न इसमें स्वर्ग न कीर्ति न मान,
अनार्योचित है यह अज्ञान।

दुष्टों और दस्युओं को भगवान कभी क्षमा नहीं कर सकते।

‘जो नहिं करों दण्ड खल तोरा,
भ्रष्ट होई श्रुति मारग मोरा।’’


क्योंकि-


‘‘धर्म संरक्षणार्थैव प्रवृत्तिर्भुवि शांगिण।’’


शार्गंधर धर्म की रक्षा के लिए ही धरती पर अवतीर्ण होते हैं। किसी समय वे आयुध न भी करें परन्तु अपना काम करते रहते हैं। सव्यसाचीं तो निमित्त मात्र है-


‘‘निमित्त मात्रम् भव सव्यसाचिन्’’


सो पाठक, कवित्व भले ही स्वर्गीय होकर स्वर्ग के सौंदर्य का आनंद लूटे, परन्तु जब तक यह संसार स्वर्ग नहीं हो जाता तब तक हम सांसारिक ही रहेंगे। चाहते तो हम भी वही हैं पर हमारे चाहने से ही क्या होगा ?


नर चेती नहिं होत है, प्रभु चेती तत्काल।
वलि चाह्यो आकाश कों, हरि पठयो पाताल।।


कौन नहीं जानता कि कलह किंवा युद्ध अतीव अनर्थकारी है। परन्तु जब तक यह जीवन सन्धि के बदले संग्राम बना हुआ है तब तक इसके अतिरिक्तत और क्या कहा जा सकता है कि—


‘‘क्षुद्रं हृदय दौर्बल्यं त्यक्तोत्तिष्ट परन्तप !’’


हमने ‘‘अहिंसा परमोधर्मः’’ धारण करके अपनी दिग्विजय से हाथ खींच लिये; परन्तु दूसरों ने हम पर आक्रमण करना न छोड़ा। हम किसी की हिंसा नहीं करना चाहते; परन्तु हमारी भी तो कोई हत्या न करे। तथापि हुआ यही। हमारी अतिरिक्त करुणा ने हमें दूसरों के समक्ष दुर्बल बना दिया। हमने हथियार रखकर उठने-बैठने का स्थान धीरे से झाड़ देने के लिए एक प्रकार की मृदुल मार्जनी धारण कर ली, जिसमें कोई जीव हमारे नीचे न दब जाए; परन्तु दूसरों ने हथियार न रक्खे और स्वयं हमीं दबा लिये गये।

हमारी गोरक्षा की अति ने विपक्षियों की सेना के सामने गायों को खड़ा देखकर शस्त्र-सन्धान करना स्वीकार न किया परन्तु इससे न गायों की रक्षा हुई और न हमारी जो उसके रक्षक थे। विधर्मियों ने गाँव के एक मात्र कुँए में थूक दिया, बस यह गाँव ही अहिन्दू हो गया !

ऐसी अवस्था में कवित्व हमें क्या उपदेश देगा ? उपदेश देना उसका काम नहीं। न सही; परन्तु आपत्ति-काल में मर्यादा का विचार नहीं रहता। और क्या सचमुच कवित्व उपदेश नहीं देता ?

भोजन का उद्देश्य-क्षुधानिवृत्ति और शरीर पोषण है। उससे रसना का आनंद भी मिलता है। परन्तु हमारी रसना लोलुपता इतनी बढ़ गई है कि हम भोजन में बहुधा उसी का ध्यान रखते हैं। फल उल्टा होता है। शरीर का पोषण न होकर उसका शोषण होता है। क्योंकि पथ्य प्रायः रुचिकर नहीं होता। शरीर के समान मन की भी दशा समझिए। मन महाराज तो पथ्य की ओर दृष्टि भी नहीं डालना चाहते। लाख उपदेश दीजिए, जब तक पथ्य मधुर किंवा रुचिकर नहीं होता किंवा उसे तब तक वे उसे छूते तक नहीं। कवित्व ही उनके पथ्य को मधुर बनाकर परोस सकता है।


काम्य-कुसुम-कलिका देकर ही
कला - केतकी है कृतकार्य,
किन्तु कवित्व रसाल, सुफल की
आशा है तुझसे अनिवार्य।


परन्तु हमारे कवित्व का ध्यान इस समय दूसरी ओर चला गया है। इस संसार को छोड़कर वह स्वर्ग की सीमा में प्रवेश कर रहा है। क्या अच्छा होता कि वह हमें भी साथ लेकर चलता ! परन्तु हमारा उतना पुण्य नहीं। कवित्व इन्द्रधनुष लेकर अपना लक्ष्य भेदन कर सकता है। परन्तु हमारा पार्थिव प्राणियों को पार्थिव साधनों का ही सहारा लेना पड़ेगा और इसके लिए न तो किसी दूसरे पर ईर्ष्या करनी पड़ेगी न अपने ऊपर घृणा। जो साधन भगवान ने दया करके हमें प्रदान किए हैं उन्हीं को बहुत समझकर स्वीकार करना न होगा। परन्तु लज्जा तो यही है कि हम उन्हीं का यथोचित उपयोग नहीं कर सकते।

कवित्व स्वच्छन्दता पूर्वक स्वर्ग के छायापथ पर आनंद से गुनगुनाता हुआ विचरण करे अथवा वह स्वर्गंगा के निर्मल प्रवाह में निमग्न होकर अपने पृथ्वीतल के पापों का प्रक्षालन करे, लेखक उसे आयत्त करने की चेष्टा नहीं करता। उसकी तुच्छ तुकबन्दी सीधे मार्ग से चलती हुई राष्ट्र किंवा जाति गंगा में ही एक डुबकी लगाकर ‘‘हरगंगा’’ गा सके वह तो इतने से ही कृतकृत्य हो जाएगा। कहीं उसमें कुछ बातों का उल्लेख भी हो जाए तो फिर कहना ही क्या ? जो लोग बलपूर्वक, ठोक-पीटकर कविराज बनाने के समान उसे कवियों की श्रेणी में खींचकर उसी भाव से उसका विचार करते हैं वे उस पर दया तो करते हैं परन्तु न्याय नहीं करते।




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