लोगों की राय

कहानी संग्रह >> क्रिमिनल रेस

क्रिमिनल रेस

हेमन्त

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2504
आईएसबीएन :81-267-0657-0

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

290 पाठक हैं

संघर्ष और जन आंदोलनों की आग में जीकर रची गयी कहानियाँ....

Kraminal Res

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

हिन्दी पट्टी के टोन और टेंपरामेंट, अंडरटोस एवं अंडरकरेंट्स को न तो दूर रहकर ‘आह-वाह’ के भाववादी नजरिये से जाना जा सकता है, न ही नजदीक रहकर आग्रही नजर से। वर्ग, वर्ण, लिंग, उप-जाति, परंपरा और परिवेश एवं धर्म और राजनीति के मकड़जाल में उलझे आदमी के मर्म तक पहुँचना आज के सही रचनाकार का दायित्व है। मनुष्य की प्रकृति-नियति, उसकी कमजोरियाँ और उसकी ताकत, उसके जहर और उसके अमृत से जूझते-सीझते हेंमंत से कथाकार ने कितनी वयस्कता अर्जित कर ली है, इसका साक्ष्य है ‘क्रिमिनल रेस’ की कहानियाँ। यहाँ हेमंत ने न सिर्फ अपने कई समकालीनों को अतिक्रमित करते हैं बल्कि खुद अपने ‘पिछले हेमंत’ को भी विज्ञान का बीज शब्द है- ‘क्यों ?’, ‘ऐसा क्यों ?’ ‘ऐसा ही क्यों ?’ हेमंत का बीज शब्द है- ‘संशय !’ इतने चिकने-चुपड़े चेहरे, संवाद और आचरण-‘आखिर मंशा क्या है ?’, ‘हासिल क्या होगा ?’

यह संशय कभी सम्पूर्ण कथा में प्रच्छन्नभाव से व्याप्त है (क्रिमिनल रेस), कभी अन्दर से बाहर फैलता हुआ (धक्का) ! कभी देश की आदिम शौर्य परम्परा बनकर गुलाम बनाने वाली गली औपनिवेशक शक्तियों से लेकर आज के मल्टीनेशनल्स के ऐटीट्यूड्स को सूँघता झपटता है (ओवरकोट), तो कभी औरतों के तन-मन के साथ धन पर भी काबिज होने की पुरुष-चाल पर सवाल उठाता है (लाश-तलाश), तो कभी सभ्यता के उषा-काल और मिथकीय कुहासों से लेकर वर्तमान के तपते द्विप्रहर तक को खँगालते हुए प्रश्ववाचक बन बैठता है कि जीवन के महाभारत में औरत के प्रति यदि कौरवों और पांडवों का रवैया एक-सा है तो ऐसा युद्ध से क्या बदल जाएगा और अगर .युद्ध होता ही है तो स्त्रियाँ युद्ध में शामिल क्यों नहीं होगी (रुका हुआ क्षण)। अन्ततःक्रिमिनल रेस के केन्द्र दिल्ली की आपराधिकी की भूल-भुलैया में भटककर मासूम देशवासी को रास्तों और गन्तव्य तक पर संशय होने लगा है-मैं कहाँ हूँ ? (सुबह का भूला)।

संघर्ष और जन आन्दोलन की आग में जीकर रची हुई अपनी नफीस भाषा शैली की हेमंत की कहानियाँ अपने पाठकों को किसी आनन्द वन या नकली उन साँसों के मरुस्ल में नहीं ले जातीं बल्कि धसकते धरातलों, गिरते आसमानों और हरहराते तूफानों की क्राइसिस के सम्मुख ला खड़ा करती हैं-तुम यहाँ हो और तुम्हारी मंजिल यहाँ !

क्रिमिनल रेस


अद्भुत थे वे क्षण !
काले-खूंखार अग्निबाण से क्षण, जो एकबारगी संस्कृति के सनातन आचरण को भस्म कर सभ्यता को निपट नंगा कर गये थे। जंगी सिंह ने देखा-‘फिर भी बदहवास दौड़ी जा रही थी सभ्यता !’
उसने अचानक फैसला किया था कि अब वह सभ्यता की इस दौड़-क्रिमिनल रेस-में शामिल नहीं होगा। वह गोली नहीं चलायेगा। यह फैसला करने ही लगा था कि जैसे अग्निबाण से विस्फोट हुआ और वह लपलपाती आग के विराट वृत्त में समा गया ! लेकिन आश्चर्य, वह उसमें जलकर राख नहीं हुआ था। उसे महसूस हुआ था कि वह सोने की तरह अन्दर से निखर गया है !

सारे अपराधी उसके रिवाल्वर के निशाने में थे। पांचों के पांचों। सिर्फ दो-तीन मिनट में वह पांचों को उड़ा सकता था। रिवॉल्वर तन चुका था ट्रिगर पर अंगुली थी। सिर्फ क्षण-भर का फासला था उसके फैसले और परिणाम के बीच-कोसिला जंगल के वीराने में गोलियों की आवाज गूंजने और मौत की उस चीत्कार के बीच, जिसको सुनने का वह आदी हो चुका था !

रेत की सीमा-रेखा नजर आते ही जंगी सिंह ने खुद को ढीला छोड़ दिया। जीप लौट रही थी। सहमा-सहमा जंगल पीछे छूटने लगा था। पहाड़ी ढलान से उतरती, कच्चे रास्तों में धूल उड़ाती, सूखे पत्तों को कुचलती जीप मानो उगलते सूरज से होड़ लेने लगी थी। सांझ घिरने से पहले मुख्यालय पहुंचना है। कुनई नदी के पार की पक्की सड़क से मुख्यालय पहुंचने में कम-से-कम डेढ़ घंटा लगेगा।

खैर, ढलते सूरज की तुलना में जीप की रफ्तार तेज है, ‘जंगी निश्चिंत हुआ। भोर के नम-अधजगे उजाले में वह जंगल में घुसा था और अब तमतमाये उजाले में बाहर निकल रहा था। पूरे चार घंटे के सफल अभियान के बाद।
‘ऑपरेशन मुक्ति !’ जीवन-मरण का संघर्ष। थकान, भूख-प्यास और धूल-पसीने में लस्त-पस्त देह लेकिन सफलता के स्वाद में पगा मन, सफलता से अधिक मुक्ति का अनोखा एहसास !

अचानक जीप का दायां पहिया गड्ढे में धंस गया। जीप उलटने-उलटने को हुई। जंगी सिंह ने हाथ बढ़ाकर अनायास बच्चे को अपनी ओर खींचकर गोद में समेट लिया, जो उसके और ड्राइवर के बीच अभी भी बेसुध पड़ा था।
ड्राइवर ने गीयर बदलकर जीप को संभाल लिया। जंगी ने हौले से बच्चे के सिर पर हाथ फेरा। बच्चे की आँखें खुलीं और फिर बन्द हो गयीं। उसे होश नहीं आया। धूल और पसीने से लथपथ उसके मासूम चेहरे पर दहशत की रेखाएं स्पष्ट नजर आ रही थीं। वह जैसे आतंक के थपेड़ों के बीच सुरक्षा का सहारा पाकर बेहोश हो गया और डर की सीमा पार कर गया था। अपहरणकर्त्ताओं ने बच्चे की मासूमियत नोच डालने की हरसंभव कोशिश की थी...।

जंगी के दिल में बवंडर सा उठा और वह गुस्से में पीछे मुड़ा। पांचों अपराधी जीप के पिछले हिस्से में दोनों तरफ की सीटों के बीच एक-दूसरे पर आलू के बोरों की तरह लदे से पड़े हुए थे। उनके हाथ-पैर रस्सियों में बँधे हुए थे। सर उठाने की कोशिश करते ही पिछली सीट पर बैठे सिपाही उन पर मुक्के बरसाने लगते थे- ‘हरामजादे..नीच..! साले अपने धंधे में बच्चों को मोहरा बनाते हैं ?...डाय-राकस हैं साले..। इनके घर-परिवार में कोई बच्चा-बुतरू नहीं होता ...?’
ऊबड़ खाबड़ रास्ते में जीप फिर लड़खड़ाई और जंगी बच्चे को संभालने लगा। बेसुध बच्चे का चेहरा देखते-देखते उसके दिमाग में जैसे उल्टी मथनी चलने लगी और दिल के फलक पर चंद घंटे पहले का हादसा उभरने लगा, तेज रोशनी बिखेरते विस्फोट की तरह..।

उसने स्ट्रैटजी बदलकर हमला करने के पहले तीन घंटे तक प्रतीक्षा की थी। तीन घंटे की यंत्रणादायक प्रतीक्षा ! जंगल के नीम अंधेरे में ऊंघते-अधछिपे खडंहर तक पहुंचते ही वायरलेस संपर्क अचानक कट गया था। फिर भी वह डटा रहा, सिर्फ चार जवानों के साथ। मनहूस खंडहर के पिछवाड़े मोर्चा बांधते हुए वह जान चुका था कि अगले हिस्से में कुछ लोग पोजीशन लिए हुए हैं और कुछ दादा किस्म के लोग अपने-आप में व्यक्त हैं। गाफिल। उन्हें उसके पहुंचने की भनक नहीं लगी थी। कुल दस लोग।

सुबह नौ बजे तक वह प्रतीक्षा की यंत्रणा झेलता रहा था। थाना से कूच करने के पहले मिली सूचना के अनुरूप उसे कोई सिग्नल नहीं मिला। न जंगल के पूर्वोतर कोने के तुरहापट्टी थाने से और न पश्चिम के सेवरिया पुल के रंगिया थाने से तुरहापटट्टी के एसाआई (सब इंस्पेटर) बाबू विश्वनाथ सिंह और रंगिया के एसआई बलभद्र पांडेय कहां मर गये ? एसपी (सुपरिंटेंडेंट ऑफ पुलिस) अजय ओझा का यही तो आदेश था कि वह सिर्फ खंडहर के पिछवाड़े को घेरने का काम करेगा और बलभद्र पांडेय या बाबू विश्वनाथ सिंह के सिग्नल का इंतजार करेगा।
वे दोनों उससे सीनियर नहीं है। योग्यता-कुशलता में जंगी उनसे बीस ही है। फिर भी एसपी का यही आर्डर  है। जंगी इस ऑर्डर का अर्थ अच्छी तरह समझता है।

जंगी के अन्दर कड़ुवाहट सी फैलती गयी थी-‘हुं:! अपहरण की सूचना पाकर भी पुलिस-प्रशासन तीन दिनों तक चुप्पी साधे रहा। न बच्चें को मुक्त कराने का प्रयास किया और न अपराधियों को घेरने की कार्रवाई हुई। सिर्फ ऊंचे अधिकारियों के बीच ‘गोपनीय’ बैठक का नाटक चलता रहा और ऊपर से नीचे तक फोन की घंटियां घनघनाती रहीं...।’
वह जान चुका था कि अपहरणकर्ताओं के चंगुल से बच्चे को छुड़ाने की स्ट्रैटजी जल्द नहीं बनने वाली थी, क्योंकि पुलिस को यह मालूम नहीं हो सका था कि वास्तव में अपहरण करनेवाला गिरोह किसका है ? ददना उर्फ ददन दुबे का या सतना उर्फ सत्तन यादव का या सिपहिया उर्फ सिपाही कोइरी का या लगन तुरहा का या गांधी चमार का या...? पुलिस के ऊंचे पदों पर विराजमान अधिकारी परेशान थे। इस जानकारी के बगैर वे बच्चे को कहां ढूंढ़ते फिरेंगे ? शक की सुई ददन दुबे पर टिकी हुई थी, क्योंकि प्राप्त सूचना के मुताबिक, कोसिला जंगल में उसी का राज चलता है और अपह्रत बच्चा उसी जंगल के किसी कोने में ले जाया गया था। वह भी सिर्फ अनुमान था। अनुमान के धक्के से मुक्ति का अभियान कैसे चलता ?
अपहृत बच्चा पिपरा कोठी के डॉ. शंभुनाथ झा का बेटा सिद्धार्थ है। डॉ. झा डकैत है। सेवा के नाम पर पैसा पीटनेवाला। पिछड़े-गरीबों को लूटनेवाला। बच्चे को छोड़ने के लिए अपहरणकर्ताओं ने पांच लाख रुपये की मांग की थी। फिरौती में डॉक्टर पांच तो क्या, दस लाख दे सकता था। वह रुपये लेकर चुपचाप कोसिला जंगल पहुंचने की तैयारी कर चुका था लेकिन ऐन वक्त पर अपहरण की खबर स्थानीय अखबार में छप गयी और मामला गड़बड़ा गया। मजबूर होकर पुलिस को सक्रिय होना पड़ा।

‘अंतत: स्ट्रैटजी बनी भी, तो क्या ? अपहृत हुआ झा का बेटा, अपहरण करने वाले संभावित गिरोह का सरगना दुबे, छुड़ाने की कमान एसपी अजय ओझा के हाथ में। अभियान का संचालन करेंगे एसआई सिंह बाबू या पांडेयजी। सबके सब अगड़े। फॉरवर्ड ! उसे डिफेन्स में ठेल दिया गया, क्योंकि वह..वह पिछड़ा है,-अति पिछड़ा।’
‘सब के सब क्रिमिनल...!’ जंगी का दिल-दिमाग धुंआने लगा था। वायरलेस संपर्क टूटने और घंटों बाद भी कहीं से कोई सिग्नल न मिलने का क्या माने है ? ‘क्या वह ददन दुबे का गिरोह नहीं है ? तब तो पूरी स्ट्रैटजी बदल रही होगी ? फिर, अभी तक हमला करने का ऑर्डर उसे क्यों नहीं मिला ? क्या वह लौट जाये ?’

लौटने का विचार उसे कांटे सा चुभा था। लगा था, जैसे अचानक जंगल का सन्नाटा अट्टहास करने लगा-‘जंगी सिंह बैकवर्ड जंगी..तू भी तो क्रिमिनल रेस....और, वह थम गया था। सन्नाटे के शोर से उसकी नस-नस में जैसे जहर उबलने लगा था...।
जंगी के नाम से इलाका काँपता हैं। इसलिए नहीं कि कठोर-निर्मम जंगी का निशाना अचूक है। मिनट भर में वह चार छ: को भून सकता है। नहीं, इसलिए नहीं। सिर्फ इसलिए कि हाथ में रिवॉल्वर आते ही वह बदल जाता है। फिर वह आदमी नहीं रहता। जानवर हो जाता है-खून का प्यासा जानवर। वह खुद महसूस करता है कि रिवॉल्वर के ठंडे लोहे का स्पर्श पाते ही उसकी खुरदरी हथेली और मोटी-मोटी अंगुलियों में न जाने कैसी आग धधक उठती है। जब तक निशाने पर खड़े व्यक्ति की छाती में गोली न धंसे या उसकी खोपड़ी न फटे और बल-बल करते खून का फव्वारा न छूटे, तब तक वह आग नहीं बुझती।

गांव-बिरादरी में वह बचपन में सुनता आया है कि उसकी जात ही ऐसी है। यही फितरत, यही तासीर। सदियों से पिछड़ी उसकी जाति का एक ही पेशा रहा है- मरना और मारना। कभी किसी शासक का सिपाही बनकर, तो कभी किसी डाकू गिरोह का सदस्य बनकर। उसकी जात के लोग किसी को भी-खूंखार जानवर हो या निरीह इंसान-इतने निडर और निस्पृह भाव से मारते-काटते हैं कि बड़े से बड़े कसाई या जल्लाद का कलेजा कांप उठे।

बाप के सख्त आदेश पर सरकारी स्कूल में दाखिल हुआ था जंगी। उसके पहले ही वह क्रिमिनल जात होने का अर्थ अच्छी तरह समझ चुका था। बाप दबंग था। क्रूरता और दबंगई के लिए पूरे इलाके में मशहूर था। इसीलिए जंगी स्कूल का मुंह देख सका और समाज के ठेकेदारों के विरोध के बावजूद टिक सका था। वहीं उसे मालूम हुआ था कि अंग्रजों ने उसकी जात को क्रिमिनल रेस करार दिया था और जातियों में बंटे गुलाम भारतीय समाज ने उसे स्वीकार कर लिया था। आजाद देश में शासक बदले। शासन नहीं बदला। काले शासकों को राज चलाने के लिए गोरों की सोच रास आयी। उन्होंने गोरों के कानून को देशी समाज की परम्परा में ढाल दिया कि उसकी जात में पैदा होनेवाला व्यक्ति जन्मजात क्रिमिनल होता है। आधी-अधूरी पढ़ाई के बाद वह पुलिस में भर्ती हुआ, तो उसने महसूस किया क्रिमिनल जात होने का असली दंश।
जंगी जब भी निशाना साधता है, कतई विचलित नहीं होता। गोली की आवाज के साथ किसी की हृदयविदारक चीत्कार गूंजती है, तो भी उसे कुछ मालूम नहीं होता। न मरने का डर, न मारने का पछतावा और न सफलता की खुशी। पुलिस के अफसरों को वह अक्सर-कभी चिढ़ के मारे, तो कभी प्रशंसा में-यह कहते सुनता-‘जंगी, तुम भी तो क्रिमिनल रेस हो न...।’
पुलिस महकमे में मजाक और व्यंग्य की ऐसी गोलियां अक्सर चलतीं और जंगी के हृदय को छलनी कर जातीं। उसकी नस-नस में जहर फैलने लगता। अब तो रिवॉल्वर छूते ही जैसे हवाओं में गूंज सी उठती-‘जंगी सिंह, तुम तो क्रिमिनल रेस हो। तुम..तुम इसके सिवा और कर भी क्या सकते हो..?’ और, उसके अन्दर का जहर उबलने लगता।

आज फिर ऐसा ही हुआ था। प्रतीक्षा की यंत्रणा झेलते-झेलते वह बौखला उठा था। और फिर, अचानक रिवॉल्वर हाथ में लिये वह खंडहर की ओर पगलाया सा दौड़ पड़ा था। गोलियों की आवाजों से जंगल का सन्नाटा शीशे सा छन्न-छन्न टूट कर चकनाचूर हो गया था।
उसने गोली नहीं चलायी थी। टूटी दीवार फांदते हुए उसने देखा था कि सिपाही फुलेनाराम हड़बड़ी में हवाई फायर करता हुआ पीछे-पीछे दौड़ा आ रहा है। इसके चलते खंडहर के अगले हिस्से में दौड़ने-भागने और गोलियां चलने की आवाजें उठने लगी थीं। चंद मिनटों में नजारा बदल गया था। भुतहा खंडहर छापामार युद्ध के मोर्चे में तब्दील हो गया था।
संयोग था कि दीवार फांदकर सामने की टूटी-फूटी व काई लगी सीढ़ियों पर दौड़ते वक्त वह फिसल गया। संभलने के पहले सात-आठ फीट नीचे गिरा लेकिन चोट नहीं आयी। वह सीधे पुआल के ढेर पर गिरा था। ठीक उसी वक्त उसकी आंखें कोने में दुबके बच्चे की सहमी आंखों में टकराई थीं। उसी पल उसने अन्दर-बाहर की स्थिति भांप ली थी और अपनी स्ट्रैटजी तय कर ली थी।

टूटी-फूटी दीवारें, ध्वस्त खंभे-सीढ़ियां, अनाम सभ्यता के ध्वंसावशेष..! बाहर से छोटा-मोटा किला जैसा लेकिन अन्दर शाही महल की निशानियां। तीन तरफ से घिरा सिर्फ एक कोना बचा था। बाकी सब ढह गया था। वह कोना कुछ उठा हुआ था। वहीं पुआल के ढेर, चार-पांच देसी बन्दूकें, खुले डिब्बे में जिंदा कारतूस, दारू की खाली बोतलें, लालटेन और दैनिक उपयोग की चीजें पड़ी थीं। वहां से खंडहर के सामने का खुला हिस्सा साफ दिख रहा था। कुछ लोग पेडों की आड़ से अंधाधुंध गोलियां चलाते हुए पीछे खिसक रहे थे लेकिन पांच लोग खुले में खड़े थे। निहत्थे और अचानक उपस्थित खतरे का सही अंदाज लगाने में असमर्थ। वे सब जंगी के रिवॉल्वर के निशाने में आ गये थे। लेकिन इससे अनजान वे सतर्क और सधे कदमों से खंडहर की ओर ही आ रहे थे।

जंगी ने ट्रिगर पर अंगुली रखी ही थी कि छाती पर नरम हथेलियों का दबाव महसूस किया। वही था अद्भुत क्षण।
पीछे से पहुंचे फुलेना ने फुर्ती से बच्चे के बंधन काट दिये थे। हाथ-पैर की रस्सियां खोलकर मुंह पर बंधी पट्टी हटा दी थी। बच्चे ने उठकर खड़ा होने की कोशिश की। संभल नहीं पाया और पुआल के ढेर पर लुढ़कता हुआ जंगी से टकरा गया था। दो नन्हीं मुलायम बांहों ने पीछे से जंगी को जकड़ लिया। बिना मुड़े जंगी ने महसूस किया था कि बच्चा बेहोश हो गया है। वह बुदबुदा रहा है-‘अंकल.,.अंकल..।’ उसी क्षण जंगी ने फैसला किया था-वह निहत्थे अपराधियों पर गोली नहीं चलायेगा।
बस, कुछ क्षणों में वह सब हो गया-वैसा हो गया। गोली न चलाने का फैसला कर वह खुद जैसे अजाने क्षणों के अग्निकुंड में समा गया था। उसने सहारे के लिए अपने हाथों से बच्चे को सीने से कस लिया था और महसूस किया था कि उसकी नस-नस में समाया, सदियों का उबलता जहर तेज आंच में भस्म हो रहा है और वह अन्दर से बदल रहा है..।

एक धमाका हुआ और जीप फिर लड़खड़ा गयी। तब जंगी को होश आया। उसका हाथ आदतन रिवॉल्वर पर पहुंच गया। ब्रेक लगाते हुए ड्राइवर खीज उठा-‘ये ले, चक्का पंचर हो गया।’ जंगी खुलकर हंस पड़ा। चिलचिलाती धूप में कुनई नदी का किनारा साफ दिखने लगा।
उसके आदेश की प्रतीक्षा किये बगैर फुलेनाराम तथा उसके साथ पीछे बैठे तीन सिपाही नीचे उतरे। उन्होंने फैलकर जीप को घेर लिया। पीछे रस्सियों से बंधे अपराधियों ने कोई हरकत नहीं की। ड्राइवर उतरकर फटाफट चक्का बदलने की तैयारी करने लगा।

उतरने के पहले जंगी बच्चे के माथे को गमछा से ढंकने के लिए झुका। बच्चे को अभी भी होश नहीं आया था। उसका निर्दोष चेहरा देख जंगी के मन में अचानक आवेग सा उठा। उसे महसूस हुआ कि उसके अन्दर कुछ पिघल रहा है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। वह खुद को जब्त न कर सका। उसने अनायास दोनों हाथों से बच्चे का चेहरा थाम लिया और उसके माथे को चूमने के लिए कुछ और झुका। इतने में वायरलेस बजने लगा। वह चौंक उठा। मुख्यालय से आवाज आ रही थी-‘सकटा-पिरारी थाना के प्रभारी जंगी सिंह कहाँ हैं ? एसपी साहब पूछ रहे हैं। रिपोर्ट करें। ओवर।’
वह झटपट जीप से उतरा और करीब सौ कदम आगे बढ़ गया। जीप पर निगाह टिकाये उसने सूचना दी-‘ऑपरेशन मुक्ति सफल रहा। बच्चे को छुड़ा लिया गया है। ओवर। हम खतरे से बाहर हैं। ओवर। हम कुनई के मोड़ पर है। ओवर। गाड़ी का चक्का पंक्चर है। बनने में तीस-चालीस मिनट लगेंगे। दो घंटे में हेड क्वार्टर पहुंचेंगे। ओवर..।

उसने चिल्ला-चिल्लाकर कई दफे यह बात दोहराई। उस तरफ से रह-रहकर कहा जा रहा था-‘साफ बोलें। जोर से बोलें। कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा है। किस गिरोह ने किडनैप किया था ? कितने लोग थे ?’
वह खीज उठा। छ: घंटे बाद वायरलेस संपर्क जुड़ा वह भी एकतरफा। क्या तंत्र है ? वाह, उधर की बातें वह सुन रहा है लेकिन उसकी आवाज नहीं पहुंच रही है ? क्या चक्कर है ? वह फिर चिल्लाकर बोला-‘हम दो घंटे में हेड क्वार्टर पहुंच रहे हैं। एसपी साहब को रिपोर्ट करें। ओवर। अगर मेरे लिए कोई ऑर्डर है तो बोलें। मैं सुन रहा हूं। ओवर..।’
इस बार तत्काल उधर से आवाज आयी।  ‘मैं एसपी बोल रहा हूं। एसपी अजय ओझा। जंगी सिंह कुनई के पास रुके रहें। मैं वहीं पहुंच रहा हूं। ओवर। क्या ऑर्डर रिसीव हुआ ?  रिपोर्ट करें। ओवर..।’

वह रुका रहे ? यह कैसा ऑर्डर है ? वह क्यों रुका रहे ? वह कुछ पल के लिए ठगा सा रह गया। फिर थकी आवाज  में सूचना दी-‘ऑर्डर मिल गया है। मैं जंगी सिंह कुनई नदी के बाएं किनारे पर हूं। ओवर।’

वायरलेस का शोर थमने के दो मिनट बाद ही टेलीफोन की कर्कश ध्वनि से एसपी की कोठी की शांति फिर भंग हो गयी थी। कंट्रोल रूम के दरवाजे पर तैनात रामभुज सिंह मूक दर्शक सा देख रहा था।

सुबह करीब पांच बजे खुद एसपी साहब ने कंट्रोल रूम से वायरलेस पर आदेश जारी किया था-‘स्टार्ट ऑपरेशन मुक्ति। अभियान शुरू करो। तीन तरफ से।’

उसके बाद से करीब ग्यारह बजे तक कोठी में मुर्दनी छाई रही। एसपी साहब कंट्रोल रूप से ऑपरेशन की हिदायत देकर कोठी के अंदर घुसे, तो जैसे अब तक गायब रहे। उस बीच रामभुज खड़े-खड़े न जाने कितनी बार ऊंघ चुका था।
अभी-अभी एसपी साहब दौड़ते हुए बाहर आये थे। वायरलेस की घरघराहट के बीच किसी के चिल्लाने की आवाज आ रही थी-‘ऑपरेशन मुक्ति...कुनई..जंगी सिंह..सफल...।’ बाहर खड़े रामभुज को समझ में आ गया कि डॉ. झा का बेटा मुक्त हो चुका है अपहरणकर्ताओं के चंगुल से। एसपी साहब कुनई की ओर रवाना होंगे।

कमरे से बाहर निकलते एसपी साहब का चेहरा देख रामभुज तनकर खड़ा हो गया। खुशी की बजाय उनका चेहरा गुस्से से तमतमाया हुआ था। इसी बीच बगल के कमरे में फोन की घंटी घनघनाने लगी। एसपी साहब तेजी से फोन के पास पहुंचे। अपनी गद्देदार कुर्सी पर धंसते हुए रिसीवर उठाया। उनका पीछा करती रामभुज की नजर यह देखकर चौंक उठी कि चोंगे को कान से लगाते ही एसपी साहब कुर्सी से यों उठकर खड़े हो गये, जैसे बिजली का नंगा तार छू गया।
‘सर...नो, सर..ऐसी कोई सूचना नहीं है..अच्छा..बच्चा छूट गया ?..गिरफ्तारी ? नो..नो..सर..मैं...मैं अभी-अभी पेट्रोलिंग से लौटा हूं..यस..सर..ऑपरेशन मुक्ति..। बट..लेकिन सर..अभी तक कोई स्टेप नहीं उठाया गया है। नो सर..पता कर...यस सर..रिपोर्ट करूँगा..।’
एसपी साहब ने फोन पटक दिया। गुस्से में दनदनाते हुए बाहर निकले। चिल्लाकर बोले-‘रामभुज सिंह ! ड्राइवर को बोलो, ‘गाड़ी रेडी करे।’ तेजी से अन्दर जाते हुए फिर बोले-‘रामभुज, तुम भी तैयार रहो। साथ चलोगे।’ रामभुज कुछ देर तक चकित खड़ा रहा। वह सलामी बजाना भूल गया।



प्रथम पृष्ठ

लोगों की राय

No reviews for this book