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चाणक्य नीति

अश्विनी पाराशर

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 25
आईएसबीएन :8171826253

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आचार्य विष्णुगुप्त (चाणक्य) द्वारा प्रणीत चाणक्य नीति का मुख्य विषय मानव मात्र को जीवन के प्रत्येक पहलू की व्यावहारिक शिक्षा देना है।

Chanakya Neeti - A hindi Book by - Ashwini Parashar चाणक्य नीति - अश्विनी पाराशर

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आचार्य विष्णुगुप्त (चाणक्य) द्वारा प्रणीत चाणक्य नीति का मुख्य विषय मानव मात्र को जीवन के प्रत्येक पहलू की व्यावहारिक शिक्षा देना है। इसमें मुख्य रूप से धर्म, संस्कृति, न्याय, शांति, सुशिक्षा एवं सर्वतोन्मुखी मानव जीवन की प्रगति की झाँकियां प्रस्तुत की गई हैं। आचार्य चाणक्य के नीतिपरक इस महत्वपूर्ण ग्रंथ में जीवन-सिद्धान्त और जीवन-व्यवहार तथा आदर्श और यथार्थ का बड़ा सुन्दर समन्वय देखने को मिलता है। जीवन की रीति-नीति सम्बन्धी बातों का जैसा अदुभुत और व्यावहारिक चित्रण यहाँ मिलता है अन्यत्र दुर्लभ है। इसीलिए यह ग्रन्थ पूरे विश्व में समादृत है।
 
प्रस्तुत हैं कुछ उद्धहरण-
लक्ष्मी, प्राण, जीवन, शरीर सब कुछ चलायमान है। केवल धर्म ही स्थिर है।
एक गुणवान पुत्र सैंकड़ों मूर्ख पुत्रों से अच्छा है। एक ही चन्द्रमा अन्धकार को नष्ट कर देता है, किन्तु हजारों तारे ऐसा नहीं कर सकते।
माँ से बढ़कर कोई देवता नहीं है।
पिता का सबसे बड़ा कर्तव्य है कि पुत्र को अच्छी से अच्छी शिक्षा दे।
दुष्ट के सारे शरीर में विष होता है।
दुष्टों तथा काँटों को या तो जूतों से कुचल दो या उनके रास्ते से ही हट जाओ।
जिसके पास धन है, उसके अनेक मित्र, भाई बन्धु और रिश्तेदार होते हैं।
अन्न, जल तथा सुभाषित ही पृथ्वी के तीन रत्न हैं। मूर्खों ने व्यर्थ ही पत्थर के टुकड़े को रत्न का नाम दिया है।
सोने में सुगन्ध, गन्ने में फल और चन्दन में फूल नहीं होते। विद्वान धनी नहीं होता और राजा दीर्घजीवी नहीं होते।
समान स्तर वालों से मित्रता शोभा देती है।
कोयल का रूप उसका स्वर है। पतिव्रता होना ही स्त्रियों की सुन्दरता है।

चाणक्य: एक संक्षिप्त परिचय

प्राचीन भारतीय संस्कृत वांगमय के इतिहास में आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य अपने गुणों से मंडित, राजनीति विशारद, आचार-विचार के मर्मज्ञ, कूटनीति में सिद्धहस्त एवं प्रवीण रूप में ख्यातनाम हैं। उन्होंने नन्द वंश को समूल नष्ट कर उसके स्थान पर अपने सुयोग्य एवं मेधावी वीर शिष्य चन्द्रगुप्त मौर्य को शासक पद पर सिंहासनारूढ़ करके अपनी जिस विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया उससे समस्त विश्व परिचित है। मौर्यवंश की स्थापना आचार्य चाणक्य की एक महती उपलब्धि है।

यह वह समय था जब मौर्यकाल के प्रथम सिंहासनारूढ़ चंद्रगुप्त मौर्य शासक थे। उस समय चाणक्य राजनीति गुरू थे। आज भी कुशल राजनीति विशारद को चाणक्य की संज्ञा दी जाती है। चाणक्य की संज्ञा दी जाती है। चाणक्य ने संगठित, संपूर्ण आर्यावर्त का स्वप्न देखा था तदनुरूप उन्होंने सफल प्रयास किया था।
चाणक्य अनोखे, अद्भुत निराले, ऐसे कुशल राजनीतिज्ञ थे कि उन्होंने मगध देश के नंद राजाओं की राजसत्ता का सर्वनाश करके ‘मौर्य राज्य’ की स्थापना की थी।

चाणक्य का जन्म का नाम विष्णुगुप्त था और चणक नामक आचार्य के पुत्र होने के कारण इनका नाम चाणक्य पड़ा। कुछ लोगों का मत है कि अत्यंत कुशाग्र बुद्धि होने के कारण वह ‘चाणक्य’ कहलाए। कुटिल राजनीति विशारद होने के कारण इन्हें कौटिल्य नाम से संबोधित किया गया। पर संभवत: यह इनके गोत्र का नाम रहा हो किन्तु अनेक विद्वानों के मतानुसार कुटिल नीति के निर्माता होने के कारण इनका नाम कौटिल्य पड़ा। म.म. गणपति शास्त्री ने ‘कुटिल’ गोत्रोत्पन्न पुमान् कौटिल्य : इस व्युत्पत्ति के अनुसार इन्हें कौटिल्य गोत्र का मानने पर बल दिया है। आप चंद्रगुप्त मौर्य के महामंत्री, गुरु, हितैषी तथा राज्य के संस्थापक थे। चंद्रगुप्त मौर्य को राजा पद पर प्रतिष्ठित करने का कार्य इन्हीं के बुद्धि-कौशल का परिणाम था।

चाणक्य के जन्म-स्थान के बारे में इतिहास मौन है। परंतु उनकी शिक्षा-दीक्षा तक्षशिला विश्वविद्यालय में हुई थी। वह स्वभाव से अभिमानी, चारित्रिक एवं विषय-दोषों से रहित स्वरूप से कुरूप, बुद्धि से तीक्ष्ण, इरादे पक्के, प्रतिभा धनी, युगद्रष्टा एवं युगस्रष्टा। जन्म से पाटलिपुत्र के रहनेवाले चाणक्य के बुद्धिबल का पूरा विकास तक्षशिला के आचार्य के संरक्षण में हुआ। अपने प्रौढ़ ज्ञान के प्रभाव से वहाँ के विद्वानों को प्रसन्न कर चाणक्य राजनीति का प्राध्यापक बना। देश की दुर्व्यवस्था को देखकर उसका हृदय द्रवित हो उठा। इसके लिए उसने विस्तृत कार्यक्रम बनाकर देश को एक सूत्र में बाँधने का संकल्प किया और इसमें उसे सफलता भी मिली।

चाणक्य के जीवन का उद्देश्य केवल ‘बुद्धिर्यस्य बलं तस्य’ ही था। इसीलिए चाणक्य को अपनी बुद्धि एवं पुरुषार्थ पर पूरा भरोसा था। वह ‘दैवाधीन जगत्सर्वं’ सिद्धान्त को भ्रम मानता था।
चाणक्य और चंद्रगुप्त मौर्य का समय एक ही है-325 ई.पू. मौर्य सम्राट् चंद्रगुप्त का समय था, यही समय चाणक्य का भी है। चाणक्य का निवास स्थान शहर से बाहर पर्णकुटी थी जिसे देखकर चीन के ऐतिहासिक-यात्री फाह्यान ने कहा था-‘‘इतने विशाल देश का प्रधानमंत्री ऐसी कुटिया में रहता है !’’ तब उत्तर था चाणक्य का-‘‘जहाँ का प्रधानमंत्री साधारण कुटिया में रहता है वहाँ के निवासी भव्य भवनों में निवास किया करते हैं और जिस देश का प्रधानमंत्री राज प्रासादों में रहता है वहां की सामान्य जनता झोपड़ियों में रहती है।’’

चाणक्य की झोंपड़ी में एक ओर गोबर के उपलों को तोड़ने के लिए एक पत्थर पड़ा रहता था, दूसरी ओर शिष्यों द्वारा लायी हुई कुशा का ढेर लगा रहता था। छत पर समिधाएँ सूखने के लिए डाली हुई थीं, जिसके भार से छत नीचे झुक गयी थी। ऐसी जीर्ण-शीर्ण कुटिया चाणक्य की निवास-स्थली थी।

आह ! वह देश महान् क्यों न होगा जिसका प्रधानमंत्री इतना ईमानदार, जागरूक, चरित्र का धनी व कर्तव्यपरायण हो।
इन भावों को देखकर लोग दंग रह जाते हैं। हमारे मन रूपी वीणा के समस्त संवेदनशील तार इस दृश्य को देखकर एक साथ झंकृत हो उठते हैं। उन तारों से ऐसी करुणा की रागिनी फूटती है कि चाणक्य की संपूर्ण राजनीति की उच्छृंखलता उसी में धीरे-धीरे विलीन हो जाती है। उसके ज्योतिष्चक्र के सामने आँखें मींचकर चाणक्य को त्यागी एवं तपस्वी के रूप में देखकर सिर झुक जाता है।

2500 वर्ष ई.पूर्व चणक के पुत्र विष्णुगुप्त ने भारतीय राजनयिकों को राजनीति की शिक्षा देने के लिए अर्थशास्त्र, लघु चाणक्य, वृद्ध चाणक्य, चाणक्य-नीति शास्त्र आदि ग्रंथों के साथ व्याख्यायमान सूत्रों का निर्माण किया था।
संस्कृत-साहित्य में नीतिपरक ग्रन्थों की कोटि में चाणक्य नीति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें सूत्रात्मक शैली में जीवन को सुखमय एवं सफल-सम्पन्न बनाने के लिए उपयोगी अनेक विषयों पर प्रकाश डाला गया है। चाणक्य के अनुसार आदर्श राज्य संस्था वही है जिसकी योजनाएं प्रजा को उसके भूमि, धन-धान्यादि पाते रहने के मूलाधिकार से वंचित कर देनेवाली न हों, उसे लम्बी-चौड़ी योजनाओं के नाम से कर-भार से आक्रांत न कर डालें। राष्ट्रोद्धारक योजनाएं राजकीय व्ययों में से बचत करके ही चलाई जानी चाहिए। राजा का ग्राह्य भाग देकर बचे प्रजा के टुकड़ों के भरोसे पर लंबी-चौड़ी योजना छेड़ बैठना प्रजा का उत्पीड़न है।

चाणक्य का साहित्य समाज में शांति, न्याय, सुशिक्षा, सर्वतोन्मुखी प्रगति सिखानेवाला ज्ञान-भंडार है। राजनीतिक शिक्षा का यह दायित्व है कि वह मानव समाज को राज्य संस्थापन, संचालन, राष्ट्र-संरक्षण-तीनों काम सिखाए।
दुर्भाग्य है भारत का कि चाणक्य के ज्ञान की उपेक्षा करके देशी-विदेशी शत्रुओं को आक्रमण करने का निमंत्रण देकर अपने को शत्रुओं का निरूपाय आखेट बनानेवाली आसुरी शिक्षा को अपना लिया है। नैतिक-शिक्षा, धर्म-शिक्षा का लोप हो गया है। चरित्र-निर्माण को बहिष्कृत कर दिया है। मात्र लिपिक (क्लर्क) पैदा करनेवाली, सिद्धांतहीन, पेट-पालन की शिक्षा रह गई है। समाज धीरे-धीरे आसुरी रूप लेता जा रहा है। अर्थ-दास सम्मान या आत्मगौरव की उपेक्षा करता है। स्वाभिमान का जनाजा निकाला जा रहा है।

आज के स्वार्थपूरित, अज्ञानांधकार में डूबे शुद्ध स्वार्थी राजनीतिक परिदृश्य में मात्र चाणक्य का ज्ञानामृत ही भारत का पथ-प्रदर्शक बनने की क्षमता रखता है। वही हमें राजनीतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक मुक्ति-मार्ग दिखा सकता है। आज की सदोष राष्ट्रीय परिस्थिति इस वर्तमान कुशिक्षा के कारण है। राष्ट्रीय भावना, राष्ट्रहित तथा मनु के आदर्श आज लोप हो चुके हैं। अहंकारी विद्या का ही बोलबाला है। सांस्कृतिक स्वरूप ध्वंस हो चुका है। निष्काम सेवा-भाव का दिवाला निकल गया है। प्रभुता लोभी नेतापन की मदिरा ने बौरा दिया है। चाणक्य की राजनीतिक चिंता-धारा को समाविष्ट करके ही भारत का उद्धार हो सकता है। इसके अध्ययन-पारायण से राजनीति की समझ के विकास के साथ-साथ व्यक्ति में सच्चरित्र सदाचारी, व्यवहार-कुशल एवं धर्मनिष्ठ और कर्मशील मानव के समुचित विकास की पर्याप्त संभावनाएं हैं। इसीलिए यह नीति-पाठ आज भी प्रांसगिक है।
34-कादम्बरी
19/9 रोहिणी,
नयी दिल्ली-110085

-अश्विनी पाराशर

साधुभ्यस्ते निवर्तन्ते मित्राणि बान्धवा:।
ये च तै: सह गन्तारस्तद्धर्मात् सुकृतं कुलम।।

चा.नी.4/2

कामधेनु गुणा विद्या ह्य काले फलदायिनी।
प्रवासे मातृ सदृशी विद्या गुप्तं धनं स्मृतम्।।

चा.नी.4/5

चाणक्य नीति
प्रथम अध्याय
ईश्वर-प्रार्थना


प्रणम्य शिरसा विष्णुं त्रैलोक्याधिपतिं प्रभुम्।
नाना शास्त्रोद्धृतं वक्ष्ये राजनीति समुच्चयम्।।

तीनों लोकों (स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल) के स्वामी भगवान विष्णु के चरणों में शीष नवाकर प्रणाम करके अनेक शास्त्रों से उद्धृत राजनीति के संकलन का वर्णन करता हूं।
चाणक्य यहाँ राजनीति-सम्बन्धी विचारों के प्रतिपादन के समय कार्य के निर्विघ्न समाप्ति के भाव से कहते हैं कि-मैं कौटिल्य सबसे पहले तीनों लोकों के स्वामी भगवान विष्णु को सिर नवाकर प्रणाम करता हूँ। इस पुस्तक में मैंने अनेक शास्त्रों से चुन-चुनकर राजनीति की बातें एकत्रित की हैं। यहाँ मैं इन्हीं का वर्णन करता हूँ।

चाणक्य (विष्णुगुप्त) के लिए कौटिल्य का सम्बोधन इनके कूटनीति में प्रवीण होने के कारण प्रयोग किया है। यह एक तथ्य है कि चाणक्य की नीति राजा एवं प्रजा दोनों के लिए ही प्रयोग किए जाने के लिए थी। राजा के द्वारा निर्वाह किए जानेवाला प्रजा के प्रति धर्म ही राज धर्म कहा गया है और प्रजा द्वारा राजा अथवा राष्ट्र के प्रति निर्वाह किया गया धर्म ही प्रजा-धर्म कहा गया। इस धर्म का उपदेश ही नीतिवचन के रूप में निर्विघ्न पूर्ण हो इसी आशय से प्रारम्भ में मंगलाचरण के रूप में विष्णु का आराधना से कार्यारम्भ किया गया है।

अच्छा मनुष्य कौन


अधीत्येदं यथाशास्त्रं नरो जानाति सत्तम:।
धर्मोपदेशविश्यातं कार्याऽकार्याशुभाशुभम्।। 2 ।।

धर्म का उपदेश देनेवाले, कार्य-अकार्य, शुभ-अशुभ को बतानेवाले इस नीतिशास्त्र को पढ़कर जो सही रूप में इसे जानता है, वही श्रेष्ठ मनुष्य है।

इस नीतिशास्त्र में धर्म की व्याख्या करते हुए क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए; क्या अच्छा है, क्या बुरा है इत्यादि ज्ञान का वर्णन किया गया है। इसका अध्ययन करके इसे अपने जीवन में उतारनेवाला मनुष्य ही श्रेष्ठ मनुष्य है।
आचार्य विष्णुगुप्त (चाणक्य) का यहां कहना है कि ज्ञानी व्यक्ति नीतिशास्त्र को पढ़कर जान लेता है कि उसके लिए करणीय क्या है और न करने योग्य क्या है। साथ ही उसे कर्म के भले-बुरे के बारे में भी ज्ञान हो जाता है। कर्तव्य के प्रति व्यक्ति द्वारा ज्ञान से अर्जित यह दृष्टि ही धर्मोपदेश का मुख्य सरोकार और प्रयोजन है। कार्य के प्रति व्यक्ति का धर्म ही व्यक्ति-धर्म (मानव-धर्म) कहलाता है अर्थात् मनुष्य अथवा किसी वस्तु का गुण और स्वभाव जैसे अग्नि का धर्म जलाना और पानी का धर्म बुझाना है उसी प्रकार राजनीति में भी कुछ कर्म धर्मानुकूल होते हैं और बहुत कुछ धर्म के विरूद्ध होते हैं।

गीता में कृष्ण ने युद्ध में अर्जुन को क्षत्रिय का धर्म इसी अर्थ में बताया था कि रणभूमि में सम्मुख शत्रु को सामने पाकर युद्ध ही क्षत्रिय का एकमात्र धर्म होता है। युद्ध से पलायन या विमुख होना कायरता कहलाती है। इसी अर्थ में आचार्य चाणक्य धर्म को ज्ञानसम्मत मानते हैं।

राजनीति: जग कल्याण के लिए
तदहं सम्प्रवक्ष्यामि लोकानां हितकाम्यया।
येन विज्ञान मात्रेण सर्वज्ञत्वं प्रपद्यते।। 3 ।।

मैं (चाणक्य) लोगों की भलाई की इच्छा से अर्थात् लोकहितार्थ राजनीति के उस रहस्यवाले पक्ष को प्रस्तुत करूंगा जिसे केवल जान लेने मात्र से ही व्यक्ति स्वयं को सर्वज्ञ समझ सकता है।

स्पष्ट है कि राजनीति के सिद्धान्त अपनाना उतना महत्त्वपूर्ण नहीं जितना कि उनको समझना-जानना कि वे क्या हैं, और उनका प्रभाव क्या हो सकता है। इसीलिए उनके नीतिशास्त्र का पारायण करनेवाला व्यक्ति राजनीति का पंडित हो सकता है इसलिए आत्मकल्याण ही नहीं जगकल्याण के लिए राजनीति को जानना बहुत जरूरी है।

शिक्षा : सुपात्र की


मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टास्त्रीभरणेन च।
दुःखितैः सम्प्रयोगेण पण्डितोऽप्यवसीदति।। 4 ।।

मूर्ख शिष्य को पढ़ाने से, उपदेश देने से, दुष्ट स्त्री का भरण-पोषण करने से तथा दु:खी लोगों का साथ करने से विद्वान् व्यक्ति भी दु:खी होता है यानी कह सकते हैं कि चाहे कोई भी कितना ही समझदार क्यों न हो किन्तु मूर्ख शिष्य को पढ़ाने पर, दुष्ट स्त्री के साथ जीवन बिताने पर तथा दु:खियों-रोगियों के बीच में रहने पर विद्वान व्यक्ति भी दु:खी हो ही जाता है। साधारण आदमी की तो बात ही क्या। अत: नीति यही कहती है कि मूर्ख शिष्य को शिक्षा नहीं देनी चाहिए। दुष्ट स्त्री से सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए बल्कि उससे दूर ही रहना चाहिए और दु:खी व्यक्तियों के बीच में नहीं रहना चाहिए।
हो सकता है, ये बातें किसी भी व्यक्ति को साधारण या सामान्य लग सकती हैं लेकिन यदि इन पर गंभीरता से विचार किया जाए तो यह स्पष्ट है कि शिक्षा या सीख उसी व्यक्ति को देनी चाहिए जो उसका सुपात्र हो या जिसके मन में इन शिक्षाप्रद बातों को ग्रहण करने की इच्छा हो।

आप जानते हैं कि एक बार वर्षा से भीगते बन्दर को बया (चिड़िया) ने घोंसला बनाने की शिक्षा दी लेकिन बन्दर उसकी इस सीख के योग्य नहीं था। झुंझलाए हुए बन्दर ने बया का ही घोंसला उजाड़ डाला। इसीलिए कहा गया है कि जिस व्यक्ति को किसी बात का ज्ञान न हो उसे कोई भी बात आसानी से समझाई जा सकती है पर जो अधूरा ज्ञानी है उसे तो ब्रह्मा भी कभी नहीं समझा सकता। इसी संदर्भ में चाणक्य ने आगे कहा है कि मूर्ख के समान ही दुष्ट स्त्री का संग करना या उसका पालन-पोषण करना भी व्यक्ति के लिए दु:ख का कारण बन सकता है। क्योंकि जो स्त्री अपने पति के प्रति आस्थावान न हो सकी वह किसी दूसरे के लिए क्या विश्वसनीय हो सकती है ? नहीं। इसी तरह दु:खी व्यक्ति जो आत्मबल से हीन हो चुका है, निराशा में डूब चुका है उसे कौन उबार सकता है। इसलिए बुद्धिमान को चाहिए कि वह मूर्ख, दुष्ट स्त्री या दु:खी व्यक्ति (तीनों से) बचकर आचरण करे। पंचतंत्र में भी कहा गया है-

‘माता यस्य गृहे नास्ति भार्या चाप्रियवादिनी।
अरण्यं तेन गन्तव्यं यथारण्यं तथा गृहम्।।

पञ्च.4155

अर्थात् जिसके घर में माता न हो और स्त्री व्यभिचारिणी हो, उसे वन में चले जाना चाहिए, क्योंकि उसके लिए घर और वन दोनों समान ही हैं।

दु:खी का पालन भी सन्तापकारक ही होता है। वैद्य ‘परदु:खेन तप्यते’ दूसरे के दु:ख से दु:खी होता है। अत: दु:खियों के साथ व्यवहार करने से पण्डित भी दु:खी होगा।

मृत्यु के कारणों से बचें


दुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्यश्चोत्तरदायक:।
ससर्पे गृहे वासो मृत्युरेव न संशय:।। 5 ।।

दुष्ट पत्नी, शठ मित्र, उत्तर देनेवाला सेवक तथा सांपवाले घर में रहना, ये मृत्यु के कारण हैं। इसमें सन्देह नहीं करना चाहिए।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि ये चार चीजें किसी भी व्यक्ति के लिए जीती-जागती मृत्यु के समान हैं-दुश्चरित्र पत्नी, दुष्ट मित्र, जवाब देनेवाला अर्थात् मुँह लगा नौकर-इन सबका त्याग कर देना चाहिए। घर में रहनेवाले साँप को कैसे भी, मार देना चाहिए। ऐसा न करने पर व्यक्ति के जीवन को हर समय खतरा बना रहता है। क्योंकि किसी भी सद्गृहस्थ के लिए उसकी पत्नी का दुष्ट होना मृत्यु के समान है। वह व्यक्ति आत्महत्या करने पर विवश हो सकता है। वह स्त्री सदैव व्यक्ति के लिए दु:ख का कारण बनी रहती है। इसी प्रकार नीच व्यक्ति, धूर्त अगर मित्र के रूप में आपके पास आकर बैठता है तो वह आपके लिए अहितकारी ही होगा। सेवक या नौकर भी घर के गुप्तभेद जानता है, वह भी यदि स्वामी की आज्ञा का पालन करनेवाला नहीं है तो मुसीबत का कारण हो सकता है। उससे भी हर समय सावधानी बरतनी पड़ती है, तो दुष्ट स्त्री, छली मित्र व मुंहलगा नौकर कभी भी समय पड़ने पर धोखा दे सकते हैं। अत: ऐसे में पत्नी को आज्ञाकारिणी व पतिव्रता होना, मित्र को समझदार व विश्वसनीय होना और नौकर को स्वामी के प्रति श्रद्धावान होना चाहिए। इसके विपरीत होने पर कष्ट ही कष्ट है। इनसे व्यक्ति को बचना ही चाहिए वरना ऐसा व्यक्ति कभी भी मृत्यु का ग्रास हो सकता है।

विपत्ति में क्या करें-


आपदर्थे धनं रक्षेद् दारान् रक्षेद् धनैरपि।
आत्मानं सततं रक्षेद् दारैरपि धनैरपि ।। 6 ।।

विपत्ति के समय के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए। धन से अधिक रक्षा पत्नी की करनी चाहिए। किन्तु अपनी रक्षा का प्रश्न सम्मुख आने पर धन और पत्नी का बलिदान भी करना पड़े तो भी नहीं चूकना चाहिए।

संकट, दु:ख में धन ही मनुष्य के काम आता है। अत: ऐसे संकट के समय में संचित धन ही काम आता है इसलिए मनुष्य को धन की रक्षा करनी चाहिए। पत्नी धन से भी पढ़कर है, अत: उसकी रक्षा धन से भी पहले करनी चाहिए। किन्तु धन एवं पत्नी से पहले तथा दोनों से बढ़कर अपनी रक्षा करनी चाहिए। अपनी रक्षा होने पर इनकी तथा अन्य सबकी भी रक्षा की जा सकती है।

आचार्य चाणक्य धन के महत्त्व को कम नहीं करते क्योंकि धन से व्यक्ति के अनेक कार्य सधतें हैं किन्तु परिवार की भद्र महिला, स्त्री अथवा पत्नी के जीवन-सम्मान का प्रश्न सम्मुख आ जाने पर धन की परवाह नहीं करनी चाहिए। परिवार की मान-मर्यादा से ही व्यक्ति की अपनी मान-मर्यादा है। वही चली गई तो जीवन किस काम का और वह धन किस काम का ? पर जब व्यक्ति की स्वयं की जान पर बन आवे तो क्या धन, क्या स्त्री, सभी की चिन्ता छोड़ व्यक्ति को अपने जीवन की रक्षा करनी चाहिए। वह रहेगा तो ही पत्नी अथवा धन का उपभोग कर सकेगा वरना सब व्यर्थ ही रह जाएगा। राजपूत स्त्रियों ने जब यह अनुभव किया कि राज्य की रक्षा कर पाना या उसे बचा पाना असंभव हो गया तो उन्होंने जौहर व्रत का पालन किया और अपने प्राणों की आहुति दे दी। यही जीवन का धर्म है।

आपदर्थे धनं रक्षेच्छ्रीमतांकुत: किमापद:।
कदाचिच्चलिता लक्ष्मी संचिताऽपि विनश्यति ।। 7 ।।

आपत्ति काल के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए लेकिन धनवान को आपत्ति क्या करेगी अर्थात् धनवान पर आपत्ति आती ही कहाँ है ? तो प्रश्न उठा कि लक्ष्मी तो चंचल होती है, पता नहीं कब नष्ट हो जाए तो फिर यदि ऐसा है तो कदाचित् संचित धन भी नष्ट हो सकता है।

बुरा समय आने पर व्यक्ति का सब कुछ नष्ट हो सकता है। लक्ष्मी स्वभाव से ही चंचल होती है। इसका कोई भरोसा नहीं कि कब साथ छोड़ जाये। इसलिए धनवान व्यक्ति को भी यह नहीं समझना चाहिए कि उस पर विपत्ति आएगी ही नहीं। दु:ख के समय के लिए कुछ धन अवश्य बचाकर रखना चाहिए।

वस्तुत: यह श्लोक ‘भोज-प्रबन्ध’ में भी उद्धृत है। वहां राजा भोज और कोषाध्यक्ष की बातचीत का प्रसंग है। राजा भोज अत्यधिक दानी थे। उनकी इतनी दानशीलता को देखकर खजांची एक चरण लिख देता है तो राजा दूसरे चरण में उसका उत्तर दे देते हैं अन्त में खजांची राजा के मन्तव्य और दान के महत्त्व को समझकर अपनी भूल स्वीकार कर लेता है।

यहाँ अभिप्राय यह है कि धन का प्रयोग अनुचित कार्यों में किया जाए तो उसके नष्ट होने पर व्यक्ति विपन्नता को प्राप्त होता है किन्तु सत्कार्यों में व्यय किया गया धन व्यक्ति को मान, प्रतिष्ठा और समाज में आदर का पात्र बनाता है क्योंकि धन-सम्पत्ति अस्थायी होती है। इन पर क्या गुमान करना। व्यक्ति इन्हें अर्जित करता है। वास्तविक शक्ति तो प्रभु द्वारा प्रदत्त है वही स्थायी है। जब तक उसकी कृपा है तब तक ही सब कुछ है लेकिन यह निश्चय है कि धन सम्पत्ति व्यक्ति के परिश्रम, बुद्धिमत्ता और कार्यक्षमता से प्राप्त होती है और इसके चलते वह कभी नष्ट नहीं होती। श्रम, बुद्धि और कार्यक्षमता के अभाव में वह हमेशा साथ छोड़ देती है, तो मूल बात श्रम, बुद्धि की कार्य क्षमता का बने रहना है तभी लक्ष्मी भी स्थिर रह सकती है।

इन स्थानों पर न रहें-


यस्मिन् देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च बान्धवा:।
न च विद्यागमोऽप्यस्ति वासस्तत्र न कारयेत्।। 8 ।।

जिस देश में सम्मान न हो, जहां कोई आजीविका न मिले, जहां अपना कोई भाई-बन्धु न रहता हो और जहां विद्या-अध्ययन सम्भव न हो, ऐसे स्थान पर नहीं रहना चाहिए।

अर्थात् जिस देश अथवा शहर में निम्नलिखित सुविधाएं न हों, उस स्थान को अपना निवास नहीं बनाना चाहिए-
जहां किसी भी व्यक्ति का सम्मान न हो।
जहां व्यक्ति को कोई काम न मिल सके।
जहां अपना कोई सगा-सम्बन्धी या परिचित व्यक्ति न रहता हो।
जहां विद्या प्राप्त करने के साधन न हों, अर्थात् जहां स्कूल-कॉलेज या पुस्तकालय आदि न हों।
ऐसे स्थानों पर रहने से कोई लाभ नहीं होता। अत: इन स्थानों को छोड़ देना ही उचित होता है।

अत: मनुष्य को चाहिए कि वह आजीविका के लिए उपयुक्त स्थान चुने। वहां का समाज ही उसका सही समाज होगा क्योंकि मनुष्य सांसारिक प्राणी है, वह केवल आजीविका के भरोसे जीवित नहीं रह सकता। जहां उसके मित्र-बन्धु हों वहां आजीविका भी हो तो यह उपयुक्त स्थान होगा। विचार-शक्ति को बनाये रखने के लिए, ज्ञान-प्राप्ति के साधन भी वहां सुलभ हों, इसके बिना भी मनुष्य का निर्वाह नहीं। इसीलिए आचार्य चाणक्य यहां नीति वचन के रूप में कहते हैं कि व्यक्ति को ऐसे देश में निवास नहीं करना चाहिए जहां उसे न सम्मान प्राप्त हो, न आजीविका का साधन हो, न बन्धु-बान्धव हों, न ही विद्या-प्राप्ति का कोई साधन हो बल्कि जहां ये संसाधन उपलब्ध हों वहां वास करना चाहिए।



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