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हमजमीन

अवधेश प्रीत

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2495
आईएसबीएन :9788126726608

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इसमें सांप्रदायिक और सामंती क्रूरताओं के शिकार वंचितों तथा स्त्रियों की पीड़ाओं का चित्रण किया गया है...

Hamjameen

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अवधेश प्रीत उन थोड़े से कथाकारों में हैं जो यथार्थ की भीतरी तह तक पहुँच कर उसकी आन्तरिक गतिशीलता को उजागर करते हैं। उनकी कहानियों में जीवन के गहरे अनुभव के साथ-साथ समाज में होने वाले परिवर्तनों के संकेत भी मिलते हैं। विसंगतियों और बिडम्बनाओं का चित्र उकेरते वक्त उनकी नजर हमेशा उन वंचितजनों पर टिकी होती है, जो अपनी स्थिति से उबरने तथा समाज के बदलने के लिए संघर्ष कर रहे होते हैं।

सपाटबमानी से बचते हुए अवधेश अपने एक-एक अनुभव को पहले वैचारिक धरातल पर सूत्रबद्ध करते हैं, फिर उनके कलात्मक संग्रंथन से ऐसी फंतासी रचते हैं, जिनके किरदारों के आत्मसंघर्ष तथा सामाजिक संघर्ष के बीच की विभाजक रेखा मिट जाती है। उनका यह शिल्प ही उन्हें अपने समकालीनों से अलग करता है ।

हमज़मीन उनका तीसरा कथा संग्रह है। इस संग्रह की कहानियों में उन्होंने सांप्रदायिक और सामंती क्रूरताओं के शिकार वंचितों तथा स्त्रियों की पीड़ाओं के चित्रण के साथ-साथ उनके संघर्ष और जिजीविषा को रेखांकित करने का भी सार्थक प्रयास किया है।


तीसरी औरत

 

खास्ताहाल हवेली में डाकिनी-सी डोलती वे औरतें कभी हँसती, तो कभी रोती। कभी एक-दूसरे के गले लगकर सिसकियाँ सुनतीं। कभी थक-हारकर एक-दूसरे को कोसती गहरी चुप्पी में गुम हो जातीं। ऐसे में एक गूँगा सन्नाटा सनसनाता रहता और हवेली की ईंटों में सीलन कुछ और बढ़ जाती। दीवारों पर लगा प्लास्टर कहीं से टूटकर गिरता और महाकाल चौंककर अपने इर्द-गिर्द देखता। कहीं कोई जुम्बिश न पाकर वह उदास हो जाता और दरकती दीवारों की दरारें कुछ और चौड़ी हो जातीं।

हवेली पर उम्र से ज्यादा समय हावी था। समय के भीतर हलचल थी। बाहर सन्नाटा। हलचल और सन्नाटे के बीच थीं वे औरतें। एक-दूसरे से जुड़ीं। एक-दूसरे से अलग। एक-दूसरे से इतने करीब कि एक के बग़ैर दूसरी की पहचान मुश्किल। एक-दूसरे से इतनी दूर कि हर दायरा छोटा पड़ जाए। वे एक-दूसरे से प्रेम करती हों, ऐसा भी नहीं था। फिर भी वे आपस में एक-दूसरे पर निर्भर थीं और इस क़दर निर्भर थीं कि एक-दूसरे पर लगातार नजर रखतीं। उन्हें भय था। कि कहीं कोई किसी दिन इस हवेली से उड़न छू न हो जाए।

यूँ हवेली के बाहर बड़ी-सी चहारदीवारी थी। उस चहारदीवारी में बड़ा-सा लोहे का गेट था और गेट पर काला पेंट चढ़ा था। लेकिन अरसे से पेंट की पपड़ियाँ छूट रही थीं और गेट जगह-जगह से चितकबरा हो आया था। इस सबके बावजूद गेट मजबूत था और उसकी कुंडी में उतना ही मजबूत ताला जड़ा था। उस ताले की चाभी उन औरतों में से किसी के पास नहीं थी। वह औरत जो इस हवेली में सबसे पहले आई थी, अक्सर कसम खाकर कहती, चाभी जिनके साथ होती थी, उन्हीं के साथ चली गई।’’

उस औरत की झूलती झुर्रियों में झाँकती सच्चाई की ताब देर तक महसूस होती और वे एक-दूसरे से नजरें बचाकर अपने गोपन गह्वरों में गुम हो जातीं। इन गह्वरों में उनके गुमशुदा दिन थे। रातें थीं। उनका एकान्त था। और थी खुद को खोजने/खारिज करने की निर्विघ्नता। लेकिन इस एकान्त की कोई ऐसी सीमा-रेखा नहीं थी, जिसके पार जाने की कोई बंदिश हो। लिहाजा कौन किसके एकान्त में कब प्रवेश कर जाती, यह उन औरतों को भी पता नहीं था। ऐसे में वे एक-दूसरे के एकान्त में होते हुए भी, अपने-अपने एकान्त में बनी रहतीं और वे जिसके एकान्त में होतीं, उसे उसके होने का पता भी नहीं चलता।

यह अतिक्रमण था एक-दूसरे की शिनाख्त का या कि समय के सिरों को पकड़ने का उपक्रम, इस बात से नावाकिफ वे तीनों औरतों एक ही समय में होते हुए भी, अपने-अपने समय में मौजूद थीं। वहाँ उनका होना अपने भूत, भविष्य और वर्तमान में एक साथ होना था। जाहिर है, हर किसी की कहानी में उनकी आवाजाही होने के बावजूद उनके किरदार अलग थे। उनकी कहानियाँ अलग थीं। लिहाजा वे एक ही कहानी के जितना भीतर थीं, उतना ही बाहर भी थीं।


 

पहली औरत

 


यह औरत जिस दिन इस हवेली में दाखिल हुई, अपने हाथ रोशनी की एक झंपोली भी लेकर आईं ? रंगीन पन्नियों में लिपटी झंपोलियों के बीच जब यह झंपोली खुली थी, तमाम चीज़ें, जगह-मगर रोशनी से नहा गई थीं। उसे याद नहीं कि यह झंपोली किसने खोली थी। लेकिन भीड़ में शामिल कोई औरत झंपोलियाँ खोलते-खोलते अचानक ठिठक गई थी। रोशनी से भरी झंपोली का ढक्कन बहुत कसकर बाँधा हुआ था और उसे खोलने की कोशिश में इस औरत के हाथों में रोशनी के कुछ कतरे चिपक गए थे। वह अचकचाई-सी अपने दोनों हाथों को रगड़कर उन कतरों को छुड़ाने लगी थी। लेकिन नाकाम कोशिश के बाद झुँझलाकर उसने झटके से झंपोली का ढक्कन नोच डाला था। झपाक से उठी रोशनी के सैलाब में इससे पहले कि हवेली सराबोर हो जाती किसी ने वह झंपोली उठाकर उसकी कोठरी में रख दी थी। उस औरत ने अपनी कोठरी में दाखिल उस मानुष गन्ध को महसूस किया था और उसकी आँखें उस गन्ध का पीछा करती हुई कोठरी के दरवाजे पर जा टिकी थीं। वह गठरी परछाईं ठमक कर मुड़ी थी और उस औरत ने देखा था कि वह गन्ध गहन अँधेरे में डूब गई है। दरवाजे के इस पार बैठी वह औरत दरवाजे के उस पार पाँवों की धमक महसूस करती रही थी। उसका सीना इस धमक से धाड़-धाड़ बजता रहा था।

उसने घबराहट में रोशनी की वह झंपोली खोल डाली थी। कोठरी तेज रोशनी से भर गई थी। चौंधियाई आँखों से उसने कोठरी का मुआयना किया था और उसने आदमकद शीशे में अपने आपको देखकर पहचानने की कोशिश की थी। वह वह नहीं थी। उसका रंग रूप, चेहरा जिस्म, हाव भाव सब कुछ बदला हुआ था। वह बड़ी देर तक खुद को निहारती रही थी। बड़ी देर तक शीशे के भीतर खड़ी औरत में खुद को तलाशती रही थी।

वह खड़ी-खड़ी थक चुकी थी। थकान लिए-दिए पलंग पर आ बैठी थी। दरवाजे के पार पाँवों की धमक जारी थी। सीने में इस धमक को महसूस करती हुई वह गुड़ीमुड़ी होती गई थी। नींद आँखों में उतर आई थी। उसे पता ही नहीं चला कि कब, कौन आया और रोशनी की झंपोली का ढक्कन बन्द कर गया। जब उसकी आँखें खुली थीं उसने खुद को अँधेरे के बीच पाया। अँधेरा इस कदर गाढ़ा था कि उसके पार क्या है, यह अन्दाज लगाना मुश्किल था। उस औरत ने दोनों हाथों से पलंग को टटोला। एक आदमकद परछाईं वहाँ पसरी पड़ी थी। सहसा उसकी चीख निकलते-निकलते रह गई उस रात उसने चीख और चुप्पी के बीच गुजारी।

सुबह उजाले के बावजूद रोशनी का नामो-निशान नहीं था। गुन्दुमी अँधेरा कोठरी में गश्त लगा रहा था। उस औरत ने फटी आँखों से इस अजीब अँधेरे को चीरने की कोशिश की। ऐन इसी वक्त आदमकद परछाईं आँखें मलते हुए पलंग से उठी और बग़ैर उसकी ओर तवज्जों दिए कोठरी से बाहर चली गई। उस औरत ने नथुनों में ढेर सारी हवा खींची थी, लेकिन कोई मानुष गन्ध न पाकर सिहर गई थी। उसकी समझ में नहीं आया उसे साँस लेने में परेशानी क्यों हो रही है ?

सहसा, कोठरी का दरवाजा खुला और परिचित सी मानुष गन्ध कोठरी में लौट आई। उसकी आँखें इस गन्ध से जा चिपकीं। उसने देखा, वह गन्ध दवे पाँव झंपोली के पास पहुँची और झंपोली का ढक्कन थोड़ा सा सरक गया। कोठरी रोशनी से भर गई थी। जब तक वह कुछ देख पाती, मानुष गन्ध उल्टे पाँव लौटी और कोठरी के दरवाजे पर जाकर ठिठक गई। फिर ठमक कर पलटी और कोठरी को दरवाजा बन्द हो गया।
वह औरत कोठरी का दरवाजा खोलकर जिस दिन बाहर निकली एकमुश्त, धूप रोशनी, हवा और हलचलों के बीच खुद को पाकर अचकचा गई। उसने इन हलचलों को पहचानने की कोशिश की। इतनी बड़ी हवेली में इतनी सारी हलचलें थीं कि वह जब तक एक को पहचानती दूसरी सामने आ खड़ी होती। ज्यादातर हलचलें हाथ जोड़े खड़ी मिलतीं और वही पाती कि वह इस हवेली कि मालकिन है। इस बात की तस्दीक उस औरत ने भी की, झंपोली का ढंक्कन खोलते हुए, जिसके हाथों में रोशनी की कतरा चिपका रह गया था, मैं तुम्हारी बुआ सास हूँ। दो चार दिनों बाद चली जाऊँगी। फिर तो तुम्हें ही संभालनी है यह हवेली !’’

बुआ जब तक हवेली में रहीं अपने दोनों हाथों को रगड़ती रहीं। हाथों में चिपके रोशनी के कतरे छुड़ाती हुई वह अक्सर फुसफुसाती, ‘‘उस झंपोली से बयना नहीं बँटेगा।’’
‘‘क्यों ?’’ एक दिन पूछा था उसने।
इस हवेली के लिए कम पड़ जाएगा।’’ बुआ ने होंठ काट लिए थे। उसके होंठों के बीच नीली स्याही उभर आई थी। चाहो तो कलम डुबोकर इबारत लिख डालो।’’
उसने आशंका जताई थी, ‘‘कोई है, जो उस झंपोली को टटोलता रहता है।’’
बुआ हँसी थी, उसकी हँसी के भीतर हँसी थी, ‘‘मैं जानती हूँ। हवेली में हर जगह होता है वह !’’
‘‘क्यों होता है वह ?’’ वह सहम गई थी।

‘‘वह हवेली की हवा है। कहीं भी हो सकता है वह।’’ बुआ के होंठों पर उभरी इबारत उसके लिए अबूझी ही रह गई थी।’’
बुआ के होंठों पर इबारतें उभरतीं। वह औरत उन इबारतों को आपस में जोड़ती और पाती की उनके अर्थ नहीं खोल पा रही है वह। रहस्य-रोमांच की अकथ कथाओं में घिरी वह बुआ को घेरने की कोशिश  करती तो बुआ गहरी चुप्पी में चली जाती। बुआ की अभद्य चुप्पी उस दिन टूटी थी, जिस दिन वह हवेली से बिदा होने लगी थी। तर-ब-तर आँसुओं में डूबी बुआ ने उसे अंकवार में भेंटते हुए इस कदर भींच लिया था, गोया अपनी जान उसके जिस्म में डाल देना चाहती हो। वह अबोली आवाज़ उसकी आत्मा में अटक गई थी।

वह औरत अपनी आत्मा में अटकी उस आवाज़ को धीरे-धीरे महसूस करने लगी थी। चप्पे-चप्पे से बेआवाज़ बयान बावस्ता थे। ज़र्रा-ज़र्रा में दुखान्त दर्ज थे। वह तमाम दुखान्तों को जमा करती और अपनी कोठरी के कोने में रखी उस झंपोली में डाल देती जिसमें रोशनी भरी पड़ी थी। अँधेरे एकान्त में वह एक-एक दास्तान को पढ़ती और उनके दुखान्तों में स्वयं को शामिल पाकर गहरी उदासी से भर जाती।
 
वह इस हवेली में अकेली औरत थी। उसके अकेलेपन में कोई सुरंग नहीं थी, जिससे होकर वह कहीं आ जा पाती। वह ठहरी हुई थी-ध्वनियों और धुँधलकों के बीच। वह ठगी हुई थी-चेहरों और चाकरों के बीच। चेहरे दिखते। चाकरों की शक्ल में। चाकर दिखते, चेहरों की शक्ल में। सबके नाम थे। सबकी सूरतें थीं। फिर भी सबकी एक ही पहचान थी। हाथ जोड़े, गर्दन नवाए, पीठ झुकाए। उनकी पीठ पर पीड़ा के पहाड़ थे। उनकी गर्दनों पर हवेली की गर्द थी। वे सबके सब दास्तानों के दुखान्त थे।
उस औरत ने महसूस किया कि वह स्वयं एक दुखान्त कहानी का आरम्भ हो चुकी है। अवाक् वह यह समझ नहीं पाई कि कौन लिख रहा है यह कहानी ? नियति ? नहीं। हर कहानी नियति के माथे मढ़ देना उसे जँचा नहीं। फिर कौन ?
‘‘हम ही लिखते हैं लोगों की किस्मत। लोगों की कहानी !!’’ यह हवेली में हरदम गूँजती वह हिंस्र आवाज़ थी जिसे सुनकर सहम जाती थी चीज़े। चेहरे स्याह पड़ जाते थे। साँसें थम जाती थीं।

वह आवाज़ कोड़े बरसाती थी। बात-बात पर। लहूलुहान आत्माएँ हवेली में चीत्कार करतीं। चीत्कारें जितनी चरम पर होतीं, हवेली हहास बाँधकर हँसती। इस हँसी में आतंक था। इस आतंक का दूर-दूर तक बोल-बाला था। कहते दस कोस आगे। दस कोस पीछे। कोसों व्याप्त यह आतंक सिर्फ उस दिन घुटनों के बल नज़र आता, जिस दिन अंग्रेज़ हाकिम का अमला हवेली में आता। वह आतंक रीढ़ की हड्डी अपनी कोठरी में छोड़कर अंग्रेज हाकिम की खुशामद में जुट जाता, ‘‘हुजूर की शान बनी रहे, ज्वाला सिंह हर खिदमत को हाजिर है।’’
‘‘ज्वाला सिंह, तुम्हारी शान भी तभी तक है, जब तक हमारी। अंडरस्टैड ?’’ अंग्रेज़ हाकिम ज्वाला सिंह की औक़ात जता देता।

दाँत निपोरकर खड़े ज्वाला सिंह सूखे पत्ते की तरह थर-थर काँपते रहते। जब तक अंग्रेज हाकिम हवेली में रहता ज्वाला सिंह की जबान लड़खड़ाती रहती। लेकिन अंग्रेज़ हाकिम के जाते ही ज्वाला सिंह कहीं ज्यादा क्रूर हो आता, ‘‘ज्वाला सिंह की शान को कोई बट्टा लगाए तो खाल खींच लूँगा।’’

वह औरत भीतर तक हिल जाती। खिंची हुई खालें उसके इर्द-गिर्द लटकती दिखतीं और वह अपनी कोठरी में कैद हो जाती। घुप्प अँधेरे के बीच वह झंपोली का ढक्कन खोलती तो खिंची हुई खालवाला एक जिस्म बाहर निकल आता। मांस के लोथड़े से लहू की धार निकलती और फर्श लहू से भर जाता। लहू में लथपथ वह औरत उस जिस्म के हिलते होंठों को देखती। हर्फ़-दर-हर्फ़ एक दुखान्त उसके सामने खुलने लग जाता। उसे आश्चर्य होता, कोई कहानी खुद को सुनाने के लिए किस क़दर बेचैन अतृप्त आत्मा की आवाज़ अपने अन्दर उभरती पाती-गाँव-गाँव नाचता गाता था मैं। जिस्म में लोच थी। कंठ में जादू। पाँवों में बिजली। घुँघरू बाँधकर महफिल में उतरता था। लोग हाय-हाय करते थे। भूल जाते थे सभी कि नेटुआ हूँ जाति का। खींचकर अंकवार में भरते हुए बड़कवा भी चुम्मा चाटी से बाज नहीं आते थे। यह ज्वाला सिंह तो मरता था मुझ पर। जब-तब हवेली में खींच लाता था। देह की धुरकस निकाल देता था। घरवाली थी। बेटा था। भरा-पूरा घर था। घर बार छोड़कर पड़ा रहता था। हवेली में। बर्दाश्त नहीं हुआ घरवाली को। एक रात फांसी लगाकर मर गई बेचारी। आग देकर लौटा कि आग लेकर लौटा। उस दिन दिल दिमाग जलता रहा धू-धूकर। ज्वाला सिंह को लगा, भस्म हो जाएगा मेरी क्रोधाग्नि में। उसी रात उसने हवेली में बाँधकर मेरी खाल खींच ली थी।’’

‘‘उसी नचनिया का बेटा है मउगा।’’ झंपोली का ढक्कन सरका कर जाती मानुष-मन को एकटक महसूस करतीं और उस औरत को किसी ने टोका था, तो वह सिहर गई थी।
‘‘कौन हो तुम ? बदहवास उस औरत ने पूछा था, ‘‘जो तुम हो, वही मैं हूँ ! झंपोली की रोशनी में खड़ी एक औरत की आँखों में आँसू टप-टप बह रहा था, ‘‘उसी आतंक से ब्याही गई थी मैं। उसी आतंक ने मार दिया मुझको। इसी कोठरी में घुट-घुटकर मर गई एक दिन।’’
वह औरत सिहर गई। झंपोली की रोशनी में खड़ी औरत की जगह खुद को देखकर उसकी आत्मा काँप गई। उसने हड़बड़ाकर झंपोली का ढक्कन बन्दकर दिया।
उस दिन उसने मानुष गन्ध को चेताया, ‘‘मउगा, फिर कभी मत खोलना झंपोली का ढक्कन।’’


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