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उपन्यास >> अमृतफल

अमृतफल

मनोज दास

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :139
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2442
आईएसबीएन :812670778x

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उज्जयिनी के आमोदप्रिय और लोकप्रिय राजा भर्तृहरि को एक योगी ने अचानक थमा दिया एक अमृतफल। दीर्घजीवन और यौवन प्रदान तथा मृतसंजीवनी उसका गुण। राजा ने वह फल लेकर दिया अपनी छोटी रानी को।

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘अमृतफल’ आदिम काल से निरन्तर पीढ़ी-दर-पीढ़ी व्याप्त मानव चक्र की कभी प्रकट-कभी अप्रकट आशा और आकांक्षा का प्रतीक है। यशस्वी ओड़िया उपन्यासकार मनोज दास की यह कालजयी कृति हिन्दी पाठकों के लिए एक उपहार की तरह है। राजा भर्तृहरि के विषय में प्रचलित किवदंति से शायद हिन्दी का कोई-कोई पाठक ही अनजान होगा लेकिन यह उपन्यास उस कथा को नये ढंग से न केवल विश्लेषित करता है बल्कि समकालीन जीवन के पात्र अमरकान्त और उसकी बेटी मनीषा की कहानी को साथ-साथ लिए चलता है, क्योंकि वर्तमान की आँख के बिना अतीत को देखने की शक्ति आयात करना लगभग असंभव है। यह उपन्यास वर्तमान की नजर से अतीत को देखने का एक सफल प्रयास है। अतीत से लेखक ने प्रेरणा प्राप्त की है और वर्तमान को उसके साथ अंर्तसंबंधित कर पाठकों को एक बेहद पठनीय कृति प्रदान की है। यह ऐतिहासिक कृति नहीं बल्कि ऐतिहासिकता से प्रेरित एक सर्जनात्मक प्रयास है। सर्जनात्मक अनुवाद का स्वाद कैसा बिरला होता है यह इस उपन्यास के पाठ से पता चलता है जो अपने प्रवाह में यूँ बहा ले जाता है कि आप पूरा उपन्यास पढ़े बिना चैन नहीं पाते।

अमृतफल

 

एक प्रायोपन्यास : संक्षिप्त कैफियत

 

उज्जयिनी के आमोदप्रिय और लोकप्रिय राजा भर्तृहरि को एक योगी ने अचानक थमा दिया एक अमृतफल। दीर्घजीवन और यौवन प्रदान तथा मृतसंजीवनी उसका गुण। राजा ने वह फल लेकर दिया अपनी छोटी रानी को।

तीन दिन बाद नगर की सुन्दर नर्तकी ने फल लाकर पुन: राजा को भेंट किया-गोपन में।
अचम्भे में भर गए राजा कि यह अनन्य फल नर्तकी तक कैसे पहुँचा ? अनुसन्धान से जो पता चला, वह विमर्षकारी था। उन्होंने छोटी रानी को सर्वाधिक प्रेम कर फल उन्हें दिया था। पर छोटी रानी ने उसे उपहार में अपने प्रियजन एक युवक अमात्य को दे दिया। अमात्य थे नर्तकी के प्रेमाकांक्षी। अत: फल जा पहुँचा नर्तकी के हाथ में।

राजा की चेतना में हड़कंप पैदा कर दिया इस आविष्कार ने। अपनी धारणा पर कहाँ तक निर्भर किया जा सकता है ? मनोगत, भागवत धारणा के अन्तराल में रहनेवाला सत्य सम्भव है क्या ? प्रश्न-जर्जर राजा ने शासन भार योग्य अनुज विक्रमादित्य पर डालकर परिव्रज्या व्रत ले लिया। कवि थे, कुछ दिन बाद बन गए योगी। (‘श्रृंगार शतकम्’, ‘नीतिशतकम्’ और ‘वैराग्यशतकम्’ उन्हीं की कृतियाँ हैं।)

इतना ही भर्तृहरि के बारे में प्राचीन किंवदन्ती का मर्म है। हालाँकि इसके कमोबेश भिन्न-भिन्न संस्करण प्रचलित हैं। एक संस्करण के अनुसार उक्त रानी का नाम था पिंगला। दूसरा संस्करण कहता है-पिंगला पहली रानी थी उनकी-जो शिकार के समय राजा की मृत्यु की झूठी खबर पाकर तुरन्त प्राणशून्य हो जाती है। जिस रानी के लिए राजा का वैराग्य हुआ, वे हैं सिन्धुमती !

इस लेखक ने दूसरी किंवदन्ती को ग्रहण किया। अरसे से यह किंवदन्ती महत्त्वपूर्ण लगती रही। अजीब रूप में एक दिन हरिद्वार में अब तक चिन्हित भर्तृहरि गुफा का संधान मिला। बाद में उज्जयिनी के उपकंठ में स्थित भर्तृहरि की स्मृति से भरी गुफा-उनका प्रथम साधना स्थल-देखने का और वहाँ कुछ समय बिताने का अवसर मिला।
हरिद्वार वाली गुफा में ही लेखक को इसकी रचना की प्रेरणा मिली। उज्जयिनी के उपकंठ में गुफा के दर्शन और वहाँ कुछ समय निमग्न रहने के बाद-एक दिन रानी सिन्धुमती के आचरण की व्याख्या, सच मानो महाकाल में अगणित अप्रकाश्य तथ्यों में से एक-लेखक की चेतना में उद्भासित हुई (जो बीसवें परिच्छेद की विषय-वस्तु है।) इस उद्भासन के अनुसार सिन्धुमती का उद्भासन कभी-कभी इस लेखक की चेतना में निरूपित हुआ है।

लिखने को जब प्रस्तुत हुआ, अप्रत्याशित रूप में प्रेरणावलय में चले आए अपरिचित पर अति परिचित अमरनाथ। उनके पीछे उनकी बेटी मनीषा। अमरनाथ को टालने की चेष्टा कर भी, नहीं टाल सका। मानो वे कह रहे थे-मैं वर्तमान हूँ। मेरे बिना किस आँख से अतीत को देखने की शक्ति आयत्त कर सकोगे ?

उपन्यास लिख रहा हूँ या कुछ और, इसकी परवाह नहीं की। कभी-कभी लगा यदि प्रायोपन्यास (उपन्यास जैसा कथा साहित्य) के नाम से सृजनात्मक लेखन की कोई विधा होती, यह उसी में आती।
नम्र और स्पष्ट भाव से कहना चाहता हूँ-यह कोई ऐतिहासिक उपन्यास नहीं-प्रेरणा प्रस्तुत एक उपन्यास (प्रायोपन्यास) है। इसकी वास्तविकता तथ्यों पर आधारित नहीं। इस वास्तविकता का आकलन पाठक तथ्य या इतिहास के मानदंडों से भिन्न मानदंड के प्रयोग से करेंगे-ऐसी आशा है।

भर्तृहरि के समय के बारे में इतिहासकारों में बहुत मतभेद है। ई.पू.पहली सदी का समय इस लेखक ने स्वीकार किया है। तब तक श्रीमद्भगवद्गीता, महाभारत के अंश रूप में प्रचलित नहीं हुई। उसका अध्ययन जिज्ञासुओं (इस ग्रंथ के गौण पात्र शिवदास जैसे) के बीच सीमित है।

‘अमृतफल’ अपने प्रिय पाठकों को प्रदान कर इस बात का अनुभव हो रहा है कि मैंने अपना दायित्व सही ढंग से निभाया है। किमधिकम्।

एक

 

रविवार की शाम। कनाट सर्कल की भीड़ में अचानक अमरनाथ की चेतना में बहुत कुछ हो गया। वे समझ ही नहीं पा रहे थे कि इसकी तुलना तूफान के साथ की जा सकती है या भूकंप के साथ। किसलिए वे आए थे और किस प्रतिष्ठान में आए थे ? बगैर ड्राइवर के खुद गाड़ी चलाकर आने में उनका क्या उद्देश्य था, कुछ याद नहीं आ रहा। शायद यह अजीब अनमनापन, ये खतरनाक विस्मृति घर से चलने से पहले ही शुरू हो गई थी, यही उनको अनुमान हो रहा था। शायद बाहर आने का हेतु ही यह अहेतुकता है, इस अनुमान तक पहुँच फुटपाथ से फिर धीरे-धीरे अपनी कार तक आए। उस पर झुक गए। सामने चमचमाती दुकानें। रास्ते पर आने-जानेवालों की घनी भीड़ की तरफ देखते रहे।

ये असंख्य चलते-फिरते लोग-सब लोभातुर हैं, आशायी हैं। एक पोशाक की दुकान के सामने एक अधेड़ की आँखों और काँच के उस पार झूलती बेढंगी जैकेट के बीच मानो एक अदृश्य खींचतान चल रही है। हालाँकि एक बार उस अधेड़ ने अमरनाथ की ओर देखा। मगर उस देखने में जान नहीं थी। यदि अमरनाथ का नीचे का आधा अंग आदमी होता और ऊपर का आधा अंग एक भालू होता, उस समय एक अधेड़ की निगाह में वह फर्क पकड़ाई में नहीं आता। वे थे जैकेट निविष्ट।
उस भले आदमी ने पर्स निकाल पैसों का हिसाब लगाया और फिर जैकेट की ओर देखने लगे।

उस सज्जन की इच्छा और उन्हें आलिंगन को तैयार दिखते उस जैकेट में एक मजबूत चिकने काँच का अन्तर था। एक दृष्टि से देखें तो जैकेट की कीमत और प्रौढ़ द्वारा देने को तैयार मूल्य में अन्तर था।
अधेड़ दुकान के दरवाजे को छोड़कर एक कदम आगे बढ़े। अमरनाथ अचानक चौंक उठे। मानो अधेड़ के हाथ अलौकिक भाव से काँच के उस पार पहुँच गए हैं। जैकेट खींच ले आए और अचानक कंधे पर डाल चलने लगे, एक बड़े बन्दर की तरह।
‘‘अरे-अरे ! फुसफुसाए अमरनाथ। फिर चौंक उठे वे। जो देखा उन्हें लगा यह सच नहीं है। आलिंगनमुखी वह जैकेट वैसे का वैसा झूल रहा है। हजारों आने-जानेवालों के मन में लोभ पैदा करने और हजारों को हताश करने का उसका व्रत ! कोई-कोई हताश लोभी जैकेट पर से आँखें हटाते समय कहेगा-‘‘धत्, इसे जो पहनेगा वह एक ग्रेजुएट बने गधे-सा दिखेगा।’’ कोई-कोई कहेगा-‘‘ये जैकेट न पहनने से मेरा व्यक्तित्व ही छोटा पड़ा गया।’’

परन्तु अमरनाथ ने किसी को ऐसा कहते नहीं सुना था। वह अधेड़ जैकेट को कसकर पकड़े हुए दौड़ने की तरह, इस समय ये बातें अलीक लग रही हैं। तो उन्हें सचमुच सुनने और देखने जैसा कैसे लगा ? इतनी बड़ी श्रुति और दृष्टि के भ्रम का क्या रहस्य है ?
तो अधेड़ जैकेट के प्रति अधिक आसक्त होकर उसे जकड़कर दौड़ने की कल्पना कर रहे थे। भाव जगत की उस सम्भावना को वास्तविकता बात के रूप में देख लिया अमरनाथ ने।
हालाँकि अपना दिमाग खराब हो चलने के कारण सामने की घटनाएँ इस तरह दिखी हों। मगर भाव राज्य में बताई सम्भावनाओं को स्थूल रूप में अपघटित को देख पाना अपने दिमाग के उत्तम होने के लक्षण हों।
पर उनकी चीख न ड्राइवर ने सुनी और न किसी राहगीर ने। पास ही एक मोटे तार पर सन्तुलन बनाकर बैठे काले कौवे ने भी उधर नहीं देखा। समझ गए कि वह चीख अनुच्चरित थी। बाद में काली स्याह जैकेट पहन रखी है काले कौवे ने। उसकी चिकनाई पर नक्षत्र या इन्द्रधनुष भी प्रतिबिम्बित हो सकते हैं। क्या इसी गर्व में कौआ उनकी ओर तिरछे देख उन्हें हेय समझता है ? कौवे पर गुस्सा आ गया, हाथ उठा लिया। निकट के पेड़ की डाल पर उड़कर चला गया कौआ।
कौवे के जैकेट पर उन्हें ईर्ष्या हुई ? तब तो काँच के उस पारवाले जैकेट पर उन्होंने खुद लोभ किया है। प्रौढ़ ने जो किया, वे उसकी सम्भावना भर तो नहीं कर रहे ?

मगर जैकेट पर लोभ का कोई तर्क न था। जितनी और जितने किस्म की जैकेट उनके पास हैं, उनसे एक जैकेट प्रदर्शनी की जा सकती है। इस जैकेट को उसमें शामिल करने में जरा भी दिक्कत न हो।
वे समझ गए, लोभ के संग प्राचुर्य या सम्बन्ध आपेक्षिक भर है। लोभ तो एक हेतु-निरपेक्ष भाव है। वे बारह व्यावसायिक संस्थाओं के मालिक हैं। अथवा मुख्य भागीदार हैं। फिर भी पिछले महीने एक दिवालिया संस्था को हाथ में लिया है। श्रममन्त्री जी ने उनके कदम को दिवालिया संस्था के कर्मचारियों और मजदूरों के प्रति निर्मल दया कहा, मगर अमरनाथ जानते हैं-यह तो उनका निर्मल लोभ भर है। उन्हें वैसा दयालु चित्रित करने के पीछे उनके मन में आगामी चुनावों के लिहाज से उनके कुछ धन में मन्त्रीजी को लोभ हो रहा था, इसमें कोई शक न था।
बचपन में मिठाई के प्रति उनमें लोभ था। पढ़ाई के दिनों में परीक्षा में पहले नम्बर पर आने और ईनाम जीतकर प्रशंसा पाने का लोभ था। बाद में सुन्दरता के तारतम्य की बिना परवाह किए वे कई कन्याओं को अपना बनाने के लोभ कर चुके थे। अन्त में जिस सुन्दरी से विवाह किया, उस कन्या के माता-पिता की सम्पत्ति पर उनमें जबरन लोभ का संचार कराया था उनके निर्मल शुभाकांक्षी पितृदेव ने।

पल-भर बाद उन्हें लगा, लोभ के उत्ताल सागर में वे बह रहे हैं। जब वे स्वयं लोभी हैं, तो उनका उस उत्ताल सागर की एक लहर होना स्वाभाविक है, तो फिर असहाय सा कौन बह रहा है ?
‘‘देखो अमरनाथ, एक व्यापारी तुम्हारी समूची सत्ता को निगलकर हजम कर दे, यह अच्छी बात नहीं।’’ दस वर्ष पहले मित्र बलदेव ने राय दी थी।
‘‘कौन व्यापारी ? मेरे स्तर के ज्यादातर उद्योगपति और व्यापारी मुझसे डरते हैं। निगल कौन जाएगा ?’’ आश्चर्य और आहत अमरनाथ ने पूछा।
‘‘तुम्हारे अपने भीतर की व्यापारी सत्ता की बात कहता हूँ, अमर ! याद रखो, वह तुम्हारी सत्ता का एक अंश भर है। उसे समग्र मत होने दो। कभी तुम अच्छा साहित्य लिखा करते थे। एकदम भूल गए ! साहित्य को भूल गए कोई बात नहीं, जीवन के लक्ष्य को लेकर बीच-बीच में प्रश्न करना न भूल जाना !’’
मगर अमरनाथ वह परामर्श भूल गए थे। आखिर आज उनकी सत्ता का विद्रोही बड़ा भाग मानो उन्हें अब तक काबू किए व्यापारी को छटपटाने का संकल्प कर चुका था।

लोभ से जर्जर है सारा वातावरण। उस तरफ की दुकान में जो अश्लील गीत जोरों से चिल्ला रहा है, कोई-कोई विवेकी सज्जन कुछ दिन प्रतिवाद में हो-हल्ला कर, आखिर अब जिसे सह चुके हैं, फालतू लोभ से उसका सृजन और प्रसार है। आकर्षक शब्दों में घोषित दुकानों के नामों के पीछे छुपी है खतरनाक लोभ की परम्परा।
हर व्यवसाय कब्जे में करने के लिए उन्हें करीब सौ लोभातुरों को सन्तुष्ट करना पड़ा है।
राजधानी के उस सबसे चिकने-चुपड़े इलाके में सारे विचरणशील सभ्य सुन्दर नर-नारी अचानक लोभ के अगणित कीड़े बनकर बिलबिलाते-से लगे। सबकी आँखों से, नाक से, मुँह से निरन्तर टपक रहा था विषाक्त लोभ। वह अदृश्य भाप क्रमश: ऊष्म से ऊष्मतर होने लगी। अमरनाथ मानो उबल पड़ेंगे। ऋतुचक्र के आवर्त्तन की तरह उनकी मानसिक ऋतु में कभी हर्ष, कभी विषाद, कभी शान्ति, कभी अस्थिरता दिखाई दे रही थी। पर आज की तरह वे इतने नहीं उबले कभी।
जबकि आज खुश होने की बात है। उन्होंने जिसे अपेक्षाकृत कम महत्व दिया उस संस्था ने आशातीत लाभ दिखाया है। सुबह कुछ चेक पर नजर फिराते समय अचानक मन में विषाद भर गया। इस बीस लाख के लाभ का वे करेंगे क्या ? उनके नाम, सुख-सुविधा, रुतबे में कितना फर्क कर सकेगा अचानक का यह इतना धन ?

एक दिन बीस रुपए उधार लेने के लिए हफ्ते भर पन्द्रह लोगों तक उन्हें दौड़ना पड़ा, फिर भी नहीं मिले। ‘‘मेरे पास होते तो क्या नहीं देता ?’’ कहकर एक बुजुर्ग ने जेब से कलम निकाली, साथ में क्लिप में जुड़ा सौ का नोट बाहर आ गया था।
अमरनाथ को अचानक लगा, वह नोट छीनकर दौड़ रहे हैं तीर की तरह। सिर चकरा गया। पलभर के लिए होश खो बैठे। आँखें खोलीं तो जेब में नोट रखते-रखते वे बंधु बिन माँगे कैफियत दे रहे हैं-अचानक निकल आए नोट के बारे में।
अमरनाथ समझ गए-छूआ भी नहीं, नोट लेकर दौड़ना दूर की बात थी। पलभर के लिए उस दिन के मतिभ्रम की आज पुनरावृत्ति हुई। मानो बीस लाख रुपए टोकरी में रख अपने चार मंजिले घर की छत पर से उड़ा दिए हैं। सारे नोट बुलबुले बन गए। बचपन में रीठा रस में फूँक लगा करके दोस्त-यार सैकड़ों बुलबुले उड़ाते हवा में।
फिर एक-एक कर बुलबुला फटने लगा। धन से कमाई मौज जैसे जल्दी ही बिला जाती है।

धन के प्रति कभी-कभी वे प्रतिशोध परायण बन जाते। शैशव में ही उन्हें किसी सन्त ने उपदेश दिया-‘वत्स ! धन कमाकर तुम सुख और शान्ति पाओगे, ऐसी दुराशा न रखना।’ भिन्न शब्दों का प्रयोग और शैली में यह बात उन्होंने कई बार सुनी है। फिर भी पैसे के पीछे हाँफते हुए दौड़ रहे हैं। शुरू में कमाई जमा करने का नशा था। इसके बाद जोड़ी गई सारी विशाल सम्पत्ति एक दिन अर्थहीन लगी। अत: अपने शौक पूरे करने या जरूरत मिटाने में जुट गए। कोठी बना डाली। अच्छा लगा-मगर तीन-चार ही दिन के लिए। अट्टालिका में सुख-सुविधा की सारी व्यवस्थाओं के बावजूद सहसा अपने आप पहले वाले युग में उतर आए।
एक महँगे डिजाइन की विदेशी कार के प्रति उनमें गहरा लोभ था। कभी ऐसी कारवालों के पास बैठकर गंतव्य स्थान पर पहुँचने के बाद, कार का दरवाजा खोलने के लिए अनभ्यस्त हाथ से उपाय टटोल रहे थे। तिरछी निगाह में कारवाले उन्हें देखते रहे, जरा मुस्कुराकर एक शिक्षकवाले कायदे में उन्होंने दरवाजा खोल दिया। वह अपमान वे भूल न सके। अचानक उन मालिक ने दुर्दिन में वह कार खरीदने का मौका वरदान की तरह उन्हें दिया। मालिक ने जो दाम माँगे, उन्होंने बिना मोल-भाव के चुका दिए।

वह महँगी कार लेकर खुद गाड़ी चलाना सीखा। बेटी मनीषा ने उन्हें कहा-‘‘बापू ! इतने दिन बाद यदि गाड़ी सीखने लगे, ऐसी सुकुमार गाड़ी की क्या बलि चढ़ाएँगे ?’’
‘‘तू क्या..तुझे ऐसी गाड़ी दहेज में नहीं दे सकूँ..ऐसी आशंका कर रही है ?’’ उन्होंने प्रत्युत्तर में कहा।
मनीषा ने नकली क्रोध में कहा-‘‘आपको कभी दहेज भी देना होगा, यह कैसे सोच लिया आपने ?’’
‘‘ऐसा क्यों सोच रहे हैं ?’’ यह थी बापू पर बेटी की आदतन हमले की भाषा। गुस्सा, विस्मय, दु:ख- कोई भाव व्यक्त करने के लिए वह यह बात कहे- उसका सुन्दर चेहरा-छलकते नयन उस बात को प्राणवन्त और खूब प्रभावशाली बना देते। चेहरे का यह सारा आकर्षण पत्नी सरोजिनी में था, मगर सांकेतिक रूप में। पर मनीषा का व्यक्तित्व मानो उन सारे संकेतों की पूरी व्याख्या है।
एक बार अमरनाथ के चलचित्र प्रायोजक मित्र बिशनलाल ने एक स्कूल के नाटक में मनीषा का अभिनय देख खूब प्रशंसा की। अपनी तरफ से अगले सिनेमा में अभिनय का प्रस्ताव दिया तो अमरनाथ पुलकित हो गए। उन्हें आशा थी बेटी और भी खुश होगी। उन्होंने बात को यथासम्भव नाटकीय ढंग से रखा था। बेटी ने एकदम यथार्थवादी ढंग में कहा-‘‘बापू, आप यह सोच कैसे रहे हैं कि बिशनजी काका और आप जैसे निमन्त्रित लोगों के आगे नाटक किया तो मामूली कैमरे के आगे वही करूँगी और अगले दिन शहर भर में भले-बुरे, सभ्य-असभ्य सब लोग मान लेंगे कि मैं उन्हें खुश करने के लिए नाच रही हूँ ?’’

उन्हें बार-बार मात देने की कला बेटी ने कहाँ से सीखी ? वे खुद जानते हैं-अपने व्यक्तित्व में कोई शौकीन जटिलता नहीं। पत्नी तो आधी देहातिन थी। ऐसी सरल पट्टभूमि से यह विलक्षण कैसे पैदा हुई ?
बेटी के व्यक्तित्व के आगे बार-बार खुद को न्यून पाते। मनीषा जितनी उज्जवल से उज्जवलतर हो रही है, उनमें एक मृदु आतंक समान्तर रूप में बढ़ रहा है। क्यों ? पता नहीं।
उनका वह अनजानपन उनकी विचित्र और विह्वल मानसिकता पर एक और धक्का दे गया।
नहीं, यहाँ यों खड़े रहने का कोई अर्थ नहीं। वे जिन्हें नहीं जानते, पर शायद उन्हें पहचाननेवाले लोग उनकी ओर कुतूहल से देख रहे हैं। जबकि ऐसे शहर में अपना स्वार्थ न हो तो कोई किसी को न पूछे।
वे गाड़ी में बैठे। पार्किंग इलाके से बाहर आकर अनुभव हुआ- कनाट सर्कल का यह गोल रास्ता कई वर्ष पहले बना था, खास आज उनकी सेवा में आने के लिए। उन्होंने चक्कर में गाड़ी चलाई। उससे मिला अनास्वादित एक अपूर्व सन्तोष। चक्कर भी जोरदार व्यवस्था है। इसका न आरम्भ है और न अन्त। सुबह से शाम, शाम से भोर भी एक चक्र है। जन्म-मृत्यु एक चक्र है, सुख से दु:ख, दु:ख से सुख भी एक चक्र है।

तीसरे चक्कर में उन्हें लगा, यह काल उन्हें जितना सुख देने की बात थी, दे चुकी है। उस सुख का परिणाम खास आशाजनक नहीं। सुख का स्तर गिर चुका है, विदेशी कार के पहलेवाले युग तक।
उनके आगे जीन पहने एक लड़की मोपेड पर जा रही है। एक बड़ी-सी काली प्लास्टिक क्लिप में सजे उसके रेशमी बाल झिलमिला रहे हैं। वह मनीषा की तरह अमीर की बेटी निश्चित ही नहीं है। शायद कहीं पत्रकार हो। गति के प्रवाह में मिलकर कहाँ जा रही है ? जीवन-संग्राम की सूची में जुड़ा कोई काम या जरा-से सुख की सिहरन की तलाश में ?
अमरनाथ खुद को समझा रहे थे, ऐसे कुतूहल के पीछे कोई तर्क नहीं हुआ करता। फिर भी झिलमिलाते बालों वाली का एक बार चेहरा देखने की मन में तेज इच्छा हुई। उन्होंने गति को कुछ बढ़ाकर मोपेड के समान्तर गाड़ी की। तभी एक युवक मोपेड बढ़ाकर बीच में आ गया। खूब चिढ़कर कार, जितना सम्भव था, उनके पास ले गए। युवक ब्रेक लगते-लगते सन्तुलन खो बैठा, लड़की की ओर पूरा झुक गया। दोनों रुक गए।
रुक गए अमरनाथ भी। लड़की उस लड़के को थप्पड़ मारेगी या दो कड़वी बातें कहकर छोड़ देगी ? वह कुछ भी करे, अमरनाथ उसे समर्थन देंगे।

हाय ! लड़की हँस रही है ! शायद युवक खेद व्यक्त कर रहा है। अमरनाथ की ओर उनकी निगाह नहीं। दोनों के इस हालत में पहुँचने में अमरनाथ के अवदान के बारे में वे जान नहीं पाए।
अमरनाथ ने तुरन्त गाड़ी आगे बढ़ा दी। वरन् तेज कर दी। तेज हवा में आकाश में मेघ घिर आने की तरह उनका मन विषाद में भर गया। दो बार उन्होंने फिर चक्कर लगाए, बाद में पूर्व पार्किंग स्थान की ओर लौट आए। कार से निकलकर फुटपाथ पर जनसमूह की ओर आँखें लगी रहीं।
आदमी उन्हें अजीब लग रहे। अपनी टाई को सलाहकर राह चलते मनोरम सूट पहने युवक अचानक एक बड़े खच्चर की तरह का प्राणी लगा। सुन्दर साडी़ में युवती आजकल लुप्तप्राय एक गिद्ध सी लगी ! सफेद कुर्ते-पैजामे में प्रसिद्ध शराब व्यापारी-जिन्हें वे जानते हैं और सम्मान करते हैं- किसी प्रेतात्मा-से लगे। कुत्ते के गले में चेन बाँध उसे पकड़कर चल रहे एक गम्भीर व्यक्ति कुत्ते की तरह लगे और कुत्ता अपने मालिक की तरह।
‘‘असम्भव..असम्भव !’’ उन्होंने हलके से कहा। कार में बैठ सिगरेट पीता एक आदमी उनकी ओर पैनी निगाह से देख रहा था। मानो बिल में घुसा साँप उन्हें डँसेगा या नहीं-सोच रहा था।

क्रमश: सिगरेट पीनेवाले की आँखें खूब डरावनी लगी। पर अमरनाथ उधर देख ही नहीं रहे थे। फिर भी लगा कि वे आँखें दप-दप जल रही हैं। भयंकर है वह जलना। कभी भी उनपर छलाँग भर सकती है वह आग। वे जल जाएँगे।
जिस तरह जल गए भूषण कर्मकार। सिर्फ हफ्ते भर पहले।
अमरनाथ रात दस बजे तक भूषण के होटल में 14वीं मंजिल पर बैठे थे। एक साथ रात्रि भोजन भी लिया था। भूषण ने अपने एक और पार्टनर के लिए पास का कमरा बुक करा रखा था। मगर फोन पर पता चला कि पार्टनर रात में नहीं आ पाएँगे।

‘‘अमरनाथ, तुम रात में उस कमरे में सो जाओ। मानता हूँ तुम्हारा अपना कमरा शायद पाँच सितारा होटल के सबसे महँगे सूट से भी अधिक आरामदायक है। पर एक मृतदार के लिए इन दोनों में खास फर्क क्या है ? या...’’ भूषण शैतानी भरी शोख आँखों से बोला-‘‘मृतदार है तभी तो ज्यादा फर्क है...’’
अमरनाथ कई इशारे तुरन्त या फिर आसानी से नहीं समझते, सहज ही उनकी समझ में बात नहीं आती। परन्तु चेहरे पर समझने की भंगिमा दिखाते हैं। आज भी वैसा ही किया फिर भी भूषण जोर से हँसे। ‘‘अमरनाथ, तुम भद्रभाषा में कहें तो निरीह हो, अभद्र होकर कहे तो उल्लू हो। मैं मृतदार की स्वाधीनता की बात कह रहा हूँ। मगर तुम्हें और ज्यादा दिन ऐसी स्वाधीनता उपभोग करने देना अनुचित होगा।’’
‘‘मतलब ? तुम्हारा कहना है मैं स्वेच्छाचारी...’’
अब भी भूषण ने और भी जोरदार ठहाका लगाया।
‘‘अमरनाथ ! वास्तव में तुम्हारा बिदकना भी उसी निरीहता की एक दशा है। मैं तो कह रहा था तुम्हारी वह स्वाधीनता रद्द कर देनी चाहिए, क्योंकि तुम उसका उपयोग करने में अक्षम हो। तुम्हारे लिए फिर एक बार विवाह कर लेना ही ठीक होगा। तुम्हें कुल पैंतालीस ही तो हुए हैं ? तुम्हारी उमर में मैं खुद को उद्दाम युवक समझा करता था।’’
‘‘अब ?’’
‘‘अब तो युवक रहा ही नहीं।’’
‘‘केवल उद्दाम !’’
भूषण ने अट्टहास किया-‘‘तुम्हारे ये मंतव्य अनेक अफवाहों से लिए गए हैं। छि:, विश्वास न करना।’’
मगर अमरनाथ को लगा लोगों की उन अफवाहों पर विश्वास करने में ही भूषण कर्माकर को सन्तोष है। अत: वे अफवाहों का खूब नरमाई से खंडन कर रहे थे। इस शैली के कारण अफवाहें और भी रसीली हो जातीं।
रात ग्यारह बजे तक खूब हँसते रहे भूषण।

‘‘समझे, अमरनाथ !‘‘ अपने कमरे से आकर अमरनाथ को लिफ्ट में चढ़ाते समय भूषण ने कहा-‘‘मैं अगली बार दिल्ली जाऊँ तो इस बार की तरह फालतू व्यापार-वाणिज्य नहीं, इस बात का विशेष चर्चा चाहूँगा। आज तो जाओ। तुम थके हुए दिख रहे हो।’’
अमरनाथ थके न थे और वैसे दिख रहे हैं ऐसा विश्वास भी न था। फिर भी, वे लिफ्ट में घुसे और पूछने लगे-‘‘आ कब रहे हो ?’’
‘‘टोक्यो में दो दिन। लन्दन में पाँच दिन। बस। हाँ, यहाँ पहले दो दिन विश्राम कर मुम्बई लौटूँगा। आह ! विश्राम ! तब तुम से गप्पें-खासकर तुम्हारे विवाह के बारे में-यह सब विश्राम में ही है।’’
लिफ्ट का दरवाजा बन्द हो गया, भूषण की हँसी जारी थी। और वह हँसमुख चेहरा फिर दिखाई नहीं दिया। मध्यरात्रि में होटल में अग्निकांड हो गया। बारहवीं मंजिल से पन्द्रहवीं मंजिल तक सब जलकर राख हो गई थी !
‘‘अच्छा ! आपके साथ आपके मित्र कर्मकार से मिलने आई थी जो महिला...’’ दुर्घटना के अगले दिन अपराह्न में मृतकों की पहचान सूची बनाते समय होटल के एक डिरेक्टर ने अमरनाथ से फोन पर पूछा था:

‘‘मेरे साथ तो कोई नहीं गया था।’’
‘‘ओह ! तो वे आपके तुरन्त बाद आई थी। ठीक है। आपके संग आने लायक महिला वे नहीं।’’
‘‘कौन वे ?’’
‘‘यही तो मैं पूछता हूँ। भूषण कर्मकार ने अपने लिए सिंगल कमरा लिया था।’’ भूषण की आकस्मिक मृत्यु पर अमरनाथ की विमर्षता इस प्रश्न के बाद एक तरह के प्रगाढ़ विषाद में परिणत हो गई। उन्हें दूसरे कमरे में भेजने में असफल रहा तो ‘थके दिखते हैं’ कहकर भूषण ने रात में उन्हें जल्दी विदा कर दिया। कुछ सुख की आशा में। हाय !
अमरनाथ कब दुबारा कार में पहुँचे, कब उसे चालू किया, याद ही नहीं। परन्तु कनाट सर्कल पकड़ फिर से चक्रायित हो रहे थे। उन्हें पता न था कि ऐसे घूर्णन में भी एक मादकता है !
वे चौंक उठे। आज ही भूषण कर्मकार टोक्यो, लन्दन होकर यहाँ पहुँचता।

आज अमरनाथ एक तरह से स्वयं को उद्भ्रान्त और विमूढ़ अनुभव करने के साथ सोच रहे थे कि भूषण के भाग्य का कोई सम्पर्क है ? पलभर बाद उस प्रश्न का प्रच्छन्न उत्तर चेतना के ऊपरी भाग में उभर आया। भूषण संग एकात्मबोध, उसके प्रति सहानुभूति, भूषण की अचानक विकल मृत्युजनित विह्ललता और इन सबसे उपजे अनेक प्रश्न उन्हें जड़ बना रहे थे। यह अवस्था बेचैनी करनेवाली होने पर भी असह्य न थी। परन्तु उन प्रासंगिक प्रश्नों को धकेल पूरी तरह बलात्कार पर अनेक अप्रासंगिक प्रश्न धँस आए थे। जैसे: क्यों उनकी पत्नी अपने चेहरे पर जितनी भोलेपन की छाप लिए थी, वास्तव में चरित्र में थी ठीक इसके विपरीत ? यह वैषम्य अमरनाथ को सहना असह्य होने लगा था कि वह महिला परलोक क्यों चली गई ? वे जिस कन्या को छोड़ गईं, बुद्धिमानी, वाक्संयम, वाक्शैली-और व्यक्तित्व में वह क्यों माँ-बाप से इतनी भिन्न है ? और उसके सामने भला अमरनाथ खुद को क्यों इतना अप्राप्त वयस्क समझें ?

वह उध्दत गाड़ीचालक इतना लम्बा हार्न क्यों देगा ? वह हार्न उन्हें गधे के रेंकने की तरह क्यों लगेगा ?
उस दुकानदार का पेट इतना थुलथुला क्यों है? क्यों सामने खड़ा खरीददार दाढ़ी बढ़ाए इतनी सतर्कतापूर्वक उसे कुल्हाड़ी की विभक्त धार का रूप देगा ?
इतने सारे आदमी क्यों सम्भव होंगे ?
हालाँकि इस आखिरी प्रश्न पर अपना विवेक एक और ही धारणा पैदा कर रहा था: कितने हजार करोड़ आदमी जन्म लेकर मरने के बाद उन कुलबुलानेवालों में से एक तू जैसा पैदा हुआ ? अगणित आदमी सम्भव न होकर केवल कुछ वशिष्ठ सुकरात, कंफ्यूसस, ईसा या बुद्ध ही इस पृथ्वी पर विचरण करते, तो तेरी सत्ता कैसे सम्भव हो पाती ?
हालाँकि इसका उत्तर उनके मन ने दिया एक अन्य प्रश्न के माध्यम से-
मैं सम्भव न होता तो मानव जाति या पृथ्वी का क्या हानि-लाभ होता ? सुकरात या बुद्ध कोई सम्भव न होता तो क्या नुकसान हो जाता ?

दरअसल, आज से 25 वर्ष पहले उन्हें अचानक एक अभिनव प्रेरणा मिली थी। उनके एक दुर्बल प्रेम निवेदन-वह प्रेम बिल्कुल भौतिक नहीं यह बात प्रेरणास्पदा के आगे शपथ लेकर घोषणा करने के बावजूद-प्रत्याख्यान कर दिया गया-वे पन्द्रह दिन तक अन्तर्मुखी हो गए। उसी अवस्था में उनमें यह ज्ञानोदय हुआ कि पृथ्वी पर सब आदमी दु:खी हैं। कोई आज दु:खी है तो कोई आगामी कल। आज प्रेम-प्रत्याख्यान होने पर वे दु:खी हैं, कल प्रत्याख्यान करनेवाली दु:खी होगी ही होगी। किसी और कारण से न सही, उनका प्रेम प्रत्याख्यान करने पर होगी। दु:ख की इस व्यापकता और प्रबलता ने एक दिन गौतमबुद्ध को निर्वाण मार्ग का संधान दिया था। अमरनाथ अपेक्षाकृत सहज मार्ग निर्णय कर चुके थे; पृथ्वी के छोटे-बड़े सब एक निर्दिष्ट घड़ी में आत्महत्या कर लेंगे। बस ! आदमी न रहे तो दु:ख नहीं, दु:ख से परित्राण के लिए इतने प्रबन्ध, भाग-दौड़ नीति-राजनीति की जरूरत भी न रहे।

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