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आध्यात्मिक >> तीन साल

तीन साल

एंतोन चेखव

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :125
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2427
आईएसबीएन :81-267-0006-8

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कथानायक एक ऐसा नौजवान है जो संस्कारों की घुटन और थोथे हवाई आदर्शों की दुनिया में पला होने के कारण कभी अपने वातावरण से समझौता नहीं कर पाता। ‘विवाह और प्रेम’, ‘प्रेम और विवाह,’ ‘सुखी गृहस्थ्य जीवन’-आखिर ये सब भ्रमोत्पादक विचार ही हैं जिनमें वह काफी समय तक उलझा रहता है, और अन्ततः इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि ‘व्यक्ति को खुशी के विचारों को हमेशा के लिए त्याग देना चाहिए...सुख नाम की कोई चीज नहीं है...।’

Teen Saal

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

तीन साल आदर्श और यथार्थ के द्वन्द्व से परिपूर्ण एक ममस्पर्शी उपन्यास है, जिसका कथानायक एक ऐसा नौजवान है जो संस्कारों की घुटन और थोथे हवाई आदर्शों की दुनिया में पला होने के कारण कभी अपने वातावरण से समझौता नहीं कर पाता। ‘विवाह और प्रेम’, ‘प्रेम और विवाह,’ ‘सुखी गृहस्थ्य जीवन’-आखिर ये सब भ्रमोत्पादक विचार ही हैं जिनमें वह काफी समय तक उलझा रहता है, और अन्ततः इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि ‘व्यक्ति को खुशी के विचारों को हमेशा के लिए त्याग देना चाहिए...सुख नाम की कोई चीज नहीं है...।’ और तब वह पुराने ढर्रे जीवन का आदि होते हुए भी भविष्य का इन्तजार करने लगता है, क्योंकि ‘क्योंकि कौन जानता है कि भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है !’ इस उपन्यास के जरिए लेखक ने परम्परा से चली आती आदर्शमूलक भ्रान्तियों पर तीव्र प्रहार किया है।
तीन साल उन्नीसवीं सदी के महान रूसी उपन्यासकार एन्तोन चेखव की अमरकृति है, जिसका विश्व साहित्य में सानी नहीं...।

एक

सुनसान अँधेरा था, सिर्फ कहीं-कहीं खिड़कियों से रोशनी आ रही थी और पीला चाँद सड़क के दूसरे छोर के बैरकों के पीछे से उठ रहा था। लेपतेव अपने घर के सामने एक बेंच पर बैठा पीतर और पाल के चर्च की सायंकालीन प्रार्थना के खत्म होने का इन्तजार कर रहा था। उसे आशा थी कि यूलिया सरजीविना चर्च से घर जाते हुए इसी रास्ते से लौटेगी, वह उससे कुछ जरूर कहेगा और सम्भव है, वह आज की सारी शाम उसके साथ बिता सके।
 
उसे इन्तज़ार करते हुए एक घण्टे से ज्यादा हो चुका था। इस बीच उसका ध्यान अपने मास्को के फ्लैट की ओर बहक गया था-याद आ रहे थे उसके मास्को के दोस्त, उसका नौकर प्योत्र और वह डेस्क, जिस पर बैठकर वह काम किया करता था। उसने अँधेरे में घूरकर देखा-सामने थे-चुपचाप खड़े वृक्ष और वह सोचने लगा कि यह सब कितना अजीब है कि सोकोलिन्दी में एक गँवई मकान किराये पर लेने के बजाय वह इस प्रान्तीय कस्बे में आ बसा है, जहाँ सुबह-शाम चरवाहे की सीटी के बजते ही जानवर दौड़-दौड़कर गर्द के बादल उड़ाते रहते हैं।

फिर उसका खयाल उन कभी न समाप्त होनेवाली बहसों की ओर चला गया, जो वह मास्को में अपने दोस्तों के साथ किया करता था। और बहसें भी क्या-प्रेम के बगैर जीवन बिलकुल सम्भव है। प्रेम एक मानसिक बीमारी है। प्रेम जैसी किसी वस्तु का कोई अस्तित्व नहीं है और शारीरिक आकर्षण ही मुख्य है, आदि। लेकिन अगर आज उससे कोई प्यार के बारे में पूछे-वह गहरी उदासी के साथ सोचने लगा, तो उसके लिए यह समझ पाना मुश्किल है कि वह क्या कहेगा।
इसी बीच प्रार्थना समाप्त हो गयी और चर्च से भीड़ उमड़ पड़ी। लेपतेव उस अँधेरे में सड़क पर चलनेवाली स्याह आकृतियों को गहरी नज़र से देखने लगा। विशप अपनी गाड़ी में पहले ही जा चुका था और उसकी घण्टियों की आवाज़ डूब चुकी थी। चर्च के त्योहार के कारण घण्टियोंवाली मीनार पर जलनेवाली हरी और लाल बत्तियाँ भी एक एक करके बुझ गयी थीं, लेकिन सड़कें अब भी आदमियों से भरी हुई थीं, जिनमें से कुछ मकानों की खिड़कियों के नीचे रुककर बातें कर रहे थे या धीरे धीरे चले जा रहे थे। आखिर लेपतेव ने एक परिचित आवाज़ सुनी और उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगा। लेकिन यूलिया सरजीविनी अकेली नहीं थी, उसके साथ दो अन्य महिलाएँ भी थीं।
वह बड़ी ही नाउम्मीदी के स्वर में फुसफुसाया, ‘‘उफ्,...यह तो...यह तो बहुत बुरी बात है !’’
सड़क के किनारे जाकर अपनी सहेलियों से विदा लेने के लिए वह रुकी ही थी कि आँखें उठाते ही लेपतेव पर उसकी नज़र पडी।

‘‘मैं अभी आपके पिताजी से मिलने जा रहा था’’, उसने कहा, ‘‘वह घर पर मिलेंगे क्या ?’’
‘‘मैं उम्मीद तो करती हूँ,’’ उसने उत्तर दिया, ‘‘अभी क्लब के समय में काफी देर है।’’
सड़कों के दोनों ओर बाग लगे थे। चाँदनी में किनारे की झाड़ियाँ और दरवाज़े दूसरे किनारे के ऊँचे-ऊँचे नीबू के पेड़ों की परछाइयों में गहरे दूर तक धँसे हुए से लगते थे। अँधेरे में औरतों की धीमी बातचीत, हँसी और हकलाहट का आभास हो रहा था। इन आवाज़ों के साथ ही नीबू के फूलों और घास की गन्ध ने उसके मन में एक जोश-सा भर दिया था। वह यूलिया की कमर में हाथ डालकर, उसके चेहरे, कन्धे और हाथों को चुम्बनों से भर देना चाहता था। उसके पैरों पर गिरकर रोते हुए कहना चाहता था कि कितने दिनों से वह उसका इन्तज़ार करता रहा है, लेकिन यूलिया से उसे एक भ्रामक क्रोध की महक मिली। उसे याद हो आया कि वह भी एक समय था, जब यह ईश्वर में विश्वास करता था, प्रार्थनाओं में जाया करता था और कितनी कामना थी उसके मन में पवित्र और कवित्वपूर्ण प्यार से लिए ! और चूँकि वह इस बात को जानता था कि यूलिया उसे प्यार नहीं करती, इसलिए वह आनन्द, जिसका सपना उसने कभी देखा था, उसे कभी भी प्राप्त नहीं हो सकता था।

यूलिया उसकी बहन नीना फ़्योदोरोव्ना की बीमारी को लेकर बहुत सहानुभूति से बात करती थी। दो महीने पहले नीना का कैंसर का आपरेशन हुआ था और अब सभी को बीमारी के फिर से लौट आने की आशंका थी।
‘‘आज सुबह ही मैं उन्हें देखने गयी थी’’, यूलिया ने कहा, ‘‘मैं सोचती हूँ कि कुछ तबलीदी जरूर आ रही है...वह पहले सप्ताह की तरह दुबली नहीं हैं, सिर्फ़ कुछ मुरझाई हुई-सी ज़रूर लग रही थीं।’’
‘‘हाँ’’, लेपतेव ने कहा, ‘‘सही माने में बीमारी की वापसी नहीं है, लेकिन मुझे यह लगता है कि वह रोज दुबली होती जा रही है। मैं तो समझ ही नहीं पाता कि उसके साथ क्या गड़बड़ी है।’’
‘‘वह कितनी मोटी, स्वस्थ और गुलाबी गालोंवाली थीं !’’ यूलिया कहते कहते पल भर को रुकी, ‘‘यहाँ सब लोग उन्हें मास्को की लड़की कहा करते थे...वह कैसी हँसती थीं। हर छुट्टी के दिन किसान लड़की की तरह कपड़े पहनती थीं और वे उन पर बहुत फबते थे।’’

यूलिया का पिता डॉक्टर सरजी बोरिसिच घर ही पर था। उसका बदन मजबूत और चेहरा लाल था। उसने एक लम्बा कोट पहन रखा था, जो उसके घुटने के नीचे तक पहुँचकर उसके कद के छोटा होने का आभास कराता था। इस समय वह अपनी आदत के अनुसार रु...रु...रु...की ध्वनि में गुनगुनाते हुए, जेबों में हाथ डाले अपने पढ़ने के कमरे में इधर-से-उधर टहल रहा था। उसकी दाढ़ी के भूरे बालों में कंघी नहीं की गयी थी और बाल भी गन्दे थे। ऐसा लगता था, जैसे अभी सोकर उठा हो। उसका पढ़ने का कमरा भी ऐसा ही था। सोफे पर गद्दियाँ पड़ी थी। अखबार कोने में फेंके हुए थे। यह सब ठीक वैसा ही अव्यवस्थित लग रहा था, जैसे डॉक्टर स्वयं था।
‘‘लेपतेव महोदय आपसे मिलना चाहते हैं’’, उसकी बेटी ने अध्ययन-कक्ष में घुसते ही कहा।
रु...रु...रु....का स्वर निकालते हुए डॉक्टर अपनी बैठक में आ गया। ‘‘कहिए, क्या समाचार हैं ?’’ उसने लेपतेव से हाथ मिलाते हुए कहा।

बैठक में अँधेरा था। लेपतेव अपना हैट हाथ में लिये खड़ा था। इस तरह असमय आ जाने के लिए क्षमा मांगते हुए पूछने लगा कि उसकी बहन को रात में पूरी नींद आये, इसके लिए क्या किया जा सकता है और क्या कारण है कि वह इतनी कमज़ोर होती जा रही है। लेकिन यह सब कहते हुए उसे बेचैनी-सी महसूस हो रही थी कि वह इस समय भी वही सवाल डॉक्टर से क्यों पूछ रहा है, जो उसने डाक्टर के सुबह अपने घर आने पर पूछे थे।
‘‘शायद हमें मास्को से कोई विशेषज्ञ बुलाना ही पड़े’’। उसने कहा, ‘‘आप क्या सोचते हैं ?’’
डॉक्टर ने हलकी सी आह भरी, अपने कन्धों को हिलाया और दोनों हाथों को फैला दिया।
यह साफ था कि वह चिढ़ गया था। कुल मिलाकर वह एक भावुक आदमी था; उसे हमेशा यह खयाल बना रहता था कि उस पर विश्वास नहीं किया जा रहा है, उसे उचित आदर-सम्मान नहीं मिल रहा है। उसका खयाल था कि उसके रोगी उसका शोषण करते हैं और सहयोगी उसके बारे में पीठ-पीछे बुरी बातें करते हैं। वह अपने ही ऊपर हँसकर कहा करता था कि उसके जैसे लोग बेवकूफ बनाये ही जाते हैं।

यूलिया ने लैम्प जला दिया था। लेपतेव ने रोशनी में उसके पीले चेहरे और शिथिल अंगों से यह जान लिया कि वह चर्च की प्रार्थना में जाने के कारण थक गयी है और इस समय अकेली रहना चाहती है। वह अपने हाथों को अपनी गोद में रखकर सोफ़े पर बैठ गयी थी। लेपतेव अपने बारे में जानता था कि वह सुन्दर नहीं है और इस समय शारीरिक रूप से वह इस सत्य के प्रतिजागरुक हो उठा था। वह छोटे कद का साधारण बदनवाला आदमी था और उसकी खोपड़ी के बाल भी इतने कम हो गये थे कि कभी-कभी उसे ठण्ड लग जाया करती थी। उसके चेहरे में कोई भी ऐसा आकर्षण नहीं था, जो कभी-कभी सादे से सादे चेहरों को भी सुन्दर बना देता है। औरतों के सामने उसकी स्थिति अजीब-सी हो जाती थी। वह बहुत बातें करने लगता था और बेहूदा व्यवहार कर बैठता था। इस सब के लिए वह अब अपने ही को घृणा करने लगा था। उसे मालूम था कि यूलिया सरजीविना उसकी उप-स्थिति के कारण ऊब रही है, इसलिए इस समय बात करना जरूरी है, लेकिन वह बात क्या हो ? फिर वही बहन की बीमारी !

वह दवाओं के बारे में करने लगा। सारी सामान्य जानकारी व्यक्त कर लेने के बाद, उसने स्वास्थ्य की आवश्यकता पर ज़ोर दिया और बताया कि बहुत दिनों से मास्को में एक आवास-गृह बनाने की बात सोच रहा है और उसके लिए खर्च आदि का तख़मीना तैयार हो गया और वह उसके बारे में विस्तार से बताने लगा।
यूलिया सरजीविना हमेशा की तरह उसकी मौजूदगी में खामोश बैठी थी। लेकिन कुछ अजीब तरह से, या यों कहें कि प्रेमी की स्वाभाविक वृत्तियों से ही शायद लेपतेव ने यूलिया के विचारों और इरादों का अन्दाज़ लगा लिया था कि अगर प्रार्थना के बाद भी वह अपने कमरे में कपड़े बदलने के लिए नहीं जा रही है, तो इसका मतलब यही है कि वह फिर बाहर ज़रूर जायेगी।

‘‘मुझे इस योजना के बारे में कोई बहुत जल्दी नहीं है’’, वह आवेश के साथ डॉक्टर से कहता रहा, जो खाली-खाली आँखों से उसे देख रहा था और स्पष्टत: हैरान था कि इस समय दवा और स्वास्थ की बात क्यों चलायी गयी है। ‘‘...सम्भव है कि मुझे अभी खर्च के तख़मीने की ज़रूरत भी न पड़े। मुझे तो यही डर है कि कहीं मेरा आवास-गृह बहुत ज्यादा धर्मात्मा लोगों अथवा कल्याणमना महिलओं के हाथ में न पड़ जाये, जो हर अच्छे काम को नष्ट कर देती हैं।’’
यूलिया सरजीविनी उठी और हाथ बढ़ाते हुए कहने लगी, ‘‘मुझे क्षमा करें, मैं जा रही हूँ। कृपया अपनी बहन से मेरा अभिवादन कहें।’’

डॉक्टर रु...रु...रु...के स्वर में गुनगुनाया, ‘‘रु...रु...रु...’’
यूलिया सरजीविना बाहर चली गयी। उसके जाते ही लेपतेव ने भी डॉक्टर से छुट्टी ली और घर चला गया। वे सारे नीबू के पेड़, परछाइयाँ और बादल आदि प्रकृति की सारी सुन्दरता और आकर्षण उसे उस समय असार लगे, जैसे कि हर असन्तुष्ट और दुखी आदमी को लगते हैं। चाँद आकाश में ऊपर चढ़ गया था और बादल तेज़ी से उसके नीचे आते जा रहे थे। ‘इस इलाक़े का चाँद कितना भद्दा है और ये बादल के टुकड़े कितने दयनीय !’ वह सोचने लगा। उसे दवा और आवास गहवाली बात के लिए लज्जा का अनुभव हुआ। फिर यह सोचकर वह डर गया कि कल फिर यूलिया से मिलने और बात करने की कामना दबा नहीं सकेगा और कल फिर उसे निश्चय हो जायेगा कि यूलिया उसकी बिलकुल परवाह नहीं करती। कल के बाद परसों भी यही होगा। फिर इसका कब और कैसे अन्त होगा, उसे नहीं मालूम।

घर आते ही वह अपनी बहन के कमरे में गया।
देखने में नीना फ़्योदोरोव्ना अब भी काफी स्वस्थ थी। आँखें बन्द किये बिस्तर पर पीठ के बल लेटे रहने पर उसके चेहरे पर जो मृत्यु की सी विवर्णता छायी रहती थी, उसे देखे बिना कोई उसे रोगी भी नहीं कह सकता था।
उसकी सबसे बड़ी दस-वर्षीय लड़की साशा उसके बिस्तर की बगल में बैठी स्कूल की किताब से कुछ ज़ोर ज़ोर से पढ़ रही थी।
‘‘अलेक्सी आ गया है’’, बीमार औरत ने फुसफुसाकर कहा।
पुराने मौन समझौते के अनुसार साशा और उसका मामा दोनों मरीज़ों के बिस्तर की ओर मुड़ गये। साशा ने अपनी पुस्तक बन्द की और बिना बोले चुपके से बाहर निकल गयी। लेपतेव ने श्रृंगार-मेज से एक ऐतिहासिक उपन्यास उठाया, बीच का पृष्ठ खोला और ज़ोर से पढ़कर सुनाने लगा।

नीना मास्को की रहनेवाली थी। वह और उसके दो भाई पातींत्स्काया स्ट्रीट पर अपने व्यापारी पिता के साथ बचपन बिता चुके थे। वह बहुत दिनों का और संरक्षण में बिताया हुआ बचपन था। पिता उनके साथ बहुत ही सख्त व्यवहार करता था और कई बार उन्हें कोड़े भी खाने पड़े थे। उनकी माँ एक लम्बी बीमारी से मर चुकी थी। घर में रूखे और धूर्त किस्म के नौकर काम करते थे और वहाँ आनेवाले पादरी और साधु भी इसी स्वभाव के होते थे। ये सब घर में खाने-पीने के लिए आते और उनके पिता की चापलूसी किया करते थे, लेकिन सब के सब उनके पिता से उनके पिता से भीतर-ही-भीतर घृणा करते थे। बच्चे इतने भाग्यशाली थे कि उन्हें स्कूल जाने का मौका मिला, लेकिन नीना अशिक्षित ही रह गयी। वह बस किसी तरह लिखना-पढ़ना सीख सकी थी और ऐतिहासिक उपन्यास पढ़ा करती थी।

सत्रह वर्ष पहले जब वह बाईस वर्ष की रही होगी, खिमकी में वह अपने मौजूदा पति से पहली बार मिली थी और वहीं दोनों का प्यार हो गया। अन्ततः नीना ने अपने पिता की इच्छाओं के विरुद्ध छिपे तौर से उससे शादी कर ली। वह बूढ़ा इस भूस्वामी को सड़क पर सीटियाँ बजाते अथवा लैम्प-पोस्ट के पास सिगरेट जलाते देखकर उसे लगभग अस्तित्वहीन ही समझता था। बाद को उसके दामाद ने दहेज माँगते हुए उसे कई पत्र लिखे। उसने अपनी बेटी को लिखा कि वह रोएँदार कोट, चाँदी के बरतन और वे दूसरे सामान, जो उसकी माँ के हैं और साथ ही 30,000 रुबल भी भेज रहा है, लेकिन वह अपना आशीष उन्हें कभी नहीं दे सकता। कुछ दिनों के बाद बूढ़े ने बीस हज़ार रूबल और भेजे, लेकिन बहुत पहले ही यह सारा धन खत्म हो चुका था। मकान बिक गया और पेनोरोव अपने परिवार के साथ गूबरनियाँ (प्रान्तीय) सरकार में एक नौकरी करने यहाँ आ गया था। लेकिन यहाँ उसने एक और परिवार बना लिया, जिसकी बड़ी चर्चा थी, क्योंकि उसने इसे छिपाने का कोई भी प्रयत्न नहीं किया।

नीना अपने पति की श्रद्धा करती थी। इस समय ऐतिहासिक उपन्यास सुनते हुए वह सोच रही थी कि अगर उसकी ज़िन्दगी-जैसी वह अब तक बीती है, कोई लिखे, तो कितनी कारुणिक होगी ! चूँकि कसर को रसौली उसकी छाती में थी, इसलिए उसे हमेशा यह खयाल बना रहता था कि यह बीमारी उसके असफल प्रेम के कारण ही है और रोने-कलपने और ईर्ष्या ने उसकी तन्दुरुस्ती छीन ली है।
 
लेपतेव ने पुस्तक बन्द कर दी। ‘‘शुक्र है, यह खत्म हो गयी’’, उसने कहा, ‘‘कल हम लोग नयी किताबें शुरू करेंगे।’’
नीना फ़्योदोरोव्ना हँस पड़ी। वह हमेशा आसानी से हँस लेती है। लेकिन लेपतेव ने ध्यान से देखा कभी-कभी उसकी बीमारी उसकी हँसी को प्रभावित करने लगती है, क्योंकि वह बहुत ही मामूली चीजों पर, और प्रायः बिना किसी प्रसंग के हँसने लगती है।

‘‘सुबह जब तुम बाहर गये थे, यूलिया यहीं थी’’, उसने कहा, ‘‘मेरा खयाल है कि उसे अपने पिता में कोई बहुत विश्वास नहीं है, क्योंकि वह कह रही थी, ‘मेरे पिता की दवा तो होने ही दीजिए, लेकिन मेरी राय है कि आपको छिपे तौर पर किसी साधु को भी दिखाना चाहिए, जिससे वह भी आपके लिए प्रार्थना करे।’...शहर में कोई बूढ़ा साधु है, क्या तुम उसे जानते हो ? यूलिया अपनी छतरी यहीं भूल गयी है। कल उसे जरूर दे आना।’’ वह तनिक रुककर फिर कहने लगी, ‘‘लेकिन जब अन्त आ ही गया हो, तो न डॉक्टर ही कुछ कर सकता है, और न साधु।’’

‘‘नीना, तुम रात सोयी क्यों नहीं ?’’ लेपतेव ने विषय को बदल देने के लिए धीरे से कहा।
‘‘मैं नहीं जानती। शायद मैं सो ही नहीं सकती। मैं जागती रहती हूँ और सोचा करती हूं...’’
‘‘मेरी प्यारी नीना, आखिर तुम किस चीज के बारे में सोचती हो ?’’

‘‘बच्चों के बारे में, तुम्हारे बारे में....अपनी जिन्दगी के बारे में। मैं एक बहुत भयंकर बीमारी से ग्रस्त हूँ अलेक्सी, और सोचती हूँ...हे ईश्वर !....’’ वह हँसने लगी, ‘‘मैंने पाँच बच्चों को जन्म दिया। उनमें से तीन को दफनाया। कुछ दिन बाद मैं एक बच्चे को फिर जन्म देनेवाली हूँ और उस समय मेरे ग्रिगोरी निकोलोविच उस औरत के साथ बैठे होंगे और कोई दाई को बुलानेवाला भी नहीं होगा। मैं खुद रसोई या बड़े कमरे के बाहर जाऊँगी कि किसी नौकर को बुलाऊँ, लेकिन वहाँ यहूदी दूकानदार बैठा, उनके घर लौटने का इन्तज़ार करता होगा...मेरा सिर चक्कर खाने लगेगा...वह मुझे प्यार नहीं करते, यद्यपि उन्होंने यह मुझसे कभी भी नहीं कहा। अब मैं इसकी बिलकुल परवाह नहीं करती, न इसमें मुझे कोई चोट ही पहुँचती है। लेकिन जब मैं कम उम्र की थी-बहुत दुखी होती। मैंने एक बार उन्हें बाग में एक औरत के साथ देखा। उस समय हम देहात में रहते थे। मैं वहाँ से लौटकर चल पड़ी और बिना यह जाने कि मैं कहाँ जा रही हूँ, चलती रही, यहाँ तक कि मैं एक चर्च की सीढ़ियों पर पहुँच गयी। मैं वहाँ अपने घुटनों के बल गिर पड़ी और बिलखने लगी, ‘‘हे पवित्र माता !’ अँधेरा गाढ़ा हो गया था और चाँद चमकने लगा था।...’’

वह साँस लेने के लिए रुकी। फिर कुछ देर आराम करने के बाद उसने अपने भाई का हाथ अपने हाथों में ले लिया।
‘‘तुम कितने अच्छे हो अलेक्सी !’’ उसने एक अजीब-सी स्वरहीनता से कहा, ‘‘इतने चतुर...इतने भले !’’
लेपतेव ने यूलिया की छतरी लेकर अपनी बहन का कमरा आधी रात को छोड़ा। इतनी रात बीतने पर भी उसने देखा कि नौकर रसोई में चाय पी रहे हैं। घर में कोई व्यवस्था नहीं रह गयी है-वह सोचने लगा बच्चे अब भी जगे हुए थे और उनमें से कुछ रसोईघर में भी थे। सब के सब धीमी और बेचैन आवाज़ में बातें कर रहे थे। उन्हें इस बात का खयाल भी नहीं था कि एक टिमटिमाती हुई रोशनी गुल होनेवाली है। बच्चे और सयाने पहले से कई अपशकुनों के कारण बेचैन थे-हॉल में रखे हुए शीशे में दरार पड़ गयी थी। सेमोवार में से सी-सी की आवाज़ रोज़ ही निकलती थी और इस समय भी निकल रही थी।

लोगों का कहना था कि नीना फ़्योदोरोव्ना के जूते से एक चूहा तब निकलकर भागा, जब कि वह उसमें पैर डाल रही थी। यहाँ तक कि बच्चे भी इन अपशकुनों का नतीजा जानते थे। काले बालोंवाली सबसे बड़ी लड़की साशा मेज के पास डरी हुई खामोश और निराश बैठी थी। सात वर्ष की छोटे बालोंवाली लीदा अँगीठी की बगल में खड़ी थी।
लेपतेव नीचे अपने कमरे में चला गया। कमरा छोटा-सा, बिना हवा का और जिरेनियम के फूल की सी गन्ध से भरा था। उसने नीना के पति को अपने कमरे में अखबार पढ़ते देखा। लेपतेव ने अपना सिर हिलाया और उसके सामने जा बैठा। दोनों खामोश बने रहे। वे सारी शाम इस तरह की खामोशी में बिता सकते थे।
छोटी बच्चियाँ रात्रि का नमस्कार कहने नीचे आयीं। पेनोरोव ने बिना कुछ कहे क्रास का संकेत किया और अपना हाथ चूमने के लिए बढ़ा दिया। वे विनीत हुईं और लेपतेव की ओर बढ़ गयीं। लेपतेव ने भी क्रास का संकेत किया और अपने हाथों पर उनका चुम्बन स्वीकार किया। यह प्रक्रिया हर शाम को इसी तरह दुहराई जाती थी।
     

 


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