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सम्पूर्ण सूरसागर- खण्ड 2

किशोरी लाल गुप्त

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :615
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2407
आईएसबीएन :81-8031-038-8

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इस खण्ड में मथुरा लीला, गोपी विरह एवं भ्रमरगीत सम्बन्धी 1100 पद हैं.....

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Sampoorn Soorsagar(2) Lokbharti Tika

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राक्कथन

सूरसागर के विश्लेषण का कार्य जनवरी 1984 में प्रयोग माघ मेले में कल्पवास करते समय किया गया था। 18 फरवरी 1996 को सारी सटीक सामग्री हिन्दी प्रचारक संस्थान, काशी को दे दी गई थी, जो 10 अप्रैल 2002 को अमुद्रित रूप में वापस आ गई। अब जिसका प्रकाशन लोकभारती, प्रयाग द्वारा सन् 2005 में संपूर्ण होने जा रहा है। संतोष परमं सुखम्। आशा है समस्त हिन्दी सेवी संसार के लिए यह तुष्टिदायक होगा।

किशोरी लाल गुप्त

समर्पण


उन्नीसवीं सदी में सरदार कवि, भारतन्दु बाबू हरिश्चन्द्र, बाबू राधाकृष्ण दास ने सूरदास को चंद वरदाई का वंशज ब्रह्मभट्ट स्वीकार किया था। आधार ‘साहित्य लहरी’ का वंशावली वाला पद था। 1909 ई. में मिश्रबंधुओं ने ‘हिन्दी नवरत्न’ के सूरदास वाले प्रकरण में वल्लभ सम्प्रदाय के साहित्य के आधार पर इनके सारस्वत ब्राह्मण होने का उल्लेख किया और वंशावली वाले पद को किसी भाँट द्वारा प्रक्षिप्त माना। यही उल्लेख श्रीकृष्ण लीलात्मक सूरसागर के रचियता सूरदास का प्रथम स्रोत्र है। इस उल्लेख के लिए श्रीकृष्ण लीलात्मक सूरसागर के द्वितीय भाग का यह सटीक संस्करण मिश्रबंधुओं की पुण्य-स्मृति को समर्पित है।

किशोरी लाल गुप्त

नैन समय के पद


1121/2837 रान सारंग

सघन कल्पतरु-तर मनमोहन।
दच्छिन चरन चरन पर दीन्हे, तनु त्रिभंग कीन्हे मृदु जोहन।।
मनिमय जटित मनोहर कुंडल, सिखी-चंद्रिका सीस रही फबि।
मृगमद-तिलक, अलक घुघुरारी, उर बनमाल, कहाँ जु वहै छबि।।
तनु घन स्याम, पीतपट सोभित, हृदय पदिक की पाँति दिपति दुति।
तनु बन धातु बिचित्र बिराजति, बंसी अधरनि धरे ललित गति।।
करज मुद्रिका, कर कंकन-छबि, कटि किंकनि, पग नूपुर भ्राजत।
नख-सिख-कांति बिलोकि सखी री, ससि अरु भानु गगन तनु लाजत।।
नख-सिख-रूप अनूप बिलोकत, नटवर-वेष धरे जु ललित अति।
रूप-रासि जसुमति कौ ढोटा, बरनि सकै नहिँ ‘सूर’ अलप-मति।।

हे सखी, घने कल्पतरु (कदंब) के नीचे मनमोहन कृष्ण खड़े हैं। वे अपना दाया पैर उठाकर बाएं पैर के घुटने पर टेके हुए हैं। वे अपनी कमर और ग्रीवा भी टेढ़ी किए हुए त्रिभंगीलाल बने हुए हैं। देखने में वे अत्यन्त सुन्दर लग रहे हैं। उनके कानों में मणिजटित मकराकृत कुंडल लटक रहे हैं। उनके सिर पर मोरपंख की चंद्रिका सोह रही है। वे अपने ललाट पर कस्तूरी का तिलक लगाए हुए हैं। उनकी अलकें घुँघराली हैं। उनके वक्ष पर वनफूलों की रंग-बिरंगी माला विराजमान है। यह शोभा और कहाँ है ? उनका शरीर काले बादल सा है। वह पीतांबर की ओढ़नी ओढ़े हुए हैं। उनकी छाती पर चौकियां चमचमा रही हैं। उन्होंने अपने शरूर को गेरू से चर्चित कर रखा है। वे सुंदर ढंगस से अपने होठ पर मुरलू रखे हुए है। उनके हाथ की उँगली में अँगूठी है। वे हाथ के कंकण पहने हुए हैं। उनकी कमर में किंकणी और पैरों में पायल सुशोभित हो रही है। उनके सिर से पैर तक की शोभा देखकर आकाश-स्थित सूर्य और चंद्रमा भी लजाए जा रहे हैं। उनका पैर से लेकर शिखा तक का रूप अत्यन्त सरस है। वे नर्तक का रूप धारण किए हुए अत्यन्त सुंदर लगे जा रहे हैं। यशोदा का यह बेटा तो रूप की राशि ही है। यह अंधा सूर तो अल्प-मति है। यह इस शोभा का वर्णन कर ही नहीं सकता।

1122/2837 राग सोरठ

लोचन हरत अंबुज-मान।
चकित मनमथ साहन चाहत, धनुष तजि निज बान।।
चिकुर कोमल कुटिल राजत, रुचिर विमल कपोल।
नील नलिन सुंगंध ज्यौं, रस-थकित मधुकर लोल।।
स्याम उर परपरम सुंदर, सजल मोतिन हार।
मनौ मरकत-सैल तै, बहि चली सुरसरि-धार।।
‘सूर’ कटि पट पीत राजत, सुभग छबि नँदलाल।
मनौ कनक-लता-अवलि-बिच, तरल विटप तमाल।।


कन्हैया की आँखें कमल का गुमान हर लेनेवाली हैं। इन्हें देखकर लोगों का मन मथ डालनेवाला कामदेव अपना धनुषबाण धरती पर फेंककर इनकी शरण में आ जाना चाहता है। इनके केश-पाश अत्यन्त कोमल और घुँघराले हैं। इनको कपोल रुचिर, रिझा लेनेवाले और चिकने तथा निर्मल हैं। मुख पर लटकती लटें ऐसी लग रही हैं, मानो नील-कमल की सुगंध से मत्त होकर चंचल भौरे मंडरा रहे हों। श्याम की छाती पर सुंदर कांतिमय मोतियों की माला लहरा रही है, मानों मरकत के पर्वत से गंगा जी की धारा बह निकली हो। उनकी कमर में पीतांबर का फेंटा कसा हुआ है। नन्दलाल की छवि अत्यन्त उत्कर्ष पर है। कटि में लिपटा यह पीतांबर ऐसा लग रहा है, मानो चंचल लहराता तमाल का वृक्ष ज्योतिष्मती लताओं के बीच में विराजमान हो।

1123/2839 राग रामकली

मोहन हठ करि मनहिँ हरत।
अंग-अंग प्रति और-और गति, छिनु-छिनु अतिहीं छबि जु धरत।
सुंदर सुभग स्याम कर दोऊ, तिनसौ मुरली अधर धरत।
राजत ललित नील कर पल्लव, उभय उरग ज्यौं सुभट लरत।
कुंडल मुकुट भाल गोरोचन, मनौ सरद ससि उदय करत।
‘सूरदास’ प्रभु-तनु अवलोकत, नैन थके, इत उत न टरत।।


एक गोपी कह रही है- मोहन हठपूर्वक हमारे मनों को हरे ले रहे हैं। उनके हर अंग का ढर्रा कुछ अद्भुत है। वे क्षण-क्षण पर अपनी छवि सुंदर से सुंदरतर करते चलते हैं। उनके दोनों हाथ ही बड़े सुंदर है। इन हाथों में मुरली लेकर वे होठ पर रख लेते हैं। मुरली के छिद्रो पर उनकी उंगलियाँ ऐसी चलती हैं, मानों दो नाग आपस में लड़े जा रहे हों। उनके कानों में मकर की आकृति के स्वर्णकुंडल हैं और सिर पर मोरपंख का मुकुट सोह रहा है। उनके ललित ललाट पर गोरोचन का तिलक लगा हुआ है। उनका मुख ऐसा लग रहा है, जैसे शरद पूर्णिमा का चाँद ही निकल आया हो। प्रभु का शरीर देखते समय हमारे नेत्र जिस अंग पर पड़ते हैं, उसी पर टिक जाते हैं। वहाँ से इधर-उधर हटने का नाम तक नहीं लेते।

1124/2840 राग रामकली

मन तौ हरिहीं हाथ बिकानौ।
निकस्यौ मान गुमान सहित वह, मैं यह न होत न जान्यौ।    
नैननि साटि करी निली नैननि, उनहीं, उनहीं सौं रुचि मान्यौ।
बहुत जतन करि हौं पचि हारी, फिरि इतकौं न फिरान्यौ।
सहज सुभाइ ठगौरी डारी सीस, फिरत अरगानौ।
‘सूरदास’ प्रभु-रस-बस गोपी, बिसरि गयौ तनि मानौ।।

कोई गोपी कह रही है- मेरा मन तो हरी के साथ बिक गया है। वह बड़े गर्व से मेरे शरीर से निकला और हरि का हो गया। उसका सारा गर्व जाता रहा। जब वह निकलकर जाने लगा, तब मुझे कोई भी पता नहीं चला। मेरे नयनों ने श्याम के नयनों को श्याम ही अच्छे लगते हैं। मैंने इनको श्याम के पास वापस लाने का बहुत प्रयत्न किया, पर इनको लौटा नहीं सकी। श्याम ने सहज रूप से मेरे सिर पर अपना जादू डाल दिया है। वह जादू डालकर मुझसे अलग ही अलग हुए फिर रहे हैं। मेरे पास नहीं आ रहे हैं।

वह गोपी प्रभु के प्रेम-रस के इतना अधिक अधीन हो गई है कि वह अपने शरीर की सुधि भी भूल गई।

1125/2841 राग सोरठ

 

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