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चित्त बसें महावीर

प्रेम सुमन जैन

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2398
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है तीर्थकार महावीर के इस प्रेरणादायक जीवन और दर्शन की एक रोचक शैली....

Chita Base Mahaver

विश्व के साधक चिन्तको में जैन दार्शनिक एवं तीर्थंकर कई दृष्टियों से स्मरण किये जाते हैं। उनका चिन्तन धर्म, जाति, देश-काल उन्होंने प्राणी मात्र के कल्याण एवं विकास सूत्र अपने उद्बोधनों में प्रदान किये हैं भगवान महावीर का सन्देश है कि सुख, शान्ति, तनावरहित जीवन अपरिग्रह, संतोष, संयम से आ सकता है। तीर्थंकर महावीर ने अपने जीवन में व्यक्तिगत स्वमित्व के विसर्जन का प्रयोग करके बताया है। उन्होंने राज्यपद को त्यागा और पदार्थों के ढेर से वे अलग जा खड़े हुए, तब वे समता और शान्ति के स्वामी बने।

भगवान महावीर ने व्यक्ति के पूर्ण विकास के लिए एक ओर तो जहाँ आत्म विकास का पथ प्रशस्त किया है, वहीं दूसरी ओर उन्होंने लोक-कल्याण के लिए सामाजिक मूल्यों का भी सृजन किया है। अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त ये तीनों मूल्य महावीर के सामाजिक अनुसंधान के परिणाम हैं। तीर्थंकर महावीर के चिन्तन ने व्यक्ति को पुरुषार्थी और स्वावलम्बी बनने की शिक्षा दी है। उन्होंने मानव को सहिष्णु, निराग्रही होनो का भी संदेश दिया है। विचारों की उदारता से हम सत्य की तह तक पहुँच सकते हैं। तीर्थंकर महावीर का सारा जीवन आत्म-साधन के पश्चात सामाजिक और नैतिक मूल्यों के निर्मण में ही व्यतीत हुआ। इसी कारण तीर्थकर महावीर मानव जाति के गौरव के रूप में प्रतिष्ठित हुए। चित्त बसें महावीर-पुस्तक में प्रो. प्रेम सुमन जैन ने तीर्थंकर महावीर के इस प्रेरणादायक जीवन और दर्शन को एक रोचक शैली में प्रस्तुत किया है।

भूमिका


विश्व इतिहास में भगवान् महावीर एक ऐसे व्यक्तित्व के धनी हैं, जिससे दार्शनिक, धार्मिक, सामाजिक एवं राजनैतिक क्षेत्र निरन्तर प्रभावित होते रहे हैं। न केवल भाषा एवं साहित्य के क्षेत्र में महावीर का व्यापक प्रभाव है, अपितु भारतीय शिल्प में भी तीर्थंकर महावीर के जीवन-दर्शन की अनेक छवियाँ अंकित हैं। महावीर के जीवन दर्शन की निष्पत्ति अहिंसा है। समभाव की प्रतिष्ठा। आत्म-ज्ञान की उपलब्धि। महावीर ने जीवन के समग्र विकास के लिए समाज को एक नयी आचार-संहिता दी है। व्यक्ति के स्वत्त्व की प्रतिष्ठा की है। महावीर की इन समस्त उपलब्धियों के परिप्रेक्ष्य में उनके व्यक्तित्व को उजागर किया जाना नितान्त आवश्यक है।

         महावीर के जीवन-दर्शन को प्रस्तुत करने वाली ‘चित्त बसें महावीर’ अपने ढंग की सर्वप्रथम कृति है। एक सर्वथा नयी और रोचक कथात्मक शैली में डॉ. प्रेम सुमन जैन द्वारा लिखी गयी यह कृति पाठकों को निश्चय ही महत्त्वपूर्ण लगेगी। पालि, प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं व साहित्य के अध्ययनशील विद्वान् डॉ. सुमन की साहित्य की आधुनिक प्रवृत्तियों में भी अभिरुचि है। उनकी इसी मेधा का प्रतिफल है—प्रस्तुत कृति। महावीर-कथा। महावीर-दर्शन।
         भगवान महावीर के जीवन और दर्शन के प्रतिपादन के साथ परम्परागत मतभेदों को भी लेखक ने बड़ी कुशलता से उपस्थित किया है। उनके मूल तक जाने का प्रयत्न किया है। महावीर के बहु-आयमी व्यक्तित्व को लेखक ने विभिन्न घटनाओं, प्रसंगों एवं मान्यताओं में छिपे प्रतीकों के माध्यम से उजागर किया है। अतः इस लघु कृति में प्राचीन-अर्वाचीन ग्रंथों की प्रामाणिकता है तथा चिन्तन की स्वतन्त्रता भी।

         सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र की अभिव्यक्ति ही है भगवान् महावीर का सम्पूर्ण जीवन। इस कृति में लेखक ने आचार्य कश्यप और उनके जिज्ञासु शिष्यों की अवधारणा द्वारा विषय की गम्भीरता और रोचकता दोनों में सामंजस्य बनाये रखा है। महावीर के प्रति भारतीय कलाकारों की अर्चना तथा साधक आचार्यों और शिष्यों की सामयिक है यह कृति। अतः ‘चित्त बसें महावीर’ उन सबके महावीर बन जाते हैं, जो उन्हें अपने चित्त में अंकित करने के लिए आतुर हैं, प्रयत्नशील हैं। हर चित्त में महावीर बसें हैं, मात्र उनके दर्शन करने का प्रयत्न करना है। डॉ. सुमन की यह कृति ऐसे ही चिन्तन और प्रयास का फल है। उन्हें हार्दिक बधाई। आशा है कि अधिक से अधिक पाठकों द्वारा यह कृति समादृत भी होगी।

   6 जून, 2003               प्रो. राजाराम जैन
                               मानद निदेशक
                      श्री कुन्दकुन्द भारती प्राकृत संस्थान
                  18-बी,स्पेशल इन्स्टीट्यूशनल एरिया
                           नई दिल्ली – 110067

दो शब्द


श्रमण-परम्परा के 24वें तीर्थंकर भगवान् महावीर के सम्बन्ध में परम्परा से जो सुना, प्राचीन ग्रन्थों में जो पढ़ा तथा आधुनिक विचारकों द्वारा की गयी महावीर के जीवन के प्रसंगों की व्यख्या से जो कुछ मेरा जिज्ञासु मन ग्रहण कर सका उस सबके मंथन का नवनीत है प्रस्तुत कृति। महावीर की दृष्टि सत्यान्वेषी एवं अनाग्रहपूर्ण थी। अतः उसी का अनुसरण करते हुए इस पुस्तक में उन प्रसंगों को भी नवीन व्याख्या के साथ रख दिया गया है, जिनके सम्बन्ध में परम्परागत मतभेद हैं। इस अपेक्षा के साथ कि महावीर की पावन गाथा के अनुशीलन में चिन्तन और अधिक गतिशील हो।

         प्रस्तुत कृति की शैली क्या है, इसका निर्णय समीक्षक करेंगे। अपनाया इसे इसलिए गया है कि पाठक महावीर के चरित एवं उनके आत्मबोधक उपदेशों में न केवल रूचि ले अपितु उनके प्रभावों का भी अनुभव करें, शिल्पी-संघ का एक सदस्य या कलाकार होकर। प्रश्नोत्तर का संयोजन इसलिए किया है कि बोधगम्य सम्प्रेषण बना रहे। स्वतन्त्र-चिन्तन अवरुद्ध न हो। कृति में तथ्यात्मकता, सत्य के प्रति निष्ठा एवं औपन्यासिक रसात्मकता बनी रहे, इसे सहेजा गया है। आचार्य कश्यप की कुल परम्परा एवं उदयगिरि की उपत्यका सम्पूर्ण कथा की साक्षी के रूप में उपस्थित है। यह अच्छा हुआ कि कतिपय चित्र भी प्रकाशक ने दिये हैं, जिनकी परिकल्पना इस कृति में आदि से अन्त तक की गयी है। पाठकों को चित्र आकर्षक लगेंगे। चित्रकार भी गोकुल दास कापड़िया मुम्बई का आभार ।

         शैली की सरलता और रोचकता के कारण कृति को सन्दर्भों से मुक्त रखा गया है। यद्यपि कथावस्तु के विषय एवं प्रतिपादन की भूमिका में प्राचीन ग्रन्थों के अतिरिक्त आधुनिक विद्वानों व चिन्तकों की कृतियाँ भी रही हैं। उन सबके लेखकों व सम्पादकों का मैं आभारी हूँ ।

‘चित्त बसें महावीर’ की विषयवस्तु को शैली भिन्नता के कारण अध्यायों आदि में विभक्त नहीं किया गया है। शीर्षक स्वतन्त्र भी लग सकते हैं, क्रमबद्ध भी। उनकी सबसे बड़ी क्रमबद्धता यही है कि वे महावीर जीवन-क्रम के साथ ही आगे बढ़े हैं। प्रायः विषय को वही शीर्षक दिए गये हैं, जो महावीर के गुणों को प्रकट करते हैं। विशेषकर देशना वाले प्रसंग में। पुस्तक के अन्त में तीर्थंकर महावीर के उपदेशों की चयनित प्राकृत गाथाएँ हिन्दी अनुवाद के साथ दी गयी हैं, जो पाठकों को महावीर वाणी से परिचित करायेंगी।

         महावीर उन सबके हैं, जो उनके गुणों के साक्षी होकर अपनी आत्मा के विकास के प्रति सजग हैं। विवेकशील। सजगता व विवेक के माध्यम व्यक्तिगत हो सकते हैं। चित्रकारों के प्राण उनकी कला है। कला के माध्यम से वे महावीर को अभिव्यक्ति दे सकें इसलिए ‘चित्त बसें महावीर’ नाम देने में कृति की सार्थकता है। वैसे हर प्रणी अपनी क्रियाओं द्वारा नाना प्रकार के कर्मों से चित्रित होता रहता है। ऐसे कर्मों के चितेरे कब और कहाँ पर महावीर का सानिध्य उपलब्ध कर लें यह उनके परिणामों की विशुद्धता पर निर्भर है। कृति का प्राणपात्र आचार्य कश्यप इसका एक उदाहरण है। भगवान् महावीर पर विगत 30 वर्षों में पर्याप्त पढ़ने को मिला और उन पर लिखने का अवसर भी। 3-4 पुस्तकों के लेखन के बाद यह ‘चित्त बसें महावीर’ नवनीत के रूप में प्रस्तुत है, जिसमें जैन धर्म, संस्कृति, इतिहास और जीवन मूल्य सभी समाये हुए हैं। इस माध्यम से चित्त में/आत्मा में छिपे हुए महावीर/परमात्मा के गुण प्रकट हो जायें, चित्त में महावीर बस जायें अथवा आचार्य कश्यप की भावना फलीभूत हो जाय कि चित्त/चित्रों/कला में महावीर अंकित होने लगें तो इस कृति का लेखन/प्रकाशन सार्थक हो जायेगा।

         जैनविद्या के वरिष्ठ मनीषी प्रो. राजाराम जैन की विद्वत्तापूर्ण भूमिका के लिए आभार, जिसने इस कृति का गौरव बढ़ाया है। आभार उन सबका जो महावीर की पावन गाथा को इस रूप में प्रस्तुत किये जाने में प्रत्यक्ष व परोक्ष में सहयोगी रहे हैं। लोक भारती प्रकाशन के संचालक भाई श्री दिनेश चन्द्र का तो यह महावीर के प्रति सामायिक है कि उन्होंने रात-दिन जुटकर थोड़े समय में इसके प्रकाशन/मुद्रण को कलात्मकता प्रदान की है।
महावीर जयंती,2003              प्रेम सुमन जैन
29,विधा विहार कॉलोनी
उत्तरी सुन्दरवास, उदयपुर - 313001

1.जीवन की जिज्ञासा


वेतवा के किनारे उदयगिरि की एक चट्टान पर एक सौम्य, गौरवर्ण पुरुष आकाश की ओर टकटकी लगाये खड़ा था। जाने किन प्रश्नों का उत्तर खोजता हुआ। अपने में लीन। सामने सूर्य की दिनचर्या समाप्ति पर है फिर भी वह निवासस्थान की ओर लौटने में उत्सुक नहीं लगता। उसका ही एक साथी लपकता हुआ उसकी ओर बढ़ता जा रहा है। नजदीक पहुँचते ही उसके स्वर फूट पड़े—
         ‘‘चित्रांगद ! यह एकाएक मौन कैसा ? आज प्रातः से ही देख रहा हूँ तुम्हारे मुख पर विषाद छाया हुआ है। मानता हूँ, गुरुकुल के आचार्यप्रवर कश्यप ने तुम्हें शिल्पी-समुदाय का प्रमुख बनाया है। तुम अपनी रंग-संयोजन की कला के मर्मज्ञ हो। जब इतिहास के किसी प्रसंग को चित्रित करने लगते हो तो स्वयं अनुपस्थित हो जाते हो। किन्तु तुम्हारी मुखरता, विनोद प्रियता भी किसी से छिपी नहीं है। फिर क्या साल रहा है तुम्हें ? अपने इस सहपाठी से भी छिपाओगे, जो बारह वर्षों से तुमहारे साथ छाया की तरह रहा है ?’’

         चित्रांगद ने पहाड़ी की ऊँची गुफा से अपनी दृष्टि फेरी। सामने रंगकर्मी श्रीकण्ठ उसके चेहरे पर दृष्टि साधे खड़ा था। बचपन का साथी। चित्रशाला का सहकर्मी लगता था यदि थोड़ी देर वह और मौन रहा तो श्रीकण्ठ रो पड़ेगा। चित्रांगद ने अपना दाँया हाथ उसके कंधे पर रख दिया। वह आश्वस्त हुआ। उतना ही उत्सुक। चित्रांगद ने कहना प्रारम्भ किया—
         ‘‘मित्र श्रीकण्ठ ! प्रश्न मेरे विषाद का नहीं है। तुम जैसे कलासाधकों के बीच मुझे क्या दुःख ? किन्तु शिल्पी-समुदाय के प्रमुख का यह पद मेरे व्यक्तित्व को विभाजित किये रहता है। एक ओर सुदूर देशों से आए हुए तुम्हारे सहपाठी कला स्नातकों की शिक्षा, व्यवस्था आदि का भार और दूसरी ओर आचार्यप्रवर कश्यप की कला, साधना की सुरक्षा। देखा हैं तुमने, आचार्य जब सर्जना के क्षणों में होते हैं, कितने ड़ूब जाते हैं अनुभूतियों में। समस्त गुरुकुल भित्तिचित्रों-सा शान्त हो जाता है। तुमने ध्यान दिया होगा, इधर वर्ष पूरा होने को आया, न जाने आचार्य किस साधना में लगे हुए हैं ? प्रातः प्रार्थना के बाद वे उधर गुफाओं की पंक्तियों में उतर जाते हैं और तब लौटते हैं जब हम विश्राम करते होते हैं ।’’
         ‘‘तुम्हें भी ज्ञान नहीं ? हम तो इसलिए निश्चित थे कि आचार्य कश्यप चित्रांगद के परामर्श के बिना रंग में कूँची भी नहीं डुबोते। तम्हें पा कर वे अपनी कल्पना को साकार हुआ मानते हैं।’’

         ‘‘मित्र यही तो विषाद है। चित्रांगद की कला-क्षमता में आचार्य को इतना अविश्वास क्यों ? और फिर मेरे साथ तो इतने शिल्पी हैं। कुशल स्थापित, रंगधर्मी कलाकार, पत्थर में प्राण फूँकने वाले मूर्तिकार। वे आदेश तो करते फिर देखते अपने अन्तेवासियों की कला का चमत्कार ।किन्तु न जाने आचार्य किस कल्पना में लीन हैं ? तुम्ही बताओ, उस आचार्य की खिन्नता हम जैसे कलासाधकों को नहीं सालेगी, जिसने हमें रेखांकन से लेकर रंग-संयोजन तक की कला में पारंगत करने में अपने जीवन के कितने वर्षों का होम किया है ?’’

         ‘‘बन्धु ! खिन्न न हों। भूले न हों तो आज प्रकाश पर्व है। दीपमालिका। आचार्यप्रवर ने गतवर्ष आज के दिन कितना उत्सव किया था। कितने प्रफुल्ल थे, उसका कारण तो वे जानें। किन्तु आज फिर सांय काल की प्रार्थना में वे हम सबके बीच में होंगे यह मैं जानता हूँ। क्यों नहीं, आज हम उनकी वर्ष भर की साधना का रहस्य जानने की उनसे जिज्ञासा करें ? आओ, सूर्य अपनी यात्रा के पड़ाव की ओर अग्रसर हो रहा है, हम भी गुरुकुल की ओर चलें। सहयोगी कलाकार आपकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे।’’
         चित्रांगद श्रीकण्ठ का हाथ थामे उदयगिरि की पहाड़ी से नीचे उतरने लगा। आधे कोस की दूरी पर स्थित कलासाधकों का आवास आज उसे अपरिचित-सा लग रहा था। पता नहीं, घड़ी-दो-घड़ी बाद वह किन रहस्यों के बीच होगा।
         गुरुकुल का विशाल सभागृह। चारों ओर की भित्तियों पर भारतीय इतिहास, धर्म, पुराण-कथा के विभिन्न प्रसंगों का चित्रांकन इतना मनोहर व सजीव है कि लगता है आज आचार्य कश्यप को सुनने प्राचीन कथाओं के पात्र भी वहाँ एकत्र हुए हैं। छत नाना अलंकरणों से चित्रित है। सभागृह के स्तम्भों को चिकना करने में किसी स्थपित ने अपनी कला को उड़ेल दिया है। चारों कौनों पर एक-एक मशाल जल रही है। उसके प्रकाश में वहाँ शिल्पी समुदाय के सौ कलासाधक बैठे हैं। जलाशय से शान्त। सामने मंच पर आचार्य का आसन लगा है। समीप में ही एक कलात्मक दीपस्तम्भ स्थित है, जिसमें ज्योति प्रज्वलित कर आचार्य हर वर्ष प्रकाश पर्व का शुभारम्भ करते हैं। फिर होड़-सी लग जाती है कलासाधकों में दीप प्रज्वलित करने की। वेतवा नदी के किनारे स्थित इस गुरुकुल का कोना-कोना जगमगा उठता है। आचार्य सुनने लगते हैं प्रकाशपर्व के सम्बनध में अनगिनत कथाएँ, प्रसंग, न जाने क्या-क्या ! उनकी वर्ष भर की अनुभूतियाँ आज के दिन ही तो प्रकाश में आती हैं। कला-साधक नई स्फूर्ति से भर जाते हैं और उदयगिरि का कोई एक शिलाखण्ड उनकी कला से फिर सार्थक हो जाता है। किन्तु आज का यह विलम्ब पता नहीं आचार्य की किस अनुभूति को प्रकट करता है ?

         मंच के पृष्ट के द्वारकक्ष का पटह गूँज उठा। आचार्य प्रवेश कर रहे हैं। साथ में है चित्रांगद, श्रीकण्ठ एवं कुछ और प्रमुख कलाकार। कलासाधकों ने उठ कर उनका अभिवादन किया। आचार्य कश्यप ने आसन ग्रहण किया। उनकी उपस्थित मात्र से सभागृह आलोकित हो उठा हो। उनकी तीक्ष्ण दृष्टि जिस किसी कलाकार पर पड़ती तो वह अपने को धन्य मानता। चित्रांगद को उस दृष्टि में एक प्यास दिखायी पड़ी। एक तड़प। पता नहीं आचार्य क्या खोज रहे हैं ? इतनी गहराई से उन्होंने पहले कभी कलाकारों के चेहरे नहीं नापे। तभी मंगल पाठ के उपरान्त आचार्य मुखर हो उठे—
         ‘‘कलासाधकों ! प्रकाशपर्व आप सबको मंगलमय हो। इस ज्योति पर्व के सम्बन्ध में न जाने कितने प्रसंग मैं आपको सुना चुका हूँ। उन्हें आप ने रंगों के माध्यम से इन गुफाओं में भी उतारा है। एक से एक बढ़ कर कलाकृतियाँ। किन्तु आज मैं आपको क्या प्रसंग सुनाऊँ, समझ नहीं पा रहा हूँ। आप स्वतन्त्र हैं, अपनी कल्पना को रंग देने में।’’
         आचार्य कश्यप इतना कहकर दीप स्तम्भ को प्रज्वलित करने लगे। तभी एक स्वर उभरा—

         ‘‘आचार्य, धृष्टता क्षमा करें ! सभी कला-साधक विनीत हैं। आपके प्रति विश्वास से भरे हुए। किन्तु आपकी यह उपेक्षा अब सह्य नहीं है। दीपस्तम्भ का प्रकाश हमें कितना मार्गदर्शन करेगा, यदि आपने अपने अन्दर की ज्योति हमें नहीं बाँटी। हमारी कला शक्ति पर अविश्वास न करें। गुरुदेव ! आप कहें, आपके मन में क्या प्रसंग उमड़ रहा है ?’’  
         श्रीकण्ठ हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। आचार्य के हाथ की मशाल दीपस्तम्भ तक नहीं पहुँच पायी। उन्होंने दृष्टि फेरी। तभी दूसरा स्वर उभरा—
         ‘‘गुरुदेव ! श्रीकण्ठ ठीक कहता है। अब यह दीप स्तम्भ नहीं जलेगा, जब तक आप यह प्रगट नहीं कर देते कि वर्ष भर इन पहाड़ियों के भीतर आप क्या खोजते रहे ? ऐसा कौन-सा प्रसंग है, जिसे आप कहने में संकोच कर रहे हैं ? आप न केवल कलाओं के आचार्य हैं; इतिहास, पुराण, धर्म-दर्शन आपकी जिह्वाग्र पर हैं। और फिर आप में आत्म-ध्यान की वह शक्ति है कि हजारों वर्ष पूर्व की घटनाएँ आप सामने घटित होते हुए देख सकते हैं। आपने भगवान राम, कृष्ण, बुद्ध के जीवन के कितने प्रसंग हमें सुनाये हैं। वे सब कहाँ शास्त्रों में लिखे हैं ? सब आपकी अनुभूति से निकले हैं। निवेदन है, आचार्य ! हमें भी उन क्षणों को जीने दें, जो आपकी साधना की उपलब्धि हैं ।’’

         आचार्य ने चित्रांगद के चेहरे को देखा तो जिज्ञासा से भरा हुआ था। शिल्पी समुदाय पर दृष्टि घुमायी। सभी एकाग्रचित्त हो, उन्हें सुनने को आतुर थे। स्वयं को रोक पाना अब कठिन था, आचार्य कश्यप मशाल लेकर खड़े हो गये। बोले—
         ‘‘चित्रांगद ! श्रीकण्ठ ! अन्य कलाकारों ! मुझे तुम्हारी इसी जिज्ञासा भरी स्थिति की प्रतीक्षा थी। मेरी साधना, आकांक्षा को जानना चाहते हो तो आओ मेरे साथ। उदयगिरि की गुफाओं में चलें। वहीं मैं अपनी बात कह पाऊँगा।’’
         सभागृह के मुख्य द्वार से आचार्य कश्यप मशाल लिए हुए चल दिये। चित्रांगद, श्रीकण्ठ उनके पीछे थे। गुरुकुल के पच्चीस उत्साही कलाकार और उनके पीछे हो लिए। आचार्य प्रमुख गुफाओं को छोड़ते हुए उस पीछे की पहाड़ी की तलहटी में पहुँचे, जिसके ऊपर की गुफा में एक जैन प्रतिमा खुदी हुई है। पहाड़ी के प्रवेश द्वार पर आचार्य खड़े हो गये। शिल्पी-समुदाय के एकत्र होने पर बोले-- ‘‘आप सभी यह द्वार पहली बार देख रहे होंगे। मेरी यात्रा यहीं से प्रारम्भ होती है। सब भीतर प्रवेश करें। ध्यान रहे, प्रकाश के लिए यह एक मशाल अपने साथ है, अतः सब साथ-साथ चलें और दीवाल के दोनों ओर देखते चलें ।’’

         प्रवेश करते ही शिल्पियों ने देखा वह गुफा नहीं, किसी सम्राट् का तहखाना जैसा था। एकदम सपाट भूमि, छत और दीवालें। दीवालों पर दोनों ओर आमने-सामने एक-एक धनुष के अन्तर से लम्बे-चौड़े चित्रफलक टंगे हुए थे। शिल्पी आश्चर्यचकित रह गये। जब आचार्य ने उन्हें बताया ये चित्रफलक नहीं, गुफा की दीवालों को ही मसाले से इतना चिकना किया गया है कि उन पर चित्रकर्म किया जा सके। एकदम दर्पण जैसा। इस प्रकार 12-12 भित्तिफलकों को देखते हुए शिल्पी संघ जब आगे पहुँचा तो ठिठक गया। सामने एक बड़ी दीवाल से गुफा समाप्त हो गयी थी। एक दीपक के प्रकाश में दो कलाकार अभी भी कार्यरत थे। आचार्य उनके पास जाकर खड़े हुए। मशाल का प्रकाश पड़ते ही उन कलाकारों की आकृतियाँ स्पष्ट हो गयीं। एक थी गौरवर्ण, तीखी नासिका एवं पकी दाढ़ी वाले किसी वृद्ध कलाकार की आकृति और तरुणाई से पुष्ट एवं रूप से सुघढ़ किसी युवा नारी की आकृति। आचार्य ने शिल्पियों को अधिक चकित होने का अवसर नहीं दिया। बोले—
         ‘‘कला-साधकों ! प्रथम इनसे परिचय प्राप्त करें, जिनकी अथक साधना और परिश्रम का परिणाम यह गुफा है। ये हैं अमरावती की चित्रशाला के आचार्य पूर्णकलश, जिन्होनें मेरी कल्पना के अनरूप इस गुफा को चित्रांकन के लिए तैयार किया है। और यह हैं उज्जयिनी की चित्रसभा की स्नातिका सुश्री कनकप्रभा, जिसने चित्रभूमि तैयार करने में दक्षता प्राप्त की है। उज्जयिनी में मेघदूत के भित्तिचित्र इसके द्वारा निर्मित चित्रभूमि पर ही बने हैं और ये हैं पच्चीस चित्रभूमियाँ इसकी अद्भुत कला की प्रमाण ।’’

         ‘‘ सत्य है गुरुदेव ! ये चित्रभूमियाँ इनके नाम को सार्थक करती हैं और इनका तारूण्य उस दिन सार्थक होगा, जब ये भित्तियाँ किसी महापुरुष के प्रसंग से अनुप्रमाणित हो उठेंगी।’’ किसी वाचाल रंगधर्मी का स्वर गूंजा। कुछ शिल्पी मन-ही-मन मुस्कुराये । चित्रांगद ने बात आगे बढ़ायी—
         ‘‘आचार्य ! नवागत कलाकारों का स्वागत है। स्तुत्य है उनकी कला। किन्तु गुरुदेव ! इससे हम और उत्सुक हुए हैं, ऐसी कौन सी कल्पना को आप साकार करना चाहते हैं, जिसके लिए बाहर से कलाकार बुलाने की आपको आवश्यकता पड़ी ? वे धन्य हैं, जो हमसे पूर्व आपका मनोरथ जान गये।’’
         ‘‘नहीं चित्रांगद ! यह बात नहीं है। इन्हें भी नहीं पता है, मैं इन भित्तियों पर क्या चित्र देखना चाहता हूँ। किन्तु अब प्रकट कर देना चाहता हूँ अपनी आकांक्षा। चाहे तुम उसे मेरा आदेश मानो या अपनी गुरुदक्षिणा। सब शान्ति से बैठ जायें और सुनें।’’
 
  

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