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पारिवारिक >> पीली आँधी

पीली आँधी

प्रभा खेतान

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :299
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2301
आईएसबीएन :9789388211901

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इसमें एक संयुक्त परिवार की व्यथा का वर्णन किया है....

Peeli Aandhi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

यह न आत्मकथा है और न परकथा। इस उपन्यास में कोई एक परिवार नहीं, इसमें कुल हैं, कबीला है...संयुक्त परिवार है....मगर सब कुछ टूटता हुआ, उड़ती हुई रेत के ढूहें जैसे स्त्री-पुरुष और उनकी किरकिराती हुयी रेतीले क्षण। तीन पीढ़ियों की स्त्रियां; चाची, बड़ी मां और सोमा, अपनी-अपनी बात कहते हुए भी खामोशी की धुन्ध में खोती हुई। मगर एक चीज जो सब को जिन्दा रखती है-वह है प्रेम। चाहे वह राजस्थान की सुनहली रेत हो या बंगाल की हरित्तमा-यह प्रेम ही तो है जो हम सब की पहचान है।

जो हमारे आपके सबके-सबके हृदय में धड़कता है और धड़कता रहेगा। बंगाल की बारिश में, कीचड़ और कादे से सनी हुई सड़कें राजस्थान के पदछापों की धड़कन सुनेगी और कहेगी-अरे ! यह पीली आंधी यहां बंगाल में क्या कर रही है ?

 

पीली आंधी

 


माचे पर लेटे-लेटे वृद्ध सेठजी ने करवट बदली और पास बैठी वृद्धा सेठानी की ओर देखा। सूत कातते हुए वृद्धा के हाथ रुक गए। सर का पल्लू ठीक करते हुए उसने चेहरा घुमाकर ध्यान से पति की ओर देखा। फिर सेठजी से पूछा-‘‘क्या बात है ? कुछ चाहिए क्या ?’’
‘‘पानी !’’
‘‘छाछ पी लीजिए ना ! पानी तो घड़े में थोड़ा कम ही है।’’

‘‘नहीं, मुझे पानी चाहिए। आज बार-बार पानी की जरूरत महसूस हो रही है।’’ वृद्ध ने पगड़ी के छोर से ललाट को पोंछा और सूखे होंठों को जीभ से तर करते हुए पूछा-‘‘रामेसर और किशन की कोई खबर आई ?’’

‘‘नहीं।’’ संक्षिप्त उत्तर था। ठंडी उसांस के साथ वृद्धा ने चरखे को परे सरकाते हुए फिर पति से कहा-‘दिन भर आए-गयों का तांता लगा रहता है। बात करते रहेंगे तो गला नहीं सूखेगा ? आज सुबह से चार बार तो पानी पी चुके हैं। थोड़ा छाछ से भी प्यास बुझाने की कोशिश कीजिए ना !’’

‘‘नहीं मुझे पानी चाहिए।’’ जिद्दी बच्चे की तरह मचलते हुए वृद्ध ने कहा।

बातचीत की आवाज सुनकर अब तक घर की छोटी बीणनी घंघूट काढ़े सामने आकर खड़ी हो गई। वृद्धा सेठानी ने लाड़ से अपनी इस छोटी बीणनी की ओर देखा। चटख रंग के गुलाबी घाघरे पर हरी लहरिये का ओढ़ना जिस पर छोटे-छोटे सच्ची चांदी के कटोरी वाले तारे जड़े थे, आंगी की बांहों पर चौड़ा सुनहला गोटा चमक रहा था, पैरों में चांदी की बिछिया और कड़ा, कमर में सोने की भारी तगड़ी, गले में सोने का सतलड़ा हार, गोरी कलाइयों में सोने-मीने की पछेली और लाल चूड़े से कोहनी तक भरी हुई थी। बोरला, फोणी, नाक का जड़ाऊ नथ घूंघट की झीनी आड़ से चमक रहा था। उन्होंने मन ही मन सोचा कि, बीणनी ने कौन-सा बोरला और खैंचा लगा रखा है ?

कहीं वह मोतियों वाला तो नहीं लगा लिया ? और कहीं मोती की लड़े टूट जाएं ? मोती बिखर जाए तो ? टाबर है, भोली है, कुल चौदह बरस की तो है। चार बरस पहले ही तो मुकलावा लेकर आई थी।

 उनको अपनी यह छोटी बीणनी बहुत ही प्यारी लगती। गोरा खुलता हुआ रंग, गोल मुखाकृति स्थिर दृष्टि कोमल हंसी और थोड़ा नाटा कद। बीस दिन हुए बीणनी के माथे में घी दबाकर मोम चिपका कर नेवगण सिर गूंथी करके गई सो वापस आने का नाम नहीं। आकर भी क्या करे ?
सिर नहाने का पानी कहां ? नहाने के लिए अभी पानी की बरबादी करे भी कैसे ? बर्तन तक तो बालू से रगड़कर चमका लेते हैं।
बीणनी के पैरों की ओर उन्होंने देखा। चांदी की बिछिया और चांदी का कड़ा। एक ठंडी सांस अजाने ही निकल गई। कहां गए वे पुराने दिन ? इस बिचारी ने तो कुछ देखा ही नहीं। मेरी सासूजी और तायसजी तो पांवों में सोने के कड़े पहनती थीं, महाराजा गंगा सिंह जी के हुकुम से। ब्याह के बाद पहनाया तो मुझे भी गया था। लेकिन खोल कर रख देना पड़ा।
 
उन्होंने अपने रेजा का कत्थई रंगवाला फूलपत्ती की छपाई के घाघरे की ओर देखा, और फिर उनकी आंखों के सामने मलमल और सिल्क के सुंदर रंग-रंगीले रेशमी घाघरे घूम गए। पीले, पोमचा, लहरिया सतरंगिया ओढ़नी पर कारचोबिये का काम होता, बेल-बूटी लगी होती, रंग-बिरंगी आंगियों की बांहों में चौड़ा गोठ किनारा रहता। सेठजी पचरंगी पगड़ी और लाल अचकन पहनते।

राजा साहब के यहां पर एक बार जलसे में सासूजी के साथ गई थी। वही से तो जब भी बुलावा आता, मांजी तो गहने की पेटी खोलकर बैठ जातीं। उस दिन तो उन्होंने मुझे सच्चे मोतियों वाला सतलड़ा हार पहनाया था। मैं जब राणी साहिबा के सामने प्रणाम करने झुकी तो मोतियों की आब पर उनकी नजर ठहर गई। मांजी से वे पूछ ही बैठीं-
"यह मोतियों का हार तो बहुत सुंदर है। कहां से मंगवाया है ?"

"जी मालवे की गद्दी पर कोई व्यापारी लेकर आया था। बड़े सेठजी ने खरीद कर रख लिया था कि, कावे-ढीचे पर काम आएगा। मेरी सासूजी ने मुंह दिखाई में इसको मुझे पहनाया। आज मैंने बीणनी से कहा, "तू पहन ले।"
बगल में बैठे पासवानजी ने फरमाया-" सेठानीजी, बीणनी, आपकी बहुत सोणी, उस पर से यह फालसाई रंग का उसका ओढ़ना भी अच्छा लग रहा है।"

जब राणी साहिबा और पासवान की आंखें मुझ पर गड़ीं रहीं तो ठकराणियों की तो क्या बात करें ? वापस घर आकर मांजी ने पहले तो मेरी नजर उतारी और फिर काकोजी से सारी कहानी कह सुनाई। सुसराजी तो ठहरे स्याणे, आदमी तुरंत चुरू की गद्दी पर ओढ़ने का आर्डर भेजा गया, और मांजी से बोले कि, अपने को तो यह बेशकीमती हार राणी साहिबा को नजराने में देनी होगी। बात यह है कि, सेठाणी तुम समझ लो कि राणी की नजर जिस पर पड़े वही उसका नजराना होता है। मोतियों का कंठा लेकर सासूजी खुद गई थीं
और ओढ़ना भेजा गया था, पासवानजी के पास।
उन्होंने प्रत्यक्ष में पति से पूछा-"हां...जी ! आपको वह मोतियों के कंठे की याद है ना ?"
"तेरी मति कहां चली गई ? मैं पानी के लिए छटपटा रहा हूं और तू कौन से कंठे का जिकरा लेकर बैठ गई ?" सेठजी एकदम से झल्ला उठे।

छोटे बेटे किशन की बीणनी एक कदम और आगे बढ़ी, चुड़ले की आवाज सुनकर सास ने कहा-"बीणनी काकोजी पानी मांग रहे हैं, एक गिनौड़ा डाल देना, प्यास कम लगेगी।"

"दादी, मैं भी एक गिनौड़ा चूसूंगा...!" बाहर से दौड़कर आते हुए माधो ने कहा।
"तू राम मारया ! इत्ती लाय में बाहर क्या कर रहा था ?"
"दादी तिबारे में ही तो था, भायलो के साथ गिल्ली-डंडा खेल रहा था।" अब वह वापस मचल रहा था-"दो....ना....दादी, गिनौड़ा दो....ना, तुम तो गिनौड़ा छुपा कर रखती हो।"

"दे बीणनी दोनों छोरों को एक-एक गिनौड़ा दे दे। चूसते रहेंगे तो प्यास कम लगेगी।"
"जी !" कहते हुए बीणनी, चौके की ओर वापस मुड़ गई। मांचे के पास जमीन पर बैठा खेलता हुआ बच्चा अपनी मां को यों पलटते देख जोर से चिंघाड़ उठा।

"अरे गीगा क्यों रो रहा है ? ज्यादा रोएगा तो गला और सूखेगा।" सेठजी ने कहा।
"हो जाएगा चुप, अभी हो जाएगा।" कहते हुए उन्होंने बच्चे को गोद में बैठा लिया। उसके सिर पर हाथ फेरते हुए वृद्धा सेठानी वापस अपने ख्यालों में खो गई-

छोटी बीणनी के पीहर वालों ने मुकलावा अच्छा दिया था। नवलगढ़ वालों की हैसियत अच्छी है। बस सासू की तील थोड़ी हल्की थी, लेकिन जाने दो क्या फायदा मन में शिकायत रखकर, बड़ी बीणनी के पीहर से तो वह भी नहीं आता। छोटकी के मुकलावे के दस दिन बाद ही तो दोनों बेटे दिसावर चले गए थे। कमाई के लिए जाना ही पड़ता। कोई उपाय भी तो नहीं, लेकिन अबकी यात्रा और लंबी थी-"रायबक्सगंज तक की। किशन तो साथ जाता ही। लेकिन किशन ने तो बस बेटा होने की खबर ही सुनी है,
उस समय जो दोनों भाई गए तो फिर गांव लौटकर ही कब आए ? अबकी तो आते ही दो काम बड़े करने हैं-एक तो खिचड़ी का नेग और दूसरे सालासारजी जाकर "गीगे" का जड़ुला (मुंडन) करवाना है, साथ में परोजन का भी नेग होता है। लेकिन दोनों नेग एक साथ करेंगे ना, तो किशन के सासरले सासू की तील हल्की कर देंगे। इससे तो अच्छा है कि जात-जडुला बाद में कर लेवें।
इसी बहाने बेटों में रामेसर नहीं तो कम से कम किशन को तो गांव जल्दी ही आना होगा। गीगा तीन का हो गया, पांचवां लगते ही मैं तो जड़ुला करवा दूंगी। इसकी अभी से ही चोटी गूंथनी पड़ती है। बालों में खेलते-कूदते बालू ही बालू भर जाती है।
वृद्धा सेठानी की एक ठंडी सांस कमरे में फैली गर्म हवा के साथ ठहर गई। अपने-आप में मां की प्रतीक्षा थी-बेटों के लिए। जाते समय उन्होंने बेटे रामेश्वर से पूछा भी था, "क्यों बेटा मिर्जापुर नहीं जाओगे ?"

"नहीं मां, वहां अब पहले वाली कमाई नहीं। हमें तो रायबक्सगंज से भी और आगे जाना होगा। कंपनी सरकार तक। देख नहीं रही हो कि, घर में खाने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है।"
"एक ही तो पोता है, दस वर्ष का।" प्यार से अपने बड़े पोते माधो के सर पर हाथ फेरते हुए उन्होंने बेटे से कहा था। दादी की ममता से माधो खिल उठा था।

"जी, दस महीने में छोटकी बीणनी के एक और आ जाएगा।" घूंघट को सामने खींचते हुए बड़ी बीणनी ने कहा था।
"देखो लंगड़िया बाबा की किरपा होगी तो। कहां बेटे पड़े हैं, तुम तो दस बरस में एक ही पैदा करके थक गई।"
घूंघट के अंदर एक ठंडी सांस थी। बिना कुछ कहे भी वृद्धा सास इन उसांसों का अर्थ समझती थी। बड़ा बेटा रामेश्वर देश में रह ही कहां पाया ? तीन-तीन बरस की लंबी दिसावरी।

 पति-पत्नी साथ रहें तब ना बच्चे हों। अफीम के कारोबार से सेठजी ने पैसा तो कमाया ही था। लेकिन अब उनका गिरता हुआ स्वास्थ्य और दिन-दिन भर अम्मल पानी के नशे में मांचे पर पड़े रहना। नाई, ब्राह्मण, यार दोस्तों का जमघट लगा ही रहता।
‘‘दादी प्यास लगी है।" अब पानी मांगने की माधो की बारी थी।
"दिन भर उछल-कूद करेगा तो प्यास नहीं लगेगी ? जा, चाची से मांग कर छाछ पी लो।" फिर मानो अपने आप से बोली-"गला तो सभी का सूख रहा है, लेकिन घर में पानी कहां ?"
"क्यों ?" वृद्ध सेठजी की सफेद भौंहों में बल पड़ गए।

"बड़ी बीणनी दो दिन से बुखार में तप रही है, छोटी बीणनी की आंखें देर से खुली, तब तक गांव की लुगाइयां नोहर की ओर चली गई थीं।"
"लेकिन तू क्या कर रही थी ? तू तो चार बजे उठ ही जाती है।" वृद्ध के स्वर की रुक्षता से वृद्धा ने भी चिढ़कर उत्तर दिया-
"मेरा तो बुढ़ापे का शरीर ठहरा। गोड़े के दरद से तो मैं खुद परेशान हूं।"
"कितनी बार कहा, मेथी की फांकी ले लो।"
"मुझे नहीं भाता।" नवोढ़ा की तरह ठुनकते हुए वृद्धा ने कहा।
"तो भागवान तू मेथी के लाड़ू बनवा लेती।" वृद्ध के स्वर में लाड़ था।

"जी, अब आप चुप करिए तो, क्या जोर आया बोलने में ? बीणनियां तो घर के काम में उलझी रहती हैं।" वृद्धा रोते हुए बच्चे को फिर वापस थमकने लगी...और मानो पुनः स्वयं से बोली-
"बड़की बीणनी तो दिन भर नमक की डली-सी घुलती जा रही है। इतनी तो माड़ी हो गई। रोज शाम को हल्की बुखार चढ़ जाती है। लेकिन तब भी काम में फुर्ती है। काम अधूरा नहीं छोड़ती। यह तो छह सात दिन से उसने एकदम खाट पकड़ रखा है। बुखार में बेहोश जैसी हो रही है। वैद्यजी का इलाज काम नहीं आया। कितना इलाज कराया था। जत्तीजी को भी दिखाया था, नाड़ी देखकर सर हिला दिए, बोले-"बहूराणी के लक्षण ठीक नहीं, मुझे तो राजरोग लगता है।"

मैंने तो पांव पकड़ लिए थे-"महाराज कोई दवा तो दीजिए। दस बरस का बेटा है, उसकी ओर जोहिए। आप क्या नहीं कर सकते ? मावस की अंधेरी रात को चमाचम पूरणमासी में बदल सकते हैं। आपने तो महावीर स्वामी की इतनी बड़ी तपस्या की, महाराज कोई दवा तो दीजिए। मैं तो बहुत रोई। बहुत गिड़गिड़ाई।"

वृद्धा सेठानी ने चर्खा अपनी ओर खींचा और वापस सूत कातने लगी-"घर-गृहस्थी में काम किए बिना कैसे सरे ? बक्सा में काफी सूत जमा हो गया है। थोड़ी और जमा हो जाए तब लीलगर को रंगने के लिए दे दूंगी। मुझे तो रेजे का यह कत्थई रंग जरा भी नहीं सुहाता। अबकी बार तो मैं उससे कहूंगी-भाया, जरा तेरी लुगाई से सलाह कर ले ! मोटे सूत पर केशारिया रंग ठीक से नहीं खिले तो थोड़ा मिलता-जुलता रंग कर दिए।"

"रामू की मां तेरा तो माथा दिन पर दिन खराब हो रहा है। तू जत्तीजी की बात कर रही थी ना !" सेठजी ने फिर पूछा।
"हां...हां...कहा न मैंने कि, जत्तीजी ने नाड़ हिला दिया। बोले बीमारी बहुत बढ़ गई है, मेरे पास इलाज नहीं है। उन्होंने बीणनी को आशीर्वाद भी नहीं दिया।"

"ओ..हो, जत्तीजी ने आशीर्वाद नहीं दिया ?" अबकी चौंकने की बारी सेठजी की थी। "वे त्रिकालदर्शी हैं, घणा तप किए हैं। उनकी बात गलत नहीं हो सकती, रामेसर की मां ! कभी-कभी सोचता हूं तो कलेजा हिल उठता है।"
"बीणनी कह रही थी कि रचनगढ़ में एक अंग्रेजी पढ़ा हुआ डाक्टर है। दो रुपया फीस का लेता है।"

"रामेसर को आ जाने दो, उसका भी बंदोबस्त हो जाएगा। देखो, तकदीर का लेखा कोई नहीं मिटा सकता। लेकिन पाणी तो छोटी बीणनी भी कर ला सकती थी ?" पानी के बारे में सेठजी का पुनः प्रश्न था।

"ओ.....हो....आपके तो कुचरनी बहुत लग जाती है। कहा न कि, छोटी बीणनी की नींद देर से खुली।"
भीतर, पैंडे में छोटी बीणनी ने घड़े के भीतर झांका आधे से ज्यादा घड़ा खाली देखकर मन ही मन अपने को बरजने लगी-बास तो लगे मेरी नींद को। सूरज चढ़ने तक सोती ही रह गई। कागे की कांव-कांव से भी नींद नहीं खुली। लेकिन आज सुबह कागा मेरी खिड़की पर बैठा था। कौन आएगा ? मुकलावे के बाद जिसके साथ मैं बस दस दिन ही रह सकी थी। उसके हृदय में एक हल्की-सी पीर उठी।
 एक कसक, एक रीती चीख...क्यों आखिर क्यों हमारे पुरुषों को दिसावरी में जाना पड़ता है ? और वह भी इतनी कम उमर में ? गांव का नाई नहीं जाता, जोशी नहीं जाता, ठाकुर नहीं जाते, राजा साब नहीं जाते, फिर खाली हम बाणिये ही क्यों जाते हैं ? जैसे उनका गुजारा होता है, वैसे हमारा भी क्या नहीं हो सकता ? उसको याद आया-हां, यहीं तो मैंने चार साल पहले उस दिन, उस आखिरी रात को अपने पति से भी पूछा था-

"क्यों जी, क्या यहां अपने सुजानगढ़ में गुजर-बसर नहीं कर सकते ? कोई दुकान खोल लीजिए।"
"तुम भी क्या बोलती हो ? बाणिये का बेटा घर में मोदी की दुकान खोलकर बैठ जाए, दो सूखी रोटी में गुजारा कर ले...तब हो चुका गांव वालों का भरण-पोषण। यह मत भूलो कि, तुम सेठ गुरमुखदास रूंगटा के पोते की बहू हो। दादाजी तो रतनगढ़ रहते थे। अफीम का बहुत बड़ा व्यापार था।

 जब मालवा, अजमेर, मिर्जापुर की गद्दियों से मुनीम गुमाश्ते लौटते, तब दादाजी बीकानेर महाराज के लिए अशर्फियों से भरा चांदी का थाल नजराने में ले जाते। यह तो कंपनी सरकार की वजह से अफीम का कारबार बंच हो गया। एक बार तो रुपये की चौकी बनाकर महाराज को उस पर बैठाया गया था। दादाजी ने महाराज का तिलक किया, इक्कीस तोपों की सलामी दी गई और नजराने में वे सारे नोटों की गड्डियां पेश की गई थीं।"

"आपको याद है ? आपने महाराज गंगासिंहजी को देखा था ?"
"मुझे तो उतना याद नहीं, लेकिन रामेसर भाया को रतनगढ़ की सारी बातें याद हैं। वे ही कभी-कभी बताया करते हैं। लेकिन तब भी अपने महाजनी में बहुत कमाई थी। राज घराने से रोज धन की मांग आती, आखिर हम भी कहां तक राजाजी को धन निकाल-निकाल कर देते ?

 कितना सदाव्रत खोलते ? हम भूखे तो नहीं मर सकते थे। छप्पनिये के अकाल के बाद भी अपने देश में अकाल पड़ता ही रहता है। आए दिन के इन अकालों से हमारी तो हिम्मत टूटने लगी थी।
वह अपनी बाल सुलभ चंचलता को भूलकर पति का चेहरा निहारती रह गई थी।

 उसने धीरे से मुस्कुरा दिया...उसकी आंखों के सामने पति का खूबसूरत चेहरा था-वह ध्यान से निहार रही थी। अपने पति का चौड़ा ललाट, बड़ी-बड़ी आंखें ऊंची नासिका, लाल होंठों के ऊपर बारीक मूंछें, नुकीली ठुड्डी। ब्याह के समय पीहर में बड़ी भावज ने बड़ा हुलस कर गाया था।

"म्हारी ननदल बाई तो सुकुमार ए नन्दोई म्हाने प्यारा लागो जी !"
मां ने कहा था-"देखो भगवान ने नाम का भी कैसा हिसाब बैठाया, अपनी राधा को साक्षात् कृष्ण कन्हैया ही मिले।"
शायद वह अपने आपसे कुछ और बातें करती। शायद वह फिर उस कागे के बारे में सोचती जो पिया के पास उसका संदेश लेकर जाएगा, शायद यह भी सोच लेती कि क्या पता दिसावरी करने गया हुआ उसका पति आज ही लौट आए और वह हल्के-हल्के गुनगुना उठी-
"उड़...उड़ रे...म्हारा काला कागला, जे म्हारा पीवजी घर आवे। खीर खांड को थाल परोसूं....थारी सोने चोंच मढ़ाऊं रे कागा...थारी...जलम...जलम...गुण गाऊं रे...कागा जलम...जलम..."
लेकिन तब तक वृद्धा सास की तेज आवाज थी...हां, ऐ बीणनी कहां रह गई ?"

आवाज से वह चौंकी। गिलास में पानी डालते हुए घबराहट में थोड़ा पानी बाहर छलक गया। अफसोस और गिला से उसका कलेजा उमड़ आया। इतना पानी तो बच्चा ही पी लेता। कब से रो रहा है। या फिर जिठाणीजी को पिला देती, बुखार से उनका शरीर तप रहा होगा, कंठ सूख रहा होगा।
घूंघट को और थोड़ा नीचे खींच वह उठ खड़ी हुई। काकोजी कल ही तो मांजी को बता रहे थे...राम की मां तुम तो छप्पनिये के अकाल की तो कल्पना नहीं कर सकती..ढोर-डांगर की तो किसको चिंता थी। चारों तरफ हड्डियों के कंकाल के डेर लग गए थे। प्यास से आदमी तड़फड़ाने लगे थे।
 भूख और गरीबी देखी नहीं जाए। दिन में एक बार बाजरे की लाप्सी मिल गई या किसी को दो टिक्कड़ खाने को मिल जाए गए तो बहुत बड़ी बात थी। क्या करते लोग, रोजगार की खोज में सब निकले। सेठ, साहूकार निकले, उनके मुनीम गुमाश्ते निकले। कोई अजमेर, मालवा की ओर गया, कोई पंजाब की तरफ, तो कोई बंबई की ओर।
बापूजी ने मालवा में अफीम का व्यापार तभी शुरू किया था। अपनी अफीम की पेटियां चीन और जापान तक जातीं। साथ ही बड़े ताऊजी ने चुरू में गद्दी खोली, महाजनी का काम बढ़ाया।"
"छप्पनिये की अकाल की तो मुझे ज्यादा बेरा नहीं, लेकिन यहां सुजानगढ़ में भी तो सेठ छेदीलालजी की जोहड़ भी सूख गई, पानी कहां ? खाली काचड़ी ही कीचड़ दिखाई देता है। दो साल पहले जब बिरखा हुई थी तो जोहड़ कैसा लबालब भर गया था। गांव के सब लोग गोठ करने गए थे।"
"कहावत है न, कि अपने देश में तो हर "तीसरो सूखो, आठवों अकाल" पड़ता ही रहता है।" हताशा के स्वर में सेठजी ने कहा।
भीतर छोटी बीणनी ने अपनी फटी हुई एड़ियों की ओर देखा और सोचा, कितना भी घी लगाकर सोए, लेकिन पीली रेत पर कोसों का आना जाना, जूती के भीतर तलवे जलने लगते हैं, एड़ियां फटने लगती हैं। उसने देखा, घड़े के जमीन पर गिरा हुआ पानी मिनटों में सूख गया। सुजानगढ़ की जमीन प्यासी थी।

सास-ससुर की बात सुनकर बीणनी को भी ख्याल आया कि, हां हमारे हेली के पीछे वाला कुआं भी तो सूख ही गया। कुआं तो मेरे ब्याह के बाद ही बनवाया गया था। जिस दिन पहली बार कुएं का पानी निकाला गया था, तब पानी चखने के लिए सारा गांव उमड़ पड़ा था। लंगड़िये बाबा के नाम का राती जुगा हुआ, चूरमे का परसाद किया गया था। कोई दो सौ आदमियों को तो जीमने बुलाया गया था।

 कुएं की सारण ढालू रखी गई ताकि बेचारे बैलों को मेहनत कम पड़े। कुएं की पास की बाड़ी में हरी साग-सब्जी होती। रामी दादी तो बिचारी जात की भंगन ठहरी, कभी कुएं के ऊपर नहीं चढ़ी, नीचे बनी खोलों से ही पानी ले जाती या फिर पास बनी गढ़ाइयों में ही अपनी पीतल की चमकती हुई गोल कलसी डुबाती। सबेरे-सबेरे माली काका पानी खींचने के लिए बैलों को जोत देते और भजन गाते, सुनकर मन निहाल हो जाता।

शाम को हेली के पिछवाड़े सारा गांव जमा हो जाता, मेला लग जाता। लेकिन इतना अच्छा कुआं भी सूख गया। मांजी के मन में तो इसका विचार भी बहुत हुआ, कुआं, सूखना अच्छा सगुन नहीं। कई बार जी नाराज करने लगती है, देख ऐ बीणनी कुआं कैसे सूख गया। देखो, रामजी की मरजी जो होसी सो होसी।

ठंडी सांसों के साथ छोटकी बीणनी ने मन ही मन कहा-लेकिन कुआं तो अंधा ही हो गया। अब तो पानी लाने के लिए पांच कोस, सात कोस आना जाना पड़ता है। मैं तो रोज ही जाती थी। बस आज ही गलती हो गई। पास-पड़ोस की बहुएं और बेटियां तो सुबह पानी भर के ला चुकी होंगी। नोहर पर उगी थोड़ी बहुत हरी सब्जी मालण लाकर बेच भी गई।

अब कौन जाएगा इतनी दूर....एकेले तो मैं जा नहीं सकती और न ही मुझे जाने दिया जाएगा, लेकिन घड़े में तो पानी नाम भर का है, किससे कहूं....अपने ही सोच में डूबी उसने पानी का गिलास सास को पकड़ाया और रोते हुए बच्चे को गोद में उठा लिया।
"लीजिए, पानी पी लीजिए।" सेठानी पत्थर की दीवारों के पार देखते हुए अपने-आप से कहने लगी-"बाहर लाय पड़ रही है।"
"गाय-बछड़ों की ओर तो देखा नहीं जाता, उनकी पीठ पर जगह-जगह घाव हो गए हैं। उस पर अपनी धोलती गाय तो उठकर खड़ी नहीं हो पा रही। घाव पर मक्खियां भिनभिनाती रहती हैं। बिना चारे पानी के वह कितने दिन जीएगी ? उसकी पूंछ में ताकत ही कहां बची होगी कि, भिनभिनाती मक्खियों को परे सरकाए।" सेठजी मानों खुद से ही कह रहे थे। या अपनी सेठानी से ? या चौखटे पर खड़ी छोटी बीणनी से ?

"ऐ रामजी, सोच-सोचकर मेरा तो कलेजा मुंह को आता है। मेरी गोमाता को कुछ हो न जाए। अब गांव के वैद्यजी से कुछ पूछिए ना..." वृद्धा सेठानी के स्वर में प्राणों की छटपटाहट थी।

"रामू की मां, तुम भी क्या टाबरपने की बात करती हो। पानी नहीं। गांव में कहीं पानी नहीं। हरी घास का तिनका नहीं..कहां से इनके लिए चारा मंगवाऊँ ? क्या करूं ? मेरी अपनी बुढ़ापे की लाचारी।"
"हे पीतर देवता, मेरी गोमाता की रच्छा करीयो।" सेठानी ने आंसू पोंछते हुए कहा-"ऐसा अशुभ नहीं हो जाए। अनर्थ हो जाएगा।"
"हवा के रुख से तो मुझे लगता है, आंधी आएगी।" पानी का खाली गिलास पत्नी को पकड़ते हुए सेठजी बोले।
बच्चे को कंधे से सटाए-सटाए छोटी बीणनी ससुर की बात सुनकर सहम सी गई। रे मेरी, मां इतने कम पानी से कैसे काम चलेगा ? पड़ोस की काकी सा से मांग कर ले आती हीं, उनके बंद कुंडे में तो पानी होगा, आधा घड़ा पालर मांगने में कोई वे मना थोड़े ही करेंगी ? कल एक घड़ा और ज्यादा भर कर ला दूंगी। नहीं होगा तो कुएं पर दो बार चली जाऊंगी, चार-पांच घर ही तो बाणिये के हैं, जहां से पानी उधार लिया जा सकता है।

राजा साहब के घर से या पासवानजी के घर से भी लिया जा सकता है, लेकिन सासूजी को पसंद नहीं। राजा साहब के घर से यदि कभी कुछ खाने-पीने का सामान आ जाए तो मांजी बिना कुछ कहे परे सरका देती हैं-"किसी से कुछ कहना मत, लेकिन राजा साहब के घर तो भक्ष्य-अभक्ष्य सब कुछ बनता है। अपने उनका छुआ हुआ पानी भी नहीं पी सकते।"
बार-त्यौहार कभी जीमने का न्यौता आए तो बीणनियां चली जातीं, लेकिन सासूजी नहीं। कहतीं-"उनकी गढ़ी में रहते हैं तो इसका यह अर्थ तो नहीं कि अपना धरम भ्रष्ट कर लें।"

ब्राह्मण के घर कुछ खाने का सवाल ही नहीं पैदा होता। ब्राह्मण को अपने दान दें या फिर उससे लेकर खाएं और यही बात दूसरे छोटे लोगों पर लागू होती है।

"ले बीणनी, गिलास ले जा। गरमी के मौसम में भी अम्मलपानी (अफीम) का नशा करेंगे तो प्यास तो लगेगी ही...तुम किसी सोच में डूबी हो ?"
"जी घड़े में पानी नहीं है।" उसने धीरे से सास से कहा।

"बीणनी पानी तो कहीं नहीं है। ढोर-ढांगर तड़फड़ा रहे हैं....प्यासी धरती की छाती फटी जा रही है। कैसा तावड़ा है कि आंख नहीं खुलती और आकाश से तो लाय बरस रही है, लाय ! यह गांव सुजानगढ़ है भी ऐसा। वहां चुरू में तो कितने कुएं हैं। बीकानेर महाराजा गंगासिंहजी के नहर बनाने से तो काफी समस्या सुलझ गई।"

"तुमने फिर बीकानेर की बात छेड़ दी ? तुमको यह गाँव अच्छा नहीं लगता ना, भागवान ब्याह कर आए इतने बरस हो गए। रतनगढ़ से यहां सुजानगढ़ आकर बसे बीस बरस हो गए लेकिन तू इस गांव की बुराई करने से नहीं चूकती।"
बीणनी के कान में सास-ससुर की बात पड़ी। उसने सोचा, पता नहीं क्या बात है

कि, आजकल बात-बात में काकोजी और मांजी की लड़ाई हो जाती है। कहां-सुनी का अंत नहीं। क्या वजह हो सकती है ? बुढ़ापा ? नहीं, यह राम मारी गरमी के कारण। गरमी भी तो कैसी गरमी नस-नस को सुखा डाले, ऐसी लू चलती है।


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