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प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ एवं निबन्ध

सत्यप्रकाश मिश्र

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :580
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2211
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ और निबन्ध संग्रह...

Prasad ki sampoorn kahaniyan evam nibanadh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिन्दी साहित्य के इतिहास में कहानी को आधुनिक जगत की विधा बनाने में प्रसाद का योगदान अन्यतम है। वाह्य घटना को आन्तरिक हलचल के प्रतिफल के रूप में देखने की उनकी दृष्टि, जो उनके निबंधों में शैवाद्वैत के सैद्धांतिक आधार के रूप में है, ने कहानी में आन्तरिकता का आयाम प्रदान किया है। जैनेन्द्र ओर अज्ञेय की कहानियों के मूल में प्रसाद के इस आयाम को देखा जा सकता है।

छाया, आकाश दीप, आँधी और इन्द्रजाल में यह आन्तरिकता पुर्नजागरणकालीन दृष्टि से सम्पुष्ट होकर क्रमश: और यथार्थ की ओर उन्मुख हुई है। इन्द्रजाल तक वे अन्तर और वाह्य की द्वन्द्वात्मक अर्थ संहति मानते से लगते हैं। उनकी ऐतिहासिक कहानियों – दासी, देवरथ, पुरस्कार, ममता आदि में वर्तमान का संदेश है अतीत की घटना नही।
उनके निबंधों को मूलत: दो भागों में बांटा जा सकता है। एक कोटि में वे विचारात्मक निबंध हैं जिनमें वैदूष्य के साथ-साथ यथार्थ की पहचान भी है। ‘कवि और कविता’ निबंध उनके संवेदनात्मक विकास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। उनके निबंधों में मनुष्य का इतिहास ही नही ‘भावधारा का इतिहास’ मिलता है।
‘काव्य और कला’, ‘रहस्यवाद’ और ‘यथार्थवाद और छायावाद’ उनके सबसे महत्त्वपूर्ण निबंध जिनमें विवेक और आनन्दवादी धारा के सांस्कृतिक विकास क्रम के साथ-साथ उन्होंने अपने समय के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का तर्क संगत और संतोष-जनक उत्तर दिया है। संस्कृति, पुरातत्व वर्तमान यथार्थ उनके इन निबंधों में जीवित हैं। अपने समय के आलोचकों की स्थापना – विशेषकर रामचन्द्र शुक्ल की स्थापना – का वे अपने निबंधों में न केवल उत्तर देते हैं बल्कि सपुष्ट प्रमाणों के साथ उत्तर देते हैं।

इस खंड में संकलित कहानियों और निबंधों से हमें उनके कवि, उपन्यासकार और नायककार व्यक्तित्व को समझने में न केवल सहायता मिलेगी बल्कि इसके बगैर उन्हे और उस युग को ही नहीं आज के रचनात्मक विकास को भी समझना कठिन होगा।


प्राक्कथन



जयशंकर प्रसाद के नाटकों और उपन्यासों की तरह उनकी रचनात्मक सक्रियता का प्रमुख काल 1926 ई. से 1936 ई. रहा है। इस दशक के भीतर ही उनकी सभी विधाओं में महत्वपूर्ण कृतियाँ लिखी गयीं और प्रकाशित हुई हैं। यह काल भारतीय समाज की मानसिक बुनावट की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। हर महान रचनाकार अपने जीवन और जगत के अनुभवों से एक विशेष प्रकार की जीवन दृष्टि का विकास करता है जो लोक मंगल की कामना से युक्त होकर विश्व दृष्टि का रूप धारण करती है, जिसमें मानवीय रिश्तों की समझ रहती है। अन्तत: दुनिया एक प्रकार के संबंधों के निचोड़ को ही कहते हैं। अनुभूति के स्तर पर संबंधों की यह समझ संसार को बदलने, ढालने, सँवारने और काटने, भेगने तथा बीनने-छीलने आदि की दृष्टि भी देती है जिससे वह अधिक मानवीय हो सके। इस प्रकार का दृष्टिकोण ही उस मंगल कामना का निर्धारल करता है जिसे लोक दृष्टि कहते हैं। प्रसाद जी में इस प्रकार की दृष्टि शुरू से ही थी कि वर्तमान जगत को बदलना है।

 परन्तु उस युग में वर्तमान के विश्लेषण में अतीत की सांस्कृतिक नवजागरणवादी चेतना रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, दयानन्द और रवीन्द्र आदि के द्वारा सांस्कृतिक गौरव पर पड़ने वाले नये प्रकाश से निर्मित थी, इसलिए उनमें एक प्रकार का नवजागरण कालीन बोध भी विद्यमान था जो मैथिलीशरण गुप्त और प्रसाद में समान भाव से पाया जाता है। मैथिली बाबू में कथा काव्य के रूप में है और प्रसाद जी में भाव कथा के रूप में। मैथिली बाबू के साकेत, यशोधरा, विष्णुप्रिया और भारत-भारती में पाया जाने वाला भाव प्रसाद में आन्तरिक स्पर्श से पुलकित होकर कहानियों और उपन्यासों में भिन्न रुपों में उदित हुआ है। द्विवेदी युगीन छन्दोबद्ध कथात्मक इतिवृत्तात्मक को प्रसाद एक झटके से अलग कर देते हैं। उसमें मुक्तकात्मकता का एक भिन्न आयाम जोड़ देते हैं, जो बहुत कुछ घनानंद की कविताओं में पाया जाता है। कहानियों में प्रसाद की कविताओं से पहले एक विशेष प्रकार का लोककथात्मक वैचित्र्य और भावोन्मुखता मिलती है।

 कथा का बाहरी ढाँचा विशेष भावात्मक प्रवृत्ति या मन के विशेष आवेग, मानसिक उथल-पुथल के लिए प्रयुक्त किया हुआ लगता है। वाह्य का संवेदना की तीव्रता या विन्दून्मुखता की प्रतीति के लिए प्रयोग उनके हल कहानी-संग्रह ‘छाया’ में मिलता है जो छायावाद के प्रारंभिक स्वरूप को सांकेतित करता है। 1911 से 1913 के बीच लिखी गई इन कहानियों में वाह्य की तुलना में वाह्य के हृदय पर पड़ने वाले प्रभाव को अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। घटना के बजाय घटनाओं के असर का वर्णन जो मै मानव मन को प्रभावित करता है और कालान्तर वही मानव-मन फिर बड़ी घटना के कारण बनता है, प्रसाद की कहानियों में शुरू से मिलता है। इस संकलन में ग्राम, चन्दा और मदनमृणालिनी को छोड़कर शेष आठ कहानियाँ ऐतिहासिक या इतिहास का आभास देने वाली कहानियाँ हैं, जो प्रसाद के भावी विकास और जीवन दृष्टि को संकेतित करती हैं।

इन कहानियों में प्रेम, करुणा, वीरता और अहिंसा को ‘मूल्यों’ के स्तर पर प्रतिष्ठित किया गया है, जो उनके नाटकों और उपन्यासों का अन्त तक प्रमुख विषय रहीं हैं और जो महात्मा गांधी के सत्याग्रह युग की चेतना का अंश थीं। इस संग्रह की ग्राम कहानी सबसे भिन्न है। उसमें एक विशेष प्रकार की आयरनी का संकेत है, जो उस युग के सामाजिक-राजनैतिक संकट और मानसिक उद्वेलन तथा वेदना को अनूठेपन के साथ नहीं; एक विशेष प्रकार की प्रश्नचिह्नात्मक मुद्रा के साथ अभिव्यक्त करता है। इस कहानी की अर्न्तवस्तु में ग्रामीण समस्या का वह पहलू है, जिसकी ओर संकेत प्रसाद की किसी कहानी में नहीं हुआ है परंतु जो विकसित रूप में ‘तितली’ में है। ‘छाया’ (1913 ई.) हिन्दी का पहला कहानी-संग्रह है और ‘ग्राम’ हिन्दी की पहली आधुनिक कहानी है क्योंकि शिल्प और अर्न्तवस्तु दोनों ही दृष्टियों से यह एक भिन्न पथ का संकेत करती है। इस संग्रह का निम्नलिखित निवेदन प्रसाद के दृष्टिकोण और उनकी कहानियों, जिन्हें वे ‘आख्यायिकाएँ’ कहते हैं, की समझ की दृष्टि से आवश्यक है।

‘‘पाठक वृन्द इस पुस्तक का नाम ‘छाया’ देखकर अवश्य चकित होंगे। किन्तु मेरा अनुमान है कि छोटी-छोटी आख्यायिकाओं में किसी घटना का पूर्ण चित्र नहीं खींचा जा सकता। इस कारण इन आख्यायिकाओं को उन घटनाओं की छाया कहना ही ठीक है। साहित्य में ऐसी छोटी आख्यायिकाएँ केवल विनोद के लिए नहीं हैं, उनसे हृदय पर ऐसी छाया पड़ती है जो गंभीर अथच प्रभावशालिनी होती है। मानव हृदय को उसकी अपूर्णता, कल्पना के विस्तृत कानन में छोड़कर उसे घूमने का अवकाश देती है जिसमें पाठकों को विस्तृत आनन्द मिलता है।’’

कहानी को गंभीर और प्रभावकारी अर्थ छाया के रूप में स्वीकार करने के साथ ही साथ प्रसाद जी लोक कथा के उस स्वरूप को लगभग स्वीकार कर लेते हैं, जिसमें श्रोता या पाठक को सीख देने के भाव निहित होता है। इस संग्रह की कहानियों में वर्णनात्मकता की अपेक्षा किहनी का तत्त्व अधिक है। कौतूहल, जिज्ञासा, मनोरंजन, रोमांस, साहसिकता के साथ-साथ कथा की विधा का जो इस्तेमाल एक विशेष प्रकार की मूल्यवता के लिए प्रसाद जी करते हैं, वह उनकी वह विशेषता है, जो कहानी के ‘श्रव्य’ स्वरूप को पाठक स्वरूप में बदल देती है। कहानी के मूल स्वरूप में किंचित् परिवर्तन करके उसे भावान्तर संबंधों की अभिव्यक्ति का ही नहीं बल्कि मानसिक स्थिति के उद्घाटन का माध्यम बनाना प्रसाद जी की महत्त्वपूर्ण साहित्यिक उपलब्धि है। छाया के बाद ‘प्रतिध्वनि’ (1925 ई.) की कहानियों में कहानी के स्वरूप में परिवर्तन नहीं हुआ है, बल्कि काल्पनिकता और भावुकता बढ़ी ही है। इस संग्रह की कई कहानियों में छायावादी मानवीकरण और प्रतीकात्मकता अधिक है, परन्तु अर्न्तवस्तु में परिवर्तन दिखायी पड़ता है। सामाजिक संबंधों के प्रति रचनाकार की दृष्टि से स्पष्ट है। इसमें सामाजिक प्रश्नों के प्रति एक प्रकार का सुझाव मिलता है।

 इन कहानियों में लोक-कथात्मक के बजाय एक प्रकार का वर्णनात्मक तत्त्व बढ़ा है। ‘प्रतिभा’, ‘करुणा की विजय’ और ‘प्रलय’ कहानियाँ वस्तुत: कहानियाँ न होकर गद्यकाव्य हैं। प्रसाद जी कहानी को कलाकृति के रूप में निर्मित करते हैं, जिसके लिए एक विशेष प्रकार की कलात्मक निपुणता अनिवार्य है। छायावादी भाषा और कल्पना विलास इन कहानियों का विषय है। ‘प्रलय’ शिव और शक्ति की लयता की कहानी है जिसमें हो आखंड आनन्द और शान्ति मानी गई है। परन्तु इसके साथ ही साथ ‘पाप की पराजय’, ‘दुखिया’, ‘गुदड़ी के लाल’, ‘सहयोग’, ‘पत्थर की पुकार’ और ‘कलावती की शिक्षा’ कहानियों में मानवीय विवशता, अकाल, नारी के प्रति पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था की दृष्टि के संकेत, सामाजिक अत्याचार के प्रति धनी वर्ग का दृष्टिकोण, हृदय परिवर्तन की पुकार, स्वाभिमान आदि का वर्णन किया गया है। इन कहानियों में पत्रकारिता और छापेखाने के उद्योग का दबाव भी स्पष्ट है।

छाया की कहानियों के प्रवाह और आकर्षण की जगह इसमें एक प्रकार की चिन्ताशीलता, सूचनात्मकता और रिपोटिंग ने ली है। पहले संग्रह की छाया इसमें होने वाली हलचलों की प्रतिध्वनि के रूप में दिखायी पड़ती है। छायावाद की तरह इस कहानियों में भी सब कुछ अस्फुट और संकोच युक्त है। इसमें स्पष्टता और साहस का अभाव है। वस्तुत: 1920 ई. के असहयोग आन्दोलन के बाद भी स्वतंत्रता की आशा का कोई संकेत छायावाद में नहीं मिलता है। ‘छाया’ के समय की विवशता ‘प्रतिध्वनि’ में यथार्थ की पहचान का संकेत करने लगती है। ये कहानियाँ पुराने ढ़ाँचे की टूटन की नये ढाँचे की प्रतीति न होने की बीच की कहानियाँ हैं – जिसमें भविष्य की प्रतिध्वनि है, अतीत की छाया नहीं। कुछ उदाहरण इन तथ्यों के स्पष्टीकरण के लिए आवश्यक होंगे।

‘‘वेदना की विवृत्ति का संकेत जिसे गद्य के लिए प्रसाद जी ने आवश्यक माना है प्रतिध्वनि में स्पष्ट है। इनमें छायावादी दृष्टि पर व्यंग भी है और उसकी सीमा भी स्पष्ट है।
शिल्पी ने कफ निकालकर गला साफ करते हुये कहा, ‘‘आप लोग अमीर आदमी हैं। अपनी कोमल श्रवणेन्द्रियों से पत्थर का रोना, लहरों का संगीत, पवन की हँसी इत्यादि कितनी सूक्ष्म बातें सुन लेते हैं और उसकी पुकार में दत्तचित्त हो जाते हैं। करुणा से पुलकित होते हैं, किन्तु क्या कभी दु:खी हृदय के नीरव क्रन्दन को भी अन्तरात्मा की श्रवणेन्द्रिय को सुनने देते हैं, जो करुणा का काल्पनिक नहीं किन्तु वास्तविक रूप है।’’


-पत्थर की पुकार – प्रतिध्वनि


‘‘बड़ी नीचता से उसने कहा ‘‘मारे जवानी के तेरा मिजाज ही नहीं मिलता है कल से तेरी नौकरी बंद कर दी जायगी। इतनी देर ?’’
दुखिया कुछ नहीं बोलती, किन्तु उसके अपने बूढ़े बाप की याद आ गयी। उसने सोचा किसी तरह नौकरी बचानी चाहिए तुरन्त कह बैठी-
‘‘छोटे सरकार घोड़े पर से गिर पड़े रहे उन्हें मड़ई तक पहुँचाने में देर....।’’
‘‘चुप हरामजादी ! तभी तो तेरा मिजाज और बिगड़ा है। अभी बड़े सरकार के पास चलते है।’’


-दुखिया – प्रतिध्वनि


प्रतिध्वनि की ‘गुदड़ी के लाल’ और ‘अघोरी का मोह’ भावपूर्ण मनोवैज्ञानिक कहनियाँ हैं। इनसे सामाजिक स्वरूप के साथ-साथ व्यक्तियों के मन या ‘बाह्य के आन्तर हेतु’ की जानकारी मिलती है। ‘दुखिया’ कहानी ‘ग्राम’ कहानी की परंपरा की एक अच्छी कहानी है, जो सामन्ती भावुकता, वास्तविकता और गरीबी की मानसिकता के स्तरों को संकेतित करती है। अर्न्तवस्तु और टेकनीक की दृष्टि से यह कहानी ‘मधुआ’ और ‘धीसू’ की बिरादरी की है। ‘कंकाल’ और ‘तितली’ के संवेदन सूत्र भी इन दो कहानियों में दिखायी पड़ते हैं। आदर्श, यथार्थ और यथातथ्य का जो संकेत प्रसाद ने निबंधों में किया है उसके वस्तु बीज भी इसी में हैं। इस एक प्रकार से 1920 के बाद की अन्तर्सामाजिक या सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का प्रारंभिक रूप कह सकते हैं, जिसके बीज इस काल के अन्य रचनाकारों की रचनाओं में भी पाये जाते हैं। सृजनशीलता और कथात्मकता की दृष्टि से परिधि पर स्थित होता हुआ भी यह संकलन वस्तुत: उस सीमान्त का संकेत करता है जिसे प्रसाद जी लघुत्व और महत्त्व का सीमान्त कहते हैं। इसके बाद ही प्रसाद के कुहासे की समाप्ति होती है और उनकी संवेदना चिंतनशीलता की आँच में पकने लगती है। ‘अजातशत्रु’, ‘चंद्रगुप्त’ और  ‘स्कन्द गुप्त’, ‘कंकाल’, ‘तितली’, ‘कामायनी’, ‘आकाशदीप’ और ‘आँधी’ कृतियाँ 1925 से 1930 के मध्य रचनाकार की परिपक्वता की पचिचायक हैं। कहानी में वर्णनात्मक क्षमता तथा सामाजिक प्रश्नों के ऐतिहासिक-सांस्कृतिक उत्तर उनकी परिवर्ती कहानियों में यथार्थ के उद्घाटन के रूप में नहीं, बल्कि मानव मन की उस स्थिति को अभिव्यक्त करने के रूप में आये हैं, जो प्रसाद के अनुसार बाह्य का हेतु है।

कारण की खोज प्रसाद को आर्थिक विषमता या वर्गबद्ध समाज की स्थापनाओं की ओर न ले जाकर अध्यात्मवाद की ओर ले जाती है। उनकी मनोभूमि की बनावट में ही यह तत्त्व निहित है कि बाह्य अन्त:करण का कारण नहीं है बल्कि बाहरी सत्ता का कारण आन्तरिक हेतु है। इस मूल स्थापना से प्रसाद की रचनाओं में ही नहीं बल्कि दुनिया को समझने की मानसिक्ता में अन्तर पड़ा है। इस चिंतशील और विश्वास के कारण हो – जो उनके समय के गाँधी युग का भी दर्शन था और अंग्रेज स्वयं भी जिस आध्यात्मिकता की भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहा था – प्रसाद की कहानियों में भावोन्माद और अन्त:संघर्ष पाया जाता है। परंतु सभी कहानियाँ इस स्थापना को प्रमाणित करती हैं। ऐसा नहीं कहा जा सकता है। प्रतिध्वनि के वर्षों के बाद प्रकाशित उनके ‘आकाशदीप’ और ‘आँधी’ संकलनों की अधिकांश कहानियाँ दुनिया के हलचलों, आघातों और तकलीफों की कहानियाँ हैं। वैसे तो ‘अतीत’ और ‘करुणा’ जैसा कि ‘पत्थर की पुकार’ कहानी में कहा गया है उनके साहित्य के प्रमुख तत्त्व हैं और यह भी सही है कि करुणा के मूल में कामायनी के मनु की भाँति अतीत के गौरव की चेतना और वर्तमान की दासता की अन्तर्सुप्त वेदना छिपी है, जो प्रसाद में संकल्पात्मक है। वस्तुत: रचना संकल्पनात्मकता में से ही जन्म लेती है क्योंकि अन्तत: वह निष्कर्षात्मकता का ही प्रतिफलन होती है।

‘आकाशदीप’, ‘पुरस्कार’, ‘ममता’, ‘अपराधी’, ‘स्वर्ग के खँडहर’, ‘बनजारा’ कहानियां अपने में निष्कर्षात्मक नहीं हैं परन्तु जिस प्रकार की विकल्पहीनता और भावसंघर्ष को व्यक्त करती हैं। वह उस युग के भारतीय मध्यवर्ग की साँसत की ही सृजनात्मक अभिव्यक्ति है। अतीत के प्रति वेदनापूर्ण मोह जिसका कोई तार्किक विकल्प नहीं इन कहानियों में है। ऐसी ही मानसिक स्थिति का संकेत ‘ग्राम’ कहानी में भी था। ‘आकाशदीप’ में कहानी की संरचना केन्द्रीभूत नहीं है बल्कि बुनावट की दृष्टि से भावकेन्द्रित है और वह भाव है चंपा की ‘मानसिक स्थिति’ का संकेत जो सारे कथ्य को लोक कथा की तरह संकेन्द्रित करती है – परन्तु, लोक कथाओं की तरह मुक्त नहीं करती है, बल्कि चिन्तित और व्याकुल करती है। यही वह अन्तर है जो प्रसाद के योगदान को महत्त्वपूर्ण बना देता है। ‘आकाशद्वीप’ संग्रह में वे ‘प्रतिध्वनि’ की तुलना में न केवल मानव मन की पर्तों के उद्घाटन और अंधेरों की पहचान में सफल हैं बल्कि सामाजिक सच्चाई को अधिक सटीक ढंग से संकेतित करने में भी सफल हुए हैं। मन को विचलित और विचारोन्मुख करने की यह क्षमता जैनेन्द्र, अज्ञेय आदि कहानीकारों को प्रेमचन्द्र की तुलना में प्रसाद से ही प्राप्त हुई है। ‘ममता’ कहानी अपने अंत में वैयक्तिक कम ऐतिहासिक सामाजिक सच्चाई की ओर अधिक उन्मुख है, जो यह रेखांकित करती है कि जिस स्थान पर मानवीयता की मूल्यवत्ता की दृष्टि से ममता का नाम होना चाहिए था वहाँ सत्ता मूल की प्रतिष्ठा के तर्क से शासक का नाम हुआ। अगर वहाँ ममता का नाम होता तो एक मूल्य की प्रतिष्ठा होती। जगह अशरण को शरण देने से नहीं हुमायूँ के कारण महत्त्वपूर्ण हुई। जमीन के खुदने का डर और अन्तत: मौत ‘ममता’ को अधिक मानवीय और महत्त्वपूर्ण बना देती है। यह कहानी शिल्प की दृष्टि से एक होते हुए भी ‘गुंडा’ से अर्न्तवस्तु की दृष्टि से भिन्न है।

कहानी की पूरी बनावट में एक यह आन्तरिक चिन्तनशीलता घुली हुई है जबकि ‘पुरस्कार’ और ‘आकाशद्वीप’ आदि में दूसरी चिन्तनशीलता है जो कहानी को वर्णन और शिल्प की दृष्टि से मूल्यवान बनाती है। इसमें वह गहराई नहीं है जो बेचैन करे या पाठक को स्वयं गहराई प्रदान करे। इन कहानियों में एक प्रकार की स्तब्धता भी पायी जाती है, ‘जो’ आंधी में नहीं है। ‘आकाशदीप’ का अनिश्चय ‘पुरस्कार’ में एक निर्णय में बदलता है – यह प्रसाद की मनोवृत्ति का भी परिचायक है। चम्पा भीतर ही भीतर सिसकती हैं – विकल्पात्मकता के कारण, परन्तु मधूलिका नहीं, उसकी मूल्य दृष्टि और संकल्पनात्मकता स्पष्ट है। ‘आकाशदीप’ और ‘ममता’ कहानी का अंत उक्ति-वैचित्र्य की तरह से लाक्षणिक लगता है परन्तु ‘मधुआ’, ‘नीरा’, ‘विरानचिह्न’, ‘घीसू’ आदि कहानियाँ पत्रकारिता के ‘तथ्यवाद’ से प्रभावित है। वे एक प्रकार के प्रश्न चिह्न की तरह से उत्पन्न अर्थों को प्रत्यक्ष केन्द्रित करती हैं जो मेरी समझ से प्रसाद की उस उन्मुखता को व्यक्त करती हैं जिससे ‘कंकाल’ और ‘तितली’ जैसे उपन्यास जनमे।

‘आकाशदीप’ और ‘आँधी’ की कहानियों से लगता है कि प्रसादजी 1925 से कई क्षेत्रों में प्रयोग कर रहे थे। इन संकलनों में जहाँ उनके चिन्तन में स्पष्टता और वर्तमान यथार्थ के प्रति परिवर्तनकारी दृष्टिकोण का आभास मिलता है। जीवन जगत् के अनुभव की परिपक्वता और अन्तर्मुखी चिन्तनशीलता के साथ फ्रायड, मार्क्स और डार्विन आदि के प्रभाव भी इस काल की कहानियों में स्पष्ट हैं। बंगला का हैंगओबर जो मदन मृणालिनी में है वह ‘आकाशदीप’ में दूर हो गया है लेकिन ‘छायावाद’ का प्रभाव स्पष्ट दिखायी पड़ता है। ‘आकाशदीप’, ‘रमला’, ‘विसाती’, ‘बनजारा’, ‘चूड़ीवाला’, ‘प्रणयचिह्न’ आदि कहानियों में छायावादी प्रतीति और प्रेम-केन्द्रीयता या सघनता विद्यमान है। वैसे भी सारे वाह्य यथार्थ का भावकेन्द्रण छायावादी तत्त्व ही है। फिर भी ‘सुनहरा सांप’ और ‘प्रतिध्वनि’ फ्रायड के स्वप्न सिद्धान्त और दमित इच्छा के तर्क की दृष्टि से लिखी गई मानव मन के रहस्यों को उद्घाटित करने वाली कहानियाँ हैं। जैनेन्द्र, अज्ञेय और इलाचन्द्र जोशी की कहानियों को इन कहानियों के संदर्भ में विकास की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। ‘सुनहरा सांप’ में सांप काम भावना के प्रतीक के रूप में प्रयुक्त है और कहानी का विशिष्टता प्रतीक के धन पक्ष के बजाय निषेधात्मक पक्ष से प्राप्त होती है। रामू के मालिक का गुस्सा नेरा के प्रति उसकी दमित इच्छा की अभिव्यक्ति है, जो एक प्रकार का हिंसा (क्रोध) में परिणत होती है। इसी प्रकार से तारा और उसकी ननद की सामाजिक समस्या का वैयक्तिकता के स्तर पर ‘एक दो तीन चार’ के रूप में इच्छा पूर्ति के सिद्धान्त का सैद्धान्तिक निदर्शन है। ‘देवदासी’ में पत्र शैली का प्रयोग किया गया है।

इसके अतिरिक्त प्रसादजी ‘पचीस साल बाद’ जैसे तकनीकी प्रयोगों को ऐतिहासिकता और समसामयिकता के संदर्भों के लिए करते हैं। ‘आकाशदीप’ में ‘मेरे नाविक धीरे’ की ध्वनि सुनायी पड़ती है जैसे ‘प्रणय चिह्न’ परंतु इस संकलन में काल्पनिकता मनस्थिति को एक सच्चाई मान कर ही अग्रसर होती है। इन कहानियों में ऐसे बिन्दु की पहचान का आभास अवश्य है जहाँ सामंजस्य मिलता है। इस प्रकार के संतुलन या सामंजस्य की वकालत या प्रतीति का भाव तब पैजा होता है जब समाज में संतुलन की आवश्यकता होती है या समाज औद्योगिक परिवर्तनों के दबाव में बड़ी तेजी से बदलने की प्रक्रिया में होता है।

अर्न्तवस्तु या प्रतीति के स्तर पर इस काल की कहानियों में धर्म के टेकेदारों के प्रति विशेष प्रकार का आक्रोशमूलक उद्घाटन है। छायावाद की रहस्यात्मकता धर्म के कर्मकांड को उद्घाटित करने में रुचि रखती है जो सामन्तवाद की प्रमुख विचारधार थी। प्रसाद धर्म के शोषण के प्रति प्रेमचन्द्र की अपेक्षा अधिक उद्घाटनशील हैं। ‘स्वर्ग के खंडहर’, ‘कंकाल’ और ‘तितली’ में एक प्रकार का संवेदात्मक क्रम है, जो विचारतंत्र के उस अन्तर्सुप्त पहलू को उजागर करता है, जिसका विकास ‘अजातशत्रु’, ‘चन्द्रगुप्त’ और ‘ध्रुवस्वामिनी’ में क्रमश: होता है। प्रसाद की यह चिन्तशील एकान्विति उनके सजग और सृजनशील दिमाग की विशेषता है। बौद्धों और जैनियों के प्रति उनके मन में एक प्रकार का विद्रोह भाव पाया जाता है। यद्यपि वे उसके दार्शनिक आग्रह से प्रभावित भी हैं और अजातशत्रु में बुद्ध का चरित्र विशेष मूल्यवत्ता के उत्सर्जक के रूप में प्रस्तुत किया गया है परंतु, अहिंसा और कर्मकांडी रूढ़ि का विरोध निरंतर पाया जाता है। इस कहानी की परिणति अहिंसा और धर्म की निष्क्रियता के विरोध में दिखायी पड़ती है, जो उनके आनन्दवादी या विवेकवाद विरोधी सिद्धान्त का ही प्रमाण नहीं मानी जा सकती। क्योंकि इसके मूल में एक प्रकार का प्रत्यक्ष अनुभववाद है केवल अद्वैतवादी रहस्यवाद नहीं, जैसा कि प्राय: प्रसाद के संदर्भ में कहा गया है। इसमें निश्चय ही क्रान्तिकारियों का समर्थन और गांधी जी के अहिंसावाद का विरोध पाया जाता है।

‘‘प्राणी धर्म में मेरा अखंड विश्वास है। अपनी रक्षा के लिए, अपने प्रतिशोध के लिए जो स्वाभाविक जीवन तत्व की सिद्धांत की अवहेलना करके चुप बैठता है उसे मृतक, कायर, सजीविताविहीन हड्डी-मांस के टुकड़े के अतिरिक्त मैं कुछ नहीं समझता।’’


स्वर्ग के खंडहर से ‘आकाशदीप’


स्वर्ग ! इस पृथ्वी को स्वर्ग की आवश्यकता है शेख ? ना, ना, इस पृथ्वी को स्वर्ग के ठेकेदारों से बचना होगा। पृथ्वी का गौरव स्वर्ग बन जाने से नष्ट हो जायगा। इसकी स्वाभाविक्ता साधारण स्थिति में ही रह सकती है। पृथ्वी को केवल वसुंधरा होकर मानव जाति के लिए जीने दो, अपनी आकांक्षा से कल्पित स्वर्ग के लिए, क्षुद्रस्वार्थ में पड़कर मनुष्य के राक्षस न बन जाय, शेष’’ लज्जा ने कहा।


स्वर्ग के खंडहर से’


‘‘तो मरूँगी स्यविर; किन्तु मानवता का नाश करके कोई भी धर्म खड़ा नहीं रह सकता।’’


देवरथ-इन्द्रजाल’


एक ही वर्ष के भीतर लिखे गये इन कहानी-संकलनों में राजा, रानी और आभिजात्य वर्ग के पात्रों के अतिरिक्त प्रसाद जी ने चूड़ीवाले, विसाती, दासियों, वनजारों और कंजड़ों को भी अपनी कहानियों का विषय बनाया है। भिखमंगों, नौकरों और सागर पेशा के लोग भी उनके कहानियों में ‘आकाशदीप’ और ‘आंधी’ संकलनों में दिखायी पड़ते हैं। इन पात्रों में कुछ का तो केवल प्रेम की तीव्रता और मनबहलाव के रूप में रोमांटिक ढंग से प्रयोग किया गया है, जैसे विसाती और चूड़ीवाली का जिसमें एक सामंती सुख की स्मृति और टीस को ही रचनात्मक संस्कार दिया गया है।

 ‘आंधी’ में वनजारों या कंजड़ों के जीवन और निश्चल विश्वास का वर्णन अवश्य किया गया है। ‘आंधी’ की लैला का वेदनात्मक विस्तार की कहानी का मुख्य उद्देश्य लगता है, जो आकाशदीप की टेकनीक से भिन्न नहीं है परन्तु इसका वस्तु संसार आकाशदीप से बड़ा है और इसकी ‘अर्थ-प्रतीति’ केवल लैला के प्रेम की टीस को ही नहीं रामेश्वर की प्रकृति को भी स्पष्ट करती है जो निश्चल भावुकता की कीमत नहीं आँकता है क्योंकि व्यवसायी है। इस निस्संगता और आसक्ति की कई विपरीत अवस्थितियों के संयोजन की दृष्टि से कहानी की वर्णन शक्ति और संरचना का महत्त्व स्थापित होता है जो आगे के विकास के लिए भूमिका कार्य करता है। वाह्य और अंतर का सामंजस्य इस कहानी में मिलता है। नियति चक्र के वेगवश रथ का उल्लेख इस प्रसिद्ध कहानी में प्रसाद के दार्शनिक रहस्यवादी और छायावादी पहलू को उजागर करता है।

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