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सामाजिक >> पाताल भैरवी

पाताल भैरवी

लक्ष्मीनन्दन बोरा

प्रकाशक : साहित्य एकेडमी प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2170
आईएसबीएन :8126001089

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प्रस्तुत उपन्यास असम की रोचक और मोहक कच्ची मिट्टी के गंध से स्निग्ध है। इसमें कल्पना को महत्व देकर सत्य को छोटा नहीं किया गया है....

PATAL BHAIRAVI

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


श्री लक्ष्मीनन्दन बोरा (जन्म 1932) के बृहत् उपन्यास पाताल भैरवी का घटनाक्रम और विन्यस्त पात्रों का चरित्र-चित्रण उनके अन्य उपन्यासों से काफी अलग तरह का है। इसमें डिब्रूगढ़ से डिगबोई और उत्तर में लखीमपुर तक का रचनात्मक परिवेश समाविष्ट है। इस अंचल की विभिन्न जातियों और व्यवसायों में लगे लोगों को, विशेषतः अपराधप्रवण पाताल लोक के अंधकारमय जीवन को, लेखक ने कई वर्षों तक बड़ी बारीकी से समझने की कोशिश की है। दोनम्बरी तथा काले धन्धे और अन्य अपराधों में लिप्त कुछ लोगों की जीवन-शैली समाज के लिए उतनी ही रोचक, आकर्षक और चुनौतीपूर्ण।

 उपन्यास में सहज मानवीय प्रवृत्तियाँ अपने अकृत्रिम रूप में विन्यस्त हैं जो राजनीति के अपराधीकरण को बड़ी शिद्दत से उभारती हैं। इस अंचल में जैसे-जैसे उद्योग-व्यापार बढ़ रहे हैं वैसे –वैसे लोगों की परस्पर प्रतिद्वन्द्विता में जीवन-मूल्यों की बलि चढ़ती जा रही है। फलस्वरूप सभ्यता संस्कृति में तेजी से गिरावट आ रही है। इन अप्रिय स्थितियों से एक उपन्यासकार के संवेदनशील मन को मर्मान्तक वेदना पहुँचती है। इस वेदना को मूर्त रूप मिलता है-स्रष्टा की नयी सृष्टि में, उसके सृजन मे और उसके रचनानुभव में। पाठकों को इस कृति में गतिशील वैचित्र्य और रचनात्मक विस्तार का आनन्द मिलेगा।

श्री बोरा के अन्य उपन्यास हैं गंगाचिलनीर पाखी, धान जुईर पोराहाट तथा उत्तर पुरुष एवं कहानी संग्रह हैं: गौरी रूपक, अचिन, कोयना तथा देवतार व्याधि।

एक



घटनाए तो घटती ही रहती हैं... मगर इसमे कौतुहल की बात होती है, घटना के केन्द्रबिन्दु बने  व्यक्ति या उस घटना से जुड़े अन्य व्यक्तियों की प्रतिक्रिया। बस इसी को ध्यान में रखकर मैं अपने शहर के मुकुन्द की बात बता रहा हूँ आपको। यह अलग बात है कि उसके जीवन में सिर्फ़ उस अंश की कहानी सुना रहा हूँ, जिसके बारे में मुझे जानकारी है, मुझे विश्वास है कि अब तक मुकुन्द जीवन जी रहा होगा। लेकिन जब उसकी जीवन यात्रा सही मायने में शुरू हुई थी, तब उसका सम्बल क्या था ?... कुछ भी नहीं। मतलब यह कि मैं एक रंक के राजा बनने की कहानी कहने जा रहा हूँ। यह सच है, क़िस्से-कहानियों में राजा बनने से पहले तक, उस रंग के मन के सुख-दुःख या आशाओ-आकाक्षाओं की बातें नहीं होती है... न ही राजा बनते वक़्त उसकी मनोदशा का वर्णन, पर यह भी सच है कि इस कहानी के नायक, मुकुन्द को हम वैसा नायक नहीं मान सकते। मुकुन्द एक जीता-जागता व्यक्ति है, आज का इन्सान है, हमारे जैसा, हमारे ही ज़माने का इन्सान।

यही कारण है कि उसके घटना बहुल जीवन में और जीवन के विभिन्न स्तरों पर उसकी कब-क्या प्रतिक्रिया रही, इसका लेखा-जोखा आप तक पहुँचाना मेरे लिए बड़ा कठिन साध्य रहा है। मुझे बहुत सारे व्यक्तियों से संपर्क करना पड़ा, मुकुन्द के साथियों की बाते टेप करनी पडी, और तो और आई. ए. एस. अधिकारियों से अनुनयन-विनय करके सही तथ्य इकट्ठें करने पड़े। मुकुन्द की कहानी के मनकों को एक सूत्र में पिरोने में मुकुन्द से ज्यादा मदद मिली, उसकी पत्नी यशोदा से। हाँ, उसके जीवन के चरम-नाटकीय एवं संघातपूर्ण क्षणों तथा घटनाओं का सटीक विवरण जिन दो व्यक्तियों ने दिया, वे थे मुक्ता रहमान उर्फ़ देवता और बशीर....पूरा नाम बशीरुद्दीन यूसुफ़।
ये दोनों मल्लाह हैं। एक है भोजन-विलासी और दूसरा, सुरा-विलासी। मुकुन्द के अप्रत्याशित उत्थान के पहले के कुछ नाटकीय दिनों और घटनाओं का साक्षी केवल यह मल्लाहों का जोड़ा था। ये दोनों मुकुन्द की ही तरह, सहज ही मन को छू जाने वाले चरित्र हैं।

मुकिन्द की बात शुरू करने से पहले इतना बता दूँ कि वह जिस गाँव का रहने वाला है वहाँ उसकी कोई अहम भूमिका रही थी या नहीं, इस बारे में किसी को कोई खास जानकारी नहीं है, अतः उस समय के बारे मैं ज़्यादा कुछ नहीं कह सकूँगा, यह मेरी विविशता है इस कमी के बावजूद मैं यह जरूर कहूँगा, आप पूरी कहानी को अवश्य पसंद करेंगे।
हमारे नायक के कई नाम हैं। यशोदा उसे मुकुन कहकर बुलाती थी और अन्य कुछ लोगों ने भी प्यार से इसी नाम के अपना लिया था, मगर एन. आई. एस. क्लब के प्राक्तन सेक्रेटरी मंगल बरुआ उसे  खाउन्द कहकर बुलाते थे। तो उसका पूरा नाम हुआ ‘मुकुन्द खाउन्द’। दोनों शब्दों की तुकबन्दी सी लगती थी, इसलिए बीच में ‘चन्द्र’ जोड़कर इस विख्यात /कुख्यात नायक का पूरा नाम ‘मुकुन्द चन्द्र खाउन्द’ रखा गया था। हमारा ‘मुकू’ जब धनी-मानी बन गया और चमचमाती कार की पिछली सीट पर ठाठ से अकेला बैठकर शहर की मुख्य सड़कों पर अक्सर जाने-आने लगा। तब ईर्ष्या से जलते कुछ नवयुवकों ने उसके नाम पर सिर्फ़ ठिठोली के लिए एक और तुकबन्दी कर डाली-‘मन्द-मन्द मकरन्द, मुकुन्द चन्द्र खाउन्द।’
बचपन में मुकुन्द का एक और नाम था ‘बिल्ली’।

गाँव में एकबार पुलिस का जमघट देखकर वह बाँह पर पकते हुए फोड़े को खुजाता हुआ वहाँ आ पहुँचा और सहमें हुए सर्कस के बाग की तरह पुलिस वालों को देखता रहा। एक सिपाही ने डपटकर पूछा, ‘‘नाम क्या है ?’’ उसकी तो घिग्घी बँध गई....ज़बान तालू में चिपक गई, सिपाही ने दुबारा फटकारा, ‘‘बोलता है कि लगाऊ एक झापड़....’’ घबराकर उसके मुंह से ‘मम्म....म’....’’ निकला बस तभी से उसका नाम पड़ गया भीगी बिल्ली और लड़के उसे जब चिड़ाते तो ‘बिल्ली बिल्ली...’ कहकर भाग जाते थे। उसके भाग्योदय के समय पाताल नगरी का अधिपति इरशाद जब कभी बौख़लाया या खीज़ा रहता था तो उसे मुकुन्द न कहकर सिर्फ़ ‘मुन्द’ कहा करता था।
अब समस्या यह है कि मुकुन्द की कहानी शुरू करें तो कहाँ से ? किशोरावस्था समाप्त होते न होते उसे गाँव छोड़कर शहर में आना पड़ा था... वहाँ से ? या यहाँ आकर वह एन. ई. एस. क्लब में वह नौकरी पर लगा, फिर नौ बरस, दस माह, सत्रह दिन बाद वह वही नौकरी छोडने को बाध्य हुआ यहाँ से ? गाँव में बेकार था, वैसे ही अब शहर में बेकारी मुंह बाये खड़ी थी। इस बार जो कष्टमय जीवन यात्रा शुरू हुई, उसमें वह अकेला नहीं था।....यशोदा भी थी और हो बच्चों के साथ-साथ रहने की वज़ह परेशानी और भी बढ़ गयी। इसपर भी मुकुन्द
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1.    असमिया में बिल्ली को मेकुरी कहते हैं।

ने हार नहीं मानी और इसे विधि का विधान मानकर स्वीकार कर लिया।
अब यहाँ आकर फिर सब गड्डमड्ड हो जाता है कहाँ से शुरू करें.....? नदी किनारे बसे उसके पिछणे ग्रामीण जीवन से ? कहुँआमुख में वह पला-बढ़ा, यह ठीक है, पर इसमें क्या ख़ासियत है ? फिर गाँव के लड़के शहरों में नौकरी की तलाश में आते हैं, यह बड़ी आम बात हो गयी हैं इसे कहते है गाँवों में शहरों का प्रवजन-यानी ‘सरल माइग्रेशन’। इसे और क्या कहा जाये....स्वाधीन भारत नेताओं द्वारा बनाई गयी ‘निर्भूल’ त्रुटिहीन योजनाओं की ‘वांछित’ परिणति ? हज़ारों-लाखों लोगों में एक मुकुन्द भी था। जो किस्मत आज़माने के लिए शहर चला आया था। उसका हाल था, जो और सबका....अतः उसमें कोई विशेषता है, न नयापन ! ले-देकर यही बात समझ में आती है कि उसकी कहानी तो सही मायने में उस से शुरू हुई है जिस दिन उसने एन. ई. एस. क्लब की चौहद्दी में क़दम रखा।

वैसे भी ध्यान से देखा जाये तो उस क्लब की उन्नति के वक़्त क़दम-ब-क़दम मुकुन्द के जीवन में भी उतार-चढाव आते थे। इसी वजह से हम एन. ई.एस. क्लब की इतिकथा को मुकुन्द-कहानी का आदि-पर्व मानकर चलेंगे। ‘नॉर्थ ईस्ट स्पोर्टस् क्लब’, सन् 1954 में यह नाम रखा गया था। अब तो ‘असमिया’ में नाम रखने की धूम है, पर अंग्रेज़ियत फिर भी बढ़ती जा रही है....कैसा विरोधाभास है ! क्या-क्या देखे और कहें, हर तरफ़ कॉन्ट्राडिक्शन है। अब यानी सातवें दशक की समाप्ति समय रखा जाता तो इसका नाम होता ‘उत्तर पूर्वी क्रीड़ासंघ’। तब अखबारों की शुर्खियाँ कुछ इस तरह होती’। ख़ैर ! सफलता के बूते पर एन. ई. एस क्लब सारे शहर ही क्यों, पूरे असम में एक परिचित नाम था। इसी से कोई नया नाम नहीं रखा गया। हाँ, संक्षेपीकरण के इस युग में एन. ई. एस. सी. ज़रूर बन गया।

मंगल कुमार बरुआ से लेकर उज्जवल देवरी तक इसके कोई भी अधिष्ठाता-सदस्य इस तरह के संक्षेपीकरण को पसन्द नहीं रकते थे, क्योंकि इसमे स्मरण-शक्ति नहीं बढ़ पाती थी। किसी खड़गेश्वर बोर ने एक हाईस्कूल बनवाया था। अपने गाँव धिंग में, जो ‘धिं. के. बी. स्कूल’ बनकर रह गया। उज्जवल देवरी जब यहाँ सहकारी समिति के अफ़सर थे, तब उन्होंने एक दिन एक लड़के से पूछा था ‘के.बी..’से किसका नाम है ? वह कुछ न बता सका ! दानी-मानी खड़गेश्वर बोरा अंग्रेज़ी के दो अक्षरों में खो गये, हमेशा के लिए।

ब्रह्मपुत्र के किनारे बसे, हमारे इस शहर के पाँचवें दशक के दो वर्ष काफ़ी उल्लेखनीय रहे हैं। 1952 में ज़बर्दस्त भूकम्प के समय ब्रह्मपुत्र का इस शहर के सबसे सुन्दर भाग को डुबों देना और उसके बाद 1954 में जब शहर तेज़ी से दक्षिण की ओर भागता हुआ चाय-बाग़ानों को लीलने की तैयारी कर रहा था। उस समय पूरिव के चाय-बाग़ानों और पश्चिम की खाली जगह के बीच एक स्पोर्टस् क्लब की स्थापना होना। इन दो मुख्य घटनाओ के अन्तराल में काफ़ी कुछ घटा है। इस शहर की जनसंख्या जोरहाट से ज़्यादा, तकरीबन तिससुकिया की जनसंख्या जितनी हो गई है। यू तो तीन-तीन सिनेमा हॉल हैं, बाज़ार-हाट में काफ़ी अच्छा कारोबार भी चलता है, पर इस शहर के नौकरी पेशा लोगों को शाम का वक़्त बड़ा उबाऊ और ख़ाली-सा लगता था। यही एक समस्या थी।

सौभाग्य की बात है कि उस समय स्थानीय कॉलेज में दो ऐसे प्राध्यापक आये जिन्हें खेलकूद में बड़ी रुचि थी। ये थे मंगल कुमार बरुआ और श्रीकान्त चोटिया। उसी समय के अपने वक़्त के प्रख्यात फुटबॉल खिलाड़ी दुर्गाठाकुर और वॉलीबॉल खिलाड़ी उज्जल देवरी क्रमशः ज़िला सहकारी बनकर यहाँ आये। दो-एक साल से ज़िला के जज का पद सँभालते हुए कन्दर्प खाटनियार भी क्रीड़ा प्रेमी थे। वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में टेनिस के जितने अच्छे खिलाड़ी थे उतने ही आरक्षी अधीक्षक बंकिम पाण्डा भी। अपने समय में पाण्डा टेबिल-टेनिस के चैम्पियन के रूप में जाने जाते थे।

इन्हीं के परिश्रम से एन. ई. एस. क्लब की स्थापना हुई थी। शुरुआत हुई थी सरकारी हईस्कूल के एक कमरे में। सिर्फ़ एक रजिस्टर बना कर ! उसके बाद अभी जहाँ क्लब है, वो ज़मीन एक उद्योगपति ने दान दी थी। उसी के साथ एक चाय-पानी की जगह भी थी, जिसमे बढ़ई मिस्त्री वग़ैरह की कारीगरी से ‘हॉल’ का रूप ले लिया था। शुरू में दो साल तक कन्दर्प खाटनियार क्लब के प्रेसीडेन्ट थे और उज्जवल देवरी सेक्रेटरी। तीसरे साल के बाद मंगल बरुआ ने सेक्रेटरी का पद सँभाला।
पूँजी तो थी ही नाम-मात्र को, इसलिए शुरू के दो सालों तक सेक्रेटरी खुद आकर ताला खोलता था और सबके घर जाने के बाद ताला लगाकर घर लौटता था। इसमें बड़ी तकलीफ़ होती थी। अतः सबने बारी-बारी से यह काम करना तय किया। दो-एक जनों ने एक चौकीदार रखने का प्रस्ताव रखा भी। पर पूँजी के अभाव में उसे अस्वीकार करना पड़ा। तभी एक दुर्गा ठाकुर के पास नौकरी की तलाश में आ पहुँचा हमारा मुकुन्द खाउन्द। ठाकुर के अपने दफ़्तर में उसके लायक काम हालाँकि नहीं था, पर उन्हें मुकुन्द का चेहरा-मोहरा क़द -काठी पसंद आने के साथ-साथ ही क्लब का भी ध्यान आया। मुकुन्द को लेकर वे फौरन उज्जवल देवरी के पास आये। दोनों में चुपके-चुपकें कुछ बातें हुईं। उज्जवल को भी मुकुन्द का गठा हुआ बदन और गाँव की सी सरलता लिए भोली सूरत अच्छी लगी। उसकी आँखों में कौतुहल था, पर बातचीत संयत थी। काफ़ी जिम्मेदार भी लगता था वह ।

मुकिन्द को काम मिल गया एन. ई. एस. में। उसके काम का न तो नियत नाम था, न ही बँधी हुई तनख़्वाह। बस, काम चलाने लायक मिल जाता था, उसी में मुकुन्द खुश था। शाम को उसका काम शुरू होता था, पहले व ताला खोलकर दरवाज़े खिड़कियाँ खोलता, फिर सफाई भी करता और रात के आठ नौ बजे सबके घर जाने के बाद ताला लगा देता था। क्लब के सदस्य ब्रिज और कैरम अन्दर खेलते थे। ज़्यादा सर्दी पड़ती तो बैडमिन्टन भी अन्दर ही खेला जाता था इसकी तो सारे असम के स्तर पर प्रतियोगिता भी हुआ करती थी। जब क्लब का काम बढ़ गया, तब भी मुकुन्द अकेला ही सब सँभालता था। हाँ, टूर्नामेन्ट के वक़्त कॉलेजों से आये हुए छात्र उसकी मदद किया करते थे। मुकुन्द को लगता था कि एक-न-एक दिन बहुत बड़ा बन जायेगा। सोचता था, वहाँ इतने लोग आते-जाते हैं, वे कुछ-न-कुछ तो करेंगे ही। तब उसकी तनख़्वाह सुविधाए सब बढ़ेंगी। अभी तनख़्वाह कम थी, मगर सहूलियतें काफ़ी थीं। उसी चौद्दही के अन्दर उसने एक झुग्गी बना ली थी। चारों तरफ़ ढेर सारी घास थी; सौ रुपये उधार लेकर एक गाय ख़रीद लीं। गाय का दूध बेचकर कुछ पैसे भी जमा कर लिये, तब पुरानी चिन्ता फिर से सताने लगी....अब शादी करनी चाहिए। जो मेहनत से रोज़गार करता है, उसे संसार धर्म का पालन भी तो करना चाहिए। ये गाय-घर-सुख-सुविधा किसलिए है ? वैशे भी वंशवृद्धि के लिए ही तो दुनिया भर के झंझट पालते है लोग। यह भी न करें तो अपने भविष्य की बात सोचने, भविष्य के लिए संचय करने से क्या फा़यदा ? इससे तो अच्छा है सन्यासी बन जाओ।

क्लब के अहाते में छोटा-सा घर, गाय-बछिया, घास हरियारी और गोबर की पहचानी गंध के बीच मुकुन्द बड़ा अनमना-सा हो उठता था कभी-कभी। उसे याद आती थी यशोदा...कहुँवामुख से चार मील दूर दीघलघाटी की यशोदा। उसके गाँव में दीपलघाटी, कवैमारी, जलमै, दलैसूवा आदि गाँवों को जाने का कोई रास्ता नहीं, सिर्फ़ पगडंडी है। बारिश में इतना पानी होता है कि नाव लेकर, घास-फूस के ऊपर से कही भी निकल जाओ। फाल्गुन चैत्र में ही छोटे-छोटे पौधे बचाकर चलना पड़ता है। कभी-कभी धान के खेतों में से भी गुज़रना पड़ता है। फिर भी उसे यशोदा के घर जाने में कोई मुश्किल नहीं होती। मुश्कित तो यह है कि उसका वहाँ जाना मना है। दो परेशानियाँ और भी हैं, एक तो गाय और बछिया की देखरेख करने की दूसरी छुट्टी की। ख़ैर, हार मानने वाला तो था नहीं, उसने मन-ही-मन काफ़ी सोच-समझ कर तय किया कि बैसाख के बिहू1 के वक्त चार-पाँच दिन की छुट्टी है, तभी चला जायेगा। एकाध दिन देर से लौटा तो सेक्रेटरी शायद कुछ नहीं कहेंगे।
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1.    बैसाख का पहला दिन, जो असम में ‘रौंगाली बिहू’ के नाम से बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है।
इसे ‘बौहाग बहू’ भी कहते हैं। यह नव-वर्ष के प्रारम्भ और नये अनाज के स्वागत का उत्सव है।

उधर गाय और बछिया को रखने का इन्तज़ाम पास ही चाय के बग़ान के चौकीदार दिल बहादुर के यहाँ कर दिया था।
बिहू के तीन दिन बाद भरपूर यौवन से दमकती लड़की को लेकर लौटा। सारी बात का सार उसने दिल बहादुर को ऐसे बताया-‘‘इसके माँ-बाप तो मेरा नाम तक नहीं लेने देते। कहते हैं, मैं दोगला हूँ मेरे बाप का पता नहीं है। मेरी माँ को भी उल्टा-सीधा कहते हैं। इसी कारण मैं ननिहाल में चैन से न रह पाया, न ही पढ़ पाया, मुझे तो स्कूल तक में बच्चें चिढा़या करते थे मुझ बदनाम के पास क्या था जिससे विरोध करता ? अब भी कोई चारा नहीं था सो भोर से पहले हम दोनों घर से भाग आये।’’

‘‘माँ को पता चला ?’’ दिल बहादुर ने पूछा।
वह बोला, ‘‘माँ तो कब की मर गयी, खून के दस्त होते-होते।’’ सुनकर दिलबहादुर की खुशी का ठिकाना न रहा। उसकी पत्नी भी फूली न समायी। उसके दो बेटे और एक बेटी है। एक बेटा मिलिट्री में है। वह मिज़ोरम के पहाड़ों में रहता है, दूसरा खानापाड़ा की सरकारी डेयरी में काम करता है दोनों की ही पत्नियाँ हैं मगर इनके लिए तो ना होने के बराबर ही हैं न। तारामाई बरबाड़ी के गणेश के साथ बाग़ गई थी। दिल बहादुर और हिमाद्रि ने उस गधर्व-विवाह को बाद में मान भी लिया था, लेकिन उसकी तो क़िस्मत ही ख़राब थी। प्रथम सन्तान के प्रसव के बाद तारामाई की मृत्यु हो गयी।
इन्हीं सब कारणों से इन्हें पाकर उनकी खुशी का पारावार न रहा। पहले दिन मुकुन्द और यशोदा दिलबहादुर के यहाँ ही रहे। उनके ब्याह की खुशी में दिल बहादुर ने मंदिर में बकरे की बलि चढ़ाई और उसका ग़ोश्त बढ़िया मसाले में पकाकर उन्हें भी खिलाया।

वे दोनों अपने छोटे से घर में रहने लगे। वे बड़े  प्यार, हिलमिलकर दिन बिताने लगे। गाय को एक और बच्चा हुआ। सरकारी सहायता मिलने की वज़ह से क्लब के हॉल की मरम्मत करवायी गयी और अन्दर-बाहर पुताई भी करवायी गयी। मुकुन्द के रहने के लिए भी एस्बेस्टस् की छत वाला दो कमरों का घर बनवाया गया, जिसके साथ लगा हुआ पाख़ाना-बाथरूम भी था। फिर यशोदा के कहने पर घर में आड़ करने के लिये मुकुन्द ने चिक जैसी सूखी घास और बाँस की छीलन की दीवार घेर दी।
यशोदा पाँच महीने से गर्भवती थी।
एन. ई. एस. ने अखिल असम क्रीड़ा प्रतियोगिताओं में चैम्पियन बनकर एक शील्ड और कप को जीतकर अपने नाम को और भी बढ़ाया।

यशोदा ने एक पुत्र को जन्म दिया। क्लब के प्रेशीडेंट योगेश चन्द्र बरुआ मंत्री बने और उनकी जगह नरसिंह ने ली। मंत्री ने क्लब को काफी सहायता दी। धीरे-धीरे शहर के व्यक्तियों का क्लब की ओर ध्यान आकृष्ट हुआ। क्लब की पूँजी भी बढ़ने लगीं। पैसा काफी होने पर क्लब का एक ऑफिस बनाया गया।
अब मुकुन्द-यशोदा का पहला बेटा बिना सहारे के एक-दो क़दम चलना सीखता है। दिल बहादुर के पोपले मुंह पर मीठी मुस्कान बिखर जाती है। उस बच्चें रंजू को हिमाद्रि गद्गद होकर गोद में भींच लेती है। रंजू अपने माँ-बाप से ज़्यादा दिल बहादुर और हिमाद्री का लाड़ला है। उसकी तोतली अमृत  वाणी सुनकर चारो को ऐसा लगता है कभी किसी बच्चें ने ऐसी मीठी बोली नहीं बोली।

एन. ई. एस. क्लब में लॉन टेनिस खेलने की व्यवस्था की गई है। और टेबिल टेनिस के लिए क्लब के अन्दर दो टेबिल लगाए गये हैं। शाम को वक़्त मिलने पर वहाँ, उपायुक्त, पुलिस अधीक्षक और सरकारी वकील वग़ैरह टेनिस खेलने आते हैं। किसी की जवान पत्नी साथ आये तो उसके साथ  भी टेबिल टेनिस खेला जाता है।
मुकुन्द का घर-संसार भी भरपूर हो गया है। घर के एक कोने में कबूतर का एक जोड़ा रहता था उसके भी तीन हष्ट-पुष्ट बच्चे गुटरगूँ किया करते हैं, माँ-बाप के संग पाँचो मस्त हैं....यह एक शुभ लक्षण माना जाता है। गाय के तीन बछिया-बछड़े हो गये। यशोदा का बदन भी.....।

लॉन टेनिस की बाँल उठाने-पकड़ाने के लिए दो लड़को की नियुक्त की जाती है और एक आदमी की क्लब बॉय के रूप में स्थायी नियुक्ति। क्लब के ही एक कमरे में कुछ अखबार और सिने-पत्रिकाएं रखी जाने लगीं है मुकुन्द का हाथ बटाने के लिए न अब तीन आदमी थे और उसकी पदवी थी ‘केयर टेकर’ की।
 जिस दिन यशोदा का दूसरा बेटा पैदा हुआ, उसी दिन दिल बहादुर की गाय ने बछड़े को जन्म दिया। यशोदा और सारे बच्चों की सारी देखरेख हिमाद्रि करती थी। गाय और बछड़े का भार उठाया था दिन बहादुर ने। दोंनों परिवारों में प्रागाढ़ प्रेम-भाव था।

इसके बाद क्लब के साथ ही सेनिटरी बाथरूमादि में संयुक्त तीन ‘गेस्ट रूम’ बनाये गए जिनमें बाहर से आये खिलाड़ी रह सकते थे। ‘केयर टेकर’ मुकुन्द का काम बढ़ गया। वह घर की दीवार पर लकीरे खींचकर कौन कितने दिन रुका, इसका हिसाब रखा करता था। यों तो ज़्यादा लोग नहीं आते पर जब सारे कमरे भरे होते थे, तब उसे इस तरह हिसाब रखना पड़ता था इन लकीरों से मुकुन्द की स्मरण शक्ति कहीं ज़्यादा भरोसेमन्द है, यशोदा यही कहती है और नया नियुक्त किया गया हरेश्वर डिहिंगिया भी कहता है।
यशोदा के छरहरे बदन पर थोड़ी चर्बी जमती है, मुकुन्द का बदन भी ज़रा और बलिष्ठ होता है। अब रंजू को कौन-से स्कूल में दाखिल किया जाये इस पर मुकुन्द, यशोदा और दिलबहादुर-हिमाद्रि में सलाह-मशविरा होता रहता है।  


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