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जल की प्यास न जाए

कर्त्तार सिंह दुग्गल

प्रकाशक : साहित्य एकेडमी प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :350
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2166
आईएसबीएन :81-260-0124-0

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इस उपन्यास में पंजाब का ही नहीं वरन् पूरे भारत का कराहता इतिहास है इसमें बिगड़ती सामाजिक परिस्थितियों का सजीव चित्रण किया गया है...

jal ki pyas na jaye

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राक्कथन

सन् 1965 में सरदार कर्त्तार सिंह दुग्गल को साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिलने पर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था,-‘‘मुझे यह जानकर ताज्जुब हो रहा है कि...(इन्हें) पंजाबी का पुरस्कार मिला है मैं तो अब तक उन्हें हिन्दी का लेखक ही समझता रहा हूँ।’’ यह अनुभव बहुत से पाठकों का होता है क्योंकि दुग्गल साहब चाहें मौलिक रूप से पंजाबी में लिखते हैं उनकी कृतियां हिन्दी में भी लगातार आती रहती हैं और मौलिक होने का आभास देती हैं। जल की प्यास न जाए पंजाबी में 1984 में आ चुका है। अब साहित्य अकादेमी की भारतीय उत्कृष्ट साहित्य प्रकाशित करने की योजना के अन्तर्गत शीघ्र ही हिन्दी में निकलने जा रहा है।

भारतीय साहित्य में सरदार कर्त्तार सिंह दुग्गल का नाम उन गिने-चुने शीर्षस्थ साहित्यकारों में है जिन्होंने प्रचुरता से लिखा है, लिख रहे हैं, बहुत लोकप्रिय हुए हैं, बार बार पुरस्कृत हुए हैं और जिनका योगदान साहित्य के बौद्धिक विकास में बहुत महत्वपूर्ण रहा है। उनकी रचनाएँ प्रबुद्ध पाठक भी उतनी ही रुचि से पढ़ता है जितना की सामान्य पाठक।
साहित्य के दो पहलू होते हैं एक तो वह जो सिर्फ मनोरंजन के लिए लिखा गया हो और दूसरा वह जो मानवीय मूल्यों को सामने रख कर उनकी पुष्टि में रचा गया हो।

 कर्त्तार सिंह दुग्गल की रचनाओं में इन दोनों दृष्टिकोणों का सरस सामंजस्य मिलता है। जल की प्यास न जाए में अगर एक तरफ जनप्रिय कथात्मक रस है, साधारण प्रेम कहानी का आकर्षण है तो दूसरी तरफ पंजाब का ही नहीं वरन् समूचे भारत का कराहता इतिहास है, हमारी बिगड़ती सामाजिक परिस्थितियों का सजीव चित्रण है, 1975-76 के दौरान सरकार द्वारा घोषित आपातकालीन अवस्था के समय जन साधारण पर हुए अत्याचारों का मर्मांत्मक वर्णन है, उनसे जूझते उलझते पात्रों का बारीक मनोवैज्ञानिक विश्वेषण है और उसके साथ ही है पारिवारिक जीवन की विषमता, कुत्सा, बिखराव तथा टूटन से उत्पन्न हुई दर्द भरी स्थितियों का मार्मिक निरूपण।

यह उपन्यास तीन भागों में बँटी मीरा बहल और उसके परिवार-मि.बहल, दो पुत्री, शान्ता और शशि और पुत्र विनोद के क्रमिक ह्रास की कहानी है। उसी में गुंथा हुआ है हिप्पी का वहां आकर उसके साथ रहने का किस्सा, पहले शान्ता का अपनी अम्मी पर अपने किशोर पति सतीश पर डोरे डालने का लाँछन और उसके बाद शशि का भी उन पर उससे उसका हिप्पी छीनने की कोशिश का आरोप, नशीले पदार्थों के सेवन से शाशि और विनोद का वैयक्तिक पतन, कलाकार अंकल का मीरा के नग्नचित्र व्यवस्था-अव्यवस्था का विस्तृत ब्यौरा। कहानी का फलक बहुत बड़ा है। लेकिन सब कुछ मीरा बहल की ऊबी हुई, नीरस जिन्दगी से इतनी कुशलता से जोड़ा गया है, इतनी निपुणता से बताया गया है कि कुछ भी असंगत, असम्बद्ध अप्रासंगिक या ऊपर से थोपा हुआ नहीं लगता। और पाठक एक बार किताब शुरू के बाद पूरी खत्म करने से पहले रख ही नहीं पाता। उसकी स्वाभाविक कौतुहलता लगातार बनी रहती है। लेकिन खत्म करने के साथ बेचैनी खत्म नहीं हो जाती, बल्कि और बढ़ जाती है। क्योंकि अब वह उन सब मुद्दों के बारे में जो लेखक ने कहानी के दौरान उठाए, कुछ सोचने लग जाता है। वे समस्याएँ उसे अपनी निजी समस्याएँ लगती हैं क्योंकि कहानी के पात्रों से उसका गहरा तादात्म्य हो जाता है। मीरा बहल सिर्फ इस उपन्यास की ही नायिका नहीं है वह विश्व के किसी भी कोने में किसी भी परिवार में मिल सकती है ठीक उसी तरह जैसे चार्ल्स फ्लोबैर् की एमा बॉवेरी। जो प्रश्न उन्होंने उठाए हैं-आत्मजन्य भय ईर्ष्या, अकेलापन, नशा सेवन पुरुष का अहं, स्त्री के अचानक अस्मिता चेतन से पैदा हुई हताशा, निराश मनुष्य का अध्यात्म की तरफ भागना-ये सभी आधुनिक युग की विश्वव्यापी समस्याएँ हैं और विश्व साहित्य में निरुपित हुई हैं, हो रही हैं। हिप्पियों का किस्सा भी जब यह उपन्यास पंजाबी में छपा था इतना पुराना नहीं हुआ था।

उपन्यास के दूसरे और तीसरे भाग में कर्त्तार सिंह दुग्गल सामाजिक राजनीतिक नैतिक और सांस्कृतिक जीवन के विषम संघर्ष और मूल्य-मर्यादाओं का उद्घाटन करते हैं, खास तौर से 1975-76 में देश में लागू आपातकालीन स्थिति के दौरान। यूँ तो पहला भाग भी इन टिप्पणियों से अछूता नहीं है लेकिन वह पूरी तरह समर्पित है मीरा की ‘‘अभूतपूर्व सुन्दरता और ‘‘सुघड़ता’’ के प्रति, उसके उस दर्द की व्याख्या के प्रति जो कोई दूसरा नहीं समझ पाता। लेखक का यह दस्तावेज सब कुछ दर्ज करता है-भावना के स्तर पर परित्यक्त औरत का दर्द, सुख की खोज में उसकी हताश दौड़ नौजवानों का जीवन प्रति, अपनी संस्कृति के प्रति मोह-भंग विरक्ति विद्यार्थियों का आक्रामी व्यवहार, विश्वविद्यालयों में आए दिन झगड़े, हड़ताल हमारी शिक्षा प्रणाली समाज में बढ़ती अराजकता, अनुशासनहीनता, असुरक्षा, अविश्वास, आपसी सम्बन्धों में व्यावसायिकता, और उससे पैदा मूल्य-हीनता, विघटन, लोक सभा की बैठक, जेल की हालत, पुलिस का नागरिकों पर अत्याचार, स्त्रियों पर कुचेष्टा, ग्रंथी की बेईमानी, तस्करी, चोर बाजारी, घुसपैठ, सी.आई.ए., जबरन नसबंदी, व्याभिचार इत्यादि। उनकी बेधड़क लेखनी सब पर आघात करती चलती है, कभी हिप्पी की खरी टिप्पणियों के द्वारा, कभी किसी के पत्र या व्यक्तिगत डायरी के एक पृष्ठ के रूप में। उसकी पैनी निगाह से कुछ बच नहीं पाता।

विश्व में साहित्यिक विचारधारा का अग्रदूत फ्रांस माना जाता रहा है। वहाँ समय-समय पर, खास तौर से इसी शती में, शिल्प में कथ्य में तरह तरह के प्रयोग होते रहे हैं। विश्व भर के साहित्यकार अपनी रुचि के अनुसार उन्हें आजमाते, अपनाते त्यागते रहे हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद फ्रांसीसी लेखकों पर अमेरिकी लेखकों का कुछ प्रभाव दिखता है। लेकिन कुछ ही समय के लिए फिर पात्रों के मनोवैज्ञानिक चित्रण में, उनके मानसिक क्रिया-प्रतिक्रिया के अन्वेषण में तो वह हमेशा आगे ही रहा है, 18वीं शती से अब तक 1980 के प्रारम्भिक सालों में बहुत से फ्रांसीसी लेखकों का रुझान प्रयोग छोड़कर सदियों पुरानी पारम्परिक कथा कहने की कला की तरह हुआ उनमें विशेष रूप से मौरिस धुइयों मिशैल देओं, मिशैल तूरनियर, ओंरी थ्रोया द’ औरमेसौं, रोजे घ्रोनियर, ल क्लैज़ेंओ का नाम लिया जा सकता है। ये सब बहुत लोकप्रिय लेखक हैं। दुग्ग्ल साहब स्पष्ट रुप से इसी धारणा के अनुयायी हैं-सीधी कथा, महत्त्वपूर्ण कथ्य और सूक्ष्म मनोविश्लेषण। उनके लिए साहित्य किस्सागोसाई है तो कला भी परम आनन्द है तो सामजिक चेतना जगाने का एक समर्थ साधन भी। वे एक यथार्थ वादी प्रगतिशील लेखक माने जाते हैं। उनके लिए यथार्थवाद शिल्प से ज्यादा विचारधारा है, जीवन दृष्टि है। उनका यथार्थवाद ज़ोला का प्रकृतिवाद नहीं, वह सार्थ और कामू का सामाजिक यथार्थवाद है। आशावादी मानववाद है जो शब्दों के माध्यम से रचनात्मक रूप में मनुष्य की सम्मानजनक अस्मिता की चिंता, उसके बेहतर जीवन और उज्ज्वल भविष्य के प्रश्नों से जुड़ा हुआ है। फ्लौवैर की तरह उनका विश्वास है कि ‘‘प्रगतिशील साहित्य’’ वह है जिसमें प्रतिदिन के साधारण जीवन को विकासोन्मुख दिखाया जाये, जिसमें जीवन की स्वस्थ भावना का चित्रण हो, जीवन के स्वस्थ मूल्यों को उभारा जाये, लूट-खसूट, गन्दगी, अन्धविश्वास अज्ञानता, भूख और बीमारियों के प्रति घृणा पैदा की जाए।’’

जल की प्यास न जाए बहुत सुन्दर उपन्यास है। इसमें उठाई गई समस्याएँ पाठक को झकझोर देती हैं, लेकिन यह भी विश्वास दिलाती हैं कि जीवन में आस है, निराश होने की आवश्यकता नहीं। मीरा भीड़ में शाशि को खो देती है, फिर उसी भीड़ में पा भी लेती है-वीना के रूप में। जल बड़ा गहरा और अनेकार्थक प्रतीक है, लेखक के अपने शब्दों में सिर्फ ‘पाश्चात्य जीवनधारा’ का। मेरे लिए यह मीरा की अस्तित्व खोज, किसी हद तक उसकी आत्मरति का चरम बिन्दु है, मि. बहल के अहं की जड़ है, शशि की मंजिल और विनोद का नशा है, शान्ता का शुब्हा है। और अगर दूसरी तरफ से देखें तो यही जल सचेत समाज के बौद्धिक संघर्ष का प्रतीक है और प्रेरणा भी, मनुष्य की कहीं दबी हुई आध्यात्मिक आवश्यकता का स्रोत है। अपने आप में साध्य है और साधन भी। प्यासे की प्यास बुझती नहीं। वो पीता है, फिर और माँगता है। यही आनन्द है इस कवि का।

नयी दिल्ली
24 अगस्त, 1994

शरद चन्द्रा


पहला खण्ड
1


‘‘अम्मी को क्या हो गया ?’’ शान्ता ने शशि से पूछा।
शशि ने कोई जवाब नहीं दिया। शशि को स्वयं कुछ समझ नहीं आ रहा था। पहले तो कभी-कभी वह इसके बारे में सोचा करती थी पर अब जबसे उसके बी.ए. के इम्तहान शुरू हो गये थे, उसे सोचने की कभी फुरसत ही नहीं मिली थी।
शान्ता को अपने मायके आए हुए कुछ ज्यादा दिन नहीं हुए थे। पता नहीं क्यों, इस बार उसे अपनी मां कुछ बदली-बदली लग रही थी। जब अपने मायके के घर में कदम ही रखा था कि उसे महसूस हुआ जैसे वातावरण कुछ का कुछ हो गया है। फिर उसने सोचा कि शायद यह उसका भ्रम हो। इतने दिनों के बाद वह दिल्ली आई है। लेकिन नहीं, दो दिन, चार दिन-और उसे विश्वास हो गया कि यह उसका भ्रम नहीं है। ज़रूर कोई बात है।
लेकिन क्या बात है यह शान्ता को समझ नहीं आ रहा था।

सुबह तड़के पति-पत्नी सोकर उठते और सैर को निकल जाते। जैसे हमेशा से वे करते आये थे, सर्दी हो, गरमी हो सैर करके लौटते तो पति पूजा-पाठ में लग जाता, पत्नी नाश्ता तैयार करती। यों नौकर-चाकर थे, पर अपने घरवालों का खाना वह खुद ही तैयार किया करती थी। नाश्ता करके वह दफ्तर चला जाता। जब तक उसकी मोटर चल न पड़ती, वह उसके लिए कुछ-न-कुछ करती रहती। कभी रुमाल भूल जाता था तो कभी ऐनक, कभी दफ्तर की चाबियां तो कभी मोटर की। उसे विदा करके वह दोपहर के खाने की तैयारी शुरू कर देती। फिर शाम की सैर, फिर उसके पति का संध्या-वंदन, फिर रात का खाना और-फिर अपने अपने पलंग पर वे पड़ जाते। अपने माता-पिता की वह दिनचर्या वह अपने बचपन से देखती आ रही थी। यही दिनचर्या आजकल भी थी। लेकिन शान्ता को लगता कि कुछ फ़रक ज़रूर है, उसके भीतर की औरत महसूस करती कि जैसे उसकी अम्मी की आंखों में एक अद्भुत लौ हो-सारी रात जलते रहे दिए की लौ। वैसी ही मीठी बोली थी, लेकिन शान्ता को लगता जैसे उसमें कोई दर्द घुला हुआ हो। अम्मी के कोमल-कोमल, सारी उम्र संभाल-संभाल कर रखे गये अंग जैसे दुख-दुख रहे हों।

शान्ता ने एक नज़र में ही सब कुछ भांप लिया। और फिर उसका अनुमान पक्का होता गया।
उस दिन तो जैसे उसके कलेजे में तीरों का गुच्छा आ चुभा हो। पूरनमासी की शाम, मां-बेटी मन्दिर गई थीं। भगवान की मूर्ति पर ताज़ा चुनी हुई कलियां चढ़ाते हुए जब उसकी अम्मी ने सिर झुकाकर माथा टेका तो नीचे फूलों की कलियां, उसके छम-छम आंसुओं से भीग गईं। यह ओस के मोती नहीं थे। उस समय शाम को ओस कहां ?
शान्ता सोचती कि यह क्या हो गया है उसकी अम्मी को। दुनिया की हर चीज़ उसे सुलभ थी। हर एक चीज़। पति था, वह कहे तो उसके लिए जान दे दे। इतना उसका ख्याल रखता था। लाख मुसीबतें झेल लेता लेकिन अपनी पत्नी को कभी कोई कष्ट नहीं होने देता। दो बेटिया थीं, एक ब्याही गयी थी दूसरी ब्याही जाएगी; जब उसके इम्तहान खत्म होंगे। बेटा डिफैन्स अकादमी में ट्रेनिंग ले रहा था। अपनी कोठी थी, खुले कमरे खुले लान, मोटर नौकर-चाकर सहेलियां, रिश्तेदार, सगे संबंधी।

औरत को और क्या चाहिए ? उसके पति की सेहत अच्छी थी। उसकी अपनी सेहत ऐसी थी जैसे भरी पिटारी हो। वही गोरे-गोरे गुलाबी गाल, ऊंचा-लंबा कद। तीन बच्चों की मां थी; जवान-जहान तीन बच्चों की मां और अभी तक कंचन-सी काया, जैसे उसने अपने आपको वैसा का वैसा संभाल-संभाल रखा हो। बाल कहीं-कहीं से भूरे-भूरे थे। भूरे होकर अच्छे लगते थे। उम्र के साथ उसके पहनावे में जितनी सादगी आ रही थी, उतनी ही वह और आकर्षक होती जा रही थी। क्या शान्ता और क्या शशि, अपनी अम्मी को देखकर उन्हें अपना सौन्दर्य फीका-फीका लगता और उन्हें अपनी अम्मी पर बेहद प्यार आने लगता। शान्ता का पति तो उसे प्रायः छेड़ा करता था-‘‘मैंने इश्क तेरी अम्मी से शुरू किया था। उसे देखकर मुझे लगा, जिसकी मां इतनी सुन्दर है उसकी बेटी कैसी होगी।’’

और शशि को कई बार बड़ी खीझ आती। उसके कालेज के लड़के, अड़ोस-पड़ोस के नौजवान मिलने उससे आते और घंटों उसकी अम्मी के पास बैठकर चल देते। बेचारी शशि उन्हें शरबत घोल-घोलकर पिलाती रहती काफी बना-बनाकर पेश करती रहती, पान लगा-लगाकर खिलाती रहती।
शान्ता को जब उस शाम की मन्दिर वाली घटना याद आती तो उसके दिल को कुछ हो जाता। जैसे कोई नौलखा हार टूट जाए, इस तरह आंसुओं के मोती, उसके माथा टेकते हुए बरस पड़े थे। वह तो सीतामढ़ी वाले अंकल मिल गए और बचाव हो गया। माथा टेक, परिक्रमा के लिए उसने पीठ मोड़ी और आगे अंकल खड़े थे। और फिर अम्मी उनसे बातें करने लगीं। उसके चेहरे पर एकदम रौनक सी आ गई। कैसे उसने अपनी भीगी पलकों को छिपाया था ? शान्ता सोचती और हैरान होती रहती।

बेचारे सीतामढ़ी वाले अंकल कितने प्यारे थे। इतना बड़ा कलाकार। देश-भर में उसके चित्रों की चर्चा थी। उसकी बनाई हुई एक-एक तसवीर दस-दस हज़ार में बिकती। अब भी अम्मी से मिलते, यही कहते, ‘‘मुझे आपका चित्र बनाना है।’’ और अम्मी हंसकर टाल देती।
शशि एक दिन बैठे-बैठे शान्ता से कहने लगी, ‘‘कुछ महीने हुए, मेरे इम्तहान से पहले की बात है, एक शाम मैं सीतामढ़ी वाले अंकल के चित्रों की नुमाइश देखने गई। टाउन-हाल में उनकी नुमाइश हो रही थी। उनके ताजा बनाये हुए एक चित्र को मैंने देखा और एक क्षण के लिए मैं पसीना-पसीना हो गई। मुझे लगा जैसे अम्मी खड़ी हो, अध नंगी-सी; गज़-गज़ अपने बालों से जैसे अपने आपको ढांक रही हो। लेकिन वह चित्र तो एक आबशार का था। किसी पहाड़ी के नुकीले पत्थरों पर से एक नदी जैसे मुंह के बल नीचे कूद पड़ी हो। मैं कितनी देर उस चित्र को देखती रही। पता नहीं क्यों मुझे बार बार अपनी अम्मी की झलक दिखाई देने लगती उस चित्र में !’’

उस शाम, अकेले अपने लान में टहल रही शान्ता ने देखा, सामने सड़क पर सीतामढ़ी वाले अंकल अपनी मोटर में जा रहे थे ! शान्ता ने जैसे ही देखा उन्होंने अपना हाथ हिलाया।
‘‘कौन था ?’’ अन्दर से आ रही उसकी अम्मी ने शान्ता से पूछा।
‘‘सीतामढ़ी वाले अंकल थे। मैंने इशारा तो किया, मगर वे रुके नहीं।’’
‘‘अच्छा ही हुआ। तेरे डैडी घर पर नहीं हैं। मुझे यह आदमी अजीब लगता है। हमेशा एक ही रट-मैं आपकी तसवीर बनाऊंगा-यह भी कोई बात हुई ?
और शान्ता अपनी अम्मी के मुंह की ओर देखती रह गई।

और फिर शान्ता के डैडी आ गये। दफ्तर में आज फिर उन्हें देर हो गई थी। पत्नी अपने पति के कामों में जुट गई। पहले उसने उसके बूटों के तसमें खोले। सारा दिन काम करते-करते कितना थक जाता था वह। फिर उसके कपड़े उतारने में मदद की। ग़ुसलख़ाने में उसके नहाने के लिए तौलिया, बनियान-जांघिया पहले ही टंगे थे। वह नहाने के लिए गया। ग़ुसलख़ाने के बाहर खड़ी वह इंतजा़र करती रही कि अन्दर से किसी चीज़ के लिए आवाज़ न दे दें। यों तो वह सब कुछ ग़ुसलख़ाने में स्वयं रख देती थी, लेकिन जब तक उसका पति नहाकर बाहर न आ जाता, ग़ुसलख़ाने के पास से वह एक क्षण के लिए न हटती। कहीं उसे किसी चीज़ की ज़रूरत न पड़ जाए। सारा दिन दफ्तर में काम करके लौटा मर्द-थके मांदे मर्द का मिज़ाज चिड़चिड़ा हो जाता है।
नहा-धोकर शान्ता के डैडी बाहर टहलने के लिए निकल गये। अम्मी की तबीयत कुछ ढीली-सी थी। उधर वे सैर के लिए निकले इधर टेलीफोन की घंटी बजने लगी।

‘‘कौन ?...ओह ! अच्छा आप हैं।’’ अम्मी टेलीफोन सुन रही थीं। ‘‘ये तो अभी बाहर निकले हैं-टहलने गये हैं...मैं नहीं गई, यूं ही...नहीं तबीयत तो भली चंगी है। तबीयत को क्या होना है। आप बातें ही करते हैं, कभी आते तो नहीं....क्या काफ़ी ? पिलाऊंगी। आपसे काफ़ी महंगी है ? सुना है आप इधर से गुज़र जाते हैं, हमारे यहां नहीं आते....नहीं कोई कह रहा था। गलत होगा।...अच्छा कब आयेंगे आप ? पक्का वायदा...फिर टेलीफोन करके माफ़ी मांग लोगे..मैं आपको जानती हूं...मैं इंतज़ार करूंगी। अच्छा।’’
साथ के कमरे में सिंगारदान के सामने खड़ी शान्ता सुन रही थी। सामने आईने में शान्ता ने देखा जैसे वह मुस्करा रही हो-एक शरारत भरी मुस्कान। यही है। यही है जिसने अम्मी के जीवन में एक नया रंग भर दिया है। लेकिन यह है कौन ?
जो कोई भी है, आजकल इसके यहां आएगा। शान्ता सोचती कि एक नज़र में ही वह उसे पहचान लेगी। मुहब्बत जैसी चीज़ किसी से छिपाई नहीं जाती। शान्ता ने भी तो मुहब्बत की थी।
बेचारी अम्मी ! शान्ता को अपनी मां पर तरस आने लगा। हाय, मुहब्बत कोई न करे। मुहब्बत में औरत तिनके जैसी हलकी हो जाती है। और शान्ता को वे दिन याद आने लगे जब वह स्वयं किसी से मुहब्बत कर रही थी। तौबा-तौबा, जैसे सारा ज़माना उसका बैरी हो गया हो। यही अम्मी, जिसने कितने लाड़-प्यार से उसे पाला था, शान्ता को एक नज़र देखना नहीं चाहती थी। उठते-बैठते झल्लाती, चिल्लाती रहती।

‘‘अम्मी, मुहब्बत की नहीं जाती, हो जाती है।’’ एक दिन शान्ता ने खीजकर कहा था।
‘‘गैर ज़िम्मेदार लोगों ने अपनी कमज़ोरी का नाम मुहब्बत रख लिया है।’’ उसकी अम्मी ने शान्ता को डांटा था, ‘‘मुहब्बत एक के साथ हो सकती है तो किसी दूसरे के साथ भी हो सकती है। औरत की असली मुहब्बत अपने बच्चे के साथ होती है-और उस बच्चे के पिता के साथ। मुहब्बत एक साझेदारी है। एक ही चीज़ के दो मालिक; एक मालिक और दूसरे मालिक में उस चीज की साझेदारी। मेरी एक सहेली थी, हर समय उस पर मुहब्बत का भूत सवार रहता था। कभी इसके साथ, कभी उसके साथ। एक वक्त केवल एक मर्द को प्यार करती, लेकिन रहती हमेशा इश्क में डूबी हुई। एक और थी। सारी उम्र उसे मुहब्बत की जुस्तजू लगी रही। और आखिर में पता चला कि मुहब्बत तो वह अपने-आपसे करती थी। अपने जैसी मुहब्बत कोई किसी से नहीं करता। मुहब्बत बीमारी है। जैसे जुकाम होता है। एक और मेरी सहेली थी। कहती थी कि कभी-कभी मुझे मुहब्बत का बुखार चढ़ता है।

मैं इसका इलाज कर लेती हूँ। जब बिल्ली अपनी मख़मली पीठ को आपकी पिंडलियों के साथ आकर रगड़ती है, तो बिल्ली को आप अच्छे नहीं लग रहे होते; बिल्ली को अपनी खुद की पिंडलियों के साथ रगड़ना अच्छा लग रहा होता है। जाड़े में सूरज की हलकी-हलकी धूप अच्छी लगती है। गर्मियों में सूरज की उसी धूप से बचने के लिए आदमी लाख उपाय करता है। लोग हाथ जोड़-जोड़कर, माथा-रगड़-रगड़कर वर्षा मांगते हैं और फिर जब वर्षा होती है, बाढ़ आ जाती है, गांव के गांव बह जाते हैं। मुहब्बत खुशी है, मुहब्बत खिल-खिल जाना है; कोई खांसी से मुहब्बत नहीं करता, खुजली से मुहब्बत नहीं करता। बेकार है वह मुहब्बत जो किसी चलते राही को आंच पहुंचाए। हमारे गांव का ज्वाला ताऊ, जब उसे किसी बच्चे पर लाड़ आता, उसे चांटा मार देता था और फिर हैरान होकर बच्चे को सीने से लगा लेता। हमेशा अपनी घरवाली को भद्दीसी गाली देकर बुलाता, लेकिन बच्चा हर साल उनके होता। मुहब्बत, मुहब्बत, मुहब्बत ! जिस दिन तुम पैदा हुई अस्पताल में ज़च्चाखाने में मेरे साथ ईसाई औरत थी, जो प्रसूति पीड़ा में अपने होने वाले बच्चे के पिता को लाख-लाख गालियां बक रही थी। इतनी गंदी और इतनी भद्दी गालियां। उसने भी तो मुहब्बत की होगी। मुहब्बत के बिना कोई किसी बच्चे की मां बन सकती है ? जंगल में फूल खिलते है, रंग बिखेरते हैं, खुशबू लुटाते हैं, मुरझाकर मर जाते हैं, किसकी मुहब्बत में ?....’’

शान्ता की मां यूं बोलती जा रही थी और उधर शान्ता सो गई थी। जब वह खर्राटे लेने लगी तब कहीं उसकी मां खामोश हुई। खीझी-खीझी, हारी-हारी शर्मिंदा-शर्मिंदा।
शान्ता अपने महबूब के बारे में कहती, ‘‘अम्मी, इस लड़के का कोई कसूर नहीं। नौजवान है, सुन्दर है, पढ़ा लिखा है, अच्छे खाते-पीते घर का है। इसका कसूर बस यही है कि इसने मेरे साथ मुहब्बत की है।’’
‘‘और यह कसूर क्या काफ़ी नहीं तुम्हारी नज़र में ?’’ अम्मी हमेशा यह कहकर उसे खामोश कर देती।
और उसकी अम्मी ने तब तक सांस नहीं ली जब तक शान्ता ने अपने महबूब को, अपनी ज़िंदगी में से बुहारकर बिल्कुल बाहर नहीं फेंक दिया।
शान्ता को याद था कि उस दिन वह कैसे रोई थी, कैसे तड़पी थी। अपने तकिये में मुंह छिपाकर सारी रात वह सुबकती रही थी। पर उसकी अम्मी की ज़िद बुरी थी।

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