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वान्टेड

महाश्वेता देवी

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :111
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2130
आईएसबीएन :81-8143-504-4

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ उपन्यास..

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

 ‘किया ! किया ! दरवाजा़ खोल ! खोल दरवाजा !’ नल बंद होने की आवाज़ सुनाई दी।
‘दरवाजा़ खोल--’
कमर में तौलिया लपेटकर, किया ने दरवाजा खोला।
‘इतना पानी ढालकर, तू क्या धो रहा है ?’
‘खून के दाग, माँ !’
‘खून ?’ सुमना ने फुसफुसाकर पूछा, ‘खून कहाँ से लगा ?’ उसकी आवाज बुझ आयी।
‘काबुली बाबू का खून है....मतलब देवेश बाबू का ! पल्टन ने उन पर कई-कई गोलियां दागी थी न !...’
‘पल्टन ने...?’ सुमना बुदबुदा उठी।
‘हाँ, उन्होंने चीखकर ‘पल्टन’ का नाम लिया था न, तभी मुझे भी यह नाम पता चला। उसके बाद मैं..’
सुमना फर्श पर बैठ गई, तूने वह मर्डर होते अपनी आँखों से देखा ?

सुमना को ऐसा जबरदस्त धक्का, पहले कभी नहीं लगा था। उनके बेटे, किया ने, एक खून होते, अपनी आँखों से देखा ! खून ! वैसे दैनिक समाचार-पत्रों में इस किस्म की खबरें रोज ही छपती थीं। कॉलेज के सहकर्मियों में लगभग रोज ही इस किस्म की चर्चा होती है। यहां-वहां, किसी-किसी के घर के आस-पास ही खून कत्ल होता रहता है। लेकिन सुमना को ऐसे किसी भी व्यक्ति का ख्याल नहीं आया, जिसने खुद या उसके किसी अपने ने खून होते हुए खूनी को अपनी आँखों से देखा हो।
‘सिर्फ अख़बार पढ़ते रहें.... खबर सुनते रहें.....तो  भी पूरी जानकारी मिल जाती है, किया ! पिछले बीस सालों से, यह सब मैं सिर्फ़ अन्दाजे़ से ही कहती आई हूं....कल-कारखाने बंद होते जा रहे हैं, ज़मीनें प्रमोटर लोग हथियाते जा रहे हैं, ज़मीनें नाममात्र को डेवलप की जाती हैं.....बड़े-बड़े लोग हाउसिंग खड़े किया जा रहे हैं, लोग खरीद रहे हैं। पिछले बीस सालों में समाज-विरोधी लोग नेता बन बैठे हैं यानी जननेता....’

 

वान्टेड

 

 

‘तीन अदद टी-शर्ट, दो जीन्स, एक गमछा, कंघी, टूथपेस्ट, ब्रश, एक लाइफब्वाय-प्लस, राशन की दुकान से खरीदा हुआ, नीले रंग का तीखा शक्ति-सम्पन्न, रस्सी का बंडल, कई-कई तरह की धारवाली, बहु-उपयोगी छुरी ! एक अदद फौजी-वैग में हर वक्त़ सजा हुआ ! रेडी शेविंग-सैट भी !
किया भी हमेशा तैयार ! आजकल उसे हर वक्त तैयार रहना पड़ता था ! हमेशा ! हर पल !
बगल के दरवाजे पर तीन बार ठकठक होते ही, किया ने फुसफुसाकर पूछा ‘क्या बात है ?’’
‘सुना है, हाईकोर्ट से कल वह ज़मानत पर रिहा हो रहा है।’
‘मैंने सुना है, उसे ज़मानत नहीं मिलेगी ?’’
मुझे विक्रम ने बताया। पता नहीं, तू....’
‘शुक्रिया, टिकली !’

किया ने मोजे-जूते चढ़ा लिए। लम्बी-लम्बी दौड़, वह बहुत दौड़ चुका ! बेहतर दौड़ता रहा है वह ! गमीनत है, उसने अपने तमाम कैश-एवार्ड ज़मा कर रखे थे। पल्टन कम से कम सात साल के लिए जेल गया है, यह ख़बर जानकर, वह थोड़ा-बहुत निश्चिंत हो आया था।
‘ऐंड यू आर ए फूल ! मूर्ख हो तुम !’  टिकली ने कहा था।
टिकली और किया, इस मकान के चार बाई दो और चार बाई तीन नम्बर प्लैट में, पिछले सतरह सालों से रहते आए थे। टिकली ने गणित में आनर्स किया, पास-वास करके, जापानी भाषा भी सीख डाली और एक अच्छे-दफ़्तर में जा घुसी। उसे लेने के लिए दफ़्तर की गाड़ी आती थी।

यानी उसके बॉस, अंकुर को गाड़ी मिलती थी। वही गाड़ी टिकली को लेने आती थी। अंकुर और टिकली भी दोस्त थे। और किया बचपन से ही दौड़ रहा है और अभी तक दौड़ ही रहा है।
उसका छोटा भाई पोलर, अपने दोस्तों के साथ घूमने गया था। किया और पोलर ! स्कूल-कॉलेज के रजिस्टर में उसका नाम अद्रि और अरण्य ! यह क्लास वन की बात है ? या उससे भी पहले ?
‘किया तो लड़की का नाम है-’ उसकी क्लास के सभी बच्चे उसे चिढ़ाया करते थे। किया मंद-मंद मुस्कराता रहता था। वह उनका हँसी-मजाक सुनकर भी अनसुना कर देता था।
आख़िर एक दिन खासा हांकते हुए कहा, ‘किया है, हरे रंग का, आलपाइन मैना नस्ल का एक पंछी !’ इतना कहकर ही, उसने अपना मुंह बंद कर लिया था।
हालांकि अरण्य का नाम, पोलर क्यों है, इस बारे में कभी, किसी ने सवाल नहीं किया।
पोलर खुद ही कहा करता था, ‘मैं हूँ बर्फ़ के देश का भालू !’

बैग कंधे पर चढाते-चढ़ाते, किया सोचता रहा, पता नहीं क्यों तो पापा को जीव-जन्तुओं से इस क़दर प्यार था। अपने बेटों का नाम भला कोई किया था पोलर रखता है ?
जूते-मोजे पहनकर मां-पापा के कमरे के सामने जा पहुँचा। उसने दरवाज़े पर दस्तक दिया। कलाई पर ऐथेलेट-घड़ी बंधी हुई ! टिकली का फोन आए, अभी कुल मिनट भर ही गुज़रे थे। दरवाजा पापा ने खोला !
‘‘किया ?’’

‘श!......धीरे ! मैं जा रहा हूँ ! ख़बर मिली है कि पल्टन कल जमानत पर रिहा हो रहा है।’
मां का चेहरा दहशत से भर उठा !
‘माँ मैं चला-’
‘थोड़े-से रुपये भी लेता जा। तेरे पास कितने रुपये हैं, मुझे मालूम हैं। माँ ने लाकर खोला। चाबी घुमाने की आवाज़ मानो चीत्कार कर उठी। उस चीत्कार को अगर लम्बा खींच दिया जाए तो डे़ढ़ साल की शाम को गूँज उठने वाली किसी धातु या क्षीण चीत्कार की याद आने लगती थी।
वह चीत्कार, किया भूल गया था या शायद नहीं भूला था। अपने मन की किसी तह में उसने वह चींख दबा रखी थी। इस वक़्त वह दुबारा उभर आया था।
‘लो, रख लो ! पापा की आवाज़ में परेशानी झलक उठी।

यूं उनकी आवाज़ में, किसी भी स्थिति में, कभी परेशानी नहीं झलकती थी। हालांकि यह बात स्वाभाविक नहीं थी, मगर किया के पापा, सॉरी, बस, ऐसे ही थे। बहुत दिनों तक किया, इसे उनका आत्म-नियंत्रण समझ बैठा था। और मन ही मन उनकी इस खूबी के लिए, उनसे ईर्ष्या भी करता था ! लेकिन इस वक्त उसे लगा, मुमकिन है, पापा के दिमाग में कहीं कोई कमी हो !
‘जाएगा कहां ?’ मां ने पूछा।
मुझे ही क्या मालूम है ?’ किया ने जवाब दिया, ‘‘और हां, खुद ही पुलिस ने खोज-ख़बर लेने के लिए थाने मत पहुँच जाना। ऐक्ट कूल ! ठंडे दिमाग़ से काम लेना। बिल्कुल नार्मल दिखना ! पुलिस को कोई ख़बरी देना होगी, तो वह खुद ही दे जाएगी। और .....और ख़्याल से रहना। चलो, मेरे जाने के बाद, दरवाज़ा बंद कर लेना-’
वह सीढ़ियों से ही नीचे उतर गया। लिफ्ट से उतरते हुए, एक किस्म की आवाज़ आती है। उधर सामने वाले फ्लैट वाला बूढा, हिरन समाजदार, अपने दरवाजे के आइ-होल पर, नज़रें गड़ाए, बैठा रहता है। लिफ्ट से बाहर आया, कौन नीचे गया, कौन फ्लैट में दाखिल हुआ, कौन अपने फ्लैट से बाहर निकला-इन्हीं सबकी निगरानी करना ही, उसका अहम् काम था। टिकली उसे ‘छिपकिली’ बुलाती थी। उसकी माँ ने बंगला पहेली हल करने के लिए समानार्थी शब्दकोष खरीदा था। इसलिए टिकली को बहुत-से शब्दों की जानकारी हो गई थी।

सौरी, बेटे के साथ ही नीचे उतरे। इतनी रात को लोग कहां जा रहे हैं, इस मकान का गेटकीपर हरगिज़ दरयाफ्तर नहीं करेगा। पांच मंजिला मकान ! बीस फ्लैट इस मकान में कौन दाखिल होता है, कौन बाहर निकलता है, कौन अन्दर आने के बाद बाहर नहीं जाता कौन बाहर आने के बाद, अन्दर नहीं जाता-इन सबकी जानकारी रखना उसका काम नहीं था। किया को देखकर, उसकी आंखें ईषत् सिकुड़ आई। किया इस बिल्डिंग में सबसे ज़्यादा चर्चित हस्ती था।
बाहर निकलकर, किया ने बिना पीछे मुड़े ही पापा की तरफ़ हाथ हिया दिया उसके बाद, दौड़कर, उसने उसे एक टैक्सी रोकी। इस सड़क से होकर आने-जाने वाले टैक्सी-ड्राइवर, कमोबेश उसे पहचानते थे। यहीं, इसी मुहल्ले में वह पला-बढ़ा, बड़ा हुआ।

ऊपर आते वक़्त सौरी, सीढ़ी थाम-थामकर, धीरे-धीरे चले आए। पहले एक से लेकर पांच, उसके बाद पांच से लेकर एक-इस नियम से गिनते-गिनते सांस लेते फेंकते, ऊपर चढ़ा जाए, तो सच ही थकान कम होती है।
नहीं, यह थकान नहीं होती, हरगिज न होती। लेकिन आज दो साल, तीन महीने, छः दिनों से सौरी, सुमना, पोलर, टिकली के माँ-बाप-भाई समेत, इस बिल्डिंग के बाकी उन्नीस फ्लैटों के बाशिन्दे फ्लैट के जमादार, बिल्डिंग में घरेलू काम करने वाली सहायिकाएं, इस इलाके के लोग-बाग अचीन्हे लोग-हर किसी की ज़िन्दगी में ग्रहण लग चुका है।
इसकी वजह है- किया !
सौरी को लगा, वे लिफ्ट से आते, तो बेहतर होता। चौथी मंजिल तक पहुंचकर वे सुस्ताने के लिए, कुछेक पल को रूक गए। उसके बाद, पांचवी मंजिल तक आकर, अपने फ्लैट में दाख़िल हुए। पांवों की आहट मिलते ही, सुमना ने दरवाज़ा खोल दिया।

सौरी धप्पू से बिस्तर पर ढह गए।’
‘जरा पानी का गिलास थमाते हुए, सुमना ने पूछा, ‘चला गया ?’
‘हाँ-’
‘खिड़की से मैं भी देख रही थी, मगर वह नज़र तो नहीं आया-’
तुम्हें तो किसी ने नहीं देखा, लगा तो नहीं। मिनट भर के लिए ही तो मैंने टेबललैम्प जलाया था।’
‘हां, बस, उसे रुपये दिये...उस वक़्त किसी ने देखा हो, तो देखा हो या न देखा हो तुम अभी भी यह सब सोचते हो ?’
‘अरे, मैं क्या जान-बूझकर सोचता हूँ ‍? सोच तो अपने आप चली आती है।’
‘अच्छा हुआ कि पोलर इस वक़्त नन्दयन गया हुआ है। उसे बेहद टेंशन होने लगता है। इसके अलावा, उन लोगों की जो दुनिया है, जैसा सोच-विचार है, किया हाथ नहीं लगता, तो वे लोग पोलर को ही.....’
‘देखो तुम टेंशन न लो-’

‘मैं तुम्हारी तरह कहां हूँ, जी ?’
सौरी ने थकी-थकी आँखों से देखते हुए कहा, देखो, बात यह है कि इतने लम्बे अर्से तक टेंशन के साथ रहते-रहते, अब मैंने इसे क़बूल कर लिया है। अब बाकी ज़िन्दगी इनसे मुक्त नहीं हुआ जा सकता। इनसे रिहाई नामुकिन है।’
‘सुमना खामोश ! बदन पर हाउस कोट ! स्मार्ट चेहरा ! लेकिन आंखों के नीचे की सियाही अभी भी नहीं मिटी थी। ‘टेंशन से रिहाई नामुमकिन है ?’

‘कैसे मुमकिन है ? किया क्या अपना स्वभाव बदल देगा ? ऐसा लगता तो नहीं !’’
असल में, वह ज़रूरत से ज़्यादा सीधा-सादा है।’
‘नहीं ! वह बस अपने ही जैसा है ! बिल्कुल आज़ाद स्वभाव का लड़का है ! वह रेडीमेट इन्सान की माप के मुताबिक नहीं बना ! अब तो मुझे कबूल करना ही पडेगा।’
‘आजकल......’

‘कहा न, वह बिलकुल व्यतीक्रम है !’
‘शुक्र है, पोलर उसके जैसा नहीं है।’  
‘ना ! पोलर उसे काफी अलग-थलक है ! काफ़ी फर्क़ ! अच्छा, छोड़ो। चलो अब सो जाएं। चाहे नींद आए या न आए, सो जाएं। यूं जाग-जागकर बातें करना, ठीक नहीं है,’
रुको मैं उसके कमरे का दरवाज़ा बंद कर आऊं !’
उसका कमरा.....’

‘कमरे में जाओगी ? इस वक्त बत्ती जलाओगी ? यह सब, न हो सुबह ......‘चलो, ठीक है !’  
बत्ती बुझाकर लेट जाने के बावजूद सुमना को नींद नहीं आई। यूं जगे रहना, उसकी आदत बनती जा रही है। सब किया की वजह से ? किया की वजह से ही सारी परेशानी है ! अच्छा, उसे यह ख़बर। ज़रूर टिकली ने ही दी होगी टिकली के अलावा उसका कोई दोस्त है भला ? सुमना को इसकी जानकारी नहीं थी।
बिजनेस मैनेजमेंट में चांस मिलते ही, पोलर बैंगलौर चला जाएगा। उन दिनों सुमना का मन था, वह कलकत्ते में ही पढाई-लिखाई करे। उसके दोनों बेटे ज़ावेरियन था-सेंट जेवियर में पढे हुए ! वैसे बी.ए. पास करने के बाद, कलकत्ता विश्वविद्यालय में पढ़कर ही, उसके भइया के बेटे, रणित को नौकरी मिल गई। लेकिन अब सुमना दिल से चाहती थी कि पोलर शहर  बाहर चला जाए, कलकत्ते से बाहर !

किया की भी अजीब किस्मत !
वह बच्चा स्कूल के जमाने से ही दौड़ लगाता था; लेक में तैरने जाता था।
सौरी कहा करते थे, ‘भई खेल-कूद में शामिल रहने से अगर, नौकरी मिलती है तो लगे रहो-’
किया के कानों तक उनकी बात कभी पहुँचती ही नहीं थी। कभी वह किसी की अर्थी उठाए श्मशान चल देता। टिकली की माँ का आपरेशन हुआ, अस्पताल में, उनके लिए रात-जागकर उसने वक्त गुजारा। वह हमेशा यही कहता था-अरे, भई कुछ न कुछ हो जाएगा। इतनी फिक्र की क्या बात है ? अपने बारे में, वह कम ही सोचता था। अर्सा गुज़र जाता था, काम कोई नहीं था। वह कर डालता था।

इन दिनों, उसे एक अदद नौकरी भी मिल गई थी। किसी नामी कम्पनी में सेल्स की नौकरी !
उसके बाद आया 24.5. 99.
उस दिन जाने किस वजह से वह अपनी स्कूटर से बबी को छोड़ने गया था। वापसी में फ्लाइ ओवर से न आकर, उसने जाने क्यों तो शार्ट-कट का रास्ता पकड़ लिया।

उस वक्त चार भी नहीं बजे थे। उस तरफ़ मकान के बाद मकान ख़ड़े किए जा रहे थे। उस सड़क से आने की उसे क्यों पड़ी ?
किया ने इस ‘क्यों’ का कभी, कोई सही जवाब नहीं दिया। जवाब उसके पास था कि नहीं अगर कोई जवाब देता, तब न देता ?
अख़बारों में अनेक बार देखे-पहचाने, किसी स्थानीय नेता को दौड़कर आते हुए देखा, तो जहां का तहां ठिठक गया।
‘तू वहां खड़ा क्यों हो गया ? चला क्यों नहीं आया ?’‘जो गाड़ी बिना बाज़ार तक नहीं जाता, वहीं काबुली बाबू उस तरफ बेतहाशा दौड़ क्यों रहा है, यह तमाशा मैं नहीं देखता ?’
‘काबुली बाबू !’





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