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कादम्बरी-एक

विजय तेन्दुलकर

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :262
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2115
आईएसबीएन :81-7055-954-5

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ उपन्यास.....

Kadambari

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


मैं उनको लेकर क्या सोच रहा हूँ यह निश्चित रूप से कहना कठिन है। इतना जरूर कि उनके प्रति घृणा नहीं है क्रोध भी नहीं है। यदि होता तो उसकी अनुभूति होती। उनके प्रति यदि कुछ है तो वह है आदतवश निर्माण हुआ अपनापन ! यह अपनापन हमेशा से था, कभी खण्डित नही हुआ, हमेशा से गृहित था ! लेकिन वह प्रेम न था ! (पहले कभी एक-दो स्त्रियों के प्रति प्रेम था-कुछ समय के लिए शारीरिक नजदीकियाँ न होते हुए भी। बाद में समाप्त हो गया था।) वस्तुएँ भी जब हमारे सम्पर्क में आती हैं तब उनके प्रति हमारे मन में अपनापा निर्माण होता है। उनको गृहित समझकर हम उनके होने के सुख अनुभूत करते हैं। जब वह वस्तु टूट-फूट जाती है या उस पर हल्की-सी खरोंच आ जाती है तब हमारे मन में वह वस्तु ठीक वैसी नहीं रहती जैसी कि इसके पूर्व हुआ करती थी ! उस वस्तु को जोड़-जाड़कर ठीक कराने पर भी नहीं। हमारे खाते में झट से उस वस्तु की कीमत घट जाती है या कुछ अधिक मात्रा में हम उस वस्तु को गृहीत समझने लगते हैं। इसका अर्थ यह है कि अनजाने में उसके बिना जीना सीख लेते हैं। उसके और अपने बीच एक सुरक्षित दूरी बनाकर जीने लगते हैं।


देखा जाए तो मेरा और सिनेमा जगत् का संबंध था ही कितना। कभी-कभार एकाध सिनेमा देख लेने भर का अल्प-सा संबंध ! पहले तो थिएटर जाकर देख लिया करता था लेकिन आजकल घर में ही देख लेता हूँ—टेलीविज़न पर या बच्चे जब वीडियो चालू करते हैं तब मैं अपना शौक़ पूरा कर लेता हूँ।

सिनेमा देखने की भी एक उम्र होती है। उस उम्र में सिनेमा के नाच-गाने, नायक-नायिका, उनका प्रेम, इसके अतिरिक्त कुछ और नज़र नहीं आता। बस, उसी में खोए-खोए से रहते हैं हम। उम्र के चढ़ाव पर धीरे-धीरे इन बातों में हमारी रुचि घटने लगती है। वे बातें भी तो एक-सी नहीं रहतीं। नए-नए क्रेज और फैशंस घुसपैठ करते रहते हैं और लाख प्रयत्न करने के उपरान्त भी नए परिवर्तनों के साथ हमारी पटरी नहीं बैठ पाती, हम पुराने ही रह जाते हैं। अब हमें उसमें दिखाई देने लगती हैं मात्र बचकानी हरकतें, नंगा नाच, चीख-पुकार-शोरगुल और घिसी-पिटी मामूली बातें ! जब ऐसा होने लगे तो मान लेना चाहिए कि सिनेमा देखने की उम्र अब लद चुकी है।

इन दिनों सुबह से शाम तक की मेरी निश्चित दिनचर्या है—समाचार पत्र पढ़ना (वह भी अंग्रेजी ! पुरानी आदत जो ठहरी !), बाजार जाकर पुरानी चीज़ें खरीदना (इन कामों के लिए नौकर है लेकिन आदत का मारा क्या करता ! स्वयं जाने पर अच्छा जो लगता है !), जाते-जाते लाइब्रेरी से नई डिटेक्टिव कहानी की पुस्तक लेना (चॉइस निश्चित है—शेरलॉक्स होम्स या अंगाथा ख़िस्ती की कोई पुरानी पुस्तक, ज्यादा से ज्यादा जेम्स हैडली चेज़ की ! आजकल लिखी जाने वाली डिटेक्टिव कहानियाँ पसन्द नहीं आतीं। उनमें सेक्स अधिक होता है। वैसे सेक्स के प्रति आपत्ति नहीं है लेकिन डिटेक्टिव उपन्यासों में उसकी क्या आवश्यकता ! और हो भी तो कितना ?), पत्नी के हाथ बने व्यंजन स्वाद ले-लेकर खाना (भोजन के पहले थोड़ी व्हिस्की या बिअर लिया करता था लेकिन अब छोड़ दी है-डॉक्टर की सलाह के बगैर ही।), दोपहर के भोजन के बाद थोड़ी देर लेट जाना, शाम को क्लब जाकर ब्रिज की दो-चार बाज़ियाँ खेलना, रात में भोजन के बज़ाय बाज़ार से अपने हाथों चुन-चुन कर लाए हुए फलों का आहार, रात में सोने से पूर्व लायी पुस्तक का कुछ अंश पढ़ना, तदुपरांत सो जाना। (पुस्तक में पढ़े-देखे मुर्दे या खूनी-हत्यारे स्वप्न में नहीं आते ! स्वप्न देखता ही नहीं हूँ।)

घर बैठे-बैठे कभी-कभार शेयर बाज़ार में दिमाग दौड़ाता हूँ। इसके लिए अलग से समय देने की आवश्यकता नहीं होती। पुरानी आदत जो ठहरी। बढ़िया खेल !—समय भी अच्छा बीतता है, ऊपर से बैठे-बिठाए कमाई हो जाती है। वैसे अंटी में पर्याप्त पैसा है। अधिक पैसा कमाने की अनिवार्यता है ऐसी कोई बात नहीं है लेकिन आदत का क्या करूँ ? उस हर्षद घोटाले में हमने भी कई हजारों पर हाथ मारा था। किसी-किसी ने लाखों कमाये वह बात अलग। पैसे कमाने का अपना जोश कब का ठंडा पड़ चुका है। अब वह मात्र दिल बहलाव का साधन बनकर रह गया है। रमी खेल कर पैसे कमाने जैसा ! मिले तो वाह, वाह ! न मिले तो भी वाह, वाह ! न मिलने पर दुख नहीं होता लेकिन यदि गँवाने पड़े तो मूर्खता का अहसास होता है—आज भी ! इतना अनुभवी होने पर यदि ऐसा हो तो शर्म नहीं आएगी ?

दीपक मेरा बड़ा बेटा है। पता नहीं कैसे उसने अपने कॉलेज के दिनों में फिल्म क्षेत्र चुना। तब किसी फिल्म में विद्यार्थियों से कुछ काम करवाया गया था। उसमें दीपक को किसी भूमिका के लिए चुना गया। यह समाचार बाद में उसी ने हमें सुनाया था। उसका मन तभी से सिनेमा की ओर आकर्षित हो गया था। परिणामतः उसने कॉलेज को अलविदा कहा और डायरेक्टर के प्रशिक्षण हेतु फिल्म इंस्टीट्यूट में प्रवेश लिया। मैंने उसे मना नहीं किया। दरअसल मैं चाहता था कि वह कंप्यूटर के क्षेत्र में कुछ करे और विदेश होकर आए ! आखिर वह मेरा इकलौता बेटा था। उसकी उच्च शिक्षा हेतु मैंने पहले से पैसों का अच्छा-खासा प्रबन्ध कर रखा था।

सिनेमा क्षेत्र में सब कुछ ओस के मोती-सा अस्थिर, अशाश्वत ! लोकप्रियता भी क्षणजीवी ! नाम और शोहरत के पथ पर आरूढ़ लोग देखते-देखते गुमनामी के अँधेरे में खो जाते हैं। तिस पर कहीं से सुन पढ़ रखा था कि यहाँ आकर लोग बिगड़ जाते हैं। लेकिन बेटे ने ठाल ली थी—बनूँगा तो इसी में कुछ बनूँगा। मुझे याद आया—जब मैं बेटे की उम्र का था तब मेरा रवैया भी कहां इससे अलग था ? सिनेमा क्षेत्र न सही लेकिन मैंने भी अपने पिताजी की मनमर्जी के विरुद्ध कॉलेज से मुँह फेरकर वर्कशाप खोला था ! आगे चलकर उसकी बड़ी कंपनी बन गयी सो बात अलग ! ठीक है, बेटा भी अपनी किस्मत आजमाएगा ! यदि तकदीर साथ देगी तो नाम और धन कमाएगा।

मेरी युवावस्था में मेरे पिताजी के पास मुझे देने के लिए फूटी कौड़ी तक न थी। मेरे बेटे के सौभाग्य से उसके पिता याने कि मेरे पास रुपये-पैसे तो हैं ! यदि इस क्षेत्र में उसका भट्ठा बैठ जाता तो भी चिंता की कोई बात न थी। किसी और क्षेत्र में उसके पाँव जम जाने तक बड़े आराम से निभ जाता। गृहस्थी चलने में कोई अड़चन न आती ! ऐसा नहीं था कि मेरी कमाई बिल्कुल ही ठप पड़ गई हो। घर बैठे-बैठे पैसे आते रहते हैं। ब्याज के या जो धंधा दूसरे को चलाने के लिए दिया है उसके पासे मिलते हैं, साथ ही इधर-उधर से पैसे मिलते रहते हैं। जैसे परसों क्लब में कुछ न कुछ करते हुए, ब्रिज खेलते-खेलते चुटकी में कई हजार कमा लिए थे—एक मेंबर की गाड़ी दूसरे मेंबर को बेंच कर !

दीपक से छोटी सुजाता। वह इंजीनियर हो गयी है। उसका काम अच्छा चल रहै है। पुरानी मान्यताओं के अनुसार वह विवाह योग्य बन चुकी है लेकिन वह कहती है—जब मेरा मन होगा तभी शादी करूँगी या नहीं भी करूँगी। वैसे भी आजकल लड़कियाँ पहलेवाली लड़कियों सी विवाहोत्सुक नहीं रहतीं। सुजाता का अपना कैरियर है अतः मैंने उस पर सख्ती नहीं बरती। यदि वह अपना विवाह आप तय करेगी तो मुझे बेहद खुशी होगी और छुटकारा मिलेगा ! विवाहयोग्य आयु में बेटी का विवाह हो, गृहस्थी बसाए, उसके बच्चे हों यह पुराना संस्कार नहीं मिटता लेकिन (सौभाग्य से) मुझे इसका भी भान है कि सख्ती बरतने से कुछ साध्य नहीं होगा।

फिल्म इंस्टीट्यूट में दीपक अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुआ। डिप्लोमा के लिए उसने जो फिल्म बनायी थी उसे वह वीडियो पर ट्रांसफर कर खासकर हमें दिखाने लाया था। फिल्म मेरी और श्रीमती जी की समझ में बिल्कुल नहीं आयी। उसमें सब-कुछ अजीब-सा था और विक्षिप्त भी। दीपक का कहना था कि फिल्म सुर्रिअलस्टिक अंदाज़ से बनायी गयी है। उसने शाब्रॉल या ऐसा कोई नाम बताया। सुजाता तपाक से बोली, ‘रबिश !’ बचपन से ही सुजाता उसके साथ ऐसी मुँहफट बातें करती है। दोनों की आयु में कोई खास अंतर नहीं है। सिर्फ साल-भर का अंतर है। दीपक सुजाता की ऐसी बातों पर ध्यान नहीं देता। श्रीमतीजी बोलीं, ‘‘लेकिन इसमें कहानी तो बिल्कुल न थी !’’ मैं चुप रहा। जब उसने कुरेद-कुरेद कर मेरी प्रतिक्रिया जाननी चाही तब मैंने कहा, ‘‘तुम लोगों की ये बातें हमारी समझ के परे की हैं। हमारी पीढ़ी सेसिल डेमिल और जार्ज हूस्ट को जानती है। उनकी फिल्में देखते-देखते हम बड़े बने हैं। तुम लोगों की बातें अलग हैं, तुम्हारे आदर्श भिन्न हैं, हमने तो कभी यह शाब्रॉल नाम तक नहीं सुना। यदि वह न होता तो क्या फर्क पड़ता ?’’

दीपक सिर्फ मुस्कुराया। मेरे कहने मात्र से वह अपनी फिल्म से उस दृश्य को थोड़े ही हटानेवाला था ?
उसका वह प्रथम प्रयास देखकर मन में कहीं मुझे अच्छा लगा था। वह अपने क्षेत्र में प्रगति कर रहा था और जो कुछ वह कर रहा था वह मन से कर रहा था, कामचलाऊ रूप से नहीं ! साफ जाहिर था कि वह जो कुछ करेगा वह अपनी पसंद और पद्धति से करेगा।

उसने किसी न किसी डायरेक्टर के असिस्टेंट के रूप में काम करना आरंभ किया। अधिकांश समय वह बाहर बिताता था। जब स्क्रिप्ट लिखने या ‘लोकेशंस’ देखने जाता था तब कई दिनों तक घर लौटता न था। जब कभी घर आता था अधिकतर समय सोकर व्यतीत करता था। घर में रहकर भी न के बराबर ! उसकी माँ शिकायत करतीं। कहतीं, ‘‘पच्चीस का तो हो चुका है। अब भी उसे कोई दिशा नहीं मिल पायी। ऐसा कब तक जिएगा ?’’ मैं उन्हें समझाता रहता। कहा करता, ‘‘उसने अपने मनपसंद क्षेत्र को चुना है। मनचाहा काम करने में व्यक्ति कभी किसी प्रकार का अभाव महसूस नहीं करता। एस्टेब्लिश होने में देर लगती है। तिस पर उसका क्षेत्र ऐसा है कि वहाँ अनुभव ही क्वालिफिकेशन है। यदि वह अनुभव प्राप्त नहीं करेगा तो कैसे निभेगा ?’’

लेकिन तीन साल बीतने पर भी दीपक की प्रगति का कोई चिन्ह दृष्टिगोचर नहीं हुआ। अब मुझे भी चिंता होने लगी। कभी-कभार इस संदर्भ में हम दोनों की बातें हुआ करतीं थीं। तब अक्सर वह आशावादी स्वर में कहा करता था, ‘‘फलाना कोई मुझे डायरेक्टर के रूप में मौका दे रहा है....फलाना स्टार मेरी फिल्म में काम करने के लिए तैयार हुआ है...बातें चल रही हैं....’’ लेकिन बात कुछ जम नहीं रही थी। फिर भी कभी पूछने पर वह कहता था, ‘नहीं बन पाया !’ स्ट्रगल के सिलसिले में वह दिनों-दिन गायब रहने लगा था। मुझे अहसास होने लगा था कि अब वह कुछ बेचैन, उदास रहने लगा है, उखड़ा-उखड़ा बर्ताव करता है, खीजता है और तो और पीने भी लगा है।

पीने के लिए मेरा सिद्धांततः विरोध नहीं है। पीता तो मैं भी हूँ लेकिन मैंने कभी इसकी अति नहीं होने दी। एक दिन यूँ ही तय किया और पीना छोड़ दिया था। दीपक को लेकर मेरी चिंता यह थी कि क्या वह पीने की आदत पर काबू रख पाएगा ? उसके क्षेत्र में इसका चलन कुछ अतिरिक्त है। चिंताएँ भी कुछ अधिक रहती हैं। क्या वह इससे निर्लिप्त रह पाएगा ? संयम रख सकेगा ?

मेरी श्रीमती जी भी चिंता करने लगीं। उनका कहना था, ‘‘सिगरेट फिर भी ठीक थी अब वह नियमित रूप से पीने लगा है। आप कुछ तो कीजिए। उसकी ओर ध्यान दीजिए। उसे समझाइए। कुछ कीजिए !’’
अंततोगत्वा मैंने दीपक से अकेले में बात करने का तय किया।
मैं जान गया था कि वह मुझसे् अकेले में बात करने में टाल रहा है।
मैंने जबरदस्ती उसे बतियाने बिठा लिया। व्हिस्की की बोतल खोली। उसे दी, मैंनै ली। वह लेने को तैयार न था तब मैंने उससे कहा, ‘‘आज मैं तुम्हारा पिता, नहीं मित्र हूँ। तुम भी मुझे मित्र समझकर अपना मन खुला करो !’’
तब कहीं उसने बातें कीं लेकिन खुले मन से नहीं। पीने में और बोलने में उसने कोताही बरती। मैं समझ गया कि उसमें एक प्रकार की निराशा एवं मायूसी उभरी है। पर्याप्त झकमारी करने के उपरांत भी किसी फिल्म का निर्देशन न कर पाने की चुभन उसे साल रही है। फिल्म इंस्टीट्यूट के उसके एक-दो साथी डायरेक्टर बन गए थे जब कि यह मात्र असिस्टेंट तक ही दौड़ सका था।–उनके जैसा ही पात्र होने के बावजूद !-यह उसका अपना मत था !

मैं उसे समझाने लगा, ‘‘तुम्हें किस बात की चिंता है ? और दो-चार साल लग जाएँगे तो भी चिंता करने का कोई कारण नहीं है। हमारे पास रुपये-पैसे हैं। मैं कमा रहा हूँ। तुम जितना अनुभव प्राप्त करोगे उतनी ही बुनियाद पुख्ता हो जाएगी। आगे चलकर यही अनुभव तुम्हारे काम आएगा’...आदि, आदि।
उसने गर्दन झुकाकर मेरी सभी बातें सुन तो लीं लेकिन मैं जानता था कि मेरी बातों से उसका समाधान नहीं हुआ है। ठीक है, ऐसा तो होगा ही। किसी की पेशंस अधिक तो किसी की कम होती है। काम की तलाश करते-करते दीपक की पेंशंस जवाब दे चुकी थी, अब जल्द से जल्द कुछ नया घटित होने की आवश्यकता थी।

उसे अवसर उपलब्ध करा देने की मैंने ठान ली। मैंने पैसों का बंदोबस्त करने का और उसे डायरेक्टर बनाने का विचार किया।
इस धंधे में तो मेरे लिए काला अक्षर भैंस बराबर था। जितना कुछ जान पाया था वह दीपक से ही। हाँ, मैं धंधा जानता था और धंधा करना भी। मैंने धंधा किया था और उसमें सफलता भी पायी थी।

मैंने सोचा कि उससे, इतना ही नहीं उसकी माँ से भी पहले कुछ न बताया जाए। और मैं लक्ष्यपूर्ति की दिशा में अग्रसर हुआ।
हमारे क्लब में एक दो सिने-प्रोड्यूसर आते रहते थे। अपने व्यवसाय के संदर्भ में मेरी एक ऐसे साहूकार से जान-पहचान हो गयी थी जो सिनेमावालों को हुंडी के रूप में पैसा उपलब्ध करा देता था। मैं इन लोगों को अकेले मिला और ‘ओवर दा ड्रिंक, गप्पों के दौर में मैंने उनसे आवश्यकता भर जानकारी प्राप्त कर ली। सिनेमा का आर्थिक पक्ष समझ लिया। अन्य बातों से फिलहाल मुझे कुछ लेना-देना नहीं था !

फिल्मी पत्रिकाएँ, ट्रेड मैगेज़िंस मँगवाकर मैंने सरसरी तौर पर उन्हें पढ़ डाला। व्यवसाय की वर्तमान स्थिति देखकर रूपरेखा बना डाली, त्रैराशिक तैयार किया। इससे मुझे अंदाज हो गया कि इस व्यवसाय में कदम रखते वक्त अंटी में कितना पैसा होना चाहिए। उतने पैसे इकट्ठे करना मेरे लिए कोई कठिन काम नहीं था। व्यवसाय के कारण मेरी साख थी। फिल्म यदि ठीक से धंधा न करती तब वे पैसे मुझे ब्याज सहित लौटाने पड़ने वाले थे। इसमें कठिनाई अवश्य होने वाली थी लेकिन बात मेरे बस की थी। रिस्क ज़रूरी थी लेकिन आरंभ से सावधानी बरतने पर बेड़ा पार लगने वाला था।
इस संदर्भ मे मैंने दीपक से बात की। आरंभ में संकोचवश वह कहने लगा, ‘‘आप यह सब क्यों कर रहे हैं ? मैं ही कहीं और हाथ-पाँव चलाकर देख लूँगा। आप रहने दीजिए ! मैंने उससे कहा, ‘‘देखो, ऐसा मत समझना कि मैं यह सब तुम्हारे लिए, तुम्हें स्थापित करने के लिए कर रहा हूँ। बात यह है कि मैं कुछ करना चाह रहा हूँ। तुम मेरे अपने घर के डायरेक्टर जो ठहरे। दूसरी बात यह है कि मैं स्वयं इसमें कहीं भी नहीं रहूँगा।

हमारे क्लब के सदस्य तथा इस व्यवसाय से जुडे़ फाइनांसर के ज़रिये सब कुछ किया जाएगा। मैं उस व्यक्ति को अच्छी तरह से जानता हूँ। वह मेरे साथ कभी धोखा-धड़ी नहीं करेंगा !’’
मैं भाँप गया था कि दीपक के लिए अपनी निर्देशित प्रथम फिल्म के लिए मेरा—अपने पिता—निर्माण के रूप में रहना सर्किल में नीचा दिखाने के लिए पर्याप्त था। उसे इस तरह आश्वस्त करने पर उसने चैन की साँस ली। दर-दर की ठोकरों खाने के दिन लद जाने का और डायरेक्शन का अवसर प्राप्त होने का आनंद उसके चेहरे पर झलकने लगा।
मुझे अच्छा लगा।

उसकी माँ को यह सुखद लगा लेकिन बिल्कुल नए व्यवसाय में मेरा इस क़दर रिस्क उठाना उनके लिए चिंता का विषय बन गया। उनके विचार से ऐसी रिस्क उठाने की मेरी आयु अब नहीं रही थी।
लेकिन मैं उनकी इस बात से बिलकुल सहमत न था। मन की सामर्थ्य का और आयु का आपसी संबंध हो यह कोई आवश्यक तो नहीं है। कम से कम मेरे संदर्भ में तो ऐसा नहीं है। मन से मैं अभी भी सक्षम हूँ। मेरा मन इसकी गवाही देता है।

आगामी कुछ दिनों में मैंने अन्यान्य बातों का नियोजन किया। दीपक से कह दिया कि वह विषय-लेखक कलाकार, तकनीशिअंस आदि का चुनाव करे। साथ ही शर्त रखी कि फिल्म व्यावसायिक हो। संघर्ष की प्रदीर्घ कालावधि में वह इस बात को जान गया था। अपनी पहचान से मैंने अस्थायी रूप में उसे ऑफिस खोलने के लिए जगह उपलब्ध करा दी। उसके सभी लोग बाद में वहीं इकट्ठा होने लगे थे।

दीपक में हुआ परिवर्तन घर में सभी ने महसूस किया। अब भी वह पहले जैसी दौड़-धूप करता था, दिनों-दिन घर से गायब रहता था लेकिन अबकी बार उसका चेहरा उत्साह से खिला-खिला दिखता था। उसकी आँखों में एक प्रकार की चमक उभरी थी। घर के सभी लोगों के साथ वह पूर्ववत घुल-मिलकर रहने लगा था।
इससे उसकी माँ का स्वास्थ्य अच्छा होने लगा। और मुझे संतोष प्राप्त हुआ।
इन बातों में प्रत्यक्ष रूप से मैं कहीं से भी सम्मिलित न था अतः मेरी दिनचर्या पूर्ववत जारी थी। क्लब में जाकर ब्रिज खेलना, घर आकर लेटना-सोना, बाज़ार जाना—सब कुछ ‘जैसे थे’।

लेकिन इसके बाद जो कुछ घटित हुआ था, अतीत में झाँककर देखने पर लगता है कि वैसा ही वह घटित होनेवाला था। यदि वह उसी तरह समाप्त हो जाता तो यह सब लिखने की नौबत न आती। मैं लेखक थोड़े ही हूँ ? मैं तो मात्र एक पाठक हूँ, वह भी डिटेक्टिव उपन्यासों और समाचारपत्रों का।
लेकिन वह सब वहीं पर समाप्त नहीं हुआ था।
एक दिन—वह रविवार था—सुबह मैं दाढ़ी बनाकर, स्नान आदि से मुक्त होकर बाज़ार जाने की तैयारी कर रहा था, उतने में फोन की घंटी बजी।

यहाँ मैं यह बता दूँ कि मैंने अपने घर में दो फोन लगवा रखे हैं। एक हाल में और दूसरा मेरे कमरे में। हाल का फोन ‘जनरल परपज’ के लिए है। उसका इस्तेमाल कोई भी कर सकता है। मेरे कमरे का फोन खासकर उन लोगों के लिए है जो मात्र मुझसे ही बातें करना चाहते हैं। इस फोन पर अक्सर व्यवसाय संबंधी बातें हुआ करती थीं या व्यवसाय के बहाने परिचित हुए लोग कभी-कभार घरेलू, निजी किस्म की बातें करने के लिए यह नंबर घुमाते थे। आजकल व्यवसाय संबंधी फोन न के बराबर आते हैं। हाँ, जब से मैं क्लब का सेक्रेटरी बन गया हूँ तब से कामों, झंझटों के सिलसिले में यह फोन रोज खनखनाने लगा है। कभी-कभी मैं अपेन पुराने दोस्तों के साथ इसी फोन पर जी भर कर गप्पे लड़ाता हूँ।

अब जो घंटी बजी थी वह मेरे कमरे के फोन की थी।
उस ओर किसी महिला की आवाज़ थी। आवाज़ किसी युवती की लग रही थी। (अब यह बात और है कि युवा आवाज़ न केवल युवतियों की होती है बल्कि प्रौढ़ाओं, वृद्ध महिलाओं की भी होती है।) मैंने अनुमान लगाया कि फोन पर बोलने वाली युवती ही होगी—लगभग उन्नीस या बीस की। वह दीपक सुर्वे के लिए पूछ रही थी।

जब से दीपक डायरेक्टर बन गया है ऐसे फोन काफी मात्रा में आने लगे हैं। लेकिन वे सभी फोन ‘हालवाले फोन’ हुआ करते हैं। दीपक ने सभी को वही नंबर दे रखा है। सो तो ठीक है लेकिन फोन ‘रिसीव’ करने के लिए वह घर में रहता कहाँ है ? या रहता भी है तो नींद में। अधखुली नींद में हमसे कह देता है, ‘उनसे कहिए कि वे बाद में फोन करें...या कह दीजिए, घर में नहीं हैं...’ और तान कर सो जाता है। ऐसे में घर के किसी को फोन करने वाले या वाली को टाल देने का काम करना पड़ता है। कई बार तो ऐसा होता है कि एक ही व्यक्ति रह-रहकर फोन करता रहता है।

ये सभी फिल्मी दुनिया में किस्मत आज़माने के लिए आए लड़के-लड़कियाँ हुआ करते हैं। वे दीपक से काम चाहते थे। जब उन्हें कहीं से पता चलता है कि फलाना कोई सीरियल बन रहा है तब वे इधर-उधर से उसका फोन नं. ढूँढ़ निकालते हैं और फोन पर मिलने के लिए समय तय करना चाहते हैं।
उनमें से किसी को भूले से कभी दीपक फोन पर मिल भी जाता तो वह उन्हें ऑफिस में बुलाया करता था। घर में कभी न बुलाता था।

हो सकता है कि वह घर की शांति और घरेलू वातावरण बरकरार रखना चाहता हो। वह कभी किसी को घर का नम्बर नहीं देता था। लोग ही कहीं न कहीं से या फिर डायरेक्टरी से नम्बर प्राप्त कर लेते थे। ऐसे किसी का फोन आने पर दीपक के माथे पर शिकन उभरती। ऐसे फोन उसकी माँ एवं बहन के लिए भी सिरदर्द बने हुए थे। अन्त में वे फोन पर कटी-कटी सी बात करतीं। इससे कभी-कभी फोन करने वाला खीज जाता। उत्तर-प्रत्युत्तर की बौछार होती रहती और अंत में रिसीवर पटक दिया जाता था। ‘सिनेमा इसका और परेशानी हमें’ कहकर बीच-बीच में झल्लाहट व्यक्ति की जाती थी।

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