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कविता संग्रह >> भूमिकाएँ खत्म नहीं होतीं

भूमिकाएँ खत्म नहीं होतीं

हरीशचन्द्र पाण्डे

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :116
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2008
आईएसबीएन :81-263-1228-9

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प्रस्तुत है श्रेष्ट कविता संग्रह...

Bhumikaein Khatm Nahin Hoti

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिकाएँ खत्म नहीं होतीं। हिन्दी के यशस्वी कवि हरीशचन्द्र पाण्डे का तीसरा कविता-संग्रह है। उनका एक अन्य कविता-संग्रह एक बुरूँश कहीं खिलता है, काफी चर्चित हुआ।
हरीशचन्द्र पाण्डे जी की कविता का विषय सामान्य होता है लेकिन उसका ढाँचा एक नयी अनुभव-निर्मित लेकर आता है जिससे हमें एक नये प्रकार का आस्वाद मिलता है। वहाँ बाहर की चमक हो या न हो, भीतर की मलिनता को माँजकर उसमें चमक लाने की मेहनत स्पष्ट देखी जा सकती हैं। उसके भीतर का कमरा सिर्फ कमरा नहीं रह जाता,वह पाठक का आत्मीय बन जाता है,सदा का संगी-
जो भी जाएगा घर से बाहर कभी कहीं भीतर का कमरा साथ-साथ जाएगा।
भूमिकाएँ खत्म नहीं होतीं का कवि घटनाओं और स्थितियो को बनाता नहीं,उन्हें सिर्फ दिखाता है,उनका कुछ इस तरह शब्द संयोजन करता है कि नया अर्थ फूटे। साथ ही,उन विसंगतियों की ओर इंगित करता है, जिनका बोध सामान्यतः हमें नहीं होता। वह एक सह्रदय पाठक को उस बोध की पीड़ा देकर कविता से उपजा एक नया आस्वाद देता है,काव्यगत रसानुभूति कराता है।
हरीशचन्द्र पाण्डे की ये कविताएँ सौन्दर्य बोध के विवादी स्वर भी उभारती हैं। वहाँ वे खुरदुरेपन के साथ साथ खूबसूरत मानवीय भावबोध भी पैदा करती हैं।
आशा है,पाठक को इन कविताओं में रसानुभूति के नये बिम्ब प्रतिबिम्ब मिलेंगे।

एक दिन में

दन्त्य ‘स’ को दाँतों का सहारा

जितने सघन होते दाँत
उतना ही साफ़ उच्चरित होगा ‘स’
दाँत छितरे हो तो सीटी बजाने लगेगा

पहले पहल
किसी सघन दाँतों वाले मुख से ही फूटा होगा ‘स’
पर ज़रूरी नहीं
उसी ने दाख़िला भी दिलवाया हो वर्णमाला में ‘स’ को
सबसे अधिक चबाने वाला
ज़रूरी नहीं, सबसे अधिक सोटने वाला भी हो

यह भी हो सकता है
असमय दन्तविहीन हो गये
या आड़े-तिरछे दाँतों वाले ने ही दिया हो वर्णमाला को ‘स’
अभाव न ही दिया हो भाव

क्या पता किसी काट ली गयी जुबान ने दिया हो ‘ल’
अचूमे होठों ने दिया हो ‘प’
प्यासे कण्ठ ने दिया हो ‘क’
क्या पता अभवों के व्योंम से ही बनी हों
सारी भाषाओं की वर्णमालाएँ
और एक दिन में ही नहीं बन होगी कोई भी वर्णमाला...

ध्वनि शुरू हो इस यात्रा में
वर्णमाला तक
आये होगें कितने पड़ाव
कितना समय लगा होगा
कितने लोग लगे होगें !

दिये होंगे कुछ शब्द जंगलों ने कुछ घाटियों ने
कुछ बहाव ने दिये होंगे कुछ बाँधों ने
कुछ भीड़ के एकान्त ने दिये होंगे
कुछ धूप में खड़े पेड़ों की छाँव ने
कुछ आये होंगे अपने ही अन्तरतम से
और कुछ सूखे कुओं की तलहटी से
कुछ पैदाइशी किलकारी ने दिये होंगे
कुछ मरणान्तक पीड़ा ने
सुनी गयी होंगी ये सारी ध्वनियाँ सारी आवाज़ें
सुनने वाला ही तो बोला करता है

पहली बार बोलने से पूर्व
जाने कितने दिनों तक
कितने लोगों को सुनता है एक बच्चा
जाने कितने लोग रहे होगें
कितने दिनों तक
शब्दों को सुनने ही से वंचित

न सुनने ने भी दिये होगें कितने-कितने शब्द

एक दिन में नहीं बन गये अक्षर
एक दिन में नहीं बन गयी वर्णमाला
एक दिन में नहीं बन गयी भाषा
एक दिन में नहीं बन गयी पुस्तक

लेकिन
एक दिन में नष्ट किया जा सकता है कोई भी पुस्तकालय

अख़बार पढ़ते हुए

ट्रक के नीचे आ गया एक आदमी
वह अपने बायें चल रहा था
एक लटका पाया गया कमरे के पंखे पर होटल में
वह कहीं बाहर से आया था
एक नहीं रहा बिजली का नंगा तार छू जाने से
एक औरत नहीं रही अपने खेत में अपने को बचाते हुए
एक नहीं रहा डकैतों से अपना घर बचाते हुए

ये कल की तारीख़ में लोगों के मारे जाने के समाचार नहीं
कल की तारीख़ में मेरे बच कर निकल जाने के समाचार हैं

पानी

देह अपना समय लेती ही है
निपटाने वाले चाहे जितनी जल्दी में हों

भीतर का पानी लड़ रहा है बाहरी आग से
घी जौ चन्दन आदि साथ दे रहे हैं आग का
पानी देह का साथ दे रहा है

यह वही पानी था जो अँजुरी में रखते ही
ख़ुद-ब-ख़ुद छिर जाता था बूँद-बूँद

यह देह की दीर्घ संगत का आन्तरिक सखा भाव था
जो देर तक लड़ रहा था देह के पक्ष में

बाहर नदियाँ हैं भीतर लहू है
लेकिन केवल ढलान की तरफ भागता हुआ नहीं
बाहर समुद्र है नमकीन
भीतर आँखें हैं
जहाँ गिरती नहीं नदियाँ, जहाँ से निकलती हैं

अलग-अलग रूपाकारों में दौड़ रहा है पानी

बाहर लाल-लाल सेब झूम रहे हैं बगीचों में

गुलाब खिले हुए हैं
कोपलों की खेपें फूटी हुई हैं
वसन्त दिख रहा है पूरमपूर

जो नहीं दिख रहा इन सबके पीछे का
जड़ से शिराओं तक फैला हुआ है भीतर ही भीतर
उसी में बह रहे हैं रंग रूप स्वाद आकार

उसके न होने का मतलब ही
पतझड़ है
रेगिस्तान है
उसी को सबसे किफ़ायती ढंग से बरतने का नाम हो सकता है
व़ुजू

बुद्ध मुस्कराये हैं

लाल इमली कहते ही इमली नहीं कौंधी दिमाग़ में
जीभ में पानी नहीं आया
‘यंग इण्डिया’ कहने पर हिन्दुस्तान का बिम्ब नहीं बना

जैसे महासागर कहने पर सागर उभरता है आँखों में
जैसे स्नेहलता में जुड़ा है स्नेह और हिमाचल में हिम
कम से कमतर होता जा रहा है ऐसा

इतने निरपेक्ष विपर्यस्त और विद्रूप कभी नहीं थे हमारे बिम्ब
कि पृथिवी पर हो सबसे संहारक पल का रिहर्सल
और कहा जाए
बुद्ध मुस्कराये हैं

बैठक का कमरा

चली आ रही हैं गर्म-गर्म चाय भीतर से
लज़ीज़ खाना चला आ रहा है भाप उठाता
धुल के चली आ रही हैं चादरें परदे
पेंण्टिग पूरी होकर चली आ रही है
सँवर के आ रही है लड़की

जा रहे हैं भीतर जूठे प्याले और बर्तन
गन्दी चादरें जा रही हैं परदे जा रहे हैं
मुँह लटकाये लड़की जा रही है
पढ़ लिया गया अख़बार भी

खिला हुआ है कमल-सा बाहर का कमरा

अपने भीतर के कमरों की क़ीमत पर ही खिलता है कोई
बैठक का कमरा
साफ़-सुथरा सम्भ्रान्त

जिसे रोना है भीतर जा के रोये
जिसे हँसने की तमीज नहीं वो भी जाए भीतर
जो आये बाहर आँसू पोंछ के आए
हँसी दबा के
अदब से

जिसे छींकना है वहीं जाए भीतर
खाँसी वहीं जुकाम वहीं
हँसी-ठट्ठा मारपीट वहीं

वहीं जलेगा भात
बूढ़ी चारपाई के पायों को पकड़ कर वहीं रोएगा पूरा घर
वहीं से आएगी गगनभेदी किलकारी और सठोरों की ख़ुशबू

अभी-अभी ये आया गेहूँ का बोरा भी सीधे जाएगा भीतर
स्कूल से लौटा ये लड़का भी भीतर ही जा कर आसमान
सिर पर उठाएगा

निष्प्राण मुस्कुराहट लिये अपनी जगह बैठा रहेगा
बाहर का कमरा

जो भी जाएगा घर से बाहर कभी, कहीं
भीतर का कमरा साथ-साथ जाएगा

ले देकर एक

कोई नहीं बच पाया इस असाध्य रोग से कहा उसने

वो नहीं बचा इलाहाबाद का और लखनऊ का वो
और वो तो दिल्ली जा कर भी नहीं बच पाया
और तो और मन्त्रीजी नहीं बच पाये लन्दन जाकर

उसने दस-बारह ऐसे और रोगियों के नाम लिये
फिर रोगी की ओर निराशा से देख कर धीमे से कहा
-बच नहीं पाएगा ये

दस-बारह क्या सैकड़ों रोगी थे उस असाध्य रोग के और
जो बच नहीं पाये थे

लेकिन पास ही खड़े उनके मित्र को याद नहीं आये वे सब
उसने कहा बनारस में हैं मेरे एक घनिष्ठ
जो पीड़ित थे इसी असाध्य रोग से
बहुत ही बुरी दशा थी उनकी
वे ठीक हो गये बिल्कुल और दस साल से ठीक-ठाक हैं
उसने रोगी की ओर देख कर कहा
-ये भी ठीक हो जाएगा

वही नहीं, जहाँ जो असाध्य रोगी मिला
उसने उससे यही बात कही कि बनारस में....

उसके पास ले-देकर एक उदाहरण था

जंगल में एक बछड़े का पहला दिन

आज जंगल देखने का पहला दिन है
गले में घण्टी घनघना रही है

आज चरना कम..देखना ज्यादा है
जहाँ हरापन गझिन है लपक नहीं जाना है वहीं
वहाँ मुड़ने की जगह भी है....देखना है

आज झाड़ियों से उलझ-उलझ पैने हुए हैं उपराते सींग
आज एक छिदा पत्ता चला आया है घर तक
आज खुरों ने कंकड़-पत्थरों से मिल कर पहला कोरस गाया है

आज देखी है दुनिया
आज उछल-उछल डौंरिया कर पैर हवा में तैरे हैं
और पूँछ का गुच्छ आकाश तक उठा है

आज रात...नदी की कल-कल नहीं सुनाई देगी

कुतरे गये फल

हरे सुग्गे की लाल-लाल चोंच

ज्वार की एक कलगी पर बैठा तो मस्त हो गया ज्वार
एक सेब पर मारी चोंच आत्मा तक मीठा हो गया

सुग्गे का जूठा जूठा नहीं

कैसे छाँटता है ढेर सारे फलों में से ख़ास फल कुतरने के लिए
कैसे लोकता है एक छोटे फल में कुतरने की ख़ास जगह
निर्भार हो कर कैसे बैठ जाता है हिल रहे पके फल पर
कैसे रखता है फल के भीतर की सारी रस-ख़बर

लाल चोंच की संगत में एक फल डोर रहा है
अपनी ही देह के संकीर्तन से गुजर रही हैं एक पेड़ की जड़ें
अभी संसार की सबसे नर्म रज़ाई पर तगाई का काम
चल रहा है
दुनिया की सारी दरारें भरी जा रही हैं अभी
अभी एक सुग्गा फल कुतर रहा है

स्वर्ग से उतर आओ देवताओ
अक्षत नहीं इन कुतरे फलों का नैवेद्य स्वीकारो

अप्सराओ आओ
कुतरे फलों को बिराती, ढेर लगाती
उस औरत की कुल मिठास अन्दाज़ो

मिट्ठू हमारे घर में

बाहर गये हुए हैं पड़ोसी
हफ़्ते भर से मेरे घर में है पड़ोसी का मिट्ठू

चहक उठा है घर

जो दिन भर चुप्प रहा करता था वह गाना गा रहा है उसके लिए
जो बात करने के नाम पर काटने दौड़ता था वह
सीटी सिखा रहा है
घर से निकलते वक़्त सब कहने लगे हैं
अच्छा मिट्ठू जा रहा हूँ
टूटा है पिता का लम्बा अबोल
उन्होंने आज बेटा कहा है मिट्ठू से

किसके पास कितनी मिठास बची है अभी भी
सब खोल के रख दिया है मिट्ठू ने

इधर मैंने उठायी है

वह उधर बजा रही है ढोलक
जो नहीं देख पा रहे हैं वे भी सुन रहे हैं उसकी थापऽऽऽ

काफी दिनों से पड़ी थी अनजबी यह
साफ़ किया इसे टाँड से निकाल कर
दोनों घुटनों के बीच अड़ा इसके ढीले छल्लों को कसा

कसते ही तन गयी हैं डोरियाँ
चमड़े खिल उठे हैं दोनों पूड़ों के
नहीं थी जो अभी-अभी तक वो गूँज उभर आयी है
ढोलक में

इधर मैंने उठायी है एक अधूरी कविता
पूरी करने

गन्दा पानी

थके भारी बस्ते से
कल शाम फिर बाहर कूदा आर्कमिडीज
और दोहराने लगा
अपना सिद्धान्त

आज सुबह
एक बहुत अच्छी कविता पढ़ी थी मैंने

जितने भर में छपी है कविता
क्या उतना गन्दा पानी
छँटा होगा ?

कहानी का एक पात्र

मैंने लिखी एक कहानी
उसका एक पात्र मनोहर

पात्र तो बहुत थे, मगर
सबके पास कुछ न कुछ काम थे करने को
मनोहर को कहानी भर नहीं दे पाया मैं कोई काम
भूल ही गया उसे

आप किसी को अपने रचना-संसार में लाएँ
और कोई काम न दे पाएँ
कितनी लज्जा की बात है !

मुझे दोबारा लिखनी है वह कहानी

यहाँ में कहाँ वह क़ुव्वत

यहाँ आटे की चक्की है

एक जंग लगे टिन को रगड़-रगड़
प्राइमर के ऊपर काला रंग पोत
सफ़ेद अक्षरों में लिखा गया है इसे
और टाँग दिया गया है बिजली के खम्भे के सीने पर

यहाँ आटे की चक्की है
इस इबारत के ठीक नीचे बना है एक तीर

यहाँ में कहाँ वह क़ुव्वत
कि ग्राहक को ठीक-ठाक पहुँचा सके चक्की तक

माना कि बड़ी सामर्थ्य है शब्द में

दहशत

पारे सी चमक रही है वह

मुस्कराते होठों के उस हल्के दबे कोर को तो देखो
जहाँ से रिस रही है दहशत

एक दृश्य अपने-अपने भीतर बनते हुए बंकरों का
एक ध्वनि फूलों के चटाचट टूटने सी
एक कल्पना सारे आपराधिक उपन्यासों के पात्र
जीवित हो गये हैं

बहिष्कृत स्मृतियाँ लौटी हैं फिर

एक बार फिर
रगों में दौड़ने के बजाय
ख़ून गलियों में दौड़ने लगा है

कबीर

(1)

सामने छात्रगण
गुरु पढा रहे हैं कबीर

सूखते गलों के लिए
एक काई लगे घड़े में पानी भरा है

गुरु पढ़ा रहे हैं कबीर
बीच बीच में घड़े की ओर देख रहे हैं

बीच-बीच में उनका सीना चौड़ा हुआ जा रहा है

(2)

कौन जाएगा मरने मगहर
सबको चाहिए काशी अभी भी
मगहर वाले भी यह सोचते हुए मरते हैं सन्तोष से

वे मगहर में नहीं
अपने घर में मर रहे हैं

(3)

इतनी विशालकाय वह मूर्ति
कि सौ मज़दूर भी नहीं सँभाल पाये
उसे खड़ा करना मुश्किल

पत्थर नहीं
एक पहाड़ पूजा जाएगा अब

(4)

एक नहीं
दसियों लाउडस्पीकर हैं
एक ही आवाज़ अपनी कई आवाज़ों से टकरा रही है
पखेरू भाग खड़े हुए हैं पेड़ों से
अब और भी कम सुनाई पड़ता है ईश्वर को

(5)

जब केवल पाँच प्रश्न हुआ करते थे हल करने को
अनिवार्य थे कबीर
आज अनगिनत प्रश्न हैं

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