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सीढ़ियों का बाजार

मुक्ता

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2006
आईएसबीएन :81-263-1229-7

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मुक्ता की इन कहानियों के पात्र पीड़ा और छटपटाहट झेलती स्त्रियाँ है

Sidhiyon Ka Bazar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मुक्ता की कहानियाँ अपने खरे रूप में समकालीनता की कहानियाँ है। उनका कथा-संसार भावनात्मक कशमकश और गहरे अन्तर्द्वन्द्वों की अभिव्यक्ति है। यह भाव-बोध यथार्थ-भेदन का अस्त्र भी है जिसके माध्यम से ये कहानियाँ यथार्थ के पार भी देख रही होती हैं। पुरुष और स्त्री यहाँ नारों में नही है, वे जीवन के गतिशील प्रवाह के साझेदार हैं।
मुक्ता की कहानियों के पात्र पीड़ा और छटपटाहट झेलती स्त्रियाँ है, लेकिन वे विवश नहीं है, वे सूर्य को सम्बोधित करती स्त्रियाँ हैं। ये कहानियाँ अपनी सामाजिक संरचना और समय के वर्तमान दूषित परिवेश में हाशिये की जिन्दगी जी रहे सामाजिक न्याय से वंचित जन की पीड़ा और संघर्ष को भी रेखांकित करती हैं। साथ ही उनकी अधिकार-चेतना के प्रति मुखर हैं।

मुक्ता की इन कहानियों की एक अन्य विशेषता हैं-अनुभवों की विविधता। भाषा की निजता और सौन्दर्य लिये ये कहानियाँ लय की तरह चलती चली जाती है।

आईने के पार


‘‘वह आईना देख रही है...हेमा...देखा तुमने वह...बार-बार आईना देख रही है...।’’
आवाज फिर डूबने लगी। अभी अम्मा को पूरो तरह होश नहीं आया।
कहने को एमरजेंसी वार्ड है लेकिन पूरी रात चौराहे जैसी हलचल बनी रहती है। पूरे वार्ड को सँभालने वाली एक नर्स। वह भी रात में गायब। खैरात से चलने वाला अस्पताल है। नर्स, दाइयों की गिनती तो बहुत है लेकिन वे प्रकट तभी होती है जब बड़े डाक्टर राउण्ड लेने आते हैं। अधिकतर आपस में ही लोगों को एक-दूसरे की नर्सिंग का काम भी करना पड़ता है। बड़े-बड़े नामी-गिरामी सेठ यहाँ दान देते हैं, लेकिन अस्पताल है कि गरीब की कथरी बना हुआ है। अस्पताल में मुफ्त दवा का काउण्डर भी है, लेकिन बारहों महीने वहाँ भोजन अवकाश’ का साइन बोर्ड लटका रहता है।
वैसे आम्मा जल्दी बीमार नहीं पड़तीं। घरेलू नुस्खों से ही अपनी बीमारी ठीक कर लेती थीं, लेकिन दो साल से लगातार बीमार चल रही हैं। मधुमेह की बीमारी घुन की तरह शरीर को खा गयी। दो दिन बुखार था, अचानक बेहोश हो गयीं तो अस्पताल में भरती कराना पड़ा।

किसी भी कोने से देखो अम्मा का शरीर जर्जर है, लेकिन चेहरे पर आभा है। कितनी ही बार हेमा के मन में आता है अम्मा के माथे पर टिकुली टाँक दे। चौड़ा ललाट उस पर अठन्नी भर की सुर्ख लाल बिंदिया....
पिछली साल हेमा कॉलेज में इम्तहान लेने बरसों पहले बिछुड़े शहर में गयी तो कैसे चौधराइन उसके पीछे पड़ गयीं—‘‘बस एक बार बिटिया अम्मा को ले आओ..तुम्हारी माँ सती सावित्री...शादी-ब्याह...मूड़न-छेदन....तीज-त्योहारों की शोभा...उसके ढोलक की थाप पड़ते ही आँगन में देवता–पित्तर नाचने लगते...हाय बिटिया...ललाट की लाल बिंदिया...नहीं भूलती....जैसा रूप पाया वैसा ही उलटा भाग...तुम्हारे बाबू मरे तो कैसा दहाड़ मारकर रोयी थी अभागन...बस एक बार देख लें तो जी जुड़ाय जाए...जाने किस जन्म का रिश्ता है हमारा ....’’
‘‘इन्हें क्या हो गया है ?’’ बगल वाली मरीज की साथ वाली ने बिस्तर के पास आकर उत्सुकता से पूछा।
‘‘क्या बताएँ..अभी तक पूरी तरह होश नहीं आया...शूगर की बीमारी है...’’
‘‘सास हैं ?’’

‘‘नहीं, माँ हैं।’’ हेमा ने अनमनेपन से उत्तर दिया।
‘‘ओह...अब देखिए न..हमारे सबसे छोटे बेटे की यह दुलहन है, साल–भर से बीमार है...’’ बगल वाली मरीज की ओर इशारा करते हुए महिला ने कहा।
हेमा ने ध्यान से देखा। बिस्तर से लगी ठठरी। आँखें चमकदार लेकिन कोटरों में धँसी हुईं। यदि चद्दर उठा दी जाए तो यह अनुमान लगा पाना कठिन है कि कोई आदमी बिस्तर का हिस्सा भी है। सुबह अम्मा ने जरा आँखें खोली तो वह सिरहाने से टिकी आईना देख रही थीं। तभी अम्मा के चेहरे पर अजीब-सी दहशत है। नीम बेहोशी में भी वे बड़बड़ा रही हैं।
‘‘अल्लाह...किसी को बीमार न करे...’’ बगल से आयी औरत ने आह भरकर कहा।
‘‘आय-हाय...अब तु वहाँ क्या स्यापा करने लगीं ...?’’
‘‘चुप बदजात...’’ कहती हुई औरत चल दी।

हेमा हैरान थी शरीर निचुड़ा हुआ। न माँस है न खून, लेकिन गले की आवाज कितनी तेज और कर्कश ! वह अम्मा को लेकर और भी चिन्तित हो गयी। इस औरत की परछाई अम्मा को कहीं और बीमार न कर दे लेकिन करे भी तो क्या, पूरे अस्पताल में औरतों का केवल यही एक वार्ड है।
‘‘हेमा...’’ अम्मा ने आँखें खोलकर देखा। उनकी दृष्टि एकटक बगल वाली पर टिकी थी।
वे बुदबुदायीं, ‘‘वो फिर आ गयी।’’
‘‘अम्मा, वो ‘वह’ नहीं है। सुन रही हो ?’’
रात से ही ड्रिप चढ़ रही है। अम्मा का चेहरा पहले से बेहतर लगा।
हेमा ने नजर दौड़ाई। बगल वाली की पीठ हेमा की ओर थी। उजली पीठ पर रेशमी लाल ब्लाउज....कस्तूरी...वर्षों से जो नाम गैरहाजिर था आज सन्नाटे को चीरकर प्रेत-सा खड़ा हो जा रहा है। हेमा ने झुँझलाकर सिर को झटका, कहीं कुछ भी नहीं है...बगल वाली ठठरी पर कैसी रंग-रोगन रहा होगा अपन अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। नाक-नक्श जरूर तीखे हैं जो अब गहरी लकींरों में बदल गए हैं। कस्तूरी का गोल चेहरा, नाटा कद, दोहरा बदन, कजरारी आँखें, पट्टेदार कढ़े बाल, खास अन्दाज में होंठों को टेढ़ा कर मुस्कराना और बिट्टो कहकर हुलसकर हेमा को सीने से लगा लेना...हेमा की आँखों के आगे नाचने लगा।
‘‘हमें भी अम्मा कहो न बिट्टो !’’

‘‘धत्...’’ घर की ड्योढ़ी पर पहुँचकर ही हेमा के पैर थमते थे। उत्साह उफनकर बाहर आ जाता था।
‘‘अम्मा..। ओ अम्मा, देखो आज उसने मुझे जलेबी दी...’’
‘‘अभी जा...उसके मुँह पर मार आ। खबरदार जो उसके पास कभी भी फटकी...टाँगें चीरकर रख दूँगी...घर फूँक छिनाल को चैन न मिला जो अब लड़की को भी निगलना चाहती है...’’
ढिबरी की रोशनी में नन्हीं हेमा अम्मा के मुँह का मिलान उस औरत से करती...न जाने कौन-सी आकर्षण था। जलेबी के रस से ज्यादा उसके गुलाबी गाल, लाल होठ और सीने के उतार-चढ़ाव उसे खींचते, जिनके बीच दबे अपने चेहरे तो वह सैकड़ों बार महसूस करती।
‘‘जिज्जी ! यह छिनाल क्या होता है ?’’
सटाक !! पाँचों उँगलियाँ गालों पर छप गयीं थीं। पलट कर देखा तो बाबू खड़े थे। दोनों बहनें सहम गयी थीं।
‘‘निम्मो की माँ, तुमसे छोरियाँ भी नहीं सँभाली जातीं..ढंग-शऊर तो तुम्हें कभी न आया..बनाव-सिंगार से मतलब नहीं...तुम्हारी कोख कभी हरी न हुई...कि वंश चले...इन छोरियों को पराये घर जाना है।...इनके लक्षण तो अच्छे होने चाहिए...’’

अम्मा तीन दरवाजे भीतर थीं, जाने उन्होंने, सुना नहीं। दरवाजे के बाहर जाते बाबू को देख जिज्जी ने आह भरी, ‘‘अभी तक इन्होंने शराब नहीं पी है...अब नशे में धुत्त लौटेंगे।’’
हेमा को याद है, ऐसे क्षणों में जिज्जी और अम्मा के चेहरे गड्मड् हो जाते थे।
‘‘हेमा...’’ अम्मा की कराह से तन्द्रा भंग हुई। ग्लूकोज सलाइन की बोतल खत्म होने के कगार पर थी। वह नर्स को ढूँढ़ने चल दी। इत्तफाक था कि नर्स बाहर ही मिल गयी।
ड्रिप बदलकर नर्स जा चुकी थी। हेमा एक-एक बूँद गिरते पानी को ध्यान से देख रही थी।
उस दिन जिज्जी को तेज बुखार था। दिन में अच्छी-भली जिज्जी ने शाम होते ही खाट पकड़ ली। देर रात जिज्जी काँपने लगीं। गीली पट्टी भी असर नहीं कर रही थी। अम्मा ने झिंझोड़कर उसे जगाया था।
‘‘हेमू ! उसका घर जानती है ?’’
उत्तर में हेमा ने हामी भरी।
‘‘चल...’’
‘‘मैं उसे ले आऊँगी अम्मा...’’

‘‘खबरदार जो उसका नाम लिया।’’
नन्हीं हेमा सहम गयी, अनेक प्रश्न आँखों में बुझ गये। अम्मा ने जिज्जी को चादर ओढ़ायी। बाहर कुण्डी लगायी और उसका हाथ पकड़कर लगभग खींचती हुई उसे गली में ले आयीं।
दरवाजा खुलते ही बाबू सामने खड़े नसे में झूम रहे थे। कस्तूरी आईने के सामने खड़ी पल्ला सँवार रही थी।
‘‘निम्मो के बाबू, घर चलो। निम्मो को तेज बुखार है।’’
‘‘होगा...तो...मैं...क्या...करूँ....मैं कर भी क्या...स.क..ता..हूँ !’’
कस्तूरी के बोल सुनते ही अम्मा भड़क उठीं—
‘‘तूने मुझे बहू कहा...तेरी यह हिम्मत ! ठाकुर तेजबहादुर सिंह की बहू को तू बहू कहने वाली कौन...? दो कौड़ी की औरत...तेरे कारण मेरा घर उजड़ गया। मेरी बच्ची...’’ जिज्जी की याद आते ही मानो अम्मा को साँप सूँघ गया। हेमा का हाथ पकड़े वे पलट पड़ीं।
सुबह बाबू के साथ डाक्टर भी था। हेमा को बिलकुल नहीं लग रहा था कि ये कटे पेड़ जैसे ढहते रात वाले वही बाबू हैं। सुबह तनकर दफ्तर जाने वाले बाबू देर रात दीवार का सहारा लिये लड़खड़ाते हुए किसी तरह अन्दर पहुँचते। अकसर ही बदबूदार उलटी पूरे कमरे में फैल जाती जिसे पौ फटने तक अम्मा झाड़ू से साफ करतीं।
‘‘मुन्ना..अरे..मोर...मुनवा...’’

माँ के रोने का तेज स्वर पूरे वार्ड में फैल गया। सुबह से ऊँघते वार्ड में अचानक ही हलचल मच गयी। दाई-सी दिखनेवाली नर्स काफी देर बाद प्रकट हुई। ड्रिप बदलते हुए वह माँ को फटकारने लगी।
‘‘पानी खत्म हो चुका है, ‘‘ड्रिप बदलने के लिए बुलाया भी नहीं...जब बच्चे की आँख पलटने लगी तब होश आया है।’
माँ के चेहरे की स्याही और भी गहरा गयी, ‘‘...माई-बाप किसी तरह मुनवा... को बचा... लीजिए सिस्टर जी’’
‘‘जाहिल गँवार, जानवर...हमने ठेका ले रखा है, जान बचाने का...रात-दिन जान खपाते रहो, हमें क्या मिलता है...बड़े डॉक्टर ऐश करें, पिसें हम।...कम्बख्तों की गाँठ में एक पैसा नहीं, चले आते हैं इलाज कराने...’’
नर्स के चेहरे की वहशियत से बेखबर मुन्ना अब चंचल दिख रहा था।
माँ का चेहरा खिल उठा था। वह गालियों को प्रसाद के रूप में ग्रहण कर रही थी।
बिस्तर की सिलवटों में सिमटी बगल वाली ठठरी में भी हलचल हुई, ‘‘सिस्टर जी, बड़े डॉक्टर कब आएँगे ?’’
‘‘हमें फोन करके तो आएँगे नहीं जब बड़े नर्सिंग होम से फुर्सत मिलेगी तब आएँगे ?’’...ऐसे मुर्दे इसी अस्पताल में आते हैं...’’ बड़बड़ाती हुई नर्स वार्ड से बाहर हो गयी।

अम्मा ने आँखें खोलकर पूरे वार्ड का मुआयना किया और आँख मूँद ली।
एक सफर जैसे फिर शुरू हो गया। हलचल बन्द हुई और समय ने अपनी धीमी रफ्तार पकड़ ली।
उस दिन भी कुछ ऐसा ही माहौल था। डॉ्क्टर के जाने के बाद जिज्जी की तबीयत सँभल गयी थी।
‘‘तुम घबड़ाना मत निम्मो की माँ, मैं शाम को जल्दी आ जाऊँगा।’’
रात बाबू जल्दी लौटे। साथ में उनके दो मित्र भी थे। सफाई-सी देते हुए बोले, ‘‘मैंने सोचा बिटिया बीमार है, देर करना ठीक नहीं...’’ उनकी बात काटते हुए अम्मा बरस पड़ीं, ‘‘ये आप के साथ कौन लोग हैं ? लड़की बीमार है और...’’
‘‘आदमी हैं जानवर नहीं...वक्त पड़ने पर मदद ही करेंगे।’’
बाबू ने लापरवाही से उत्तर दिया।

रात गहराते ही जिज्जी का बुखार बढ़ने लगा। ताश खेलने, गिलासों के टकराने, गालियों के मँडराने की आवाजें बरामदे से लगातार आ रही थीं। अम्मा ने कातर स्वर में कहा, ‘‘हेम, जरा किवाड़ की फांक से बाबू को आवाज दे। कुण्डी मत खोलना..’’
हेमा को आज भी याद है।
दोनों नरपिशाच दरवाजे की ओर गिद्ध दृष्टि लगाये थे। बाबू लुढ़क पड़े थे।
जिज्जी का बुखार चढ़ता ही जा रहा था। सन्निपात सा चढ़ने लगा था। कमरे को किला बनाये बैठी अम्मा गीली पट्टी रखते हुए बड़बड़ा रही थी, ‘‘निम्मो ! मेरी बच्ची, तुझे बुखार से बचाऊँ या बाहर बैठे दरिंदों से..’’


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