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ब्रह्मपुत्र के किनारे किनारे

सांवरमल सांगनेरिया

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :343
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1998
आईएसबीएन :81-263-1225-4

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कृतिकार ने ब्रह्मपुत्र के बहाने अपने इस यात्रावृत्त में असम की पौराणिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक झाँकी प्रस्तुत की है...

Brahmputra ke Kinare Kinare

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ब्रह्मपुत्र ने असम का भूगोल ही नहीं रचा,इसके इतिहास को भी आँखों के आगे से गुजरते देखा है। इसकी घाटी में ही कामरूप, हैडम्ब,शेणितपुर, कौण्डिल्य राज्य़ पनपे। इसने भौमा, वर्मन, पाल, शालस्तम्भ, देव, कमता, चुटिया, भूयाँ कोट वंशीय राज्यों को बनते-बिगड़ते देखा है। इसके देखते-देखते ही पूर्वी पाटकाई दर्रे से आहोम यहाँ आये। इसके किनारे ही मुगलों को करारी मात खानी पड़ी।
इसी घाटी में शंकरदेव, माधवदेव, दामोदरदेव जैसे अनेक सन्त हुए। शैव, शाक्त, वैष्णव, बौद्ध, जैन, सिख धर्मों के मन्दिर, सत्र, स्तूप, गुरुद्वारे ही नहीं, दरगाह-मस्जिदें और चर्च भी इसके तटों पर खड़े हैं। यहाँ बसन्त का आगमन बिहू-गीतों के साथ होता है। किनारे पर बसी-विभिन्न जनजातियाँ अपने-अपने रीति-रिवाजों, भाषाओं, आस्थाओं और लोकनृत्यों से इसकी घाटी को अनुगंजित करती रहती हैं।
इस प्रकार कृतिकार ने ब्रह्मपुत्र के बहाने अपने इस यात्रावृत्त में असम की पौराणिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक झाँकी ही प्रस्तुत कर दी है। निःसन्देह इस पुस्तक का कई अर्थों में अपना वैशिष्ट्य है। असम के बारे में जो भ्रान्त धारणाएँ लोगों के मन में घर किये हैं, इसके अध्ययन से वे निश्चित ही दूर होंगी और इस कामरूप के प्रति एक आत्मीय भाव पैदा होगा, एक आस्था उपजेगी। पूर्वोत्तर भारत, विशेषकर असम के रमणीय क्षेत्रों को समझने में यह कृति विशेष उपयोगी सिद्ध होगी।

ब्रह्मपुत्र के किनारे-किनारे

ब्रह्मपुत्र और असम एक-दूसरे के पर्याय हैं। ब्रह्मपुत्र के बिना असम की कल्पना भी नहीं की जा सकती। ब्रह्मपुत्र ने केवल असम का भूगोल ही नहीं रचा, असम के इतिहास को भी अपनी आँखों के आगे से गुजरते देखा है। इसकी घाटी में कामरूप, हैडम्ब, शोणितपुर, कौण्डिल्य आदि कितने ही राज्य पनपे और बनते बिगड़ते रहे। ब्रह्मपुत्र के देखते-देखते ही सुदूर पूर्वी पाटकाई दर्रा पार कर आहोमों ने इसकी घाटी में प्रवेश कर छह सौ सालों तक यहाँ शासन किया। ब्रह्मपुत्र-घाटी से पनपी सभ्यता ने ही विदेश से आये आहोमों को अपने रंग में रँगकर अपनी माटी से संस्कारित किया। इसके किनारे जनमे लाचित बरफुकन ने ही मुगल आक्रमणकारियों को मुँहतोड़ जवाब देकर असम की सीमा से बाहर खदेड़ा था। इसके किनारों ने ब्रिटिशों के नृशंस अत्याचार देखे हैं। देश को मिली स्वतंत्रता के नाम पर अपने शरीर को दो देशों की सीमाओं में बँटने का दर्द भी ब्रह्मपुत्र ने सहा है। यही तो है जो देश के इस भूखण्ड के प्रति बरती गयी उपेक्षा को विभाजन के समय से आजतक देखता आया है।

ब्रह्मपुत्र की घाटी की तासीर ही थी कि श्रीमन्त शंकरदेव, माधवदेव, दामोदरदेव, जैसे अनेक सन्त यहाँ हुए। शंकर देव ने अपने काल में ही देश को बृहत्तर भाषायी आधार देने के लिए ‘ब्रजावली’ भाषा बनायी और उसमें अनेक ग्रन्थ रचे।
इसके किनारे ही उत्तर भारत की किसी क्षेत्रीय भाषा में पहली रामायण लिखी गयी थी। इसके किनारों पर गुप्तकाल से लेकर आहोमकालीन स्थापत्य जगह-जगह बिखरा पड़ा है। इसके तटों पर शैव, शाक्त, वैष्णव, बौद्ध, जैन, सिख धर्मों के मंदिर, सत्र, स्तूप, गुरुद्वारे ही नहीं, मुसलमानों की दरगाह-मस्जिदें और ईसाइयों के चर्च भी खड़े हैं। इसके किनारे ही असम का पर्याय कामाख्या का शक्तिपीठ है। धुबड़ी का प्रसिद्ध गुरुद्वारा ‘दमदमा साहिब’ हैं, जहाँ गुरु नानकदेव और गुरु तेगबहादुर स्वयं पधारे थे।

ब्रह्मपुत्र के किनारों पर बसंत का आगमन बिहू- गीतों के साथ होता है। यहाँ पर बसी बोड़ो, खासी, जयन्तिया, गारो आदि जनजातियाँ अपनी-अपनी रंग-बिरंगी पोशाकों, अपनी मान्यताओं, अपने रीति-रिवाजों, अपनी भाषाओं, आस्थाओं और लोक नृत्यों से इसकी घाटी को अनुगुंजित करती रहती हैं।
ब्रह्मपुत्र असम के लिए वरदान है। वहीं कुपित हो अपना विकट रूप धरता है तो असमवासियों का बहुत कुछ हरण भी कर लेता है। इसके क्रोधित स्वभाव के चलते ही इसके किनारों को जोड़ने के ब्रिटिश सरकार के सारे प्रयत्न विफल हो गये, वहीं स्वतंत्रता पश्चात इस पर तीन सेतु बन गये हैं और चौथा निर्माणाधीन है।

इस नदी के उत्तरीय पर माजुली, उमानन्द जैसे द्वीपों के संग अनेक चापरियाँ भी बेल-बूटियों की तरह टँकी हैं। इसके दलदली किनारों को एकसींगी गैंडों ने अपने रमण-स्थल बना रखे हैं। तटों पर अनेक वन्यजीव विचरते हैं। किनारों पर जहाँ घने वन हैं वहीं चाय भी खूब उपजती है। ब्रह्मपुत्र की घाटी तो ऐसी शस्य-श्यामला है कि जो भी यहाँ आता है वह यहीं का होकर रह जाता है। मेरे परदादा नवलीराम सांगानेरिया भी करीब एक सौ तीस-पैंतीस साल पहले यहाँ आये और यहीं के होकर रह गये।

ब्रह्मपुत्र के किनारे ही मैं पला-बढ़ा और अपना होश सँभाला यह किसी मीत की तरह मेरे मन में बसा है। गुवाहाटी में इसके किनारे मेरे जाने-पहचाने हैं। यहाँ के स्थल मैं बचपन से देखता आया हूँ (हालाँकि ऐसे भी अनेक स्थल हैं, जिन्हें मैंने पहली बार ही देखा है)। अतः यहाँ के प्रति मेरा मानसिक लगाव होना स्वाभाविक है।
भारत के लोगों ने अपने मन में असम के बारे में अनेक विचित्र कल्पनाएँ गढ़ रखी हैं। यहाँ के लिए अनेक दिलों में एक अज्ञात-सा भय समाया है। मेरी चाहना रही कि असम की पौराणिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक झाँकी, भले ही संक्षिप्त रूप में, हिन्दी में प्रस्तुत करूँ। यों तो इसका लेखन कई वर्षों से चल रहा था-मेरे अन्तस में और कागज पर भी। किन्तु पाँच साल पहले मेरा दो वर्षीय असम-प्रवास और भी प्रेरणास्पद रहा। अनेक देखी-अनदेखी जगहों की यात्राएँ भी कीं। उस समयावधि में मेरा अनेक विद्वानों से साक्षात्कार हुआ और उनसे बहुत कुछ जाना समझा। लेखन के लिए असमिया, हिन्दी और अँग्रेजी की अनेक पुस्तकों का अध्ययन किया।

पुस्तक में असम के बारे में बहुत-सी बारीक किन्तु महत्वपूर्ण बाते हैं जिन्हें जानने के लिए श्री शान्तनु कौशिक बरुवा की ‘असम अभिधान’ और श्री प्रदीप बरुवा की ‘चित्र-विचित्र’ असम पुस्तकें मेरी सहायक रहीं। इसके साथ ही हिन्दी लेखक श्री नवारुण वर्मा एवं श्री मधुकर लिमये की पुस्तकों से मुझे श्रीमन्त शंकरदेव और लाचित बरफुकन के बारे में बहुत-से तथ्य प्राप्त करने में सहायता मिली है। मैं इनका तथा उन सभी लेखकों-विद्वानों का भी हृदय से आभारी हूँ जिनका प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोग मुझे मिला है। असम की उन लोक-नर्तकियों के प्रति भी कृतज्ञ हूँ जिनसे बिहू-गीतों को जानने-समझने का मुझे अवसर मिला।
पुस्तक में कुछ लोकगीतों की बानगी हिन्दी अनुवाद के साथ पाठकों से समक्ष रखने का विनम्र प्रयास किया है। लोक-साहित्य लोक-परम्पराओं से जुड़ा होता है। इसके शब्दों में अपने अंचल की माटी की महक होती है। यह महक स्थान विशेष की धरोहर होती है। शब्दों का अनुवाद हो सकता है पर अन्तर्निहित भाव का नहीं अनुवाद पढ़ने मात्र से अंचल विशेष की परम्पराओं के बारे में पता न होने पर निहित अर्थ के गूढ़ार्थ को पूरी तरह नहीं समझा जा सकता। फिर भी सोचा कि पूर्णतया न सही, कुछ बात तो हिन्दी पाठकों तक पहुँचेगी।

पुस्तक में असमियाँ लोकगीतों का देवनागरी लिप्यन्तरण उसी तरह किया गया है जैसे असमिया लिपि में लिखे जाते हैं। किन्तु उनका असमिया उच्चारण भिन्न है। असमिया में व्यंजन ध्वनि ऐसे लगती है जैसे इनके साथ ‘ओ’ जोड़ दिया गया हो। इसलिए क, ख, ग आदि की ध्वनि को, खो, गो जैसी होती है। उदाहरणार्थ हिन्दी में लिखे जाने वाले ‘कोलकाता’ को बांग्ला की तरह असमिया में भी ‘कलकाता’ ही लिखा जाता है, जिसका ये लोग ‘कोलकाता’ उच्चारण करते हैं।
असमियाभाषी, ‘च’ और ‘छ’ की ध्वनि ‘स’ करते हैं। अतः ‘सरकार’ ‘सिपाही’, ‘पुलिस’, ‘सरदार’ जैसे शब्दों का मूल रूप में उच्चारण करने के लिए क्रमशः ‘चरकार’, ‘छिपाही’, ‘पुलिछ’, ‘चर्दार’ लिखते हैं। इसी तरह ‘श’ ‘स’ तथा ‘ष’ का उच्चारण ‘ह्’ या ‘ख्’ जैसा करते हैं, उदाहरणार्थ ‘सन्तोष’, ‘सहज’, ‘असमिया’, ‘कृषक’, ‘सोमवार’ जैसे शब्दों को लिखेंगे सन्तोष, सहज, असमिया, कृषक, सोमवार ही, किन्तु बोलने में क्रमशः ‘ह्न्तोख्’ ‘ह्हज’, ‘अखमीया’, ‘कृखक’, ‘ह्मोबार’ जैसी ध्वनि उच्चारेंगे। यही सोचकर देवनागरी लिप्यन्तरण के सामने असमिया-ध्वनि को भी इटालिक में लिखा है। ऐसा करने पर हिन्दीभाषी पाठक असमिया को हिन्दी की ध्वनि में ही पढ़ते।

मैं यदि साहित्यकार होता तो कदाचित् पुस्तक की भाषा और सरस होती। अपनी लेखकीय कमजोरियों को भी मैं जानता हूँ, इसलिए पुस्तक लिखते समय मैंने इसे पचासों बार पढ़ा होगा तथा मित्रों को भी पढ़ाया और अपने लेखन में सुधार करता गया। इन सभी मित्रों का मैं हृदय से आभारी हूँ यहाँ अपने भानजे डॉ. बालकृष्ण जालान का आभार मानता हूँ जो पेशे से चिकित्सक होकर भी साहित्य में रुचि और असमिया भाषा पर अपनी पकड़ रखते हैं। असमिया ग्रन्थों की कोई बात जब-जब मुझे समझने में कठिनाई हुई, तब-तब इन्होंने अपना घण्टों समय देकर मेरी सहायता की है।
भारतीय ज्ञानपीठ के प्रति आभार प्रकट किये बिना बात पूरी नहीं होगी। ज्ञानपीठ के निदेशक डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय ने इस रचना को प्रकाशन के लिए उपयुक्त समझा, इसके लिए मैं उनके प्रति कृतज्ञता अर्पित करता हूँ। इस संस्थान के प्रकाशन अधिकारी डॉ. गुलाबचन्द्र जैन का भी उनके आत्मीय सहयोग के प्रति हृदय से आभारी हूँ।
अब पुस्तक जैसी भी है, आपके हाथों में है। असम के बारे में जो भी भ्रान्त धारणाएँ लोगों के मन में घर किये हैं यदि इसे पढ़कर थोड़ी भी दूर होती हैं और यहाँ के बारे में उनमें अपनापन जगता है तो मैं अपने लेखन को सार्थक समझूँगा।

मायावी कामरूप

एयर बस को हवा में सधे दो-चार मिनट ही हुए होंगे। शुरू के पाँच-सात मिनट तो इसने रेंगने-दौड़ने और जमीन छोड़ देने में ही लगा दिये। कोलकाता से गुवाहाटी तक हजार किलोमीटर दूरी रेल से नापने में भले चौबीस घण्टे लगते हों, पर बांग्लादेश पर से इसका हवाई फासला आधा रहकर पचास-पचपन मिनट में तय हो जाता है।
मेरे पास बैठे सहयात्री से बातों-बातों में पता चला कि वह पहली बार असम आ रहा है। उसका मन असम के जादू-टोनों, जंगली जातियों और आतंकवादी संगठनों से सशंकित है। मैंने उसे आश्वस्त किया। शायद उसे एक आत्मसन्तोष हुआ कि चलो यहाँ का रहने वाला कोई तो मिला। उसकी शंकाओं ने मेरे विचारों को कुरेदा। क्या आज भी यह प्रदेश इतना अनजान है ? देश का यह पूर्वीं अंचल बाकी प्रदेशों से इतना अलग-थलग सा-क्यों है ?

यात्रियों को अल्पाहार देने की औपचारिक-सी आवाज विमान में गूँजी। सहयात्री की शंकाओं ने मेरे सामने रखे नाश्ते को फीका कर दिया। जीभ का स्वाद कसैला हो गया। सहयात्री का प्रश्न मुझे सालने लगा। किसी विदेशी ने यह प्रश्न रखे होते तो समझ सकता था। खैर, इतने कम समय की यात्रा में परिचारिका भी कितनी प्रतीक्षा करती। कुछ खाया, कुछ कुतरा, शेष बचे-खुचे की प्लेट उसने समेटी। मन का जायका ठीक करने आँखों को खिड़की से बाहर भेजा। सूरज की तेज किरणों में चमकते बादलों को विपरीत दिशा में दौड़ लगाते देखा।
इसके साथ-साथ मेरा मन भी दौड़ रहा था। शाम के वक्त पंक्षी के घोंसलों में लौटने जैसी ही तड़प गुवाहाटी पहुँचने की मेरे मन में थी। मेरा घर-परिवार भले ही मुम्बई में है किन्तु मेरा बचपन गुवाहाटी में बीता है। वहीं पला, पढ़ा, बड़ा हुआ। एक मेरी जन्म भूमि है तो दूसरी कर्मभूमि। इस बार दो-तीन महीने बाद ही असम आना हो गया। एक घर से दूसरे घर तक की तीन हजार कि.मी. तक की दूरी। इसे जल्द तय करने की मितव्ययी राह यह निकाली कि मुम्बई से कोलकाता तक रेल से और आगे हवाई रास्ते की यात्रा की जाए। दादर-गुवाहाटी एक्सप्रेस को फिर नहीं दोहराना चाहा। यह भी हमारी सरकार की गति से चलती है। दोनों अपने-अपने स्वभाव से विवश। वैसे भी इस भाग की उपेक्षा तो केन्द्र सरकार ने शुरू से ही की है, फिर रेलवे ही क्यों कोई अपवाद रहती भला।

बादलों के घूँघट से झाँकती असम की धरती को स्पष्ट होते देर नहीं लगी। जमीन निकट होती जा रही थी। खिड़की से दिखते दृश्य के सम्मुख उस अपरूप नाद में भला क्या आकर्षण होता ! चेतना को कानों की बनिस्बत दृष्टि पटल से तार जोड़े रखना ज्यादा सुखकर लग रहा था। मन का कसैलापन आँखों ने जैसे सोख लिया
मुम्बई पानी के बीच बसा है, फिर भी प्यासा। और असम में चारों ओर पानी-ही-पानी। वहाँ की समुद्री हवा में चिपचिपापन है। यहाँ की हवा और धरती में ब्रह्मपुत्र की नमी पगी है। मेरे नयन थे कि नीचे मोरपंखों की तरह बिखरी पहाड़ियों को एकटक निहार रहे थे। पहाड़ी चोटियों पर उग आयीं मोरपंखी आँखे भी मानो मेरे नैनों में झाँकना चाह रही थीं। उन मोरपंखों के छापे प्रकृति स्वरूपा असमिया सखि ने अपने मेखला पर टाँक रखे थे और नीचे बहते ब्रह्मपुत्र1 की जल-धारा को उसने चादर (ओढ़नी) की भाँति लपेट रखा था। इसकी मझधार के बीच स्वतः ही उभर आयी चापरियाँ 2 उसके आँचल पर छोटी-बड़ी बूटियों की मानिन्द टँकी थीं।

धरती से निरंतर बढ़ती निकटता के साथ दृश्य स्पष्ट होते गये। असम शैली में बने मकान छोटे-छोटे खिलौनों जैसे दिखने लगे। घरों की ढलुआ नालीदार टीन की छतें साफ दिख रहीं थीं। ये ढलानदार छतें ही हैं जो असम की भयानक वर्षा के जल को तुरन्त बहा देती हैं। नदी-पहाडों को समेटे असम की काया शस्य श्यामला है। गुवाक और नारियल वृक्षों के झोंप के झोंप। नीचे दिखते इन वृक्षों की फुनगियों को मानो छूता हुआ विमान धरती पर उतर रहा था। नगर किसी बगीचे के बीच बसे होने का एहसास दे रहा था। ये दृश्य आँखों में पूरी तरह समा भी नहीं पाये कि उन पर धीरे-धीरे यवनिका गिरती जा रही थी। अब मेरा मन थोड़ा आश्वस्त हुआ। असम की प्रकृति के संग तो अभी कुछ महीने रहकर विहार करना है। यह हित नये रूप-श्रृंगार धरकर अपने लावण्य रसास्वादन कराएगी।
प्राग्ज्योतिषा धरती की गोद का स्पर्श पाकर विचारों ने करवट बदली। आज यहाँ पाँव रखना कितना सहज हो गया। दो-सवा दो सौ साल पहले अपने आत्मीय जनों को छोड़कर यहाँ आये हमारे राजस्थानी पूर्वजों का आगमन क्या किसी साहसिक अभियान से कम था ? उन्होंने अपने घरवालों को तरह-तरह से-

1.ब्रह्मपुत्र : ब्रह्मपुत्र पुलिंग है। इसके सिवाय सिन्धु और सोनभद्र (सोन) भी नद हैं।
2.चापरियाँ : प्राकृत रुप से नदी में बने बालू-द्वीपों को असमिया में चापरि कहते हैं।

ब्रह्मपुत्र इन चापरियों से मानों आँखमिचौनी का खेल खेलता है। जलधारा के बीच ये उभरती हैं फिर उसी जल में समाहित हो जाती हैं, किन्तु कुछ स्थायी होती हैं जिनकी सीमा-रेखाएँ बढ़ती रहती हैं। वैसे ज्यादातर चापरियाँ अस्थायी ही होती हैं।
समझा-फुसलाकर इधर का रुख किया होगा। उस जमाने में यहाँ के बारे में लोगों के मन में अजीबोगरीब कल्पनाएँ घर किये थीं। अकेले पुरुष को असम जैसे दूर दिसावर भेजती औरतें शंकालु हो कहा करती थीं-‘मत न सिधारो पूरब री चाकरी’। उन्हें भय था कि क्या पता कि कामरूप रूपसी कामनियाँ कोई ‘कामण’ (वशीकरण) कर उन्हें भेड़ बकरा बनाकर अपने पास ही न रख लें। यहीं की तो रानी मृणावती थी जिसके काम केशों की घनी छाँव तले गुरु मछिन्दरनाथ जैसे महायोगी भी अपना जप-तप सबकुछ बिसरा यहीं रम गये। वह तो गोरखनाथ थे कि ‘जाग मछिन्दर गोरख आया’ को अलख जगाकर अपने गुरु को उस मोहपाश से छुड़ा लाये। आदि शंकराचार्य की कामरूप-यात्रा के समय उनके रूप पर भी यहाँ कि रूपसियाँ रीझ गयी थीं। वे उन कामरूपाओं के मोहपाश में नहीं फँसे तो उन्होंने ऐसा तन्त्र-मन्त्र किया, बताते हैं कि उन्हें भगन्दर रोग हो गया।

साहसी नर फिर भी इस मायाभूमि पर आये। क्या था उनके पास अपने साहस के सिवाय ! उन्होंने कितने कष्ट सहे होंगे इस अगम्य भूमि तक पहुँचने के लिए। अनजाना देश-प्रान्तर, अनजानी राहें, अनजाने लोग, अनजानी भाषा, अनजाने रीति-रिवाज-सबकुछ ही तो अनजाना था, उनके लिए। यहाँ का भूगोल किसी परिकथा के राक्षस की तरह उनके लिए भयावह था। जंगल-पहाड़, दलदल, मच्छर, मलेरिया, पेचिश, साँप, वन्य पशु क्या कुछ नहीं था। जिससे वे त्रस्त नहीं हुए। अपनी जन्मभूमि की विषम प्राकृतिक, राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों के चलते बनी उनकी तात्कालिक आवश्यकताएँ और महात्वाकांक्षाएँ ही थीं जो इस दूर-दराज के क्षेत्र में वे लोग आये। यहाँ वर्षों लम्बी मुसाफिरी कर चार-छह महीनों वास्ते वे अपने देश लौटते थे। पहले आकर जम गये कुछ लोगों के सिवाय यहाँ चार पैसे कमा लेना कितना श्रम साध्य था।
धीरे-धीरे उन्होंने यहाँ की बोली सीखी, तीज-त्यौहारों को थोड़ा जाना-समझा। अपने खान-पान को यहाँ की उपज चावल के अनुरूप बनाया। भात न खाने के आदी रहे उन लोगों ने गेहूँ के अभाव में चावल के आटे से रोटी बनाकर खायी। असमिया लोगों की भाँति धीरे-धीरे उन्होंने भी खार खोवा असमिया बनने के प्रयास किये। तब यहाँ नमक का बहुत अभाव था, थोड़ा-बहुत बंगाल से आता था। स्थानीय लोग केले के गाछों को जलाकर उसकी राख से बने खार को नमक की तरह काम में लेते थे, जिससे बनी उक्त कहावत आज भी प्रचलित है।

यहाँ प्रचलित मत्स्य-मांसाहार को तो वे नहीं अपना पाये, मगर यहाँ होने वाली शाक-सब्जियों के खट्टे-तीखे स्वाद को उन्होंने अपनाया। यहाँ बाँस की कोमल जड़ों से खोरिचा नामक खट्टा साग बनता है, कुछ लोग इसका अचार भी बनाते हैं। आज भी असमिया घरों में खोरिचा का उपभोग होता है। यहाँ आकर बसे लोगों की बाद की दो-तीन पीढ़ियों ने भले इसका स्वाद न चखा हो किन्तु अपने बड़े-बूढ़ों से ये बातें हमने सुनी हैं।
अपनी आजीविका के लिए उन्होंने दूर-दराज की गाँवलिया (गँवई) हाटों में बैलगाड़ी, रिक्शा, साइकिल या फिर नावों से जा-जाकर अपना माल बेचा। वन-पर्वतों पर आबाद जनजातीय गाँवों तक में जाकर बसे। वहाँ लोगों को जीने की जरूरी चीजें जुटाकर बेंची और अपना जीविकोपार्जन भी किया। उन्होंने लाहे-लाहे (धीरे-धीरे) यहाँ के विकासक्रम में अपनी पैठ बनायी। कतिपय लोगों ने कस्बों-शहरों में गल्ला-कपड़ा की छोटी-छोटी दुकाने सजायीं। बाँस और फूस से बने झोंपड़ों में बाँस से ही बनी खटिया पर अपनी वीरान रातें बितायीं। अपने परिवार को यहाँ बुलाने के बारे में तो उन्होंने बहुत बाद में सोचा। यहाँ के प्रति उनमें पहले अपनापन जागा, फिर धीरे-धीरे यहाँ की भाषा-संस्कृति से वे एकाकार होते गये।
विमानतल के परिसर में प्रवेश करते-करते बाहर खड़े लोगों पर नजर चली गयी। गाँवों के लोगों के लिए वायुयान आज भी एक अजूबा है। इनमें किशोरवय का समावेश ही ज्यादा था। उनके निश्छल चेहरों पर स्निग्ध मुस्कान बता रही थी कि इस विशाल पंक्षी को जमीन पर उतरते देख वे अभिभूत थे। उनमें खड़ी लड़कियों की चारखाने की रंग-बिरंगी पोशाकें कह रहीं थीं कि वे मेघालय के पहाड़ों से उतरकर आयी थीं। इतने बड़े बाज को देखने तीस-चालीस कि.मी. की दूरी अपनी जीप या बस में नापते देर ही कितनी लगी होगी उनको !

सामान का इन्तजार करना भी एक बोरियत है, पर चारा भी क्या था ! सहयात्री के प्रश्नों ने अभी भी मुझे घेर रखा था। सात प्रदेशों में बँटे इस क्षेत्र की भौगोलिक ऐतिहासिक स्थितियाँ क्या रही हैं ? इन प्रश्नों के उत्तर खोजने में मन चलायमान था।
परिसर में भीड़ हो जाने से उमस हो गयी। मार्च खत्म ही हुआ था। यहाँ तो अप्रैल से चलने वाली मानसूनी हवाएँ उमस के साथ जल की फुहारों से शीतलता भी ला देती हैं। वैसे तो यहाँ वर्षा करीब बारह मास ही होती है परन्तु अप्रैल से सितम्बर तक इसका जोर रहता है। अक्तूबर से शुरू होनेवाली सर्दी में सुबह का सूरज कोहरे में छिपा उगता है। दिसम्बर से फरवरी तक जाड़े के मौसम में तापमान 50 सेल्सियस तक गिर जाता है। ऐसे में बरसात हो जाने पर ठिठुरते लोगों को आग की समीपता कैसी सुहाती है ! प्रकृति में मानो पूर्वोत्तर के सातों प्रदेशों को अपने हाथों सँवारा है। अरुणाचल हिमालय की पर्वत श्रेणियों की गोद में बसा है। असम को ब्रह्मपुत्र और बराक घाटियों के अलावा मिकिर, कार्बी आंगलांग और उत्तरी कछार के पहाड़ उपहार में मिले हैं। पाटकाई की पर्वत श्रेणियाँ नगालैण्ड से मणिपुर तक फैली हैं तो मिजोरम लुशाई (मिजो) पहाड़ पर बसा है। मेघालय के पूरब में जयन्तिया, पश्चिम में गारो और मध्य में खासी पहाड़ इस प्रदेश की शोभा बढ़ाते हैं। हाँ ! त्रिपुरा के मैदानी भाग में बस छोटी-छोटी पहाड़ियाँ ही हैं। मनुष्य की खाद्य रुचि पर जलवायु व भौगोलिक परिवेश का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। यहाँ की मुख्य कृषि उपज चाउल (चावल) की विभिन्न प्रजातियाँ आहू बाओ और शालि हैं। चावल की एक अच्छी सुस्वादु जाति जोहा है। इसकी भी अनेक किस्में हैं-सफेद जोहा, काला जोहा, खोरिका जोहा, मागुरी जोहा, प्रसादभोग जोहा, मोहनभोग जोहा, रामपाल जोहा, यउनी जोहा, माणिकी मधुरी जोहा, मालभोग जोहा, नवाबी जोहा, कुणकुणी जोहा आदि। इस लम्बी फेहरिस्त को गिनते-गिनते रामपाल जोहा से पके भात की गन्ध-स्वाद मेरे मन पर भी उतर आये।

धान तो असम की लोक-संस्कृति का अभिन्न अंग है। धान मातृशक्ति और पौरुष दोनों का प्रतीक है। धान के ही गर्भ से चावल निकलता है। यहाँ की लोककथा के अनुसार पहले चावल पर धान का छिलका नहीं था। एक बार किसी लालची ब्राह्मण खेत में लगे पौधों से चावल तोड़ खाते देख लखिमी (लक्ष्मी) ने चावल पर धान का खोल चढ़ा दिया। तभी तो यहाँ के लोग भँराल (कोठा) में धान रखकर चाकि (दीप) जलाते हैं। पता नहीं लक्ष्मी का वहाँ कब प्रवेश हो जाए। भँराल से धान निकालने के पहले दिन भी वहाँ शराई में गुड़-चीनी, केला-ताम्बुल आदि का नैवेद्य रखा जाता है।
चावल से बनने वाले चिवड़ा, मुड़ी, खोइ और भात का स्वाद तो कई बार मैंने चखा होगा पर यहाँ के जलपान कोमल चावल या फिर पहाड़ी जनजातियों द्वारा बाँस के चुँगे (चोंगे) में सामिष और निरामिष पकनेवाले भात के बारे में सुना भर ही है। यहाँ खाद्य वस्तु को कूटना, राँधना परिवेषण करना भी नियमबद्ध होता है। रात में जैसे दही और तीता, माछ-मांस खाने के बाद दूध, खट्टा, तीता और खार एक साथ निषेध है। वैसे ही एकादशी, पूर्णिमा आदि पवित्र तिथियों को सामिष खाना असमी लोगों में निषेध है। हाँ, यहाँ के ब्राह्मणों को माछ-मांस खाने की कोई मनाही नहीं है।
चाय, तेल, लकड़ी और प्लाईवुड को यदि असम के पर्यावाची नाम कहें तो क्या गलत होगा ! पूर्वोत्तर की भरपूर वन-सम्पदा में बाँस और बेंत का भी शुमार है।

1.शराई :धातु या काठ की स्टैण्डदार गोल तश्तरी। इसे बोटा भी कहते हैं।

यहाँ के जंगलों में हालोंग पेड़ तो बीस फुट गोलाईवाले और सवा-सौ फुट तक लम्बे होते हैं। यहाँ इमली, नीम, बरगद, साल, खोकन, पोमा, तितासोपा, बादाम, होलक, सागौन के सिवाय बुला पेड़ की एक अच्छी प्रजाति भी होती है। यहाँ पूर्वी जंगलों में पाये जानेवाले हालोंग, नाहर और मकाई जैसे कीमती पेड़ों से बननेवाली प्लाईवुड और वनों से कटी लकड़ी देश की करीब आधी जरूरत पूरी करती थी किन्तु सुप्रीम कोर्ट द्वारा जंगल काटने पर प्रतिबन्ध लगाने से काठ का व्यवसाय जहाँ चौपट हुआ वहीं प्रायः प्लावुड फैक्टरियाँ भी बन्द हो गयीं।
असम के जंगल में अगरू के मू्ल्यवान पेड़ भी होते हैं जिसकी लकड़ी से तेल निकालने में होजाई के मुस्लिम श्रमिक सिद्धहस्त हैं। यह तेल प्रसाधन उद्योगों में काम आता है। अगरू की लकड़ी और इसके तेल की अरब देशों में हमेशा रहने वाली माँग को पूरी करने के लिए इसके व्यापारियों ने मुम्बई की नागदेवी स्ट्रीट में एक छोटा-सा होजाई ही बसा दिया है।
असम में खनिज तेल का तो अपार भण्डार है। भारत में तेल का करीब 50% यहीं से निकलता है। जिसके चलते शुरू में डिबगोई में लगायी गई तेल रिफाइनरी के करीब सत्तर वर्ष बाद जाकर नूनमाटी (गुवाहाटी) में रिफाइनरी लगी। अब बंगाई गाँव और नूमलीगढ़ में और दो रिफाइनरियाँ लगी हैं पर सभी कच्चे तेल की हैं। यहाँ के पूर्व दक्षिण में कोयला-खदानें हैं। आज भी पाँच हजार टन कोयला यहाँ रोज निकल जाता है। यहाँ मिलने वाले लाइम-स्टोन (चूना-पत्थर) की बहुतायत के चलते दो-तीन सीमेंट फैक्टरियाँ अवश्य लगी हैं।

असम के चाय बागानों को देखने के लिए कौन नहीं ललचाएगा ! इन बागानों में ही तो देश की 50% चाय होती है जिसका स्वाद न केवल देश में, बल्कि विदेश में भी चखा जाता है। इसके निर्यात से अच्छी-खासी आमदनी होती है। इन थोड़े-बहुत औद्योगिक विकासों के अलावा यहाँ और भी उद्योग लगाने की सम्भावनाएँ हैं किन्तु यह सब क्यों नहीं हो पाया ? शिक्षा-क्षेत्र में भी यहाँ के लोग पिछड़े नहीं हैं फिर भी यहाँ के सातों राज्य आज अल्पविकास और उथल-पुथल के दुष्चक्रों के बीच फँसे सिसक रहे हैं तो कौन जिम्मेदार है ? यहाँ नित नये आन्दोलन और आलगाववादी प्रवृत्तियाँ जब-तब जोर पकड़ लेती हैं तो कभी उग्रवादी आतंकवादी अपने फन उठाये खड़े हो जाते हैं। सौ से ज्यादा छोटी बड़ी नदियों को यह क्षेत्र अपने में समेटे है। इनमें हर वर्ष आने वाली बाढ़ ने भी यहाँ के विकास में रोड़े अटकाये हैं। कटाव से अब तक लाखों वर्ग कि.मी. भू-भाग नदियों में समा गया है। क्या इस समस्या को कभी राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखा गया है ?

असम की भूगोल की तरह यहाँ का इतिहास भी अपना एक गौरवपूर्ण स्थान रखता है। यहाँ कभी एक विशाल साम्राज्य था। यहाँ की सीमा के अन्तर्गत कभी बांग्लादेश के रंगपुर और मैमनसिंह जिले थे। बिहार के पूर्वी भाग पूर्णिया के कुछ हिस्से भी इसमें समाहित थे। त्रिपुरा भी इसी राज्य का अंग था। यहाँ सोलहवीं शताब्दी में लिखे गये ‘योगिनी तन्त्र’ के अनुसार यह पूरा क्षेत्र रत्नपीठ, कामपीठ, स्वर्णपीठ और सौमारपीठ नामक चार पीठों में विभाजित था। परम्परागत रूप से जब असम का नाम आता है तो उसमें आज का असम, अरुणाचल, नगालैण्ड, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, मेघालय सब सम्मिलित होते हैं।
अब तक तो धूप खिली थी। एकाएक बदली छा गयी ! बूँदा-बाँदी भी होने लगी। सामान आने में अभी देर थी। परिसर की घुटन भरी उकताहट से बचने और और भीगे मौसम का हुलास लेने थोड़ी देर बाहर चला गया। बारिश की फुहारों में भीगी ब्रह्मपुत्र-घाटी की माटी की सोंधी गन्ध एक अन्तराल बाद मेरे नथुनों में समायी। बाहर खड़ी रंग-बिंरगी कारें बौछारों में धुलकर निखर आयी थीं। वे कारें ज्यादातर टैक्सियाँ थीं। यहाँ असम में टैक्सियाँ न तो यूनीफॉर्म कलर में रँगी होती हैं और न ही इनके मीटर होते हैं। दरअसल इन्हें टैक्सी के रूप में रजिस्टर्ड ही नहीं करवाया जाता। टैक्सी स्टैण्ड के पास फुटपाथ पर बनी गुमटी की लाल चाय में पगा असमिया स्वाद दूधदार चाय में कहाँ ! यहाँ के लोग अमूमन बिना दूध की लाल चाय ही पीते हैं।

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