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कविता संग्रह >> नगाड़े की तरह बजते शब्द

नगाड़े की तरह बजते शब्द

निर्मला पुतुल

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1876
आईएसबीएन :0000-0000

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मूलतः संताली भाषा में लिखी निर्मला पुतुल की कविताएँ एक ऐसे आदिम लोक की पुनर्रचना हैं जो आज सर्वग्रासी वैश्विक सभ्यता में विलीन हो जाने के कगार पर है।

Nagade Ki Tarah Bajate Shabd - A book of poems by Nirmala Putul

मूलतः संताली भाषा में लिखी निर्मला पुतुल की कविताएँ एक ऐसे आदिम लोक की पुनर्रचना हैं जो आज सर्वग्रासी वैश्विक सभ्यता में विलीन हो जाने के कगार पर है। ये कविताएँ स्वाधीनता के बाद हमारे राष्ट्रीय विकास के चरित्र पर प्रश्न करती हैं।

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

क्या तुम जानते हो

क्या तुम जानते हो
पुरुष से भिन्न
एक स्त्री का एकान्त ?

घर प्रेम और जाति से अलग
एक स्त्री को उसकी अपनी जमीन
के बारे में बता सकते हो तुम ?

बता सकते हो
सदियों से अपना घर तलाशती
एक बेचैन स्त्री को
उसके घर का पता ?

क्या तुम जानते हो
अपनी कल्पना में
किस तरह एक ही समय में
स्वयं को स्थापित और निर्वासित
करती है एक स्त्री ?

सपनों में भागती
एक स्त्री का पीछा करते
कभी देखा है तुमने उसे
रिश्तों के कुरुक्षेत्र में
अपने आपसे लड़ते ?

तन के भूगोल से परे
एक स्त्री के
मन की गाँठे खोल कर
कभी पढ़ा है तुमने
उसके भीतर का खौलता इतिहास ?

पढ़ा है कभी
उसकी चुप्पी की दहलीज पर बैठ
शब्दों की प्रतीक्षा में उसके चेहरे को ?

उसके अंदर वंशबीज बोते
क्या तुमने कभी महसूसा है
उसकी फैलती जड़ों को अपने भीतर ?

क्या तुम जानते हो
एक स्त्री के समस्त रिश्ते का व्याकरण ?
बता सकते हो तुम
एक स्त्री को स्त्री दृष्टि से देखते
उसके स्त्रीत्व की परिभाषा ?

अगर नहीं !
तो फिर जानते क्या हो तुम
रसोई और बिस्तर के गणित से परे
एक स्त्री के बारे में..... ?

अपनी जमीन तलाशती बेचैन स्त्री

यह कैसी विडम्बना है
कि हम सहज अभ्यस्त हैं
एक मानक पुरुष-दृष्टि से देखने
स्वयं की दुनिया

मैं स्वयं को स्वयं की दृष्टि से देखते
मुक्त होना चाहती हूँ अपनी जाति से
क्या है मात्र एक स्वप्न के
स्त्री के लिए-घर सन्तान और प्रेम ?
क्या है ?

एक स्त्री यथार्थ में
जितना अधिक घिरती जाती है इससे
उतना ही अमूर्त होता चला जाता है
सपने में वह सब कुछ

अपनी कल्पना में हर रोज
एक ही समय में स्वयं को
हर बेचैन स्त्री तलाशती है
घर प्रेम और जाति से अलग
अपनी एक ऐसी जमीन
जो सिर्फ उसकी अपनी हो
एक उन्मुक्त आकाश
जो शब्द से परे हो
एक हाथ
जो हाथ नहीं
उसके होने का आभास हो !

आदिवासी स्त्रियाँ

उनकी आँखों की पहुँच तक ही
सीमित होती उनकी दुनिया
उनकी दुनिया जैसी कई-कई दुनियाएँ
शामिल हैं इस दुनिया में/नहीं जानतीं वे
वे नहीं जानतीं कि
कैसे पहुँच जाती हैं उनकी चीजें दिल्ली
जबकि राजमार्ग तक पहुँचने से पहले ही
दम तोड़ देतीं उनकी दुनिया की पगडण्डियाँ
नहीं जानतीं कि कैसे सूख जाती हैं
उनकी दुनिया तक आते-आते नदियाँ
तस्वीरें कैसे पहुँच जातीं हैं उनकी महानगर
नहीं जानती वे ! नहीं जानतीं ! !

बाहामुनी

तुम्हारे हाथों बने पत्तल पर भरते हैं पेट हजारों
पर हजारों पत्तल भर नहीं पाते तुम्हारा पेट

कैसी विडम्बना है कि
जमीन पर बैठ बुनती हो चटाईयाँ
और पंखा बनाते टपकता है
तुम्हारे करियाये देह से टप....टप...पसीना...!

क्या तुम्हें पता है कि जब कर रही होती हो तुम दातुन
तब तक कर चुके होते हैं सैकड़ों भोजन-पानी
तुम्हारे ही दातुन से मुँह-हाथ धोकर ?

जिन घरों के लिए बनाती हो झाड़ू
उन्हीं से आते हैं कचरे तुम्हारी बस्तियों में ?

इस ऊबड़-खाबड़ धरती पर रहते
कितनी सीधी हो बाहामुनी
कितनी भोली हो तुम
कि जहाँ तक जाती है तुम्हारी नजर
वहीं तक समझती हो अपनी दुनिया
जबकि तुम नहीं जानती कि तुम्हारी दुनिया जैसी
कई-कई दुनियाएँ शामिल हैं इस दुनिया में

नहीं जानती
कि किन हाथों से गुजरती
तुम्हारी चीजें पहुँच जाती हैं दिल्ली
जबकि तुम्हारी दुनिया से बहुत दूर है अभी दुमका भी !

बिटिया मुर्मू के लिए

1

उठो कि अपने अँधेरे के खिलाफ उठो
उठो अपने पीछे चल रही साजिश के खिलाफ

उठो, कि तुम जहाँ हो वहाँ से उठो
जैसे तूफान से बवण्डर उठता है
उठती है जैसी राख में दबी चिनगारी

देखो ! अपनी बस्ती के सीमान्त पर
जहाँ धराशायी हो रहे हैं पेड़
कुल्हाड़ियों के सामने असहाय
रोज नंगी होती बस्तियाँ
एक रोज माँगेगी तुमसे
तुम्हारी खामोशी का जवाब

सोचो-
तुम्हारे पसीने से पुष्ट हुए दाने एक दिन लौटते हैं
तुम्हारा मुँह चिढ़ाते तुम्हारी ही बस्ती की दुकानों पर
कैसा लगता है तुम्हें जब
तुम्हारी ही चीजें
तुम्हारी पहुँच से दूर होती दिखती हैं ?

2

इन सदियों का क्या है
आएँगी...जाएँगी...
क्या अब भी विश्वास करने लायक बचा है यह समय ?
तुम्हारे विश्वास की जड़े आखिर कितनी गहरी हैं
समय के द्वारा लगातार कुतरे जाने के बावजूद ?
क्या वे पाताल में गयी हैं...?

जबकि तुम्हारे हिस्से में
भूख और थकान के सिवा
सिवा एक बेहतर जिन्दगी की उम्मीद के
शायद कुछ भी नहीं है...
विडम्बना ही है-
कि ईश्वर पर सबसे ज्यादा कैसे करती हो विश्वास....?

3

वे दबे-पाँव आते हैं तुम्हारी संस्कृति में
वे तुम्हारे नृत्य की बड़ाई करते हैं
वे तुम्हारी आँखों की प्रशंसा में कसीदे पढ़ते हैं
वे कौन हैं....?
सौदागर हैं वे...समझो....
पहचानो उन्हें बिटिया मुर्मू...पहचानो !
पहाड़ों पर आग वे ही लगाते हैं
उन्हीं की दुकानों पर तुम्हारे बच्चों का
बचपन चीत्कारता है
उन्हीं की गाड़ियों पर
तुम्हारी लड़कियाँ सब्जबाग देखने
कलकत्ता और नेपाल के बाजारों में उतरती हैं
नगाड़े की आवाजें
कितनी असमर्थ बना दी गयी हैं
जाने उसे....!

आदिवासी लड़कियों के बारे में

ऊपर से काली
भीतर से अपने चमकते दाँतों
की तरह शान्त धवल होती हैं वे

वे जब हँसती हैं फेनिल दूध-सी
निश्छल हँसी
तब झर-झराकर झरते हैं....
पहाड़ की कोख में मीठे पानी के सोते

जूड़े में खोंसकर हरी-पीली पत्तियाँ
जब नाचती हैं कतारबद्ध
माँदल की थाप पर
आ जाता तब असमय वसन्त

वे जब खेतों में
फसलों को रोपती-काटती हुई
गाती हैं गीत
भूल जाती हैं जिन्दगी के दर्द
ऐसा कहा गया है

किसने कहे हैं उनके परिचय में
इतने बड़े-बड़े झूठ ?
किसने ?

निश्चय ही वह हमारी जमात का
खाया-पीया आदमी होगा...
सच्चाई को धुन्ध में लपेटता
एक निर्लज्ज सौदागर

जरूर वह शब्दों से धोखा करता हुआ
कोई कवि होगा
मस्तिष्क से अपाहिज !

चुड़का सोरेन से

मैंने देखा था चुड़का सोरेन !
तुम्हारे पिता को अकसर हड़िया पीकर
पिछवाड़े बँसबिट्टी के पास ओघड़ाए हुए
कठुवाई अँगुलियों से दोना-पत्तल-चटाई बुन
बाजार ले जाकर बेचते हुए तुम्हारी माँ को भी
हजार-हजार कामुक आँखों और सिपाहियों के पंजे झेलती

चिलचिलाती धूप में
ईंट पाथते पत्थर तोड़ते मिट्टी काटते हुए भी
किसी बाज के चंगुल में चिड़ियों की तरह
फड़फड़ाते हुए एक बार देखा था उसे

तुम्हारे पिता ने कितनी शराब पी यह तो मैं नहीं जानती
पर शराब उसे पी गयी यह जानता है सारा गाँव
इससे बचो चुड़का सोरेन !
बचाओ इसमें डूबने से अपनी बस्तियों को
देखो तुम्हारे ही आँगन में बैठ
तुम्हारे हाथों बना हड़िया तुम्हें पिला-पिलाकर
कोई कर रहा है तुम्हारी बहनों से ठिठोली
बीड़ी सुलगाने के बहाने बार-बार उठकर रसोई में जाते
उस आदमी की मंशा पहचानो चुड़का सोरेन
जो तुम्हारी औरत से गुपचुप बतियाते बात-बात में दाँत निपोर रहा है
वह कौन-सा जंगली जानवर था चुड़का सोरेन
जो जंगल लकड़ी बीनने गयी तुम्हारी बहन मँगली को
उठाकर ले भागा ?
तुम्हारी भाषा में बोलता वह कौन है
जो तुम्हारे भीतर बैठा कुतर रहा है
तुम्हारे विश्वास की जड़ें ?
दिल्ली की गणतन्त्र झाँकियों में
अपनी टोली के साथ नुमाइश बनकर कई-कई बार
पेश किये गये तुम
पर गणतन्त्र नाम की कोई चिड़िया
कभी आकर बैठी तुम्हारे घर की मुँडेर पर ?

क्या तुम जानते हो
पेरिस के भारतीय दूतावास से भागी ‘ललिता उराँव’ के बारे में ?
जानते हो महानगरों से पनपे
आया बनानेवाली फैक्टरियों का गणित
और घरेलू कामगार महिला संगठन का इतिहास ?
बाँदों की ‘दीपा मुर्मू’ की आत्मा आज भी भटक रही है
इन्साफ की गुहार लगाते तुम्हारी बस्तियों में
उसे सुनो चुड़का सोरेन !
उसे गुनो !

कैसा बिकाऊ है तुम्हारी बस्ती का प्रधान
जो सिर्फ एक बोतल विदेशी दारू में रख देता है
पूरे गाँव को गिरवी
और ले जाता है कोई लकड़ियों के गट्ठर की तरह
लादकर अपनी गाड़ियों में तुम्हारी बेटियों को
हजार-पाँच-सौ हथेलियों पर रखकर
पिछले साल
धनकटनी में खाली पेट बंगाल गयी पड़ोस की बुधनी
किसका पेट सजाकर लौटी है गाँव ?

कहाँ गया वह परदेसी जो शादी का ढोंग रचाकर
तुम्हारे ही घर में तुम्हारी बहन के साथ
साल-दो-साल रहकर अचानक गायब हो गया ?
उस दिलावर सिंह को मिलकर ढूँढ़ों चुड़का सोरेन
जो तुम्हारी ही बस्ती की रीता कुजूर को
पढ़ाने-लिखाने का सपना दिखाकर दिल्ली ले भागा
और आनन्द-भोगियों के हाथ बेच दिया
और हाँ पहचानो !
अपने ही बीच की उस कई-कई ऊँची सैण्डिल वाली
स्टेला कुजूर को भी
जो तुम्हारी भोली-भोली बहनों की आँखों में
सुनहरी जिन्दगी का ख्वाब दिखाकर
दिल्ली की आया बनानेवाली फैक्टरियों में
कर रही है कच्चे माल की तरह सप्लाई
उन सपनों की हकीकत जानो चुड़का सोरेन
जिसकी लिजलिजी दीवारों पर पाँव रखकर
वे भागती हैं बेतहाशा पश्चिम की ओर !

बचाओ अपनी बहनों को
कुँवारी माँ बनी पड़ोस की उस शिलवन्ती के मोहजाल से
पूरी बस्ती को रिझाती जो
बैग लटकाये जाती है बाजार
और देर रात गये लौटती है
खुद को बेचकर बाजार के हाथों

किसके शिकार में रोज जाते हो जंगल ?
किसके ?
शाम घिरते ही अपनी बस्तियों में उत्तर आये
उन खतरनाक शहरी-जानवरों को पहचानो चुड़का सोरेन
पहचानो
पाँव पसारे जो तुम्हारे ही घर में घुसकर बैठे हैं !!
तुम्हारे भोलेपन की ओट में
इस पेचदार दुनिया में रहते
तुम इतने सीधे क्यों हो चुड़का सोरेन ??

कुछ मत कहो सजोनी किस्कू !

बस ! बस !! रहने दो !
कुछ मत कहो सजोनी किस्कू !
मैं जानती हूँ सब
जानती हूँ कि अपने गाँव बागजोरी की धरती पर
जब तुमने चलाया था हल
तब डोल उठा था
बस्ती के माँझी-थान में बैठे देवता का सिंहासन
गिर गयी थी पुश्तैनी प्रधानी कुर्सी पर बैठे
मगजहीन ‘माँझी हाड़ाम’ की पगड़ी
पता है बस्ती की नाक बचाने खातिर
तब बैल बनाकर हल में जोता था
जालिमों ने तुम्हें
खूँटे में बाँधकर खिलाया था भूसा

वे भूल गये
सन्थाल-विद्रोह के समय
जब छोड़ गये थे तुम पर सारा घर-बार
तुम्हीं ने किये थे तब हल जोतने से लेकर
फसल काटने तक के सारे कार्य-व्यापार
तब नहीं गिरी थी उनकी पगड़ी
धरती नहीं पलती थी तब
कटी नहीं थी किसी की नाक
आज धनुष छूते ही तुम्हारे
धरती पलट जाएगी
मच जाएगा प्रलय सजोनी किस्कू
मत छूना धनुष !

घर चुऽ रहा है तो चूने दो
छप्पर छाने मत चढ़ना
‘जातीय टोटम’ के बहाने
पहाड़पुर की ‘प्यारी हेम्ब्रम’ की तरह
तुम्हारा मदद भी करेगा तुमसे जानवराना बलात्कार
और नाक-कान काट धकिया निकाल फेंकेगा घर से बाहर

हक की बात न करो मेरी बहन
मत माँगो पिता की सम्पत्ति पर अधिकार
जिक्र मत करो पत्थरों और जंगलों की अवैध कटाई का
सूदखोरों और ग्रामीण डॉक्टरों के लूट की चर्चा न करो बहन
मिहिजाम के गोआकोला की
‘सुबोधिनी मारण्डी’ की तरह तुम भी
अपने मगजहीन पति द्वारा
भरी पंचायत में डायन करार कर दण्डित की जाओगी
‘माँझी हाड़ाम’ ‘पराणिक’ ‘गुड़ित’ ठेकेदार, महाजन और
जान-गुरुओं के षड्यन्त्र का शिकार बन

इन गूँगे-बहरों की बस्ती में
किसे पुकार रही हो सजोनी किस्कू ?
कहाँ लगा रही हो गुहार ?
यहाँ तो जाहेर और माँझीथान के देवता भी
बिक जाते हैं बोतल भर दारू में
और फिर उन्हें स्वीकार भी तो नहीं है
तुम्हारे हाथों का चढ़ावा
देखो कहीं कोई सुन न ले तुम्हारी फुसफुसाहट
पड़ न जाये कहीं किसी ‘पराणिक’ की दृष्टि
गूँज उठे न बस्ती में ‘गुड़ित’ का हाँका
भरी पंचायत में सरेआम
नचा न दी जाओ नंगी ‘पकलू मराण्डी’ की तरह
बस रहने दो
कुछ मत कहो सजोनी किस्कू
सब जानती हूँ मैं ! सब जानती हूँ !!

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