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गायत्री साधना-क्यों, क्या, कैसे?

बी. एल. वत्स

प्रकाशक : भगवती पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1750
आईएसबीएन :81-7457-205-8

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जिस गायत्री-मन्त्र की प्रशस्ति में अब तक दो हजार से अधिक ग्रन्थ लिखे जा चुके हों...

Gayatri Sadhana Kyon Kya Kaise -A Hindi Book BY B.L.Vats

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

जिस गायत्री-मन्त्र की प्रशस्ति में अब तक दो हजार से अधिक ग्रन्थ लिखे जा चुके हों, विश्व के अगणित अवतारों, ऋषियों-मुनियों, महापुरुषों, मनीषियों एवं रचनाधर्मियों ने जिससे अपना कायाकल्प किया हो जिसमें प्राचीनतम होने के साथ-साथ आज भी विश्व-विजयिनी शक्ति विद्यमान हो, उस गायत्री मन्त्र की जीवन्त-साधना पर यह एक अनुपम एवं सारगर्भित कृति है। इसकी विशेषता यही है कि उँगली पकड़ कर चलना सिखाने के साथ-साथ इसमें प्रज्ञावानों के मार्गदर्शन की भी सामर्थ्य है। यजुर्वेद के अनुसार-मानव-मात्र में पूर्ण आयुष्य, कर्त्तव्य शक्ति एवं धारण शक्ति ये तीनों ही शक्तियाँ अन्तर्निहित हैं- ‘सा विश्वायु सा विश्वकर्मा सा विश्वधाया:’ (यजु 1/4)। इस कृति में दर्शायी गई विधियों से गायत्री-साधना द्वारा ये शक्तियाँ जगाई जा सकती हैं।

प्राक्कथन


गायत्री मंत्र विश्व का प्राचीनतम् मंत्र है। यह ऋग्वेद संहिता में एक स्थान पर यजुर्वेद संहिता में तीन स्थानों पर और सामवेद संहिता में एक स्थान पर मिलता है। ऋग्वेद संहिता और सामवेद संहिता में प्रणव और व्याहृतियों को छोड़कर मंत्र इस प्रकार आया है-

तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्।

ऋग्वेद संहिता 3/62/10
     सामवेद उत्तरार्चि के अ. 13/3

अर्थ- ‘‘जो हमारी बुद्धियों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करते हैं उन सविता देवता के वरण करने योग्य विकार-नाशक, दिव्यता करने वाले तेज को हम धारण करते हैं।’’
‘यजुर्वेद संहिता’ में यह मंत्र इसी रूप में तीन स्थानों पर आया है- 1. अध्याय 3/35, 2. अध्याय 22/9 तथा 3. अध्याय 30/2 तीनों स्थानों पर इसके अर्थ में यत्किंचित अन्तर दिखाई देता है जो प्रसंगवश आया प्रतीत होता है।

यजुर्वेद संहिता अध्याय 3/35

मंत्रार्थ- सम्पूर्ण जगत् के जन्मदाता सविता (सूर्य) देवता की उत्कृष्ट ज्योति का ध्यान करते हैं जो (तेज सभी सत्कर्मों को सम्पादित करने के लिये) हमारी बुद्धि को प्रेरित करता है।
सूर्य को सम्पूर्ण जगत् का जन्मदाता कहकर ‘सूर्य आत्मा जगतस्थुषश्च’ (ऋ. 1/115/1) ऋषियों ने न केवल सूर्य में पदार्थ की पूर्णता दिखाई है जैसा कि वैज्ञानिकों ने भी माना है, अपितु सारे गुण-सूत्र मानव को सूर्य भगवान् से ही प्राप्त हुए हैं- ऐसा (आध्यात्मिक दृष्टि से) स्पष्ट मृत व्यक्त किया है।

यजुर्वेद संहिता अध्याय 22/9

मंत्रार्थ- ‘सर्वप्रेरक, पाप-नाशक वरण करने योग्य देव (सत् चित् आनन्द) स्वरूप सविता देव को हम धारण करते हैं वे (उत्पादक प्रेरक देव) हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर चलने (श्रेष्ठ कर्म करने) की प्रेरणा प्रदान करें।’

यजुर्वेद संहिता अध्याय 30/2

मंत्रार्थ- ‘हम उन सर्वप्रेरक सविता के तेज को धारण करते हैं जो हमारी बुद्धि (कर्म) को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करें।’

प्रणव एवं व्याहृतियों (ऊँ भूर्भुव: स्व:) सहित इस मन्त्र का अर्थ इस प्रकार किया गया है-
‘‘उस प्राण स्वरूप, दु:ख नाशक, सुख स्वरूप श्रेष्ठ, तेजस्वी, पाप-नाशक, देव स्वरूप, परमात्मा को हम अन्तरात्मा में धारण करें, वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करे।’’

सभी धर्म-सम्प्रदायों, मत, मजहबों के व्यक्ति अपने उत्कर्ष के लिए गायत्री-साधना कर सकते हैं। भारत इसी मंत्र की साधना से विश्व गुरु बना था। यही वह मंत्र है जिसने इसे सोने की चिड़िया बनाया था और यहाँ दूध-दही की नदियां बहाई थीं। यदि आज भी हम उसी गौरव की पुनर्प्राप्ति चाहते हैं तो नि:शंक होकर हमें गायत्री-साधना अविलम्ब प्रारम्भ करनी होगी।
वेदों की रचना आज से 1, 95, 58, 85, 099 वर्ष पूर्व हुई थी। सर्वप्रथम प्रजापति ब्रह्मा के सामने गायत्री मंत्र ही प्रकट हुआ था उसी की व्याख्या स्वरूप चारों वेद रचे गये। करोड़ों ऋषियों, मुनियों, अवतारों एवं महापुरुषों ने अपना व्यक्तित्व निखारने में इसी मंत्र का आश्रय लिया। इस मंत्र की प्राचीनता और प्रभावोत्पादकता असंदिग्ध और स्वयं सिद्ध है। गायत्री साधना पर अब तक दो हजार से अधिक ग्रन्थ लिखे जा चुके हैं। पं. श्रीरामशर्मा आचार्य ने गायत्री साधना के अपने अनुभवों को जोड़ते हुए इन ग्रन्थों का सार गायत्री महाविज्ञान भाग 1, 2, 3 में प्रस्तुत किया है। अपने अनुभवों के आधार पर हम नि:संकोच कह सकते हैं कि संसार की कोई समस्या ऐसी नहीं है जिसे गायत्री-साधक न सुलझा सके। भूतल पर यह प्रत्यक्ष पारस, कल्पवृक्ष एवं कामधेनु है। जो गायत्री-साधना करेगा वह अपने अन्दर अद्भुत परिवर्तन देखेगा यह अनुभूत सत्य है।
भगवती पॉकेट बुक्स के हम हृदय से आभारी हैं उन्होंने हमारी अनुभूति को अभिव्यक्ति प्रदान करके एक लोकोपकारक कार्य किया है। युग ऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य, डॉ. प्रणव पंड्या- निदेशक ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान, हरिद्वार एवं गीता प्रेस गोरखपुर के प्रकाशनों से इस कृति के प्रणयन में बड़ी सहायता मिली है।
हम इनके रचनाकारों एवं प्रकाशकों के कृतज्ञ हैं। आशा है इस कृति को ललककर अपनायेंगे।

डॉ. बी.एल. वत्स

1
गायत्री साधना क्यों ?


आज दु:ख-दावानल में सारा संसार जल रहा है। कहीं आतंकवाद, कहीं भाषावाद, कहीं धर्म सम्प्रदायवाद, कहीं जातिवाद, कहीं भ्रष्टाचार, कहीं अनैतिकता जैसी अलगाववादी शक्तियाँ ताण्डवनृत्य कर रही हैं। असुरता दिन पर दिन अपने पैर फैलाती जा रही है और मानवता शशक-श्रृंगवत अदृश्य होती जा रही है। आज बड़े-बड़े विचारक, दार्शनिक, समाज-सुधारक, विद्वान, मनीषी भी इन विषम परिस्थितियों में सुधार का कोई कारगर उपाय सुझा पाने में असमर्थ हैं। यदि यदाकदा कहीं कोई ज्योतिरिंगण-सा टिमटिमाता नजर भी आ जाय तो दुष्प्रवृत्तियों के भीषण जाल-जंजाल में अन्ध तिमिर में एकाध प्रकाश-किरण भर का योगदान दे पाता है जो गहनतिमिर में नगण्य सा है।
दुराचार, भ्रष्टाचार, दोष-दुर्गुणों के नक्कारखाने में तूती की आवाज भला कौन कब सुन पाया है ? सृष्टि की अप्रतिम रचना मानव आज कितना निरुपाय है कितना थक गया है ? कितना विवश विह्नल है इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। उसकी करुण कथा कहने के लिए भी नहीं मिलते हैं। न शहर में चैन न गाँव में आराम। जंगलों में रहना भी अब निरापद नहीं रह गया जितना अतीत काल में था। अब तो तपोवन भी नहीं रहे। अन्धतामिस्र की तरह मानव प्राणी इधर से उधर दौड़ता-भागता फिरता है सोचता है कोई ठौर-ठिकाना मिल जाय जहाँ चैन की साँस ले सकूँ पर वह कल्पना ही बनकर रह जाती है।

अपनी गौरव-गरिमा से आकाश को छू लेने वाले देश की यह स्थिति कैसे हो गई ? यह एक विचारणीय प्रश्न है ? हमने प्राय: एक हजार वर्ष की दासता सही।
इस बीच हमारी संस्कृति के साथ खूब खिलवाड़ हुआ। ऐसे भी प्रयत्न हुए कि इसे समूल नष्ट कर दिया जाय।
ब्रिटिश-शासन काल में लार्ड मैकाले ने ऐसी शिक्षा प्रणाली विकसित की जिसमें रंग-रूप में यहाँ का निवासी भले ही भारतीय दिखे पर उसकी आदतें, खान-पान, आचार-विचार, पहनावा सब कुछ अंग्रेजों जैसा हो जाये। उसकी नीति काम कर गई और आज सारा देश उसी का अनुकरण कर रहा है। भारतीय संस्कृति की न तो कोई बात करता है, न सुनना चाहता है इसका परिणाम यह हुआ कि हम अपनी संस्कृति से कटते चले गये यदि यह कहें कि उसे सर्वांश में भूल ही गये है तो भी अत्युक्ति न होगी। बस यहीं से हमारी विपदा की कहानी शुरू होती है। स्वर्ग के गर्वोन्नत शिखर से फिसल कर आज यह धरती पाताल की अतल गहराइयाँ छूने के लिए विवश हो गई है।

हम क्या करें जिससे इस विपदा से छुटकारा मिल सके इसके लिए दार्शनिकों, मनीषियों, समाज-सुधारकों और शिक्षा-शास्त्रियों ने अनेक उपाय सुझाए पर वे इस देश की धरती पर विदेशी फसल उगाना चाहते थे इसलिए उनके सभी प्रयत्न निष्फल हुए और कोई समस्या सुलझ न सकी। आज जनमानस सैकड़ों समस्याओं से आक्रान्त है किन्तु सैकड़ों रोगों का इलाज भी अन्तत: खोज लिया गया और वह है गायत्री-साधना।


.
गायत्री-साधना ही क्यों ?


सैकड़ों मतों, सम्प्रदायों, मजहबों, धर्मों एवं उपासना-पद्धतियों के इस देश में अकेली गायत्री-साधना की बात करें तो अनेक प्रश्न उठ खड़े होंगे।
1.    हमारा अपना ही मत/मजहब/ धर्म सर्वश्रेष्ठ है फिर गायत्री साधना क्यों करें ?
2.    क्या अपना मत /मजहब/ धर्म छोड़ कर गायत्री साधना कर सकते हैं ?
3.    जब अपने धर्म में गहरी आस्था रखते हुए भी हमारे हजारों मन्दिर टूटे, सोमनाथ मन्दिर लुटा और ऐसे-ऐसे लोमहर्षक काण्ड हुए कि डेढ़ लाख लोगों को आक्रामक की तलवार के धार उतरना पड़ा तो क्या गायत्री-साधना हमें भविष्य में ऐसी सम्भावित विपदाओं से उबार सकती है ?
4.    आर्थिक स्थिति की बात कहें तो आज भी प्राय: आधा देश गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रहा है। अमीर-गरीब की खाई दिन पर दिन चौड़ी होती जा रही है। कृषि प्रधान देश होते हुए भी ‘किसान’ में मैथिलीशरण गुप्त को लिखना पड़ा-

कृषि ही थी तो विभो बैल ही हमको करते।
करके दिन भर काम शाम को चारा चरते।
कुत्ते भी हैं किसी तरह दग्धोदर भरते।
करके अन्नोत्पन्न हमीं हैं भूखों मरते।

 

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