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कहानी संग्रह >> लाल गुलाब

लाल गुलाब

मेहरुन्निसा परवेज

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1702
आईएसबीएन :81-7315-577-1

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ कहानी संग्रह....

Lal gulab

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वह हतप्रभ होकर विमूढ़-सी रह गई। शरीर बर्फ की सिल्ली-सा ठंडा बेजान पड़ गया था। बेटे के मन की आहट-भनक वह क्यों नहीं ले पाईं ? क्यों अपने कामों में इतना अधिक व्यस्त रही ? बेटे ने चेन अपने लिए नहीं किसी और के लिए माँगी होगी, यह विचार क्यों नहीं मन में आया ? आँखों से अविरल अश्रुधारा बहती रही, उसका आँचल भिगोती रही। आँखों के आगे की धुंध छँटी भी तो कब, जब बेटा नहीं रहा। बेटे के मन की दीवार पर कान लगाकर वह क्यों उसके भीतर का कुछ नहीं सुन सकी ? बच्चे की भूख से तो माँ की छाती में दूध भर जाता है, फिर वह अपने बच्चों की जरूरतों को, आवश्यकताओं को क्यों नहीं समझ पाई ? उसे लगा जैसे उसका पूरा शरीर काठ का टुकड़ा होकर रह गया है। शरीर की सारी चेतना शून्य हो गई है। शरीर जड़-सा हो चुका है। हाथ उठाने की भी शक्ति नहीं रही थी जैसे। मुँह से एक शब्द नहीं फूटा। गूँगे की तरह वह बस टुकुर-टुकुर देखती रह गई। पहले भी अंधकार था, पर इतना नहीं। अब तो जीवन में घुप्प काला अंधकार है चारों तरफ। वह कितनी भाग्यहीन, अभागिनी माँ थी, उसने अपना सर झुका लिया। आँसू आँचल भिगोते रहे।

इसी संग्रह से


सुप्रसिद्ध लेखिका मेहरुन्निसा परवेज का नवीनतम कथा संग्रह, जो भावना प्रधान होने के साथ-साथ संबंधों की ऊष्मा से अनुप्राणित है। इसमें संगृहीत कहानियों के अपने विविध अर्थ, मर्म एवं सरोकार हैं इनमें वर्णित वात्सल्य, त्याग व समर्पण जैसे प्रेरक गुणों के साथ ही इसकी मार्मिकता मन के तारों को झंकृत करती है। ये सशक्त कहानियाँ नारी जीवन की त्रासदियों को उकेरती हैं।

बेटी सिमाला के जन्मदिन पर
उसे तथा उसकी नई पीढ़ी को समर्पित एक सत्य !

हर आदमी अपने हिस्से की जिंदगी जीता है। सबकी अपने हिस्से की साँस, भूख, दुःख और सुख होते हैं। कोई भी इनसान-चाहे वह कितना अपना हो, वह हमारे हिस्से की जिंदगी नहीं जी सकता। यह जीवन का यथार्थ है। मैं अपनी नई पीढ़ी से यही कहना चाहती हूँ कि वह जितनी जल्दी हो, इस सत्य को जान ले।

मेहरुन्निसा परवेज

मेरी बात


बचपन के वे मीठे-सुखद दिन कितने भले लगते हैं, जब पालने में ही बच्चा झूले में ऊपर लटकती नकली चिड़िया को असली समझकर हुंकारी भरता है। गुड्डे गुड़िया का खेल उन्हें प्रभावित करता है, उन्हें सजाने- सँवारने में ही वह गुम रहता है। नकली-चमकीले पत्थरों को ढूँढकर इकट्ठा करने में ही सारी दोपहरिया लगा देता है। उन्हें इकट्ठा करने में उसे लगता है, जैसे कुबेर का धन जमा हो गया है। कनेर और इमली के बीज कीमती हीरे-मोती से अधिक कीमती लगते हैं, कोई यदि छीन लेता तो नन्हा मन कितना आहत हो जाता है। छीनने वाला व्यक्ति सबसे बड़ा दुश्मन लगता है। नकली गुड्डे-गुड़िया की दुनिया ही असली लगती है। खेल अथवा नाटक ही उसके मनोरंजन के साथ उसे दुनिया की सीख-समझ देता है। आनेवाले जीवन का पाठ वह अपनी दुनिया से ही सीखता है। जीवन में जब असली हीरे-मोती, धन- गृहस्थी, रिश्ते-नाते सब बड़े दुःख के कारण बन जाते हैं। तरह-तरह की पीड़ा, यातना फरेब कष्ट से मनुष्य घिर जाता है। घर-घर का खेल-खेलते बाल मन को क्या पता कि बड़े होने पर यही दुःखों का कारण बन जाएँगे, तब नकली खेल-सपने कितने सुखद लुभावने लगते हैं। वे नकली जरूर थे, उनकी कोई औकात, कीमत- मूल्य नहीं था, पर उसमें पीड़ा, धोखा और दुःख का जहर भी तो भरा नहीं था।

जीवन में दुःख और सुख हमेशा तराजू के दो पलड़ों की तरह ही मिलते हैं, जो कभी बराबर नहीं हो पाते। बिलकुल वैसे ही जैसे बचपन में सुनी कहानी की तरह कि दो बिल्लियाँ एक रोटी को लेकर आपस में लड़ रही थीं, तभी एक चतुर बंदर आ गया और उसने न्याय करने की बात कही। झट तराजू निकाला और आधी-आधी रोटी दोनों पलड़ों पर रखी, जो पलड़ा जरा भी झुक जाता, उसमें रखी रोटी वह झट तोड़कर खा लेता। देखते-ही-देखते उसने इसी चतुराई से पूरी रोटी हड़प ली और दोनों बिल्लियों ताकती रह गईं। ऐसे ही जिंदगी भी इसी बंदर बाँट की कहानी है। वह चतुराई से हमें ठगती रहती है और हम मूर्ख बन जाते हैं।

मानव मन भ्रम के एक भँवर में फँसा रहता है। यह भ्रम इतना व्यापक होता है कि यथार्थ जिंदगी से भी अधिक प्रभावी होता है। वह उड़ते बादलों में आकृतियाँ, चहकते पक्षियों में संगीत तथा नाचते मोर में नृत्य देखता है। वास्तव में देखा जाए तो जीवन जब बदरंग हो जाता है तब अपने यथार्थ से कहने के लिए या जीवन की नीरसता से मुक्ति पाने के लिए कल्पना का सहारा लेकर, अमूर्त को मूर्त बनाकर नए-नए स्वाँग भरता है। अपने निजी सुख और दुःख को वह अपनी कला में उड़ेल देता है। दूसरे पात्रों के माध्यम से वह अपने को ही जीता है।
जाने कितने मुखौटे चढ़ाकर मनुष्य को जीना पड़ता है। जीवन के हर दुःख-दर्द व सुख को वह अभिनय के माध्यम से व्यक्त करता है। जो जितना खूँद- खूँदकर अपनी माटी तैयार करता है, वह उतने ही सुंदर आकृति के खिलौने बना सकता है। यह जीवन का कटु सत्य तथा सार है। हीरे को भी अपनी चमक के लिए तराश की आवश्यकता पड़ती है।

24 अक्टूबर, 2005

मेहरुन्निसा परवेज


लाल गुलाब



वह सुबह उठ गई थी। घर के दरवाजे- खिड़की खोलते ही यूकेलिप्टस की तेज मादक गंद ने उसे भीतर तक भिगो दिया। आँधी-पानी ने यूकेलिप्टस के ऊँचे-ऊँचे पेड़ों को एकदम नंगा कर दिया था। पत्तियाँ चारों ओर बिखरी पड़ी थीं। उनकी गंध हवा में समाई हुई थी। मोगरे के फूलों जड़ी-बूटियों और पत्तियों की सोंधी महक भी उसमें शामिल थी। उसने जोर से साँस खींचकर उस मोहक गंध को अपने भीतर खींचा। लगा, जैसे उसे बहुत आराम, सुख और राहत-सी मिली है।
यह 28 अगस्त की भोर थी। लगातार दो-तीन माह सूरज की तपन के बाद पानी हफ्ता भर बरसकर आज थमा था। धूल भरी आँधी और तेज झंझावात के साथ पानी की बूँदे सरककर धरती पर दौड़ी थीं। गरमी से झुलसे लोगों ने पहली बार ठंडक से चैन की साँस ली थी। तेज गरम हवा के थपेड़ों के बाद तेज अंधड़ के साथ बूँदाबाँदी हुई थी, जो बाद में तेज बारिश में बदल गई। काले बादलों ने भी जैसे शहर के ऊपर अपना तंबू डालकर डेरा गाड़ दिया था। बिजली की चमक और बादलों की गड़हड़ाहट ने सारी धरती को कँपा दिया था।

शहर का जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया था। घरों के छप्पर उड़ गए थे। कहीं-कहीं बड़े-बड़े पेड़ धराशायी होकर सड़कों पर आ गए थे। शहर की बिजली व्यवस्था कहीं-कहीं ठप्प हो गई थी। भयभीत बगुले तथा पक्षी आकाश में चीखते भाग रहे थे। पक्षियों का कोलाहल तेज हो गया था। मौसम ठंडा हो गया था।
चारों ओर अभी भी पानी-ही-पानी दिख रहा था। बड़े- बड़े पेड़ अभी भी घुटने-घुटने पानी में डूबे खड़े थे। पानी अभी नहीं बरस रहा था, परंतु बाहर का सारा दृश्य पानी से सराबोर था।

आज उसके स्वर्गीय बेटे समर का जन्मदिन था। आज वही सौभाग्यशाली दिन था जब वह बेटे की माँ बनी थी। आज से अठारह बरस पहले जब वह भोर आई थी, उस भोर में और आज की भोर में कितना अंतर था। कितनी सुहावनी भोर थी वह। लगा था जैसे सारा संसार उसकी खुशी में शामिल है और नगाड़े बजा रहा है; परंतु अब लग रहा है कि आज की ही तरह उजड़ा बेरौनक उसका भाग्य है। काल की अंधड़-आँधी ने उसके जमे पैर उखाड़कर उसे भी सड़क पर धराशायी वृक्ष की तरह फेंक दिया था। उसके सपने भी ऐसे पत्तों की तरह झड़ गए थे। और वह नंगी उघाड़ी होकर रह गई थी।
आज तो कब्रिस्तान जाना है। दो दिन से वह खुदा से दुआ कर रही थी कि पानी थम जाए। खुदा ने वैसे तो कभी भी जीवन में उसकी नहीं सुनी, जो चाहा या कहा, ठीक उसका उलटा हुआ था। बेटे की बीमारी के समय उसने न जाने कितनी प्रार्थनाएँ की थीं, कितनी अरजी लगाई, थीं, कितने करार किए थे कि वह यह करेगी, वह करेगी; परंतु खुदा को तो अपनी मनमानी करनी थी और वही उसने किया। आज जाने कैसे उसने सुन लिया था और पानी रुक गया था। धुली पोंछी, साफ-सुथरी भीगी- भीगी बिना पानीवाली भोर आज उसके द्वार पर दस्तक दे रही थी।
नहाकर वह तैयार हो गई। पति से जल्दी तैयार होने का आग्रह करने लगी। वह जल्दी से बेटे की कब्र पर जाकर फूल रखना चाहती थी।

पति ने उठकर खिड़की के बाहर ताकते हुए पूछा, "कब्रिस्तान कैसे जा पाएँगे ? वहाँ तो पानी- ही- पानी भरा होगा न ?"
"तो," वह एकदम बिफर गई। लगा सारा धैर्य छूटा जा रहा है, पानी बरस गया तो क्या हम बेटे की कब्र पर नहीं जाएँगे ? आज उसका जन्मदिन है। हर दिन की अपनी अहमियत, अपनी महक होती है। उसे दूसरे दिन नहीं किया जा सकता।"



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