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चमत्कारिक दिव्य संदेश

उमेश पाण्डे

प्रकाशक : भगवती पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1674
आईएसबीएन :000000000

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भारतीय प्राचीन विधाओं एवं आध्यात्म का गुलदस्ता चमत्कारिक दिव्य संदेश

Chamatkarik Dvya Sandesh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सम्पादकीय

यह एक सर्वविदित तत्थ है कि प्राचीन भारतवर्ष कई बातों में, विशेष रूप से आध्यात्म, ज्योतिष, गणित, चिकित्सा, विज्ञानादि के क्षेत्र में विश्व का गुरु रहा है। भारतीय प्राचीन ग्रंथ इस बात का जीवन्त प्रमाण हैं जिनमें अनेकाअनेक विचित्र तथा तथ्यात्मक वर्णन भरे हैं। सही मायनों में ये ग्रन्थ सम्पूर्ण विश्व के लिए आज भी एक विशाल खजाने से कम नहीं हैं। ‘चमत्कारिक दिव्य संदेश’ ने इस विशाल खजाने में से कुछ रत्नों को चुन-चुनकर आपके समक्ष रखने का बीड़ा उठाया है ताकि हममें से अधिकाकाधिक लोग लाभान्वित हो सकें। हमारे इस अंक में तथा आगामी अंकों में आप आध्यात्म ज्योतिष, प्राचीन चिकित्सा पद्धतियाँ, मानव मात्र के कल्याण प्राचीन विज्ञान पद्धितियाँ, जैसे-वास्तु, योग तथा और भी अनेक ज्ञानावर्द्धक, रोचक, तथ्यात्मक तथा परमउपयोगी सामग्री पायेंगे। ‘‘चमत्कारिक दिव्य संदेश’’ का प्रवेशांक आपके समक्ष है। यह अंक आपको कैसा लगा ? कृपया हमें अवश्य लिखें। आपके सुक्षावों से इसके आगामी अंकों को और भी निखारा जा सकेगा।

सम्पादक

श्रीहनुमान जी का त्रिकाल-स्मरण



श्री हनुमानजी के अत्यन्त श्रद्धालु उपासकों को चाहिये कि वे तीनों काल श्री हनुमानजी का स्मरण-ध्यान करें। किंतु यदि ऐसा सम्भव न हो तो प्रातः या सायंकाल ही वैकालिक ध्यान-पूजन एक साथ भी कर सकते हैं। ध्यान एवं श्लोक भावार्थसहित यहाँ दिये जा रहे हैं। जो व्यक्ति श्री हनुमानजी का त्रिकाल स्मरण श्रद्धापूर्वक करता है वह इस लोक में अनेक संकटों से मुक्त होता है तथा उस पर श्री हनुमानजी की कृपा सदैव बनी रहती है।

(1)


प्रातः स्मरामि हनुमन्तमनन्तवीर्यं
श्रीरामचन्द्रचरणाम्बुजचञ्चरीकम्।
लंङ्कापुरीदहननन्दितदेववृन्दं
सर्वार्थसिद्धिमदनं प्रथितप्रभावम।।

जो श्रीरामचन्द्रजी के चरण कमलों के भ्रमर हैं, जिन्होंने लंकापुरी दग्ध करके देवगण को आनन्द प्रदान किया है, जो सम्पूर्ण अर्थ-सिद्धियों के आकार और लोकविश्रुत प्रभावशाली हैं, उन अनन्त पराक्रमशाली हनुमान का मैं प्रातः काल स्मरण करता हूँ।


(2)


माध्यं नमामि वृजिनार्णवतारणैका
धारं शरण्यमुदितानुपम प्रभावम्।
सीताऽऽधिसिन्धुपरिशोषणकर्मदक्षं
वन्दारुकल्पतरुमव्ययमाज्जनेयम्।।


जो भवसागर से उद्धार करने के एकमात्र साधन और शरणागत के पालक हैं जिनका अनुपम प्रभाव लोकविख्यात है, जो सीताजी के मानसिक पीड़ारुपी सिन्धु के शोषक कार्य में परम् प्रवीण और वन्दना करने वालों के लिए कल्पवृक्ष हैं, उन अविनाशी अंजनानंदन हनुमानजी को मैं मध्यान्हकाल में प्रणाम करता हूं.

(3)


सायं भजामि शरणोपसृताखिलार्ति-
पुञ्जुप्रणाशनविधौ प्रथितप्रतापम्।
अक्षान्तकं सकलराक्षसवंशधूम-
केतुं प्रमोदितविदेहसुतं दयालुम्।।


शरणागतों के सम्पूर्ण दुःखसमूह का विनाश करने में जिनका प्रताप लोक-प्रसिद्ध है, जो अक्षकुमार का वध करने वाले और समस्त राजवंश के लिए धूमकेतु (अग्नि अथवा केतु ग्रह के तुल्य संहारक) हैं एवं जिन्होंने विदेहनन्दिनी सीताजी को आनन्द प्रदान किया है, उन दयालु हनुमान का मैं सायंकाल भजन करता हूँ।

-सागर ‘कल्याण’ से

शरीर का मूल्य


एक व्यक्ति महात्मा टालस्टाय के पास आकर बोला-मैं बहुत गरीब हूं। मेरे पास एक पैसा भी नहीं है। टायस्टाल ने कहा कि एक पैसा भी नहीं है तो सुनो, मेरा परिचित एक व्यापारी है, वह आदमी की आँखें खरीदता है और उसके बदले में दस हजार रुपये देता है, तुम्हें आँखें बेचनी हो तो मैं बात करूँ।
गरीब बोला-नहीं।
टायस्टाय बोला हाथ भी खरीदता है, उसके बदले में दस हजार रुपये मिलेंगे, बोलो बेचना है ?
गरीब बोला-नहीं, नहीं।
टालस्टाय ने कहा-वह पैर भी खरीदता है, उसके भी दस हजार रुपये मिलेंगे, बेच दो, तुम्हारी गरीबी दूर हो जायेगी।
गरीब ने कहा-‘महात्मन्’ आप, ऐसी बातें क्यों कर रहे है ?
टायस्टाय मैं ठीक कह रहा हूं तुम्हें धनवान बनना है। गरीबी दूर करनी है। अपना पूरा शरीर एक लाख में बेच दो।
गरीब ने कहा-‘एक लाख तो क्या’ करोड़ भी दे तो भी मैं अपना तन नहीं बेंच सकता। महात्मा हँसकर बोले-जो व्यक्ति अपना शरीर एक करोड़ में नहीं बेचना चाहता है, वह मेरे पास आकर कहता है कि मैं गरीब हूँ, मेरे पास एक रुपया नहीं है तो इससे बढ़कर और हास्यास्पद क्या हो सकता है ?
टायस्टाल ने उस गरीब व्यक्ति से कहा कि बन्धु तुम्हारे सभी अंग और यह भी तन अपूर्व सम्पत्ति का भण्डार है। इनसे तुम श्रम करने लगो। परिश्रमी व्यक्ति के सामने सोना, चाँदी का मूल्य कुछ नहीं है। मानव जीवन बहुमूल्य है, इसके महत्त्व को समझो और आलस्य त्यागकर इसका सदुपयोग करो।


हनुमान जी के भक्त पर शनि की भी कृपा बनी रहती है



भक्तवर हनुमान श्रीराम कथा के अनन्य प्रेमी हैं।
परम प्रभु श्रीराम की मधुर लीला कथा श्रवण करते ही उनका शरीर पुलकित हो जाता है, उनके नेत्र प्रेमाश्रु से भर जाते हैं। उन्हें अलौकिक आनन्द की उपलब्धि होती है, इस कारण जहाँ भी श्रीराम कथा होती है, श्रीराम-चरण चंचरीक हनुमानजी वहाँ उपस्थिति रहते हैं और जब अपने प्राणाराध्य की कथामूल-सुधा के पान का अवसर नहीं रहता, तब अपने प्रभु के ध्यान में तल्लीन हो जाते हैं।
एक बार की बात है। दिनान्त समीप था। सूर्यदेव अस्ताचल के समीप पहुँचे चुके थे। शीतल-मन्द समीर बह रहा था। भक्तराज हनुमान राम-सेतु के समीप ध्यान में अपने परमप्रभु श्रीराम की भुवनमोहक झाँकी का स्मरण करते हुए आनन्द विह्यल थे उनके रोम-रोम पुलकित थे। ध्यानावस्थित आसनेय को बाह्य जगत् की समृति भी न थी।

उसी समय सूर्य-पुत्र शनि समुद्र तट पर टहल रहे थे। उन्हें अपनी शक्ति एवं पराक्रम का आत्याधिक अहंकार था। वे मन-ही-मन सोच रहे थे- ‘‘मुझमें अतुलनी शक्ति है। सृष्टि में मेरी समता करने वाला कोई नहीं है। समता की बात तो दूर मेरे आगमन के संवाद से बड़े-बड़े रणधीर एवं पराक्रमशील मनुष्य ही नहीं, देव-दैत्य तक भी काँप उठते हैं, व्याकुल होने लगते हैं। मैं क्या करूँ, किसके पास जाऊँ, जहां दो-दो हाथ कर सकूँ। मेरी शक्ति का कोई उपयोग नहीं हो रहा है।’’

इस प्रकार विचार करते हुए शनि की दृष्टि ध्यानमग्न श्रीरामभक्त हनुमान पर पड़ी। उन्होंने वज्रांग महावीर को पराजित करने का निश्चय किया। युद्ध का निश्चय कर शनि आंजनेय के समीप पहुँचे। उस समय सूर्यदेव की तीक्ष्णतम किरणों में शनि का रंग अत्यधिक काला हो गया था। भीषणतम आकृति थी उनकी। पवन कुमार के समीप पहुँचकर अतिशय उद्दण्डता का परिचय देते हुए शनि ने अत्यन्त कर्कश स्वर में कहा-बंदर ! मैं प्रख्यात शक्तिशाली शनि तुम्हारे सम्मुख उपस्थिति हूँ और तुमसे युद्ध करना चाहता हूँ। तुम पाखण्ड त्यागकर खड़े हो जाओ।
तिरस्कार करने वाली अत्यंन्त कटुवाणी सुनते ही भक्तराज हनुमान ने अपने नेत्र खोले और बड़ी ही शालीनता एवं शान्ति से पूछा-महाराज ! आप कौन हैं और यहाँ पधारने का आपका उद्देश्य क्या है ?’’
शनि ने अहंकारपूर्वक उत्तर दिया-‘‘मैं परम तेजश्वी सूर्य का परम पराक्रमी पुत्र शनि हूँ। जगत् मेरा नाम सुनते ही काँप उठता है। मैंने तुम्हारे बल-पौरुष की कितनी गाथायें सुनी हैं। इसलिए मैं तुम्हारी शक्ति की परीक्षा करना चाहता हूं। सावधान हो जाओ, मैं तुम्हारी राशि पर आ रहा हूँ।’’
अंजनानन्दन ने अत्यन्त विनम्रतापूर्वरक कहा- ‘‘शनि –देव ! मैं वृद्ध हो गया हूं और अपने प्रभु का ध्यान कर रहा हूँ। इसमें व्यवधान मत डालिये। कृपापूर्वक अन्यत्र चले जाइये।’
मदमत्त शनि ने सगर्व कहा-‘मैं कहीं जाकर लौटना नहीं जानता और जहां जाता हूं वहाँ अपना प्राबल्य और प्राधान्य तो स्थापित कर ही देता हूँ।’’
कपिश्रेष्ठ ने शनिदेव से बार-बार प्रार्थना की-‘‘महात्मन ! मैं वृद्ध हो गया हूं। युद्ध करने की शक्ति मुझमें नहीं है। मुझे अपने भगवान श्री राम का स्मरण करने दीजिये। आप यहाँ से जाकर किसी और वीर को ढूँढ़ लीजिये। मेरे भजन-ध्यान में विघ्न उपस्थित मत कीजिये।’’
‘‘कायरता तुम्हें शोभा नहीं देती।’’ अत्यन्त उद्धत शनि ने मल्लविद्या के परमाराध्य वज्रांग हनुमान की अवमानना के साथ व्यंग्यपूर्वक तीक्ष्ण स्वर में कहा- ‘‘तुम्हारी स्थिति देखकर मेरे मन में करुणा का संचार हो रहा है, किन्तु मैं तुमसे युद्ध अवश्य करूँगा।’
इतना ही नहीं शनि ने दुष्टग्रहनिहन्ता महावीर का हाथ पकड़ लिया और उन्हें युद्ध के लिए ललकारने लगे। हनुमान ने झटककर अपना हाथ छुड़ा लिया। युद्ध-लोलुप शनि पुनः भक्तवर हनुमान का हाथ पकड़कर उन्हें युद्ध के लिये खींचने लगे।
‘आप नहीं मानेंगे।’ धीरे से कहते हुए पिशाचग्रहघात कपिवर ने अपनी पूछ बढ़ाकर शनि को उसमें लपेटना प्रारम्भ कर दिया। कुछ ही क्षणों में अविनीत सूर्य-पुत्र क्रोधसंरक्तलोचन समीरात्मक की सुदृढ़ पूँछ में आबद्ध हो गये। उनका अहंकार उनकी शक्ति एवं उनका पराक्रम व्यर्थ सिद्ध हुआ। वे सर्वथा अवश, असहाय एवं निरुपाय होकर दृढ़तम बंधन की पीड़ा से छटपटा रहे थे।
‘अब राम सेतु की परिक्रमा का समय हो गया।’ अंजनानन्दन उठे और दौड़ते हुए सेतु की प्रदक्षिणा करने लगे। शनिदेव की सम्पूर्ण शक्ति से भी उनका बन्धन शिथिल न हो सका। भक्तराज हनुमान के दौड़ने से उनकी विशाल पूँछ वानर-भालुओं द्वारा रखे गये शिलाखण्डों पर गिरती जा रही थी। वीरवर हनुमान दौड़ते हुए जान-बूझकर भी अपनी पूँछ शिलाखण्डों पर पटक देते थे।
शनि की बड़ी अद्भुद एवं दयनीय दशा थी। शिलाखण्डों पर पटके जाने से उनका शरीर रक्त से लतपथ हो गया। उनकी पीड़ा की सीमा नहीं थी और उग्रवेग हनुमान की परिक्रमा में कहीं विराम नहीं दिख रहा था।, तब शनि अत्यंत कातर स्वर में प्रार्थना करने लगे-‘करुणामय भक्तराज ! मुझ पर कृपा कीजिये। अपनी उद्दण्डता का दण्ड मैं पा गया। आप मुझे मुक्त कीजिये। मेरा प्राण छोड़ दीजिये।’
दयामूर्ति हनुमान खड़े हुए। शनि का अंग-प्रत्यंग लहूलुहान हो गया था असह्य पीड़ा हो रही थी उनकी रग-रग में। विनीतात्मा समीरात्मज ने शनि से कहा-‘यदि तुम मेरे रक्त की राशि पर कभी न आने का वचन दो तो मैं तुम्हें मुक्त कर सकता हूँ और यदि तुमने ऐसा नहीं किया तो मैं तुम्हें कठोरतम दण्ड प्रदान करूँगा।’
‘सुरवन्दित वीरवर ! निश्चय ही मैं आपके भक्त की राशि पर कभी नहीं जाऊँगा।’ पीड़ा से छटपटाते हुए शनि ने अत्यन्त आतुरता से प्रार्थना की-‘आप कृपापूर्वक मुझे शीघ्र बन्धन-मुक्त कर दीजिये।’
शरणागतवत्सल भक्तवर हनुमान ने शनि को छोड़ दिया। शनि ने अपना शरीर सहलाते हुए गर्वापहारी मारुतात्मज के चरणों में सादर प्रणाम किया और वे चोट की असह्य पीड़ा से व्याकुल होकर अपनी देह पर लगाने के लिए तेल माँगने लगे। उन्हें जो तेल प्रदान करता उसे वे सन्तुष्ट होकर आशीष देते। कहते हैं, इसी कारण अब शनिदेव को तेल चढ़ाया जाता है।

न तो कोई तुम्हारा शत्रु है और न ही कोई तुम्हारा मित्र दरअसलस तुम्हारा अपना व्यवहार ही तुम्हारे शत्रु तथा मित्र बनाने के लिये। उत्तरदायी है।
-चाणक्य

तुलसी साहित्य में ज्योतिषशास्त्र



जिस समय भारत में मुगलों का शासन रहा उसी समय देश में भक्तिरस की भी गंगा बह रही थी। मुगलों के शासन के दौरान हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल का साम्राज्य था। भक्तिकाल में अनेक सदसाहित्य रचे गये जो न केवल साहित्यिक दृष्टि में महत्त्वपूर्ण थे बल्कि इनमें मन को शांति और संतोष देने वाले तत्व भी शामिल थे। इस काल के अनेक ग्रन्थ कई दृष्टि से विलक्षण साबित हुए। उदाहरणार्थ गोस्वामी तुलसीदासजी द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ और सूरदासजी के द्वारा रचित ‘सूरसागर’। भक्तिकालीन रचनाओं में जहाँ हमें रस, छंद, अलंकार इत्यादि का विशिष्ट समन्वय दिखाई देता है वहीं उस काल की कुछ कृतियों में ज्योतिष विज्ञान संबंधी तथ्यों को भी बड़ी ही कुशलता से पिरोया गया है। उदाहरणार्थ सूरदासजी ने एक स्थान पर ज्योतिष शास्त्रनुसार भगवान श्री कृष्ण की जन्म कुण्डली का अत्यन्त ही प्रामाणिक वर्णन किया है। तदनुसार-

आदि जोतिषी तुम्हरे घर कौ, पुत्र-जन्म सुनि आयौ।
लगन सोधि सब जोतिष गनिकै, चाहत तुमहिं सुनायो।।
संबल सरस विभावन, भादों, आठ तिथि, बुधवार।
कृष्ण पच्छ, रोहिनी, अर्द्ध निसि, हर्षन जोग उदार।।
वृष हैं लग्न, उच्च के निसिपति, तनहि बहुत सुख पैहैं।
चौथे सिंह राशि के दिनकर, जोति सकल महि लैंहे।।
पचयें बुध कन्या कौ जौ है, पुत्रन बहुत बढैहैं।
छठये सुक्र तुला के सनि जुतु, सत्रु रहन नहिं पैंहे।। भाग्य-भवन में मकर मही-सुत, बहुत ऐश्वर्य बढैहँ।।
लाभ-भवन में मीन बृहस्पति, नवनिधि पर मैं ऐहैं।
कर्म भवन के ईस सनीचर, स्याह बरन तन होहिहैं।।
आदि सनातन पारब्रह्म प्रभु, घट-घट अंतरजामी।
सो तुम्हरँ अवतरे आनि कै, सूरदास के स्वामी।।


इस आधार पर भगवान कृष्ण की प्रामाणिक कुण्डली इस प्रकार होगी-
इस कुण्डली में वे योग पूर्णतः स्पष्ट होते हैं जो कि भगवान श्री कृष्ण के जीवन में घटित हुए।
ठीक उसी प्रकार तुलसी साहित्य में जगह-जगह हमें ज्योतिषीय तथ्यों के दर्शन होते हैं। उदारता के तौर पर रामजन्म के शुभकाल का वर्णन करते हुये गोस्वामी जी कहते हैं-

जोग, लगन, ग्रह, वार, तिथि-सकल भये अनुकूल।
चर अरु अचर प्रेम जुत, राम जनम सुख मूल।।

विदित हो कि योग लग्न, ग्रह, वार और तिथि, ये पंचागीय तत्व हैं और उनकी इन पंक्तियों से-

‘‘नौमी तिथी मधुमास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरि प्रीता।
मध्य दिवस अति सीत न धामा। पावन काल लोक विश्रामा।

अर्थात श्री रामभगवान का जन्म-चैत्रमास की नवमी के दिन शुक्ल पक्ष था, अभिजित मुहूर्त में हुआ। ज्योतिष विज्ञान में आयोजित मुहूर्त शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि तथा चैत्रमास का महत्व विशेष है।
इसी प्रकार सुन्दर काण्ड में एक प्रसंग में ‘स्वप्न शकुन’ को बड़े ही सुन्दर ढंग से प्रतिपादित किया है। जिस समय अशोक वाटिका में सीताजी को रावण नाना प्रकार के भय दिखाकर चला जाता है और अनेक राक्षसियाँ वहाँ सीताजी का पहरा देती रहती हैं। उस समय त्रिजटा नामक एक राक्षसी अपनी सखियों से अपने स्वप्न का वर्णन करते हुये कहती है-


खर आरूढ़ नगन दससीसा।
मुंडित सिर खड़ित भुंज बीसा।।
एहि विधि सो दच्छिन दिसि जाई।
लंका मनहुं विभीषण पाई।
यह सपना मैं कहहूँ विचारी।
होइहि सत्य गएँ दिन चारी।।


स्वप्न शकुन शास्त्रों में स्पष्ट कहा गया है कि कोई व्यक्ति अपने आपको सिर मुंडा देखे, अथवा दक्षिण दिशा की तरफ गमन करता देखे अथवा गधे पर सवारी करता देखे, इत्यादि तो निश्चय ही उसकी मृत्यु होती है। जिस समय रावण को मारने हेतु श्री रामजी ने कराल बाण हाथ में लिये, वहाँ तुलसीदासजी शकुन शास्त्रों को आधार बनाकर लिखते हैं।

असुभ होई लागे तब नाना
रोवहिं खर श्रृगाल बहु स्वाहा।
बोलहिं खग जग आरति हेतू।
प्रगट भए नभ जहँ तहँ केतू।।
दस दिसि दाह होन अति लागा।
भयउ परब बिनु रवि उपरागा।।
मंदोदरि उर कंपति भारी।
प्रतिमा स्त्रवहिं नयन मग बारी।।


अर्थात् तब अनेक अपशकुन होने लगे। बहुत से सियार गधे और कुत्ते रोने लगे। पक्षी अत्यंत दुःख के कारण बोलने लगे और आकाश में जहाँ तहाँ पुच्छल तारे दिखाई देने लगे। दसों दिशाओं में दाह होने लगा। बिना सूर्य के ही मूर्तियाँ नेत्रों के मार्ग में जल बहाने लगीं। इन सभी प्रकार के अपशकुनों का वर्णन हमारे ज्योतिष शास्त्र एवं संहिता ग्रंथों में स्पष्ट लिखा जाता है, जिसका प्रयोग कवि का श्रेष्ठ काव्य कौशल दर्शाता है। रावण जिस समय युद्ध के लिए चला उस समय उत्पात शकुनों का वर्णन कुछ इस प्रकार है-


गोमाय, गीध, कराल, खर रव स्वान बोलहिं अति घने।
जनुकाल दूत उलूक बोलहिं वचन भयावने।।


अर्थात्.......गीदड़, गीध, कुत्ते और गधे भयंकर शब्द बोलते हैं। इसी प्रकार काल के दूत की भाँति उल्लू भी भयानक बोली बोलते हैं। निमित्त शास्त्रों में इन जीवों का इस प्रकार का शब्द करना अनिष्टकारक कहा है।
भरतजी को इस तथ्य का अनुभव कुछ इस प्रकार होता-

भरत नयन भुज दच्छिन, फरकत बारहिं बार।
जाति सगुन मन हरषि अति, लागै करन विचार।।

यहाँ स्पष्ट है कि पुरुषों की दाहिनी भुजा एवं दाहिने नेत्रों का स्फुरण शुभ होता है। इसी प्रकार स्त्रियों के वामांगों का स्फुरण शुभ होता है। यह बात उस समय गोस्वामीजी ने कही है जबकि सीताजी धनुषयज्ञ के पूर्व पार्वतीजी से आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। कहा है-

जानि गौरी अनुकूल, सिय हिय हरषि न जात कही।
मंजु मंगल मूल, वाम अंग फरकन लग्यो।।

प्रथम पृष्ठ

    अनुक्रम

  1. श्रीहनुमानजी का त्रिकाल-स्मरण
  2. हनुमान जी के भक्त पर शनि की भी कृपा बनी रहती है
  3. तुलसी साहित्य में ज्योतिषशास्त्र
  4. यज्ञ में प्रथम आहुति किसे ?
  5. दिव्य प्राकृतिक पदार्थ : रुद्राक्ष
  6. उत्तम संतान प्राप्ति का सूत्र
  7. वृक्ष और वास्तु
  8. जीव और वास्तु
  9. कुण्डलिनी महाविद्या
  10. आभूषण आपके स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव डालते हैं ?
  11. नेत्रों की रक्षा-सरल प्रयोग
  12. रोग तथा ग्रहोपचार
  13. विवाह से जुड़े कुछ ज्योतिषीय तथ्य
  14. प्राचीन वस्त्र धारण विधान
  15. विरुद्ध आहार से बचें, शरीर को बचावें
  16. प्राचीन भारत का प्रतिमा विज्ञान
  17. सिक्खों में पाँच ककारों का महत्व
  18. स्वप्नों का रहस्यमय संसार
  19. शनि के प्रकोप से बचने का सरलतम उपाय
  20. पाशुपतास्त्रमंत्र और विचित्र प्रयोग
  21. प्राचीन भारत में विज्ञान

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