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बीच की रेत

विश्वनाथ प्रसाद

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :151
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1623
आईएसबीएन :81-88139-62-9

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प्रस्तुत है बीच की रेत...

Beech Ki Ret a hindi book by Vishwanath Prasad - बीच की रेत - विश्वनाथ प्रसाद

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

बूढ़ा अपने अतीत में खोई हुई वर्तमान से कट गई थीं। न उनका अतीत वर्तमान में अँट रहा था और न वर्तमान उन्हें छू पा रहा था। उनके सामने जो यथार्थ था, उसे वे अपनी यातना का नरक समझ रही थीं। जो बीते हुए दिन थे, वे झिलमिल स्वप्न-लोक की तरह सिर्फ उन्हें भरमा रहे थे। उनके मन में न अतीत की सच्चाई थी और न वर्तमान की। दोनों उलट-पुलट गए थे।
‘बूढ़ा’ शब्द तिरस्कार से लबालब भरा था। जो काम करने में असमर्थ हो, पराश्रित हो, धन रहते हुए भी उसके भोग की शक्ति न हो, किसी समाज में बैठने लायक भी न हो, जिसे लड़के तक धकेलकर बाहर कर दें—वह है बूढ़ा।
एक ओर पति की श्रद्धा की गंगा है, दूसरी ओर संतानों के स्नेह की यमुना। दो पाटों के बीच जिंदगी बालू हो गई। उस पर जितना चल सकती हूँ, चलूँगी। हार नहीं मानूँगी।

बाती तिल-तिल कर बुझने के पहले धधा रही थी। रोशनी भी चटक थी और धुआँ भी तेज था। बुझते हुए दीये की रोशनी में वे घर-परिवार को असीसती थीं और धुएँ की कलौंछ में जलती-भुनती बातें कह जाती थीं। बुझते हुए दीये के कम्पन में नीचे आशीर्वाद की रोशनी थी और ऊपर कटूक्तियों की कालिख थी।

बीच की रेत

एक


बाप ने नाम रखा श्याम कुमारी। तीनों बेटों की पीठ पर हुई थी। माँ कहती थी तेतरी। बाप को यह नाम गाली जैसा लगता था। इस अकेली बेटी को वे दुलार से कहने लगे ‘सम्मो’। जरा सा रंग दबा था। नाक-नक्श तीखा था। ब्याहकर आयी तो मालिक अकेले में कहते—श्यामा। फिर बच्चे की माँ बन गयी। आज सब कुछ वही है। सिर्फ मालिक के न रहने पर घरवाले कहने लगे हैं बूढ़ा। उम्र की ढलान पर पलकें भी झूल गईं। आँखें धसीं तो पुतलियाँ भी आड़ी-तिरछी होने लगीं।

कभी-कभार लोग चिढ़ाने के लिए ‘कानी’ भी कह देते हैं। औरों का क्या मलाल ? जिनका बोझ नौ महीने पेट में, पाँच साल गोद में और पचीसों साल अपनी छाती पे झेला, अब वे भी लात मार रहे हैं। वाह रे जमाना—‘हित भई मेंहरी पतित महतारी।’ एक-एक तिनका जोड़ा। उस पर काबिज हो गईं दो टके की लौडियाँ। बेटों को ऐसा रिझाया कि श्याम कुमारी दो कौड़ी की हो गई।

बूढ़ा पर सवेरे-ही-सवेरे बच्चा बरस पड़े—‘‘जबान है कि कैंची ! हमेशा चलती रहती है।’’
बच्चे की बीवी ने डेवढ़ भर दी—‘‘अरे, कैंची नहीं, जहर में बुझी छुरी है—जहर में। हमेशा अनाप-शनाप बकती रहती है। बाल-बच्चे हैं। न जाने किस पर घहरा जाए। अपने तो जिंदगी का सारा मजा ले लिया। अब हम लोगों की जिंदगी को नरक बना रही हैं।’’

‘‘नरक बना रही हैं नहीं, नरक बना दिया है।’’
‘‘हे भगवान् ! न जाने कब पिण्ड छूटेगा। इनके लिए कोई दूसरा ठिकाना भी नहीं। इनकी लड़कियाँ माल दबाकर किनारे हो गईं। अब झाँकती भी नहीं। पहले बगल में बैठकर माई के लिए छछाकर करती थीं।’’
‘‘जरूरत क्या है उनके झाँकने की ? माल-मोताद तो ले गईं। अब आएँगी तो हमारे कलेजे पर मूँग ही दलेंगी।’’
‘‘अरे, आकर एकाध दिन इनकी पगलाहट तो देख लेतीं।’’
‘‘क्या देखेंगी पगलाहट ? नुकताचीना करेंगी।’’

‘‘सारा कलंक हमारे ही माथे मढ़ेंगी। बहुत बहन का पियार चर्राया हो तो बहिनियउरै जाकर कलेजा जुड़ा आओ।’’
सबकुछ सुनकर भी बूढ़ा एक चुप तो हजार चुप। बच्चा और उनकी बीबी ऐसे ही टंटा-फान दिया करते हैं। लोग-बाग आँख खोलते ही भगवान् से बहुत कुछ माँगते हैं। मैंने मौत ही तो माँगी। अब सहा नहीं जाता। ऊपरवाला उठा ले तो मुक्ति मिल जाए। मेरी चुटकी भर बात पर इतना टंटा। अरे, सवेरे-सवेरे कोई चिड़िया-चिरोमन को भी नहीं कोंचता है।

वाह रे जमाना ! इतना पलटा खाया कि ‘राम-राम’ करने की वेला में माँ को कलछुला लाल करके दागने लगे। हे भगवान् ! निस्तार नहीं, जाएँ तो कहाँ जाएँ ! सारी जिंदगी इसी घर-गृहस्थी को बनाने में खपा दी। किराए के मकान में विवाह कर आयी थी। मकान भी क्या था, सिर्फ एक कमरा। मेरे आने पर सास-ससुर बाहर बरामदे में रहने लगे। पैबंद लगी धोती

पहनकर जवानी काट दी। कभी बजरी के भात से पेट भरा और कभी जोन्हरी की रोटी से। गेहूँ की रोटी मिली तो आधा पेट और चावल मिला तो एकदम नया लाल-लाल। टूटी खाट भी नहीं थी। एक-एक पैसा जोड़ा सारी जिंदगी अकारथ हो गयी दो हाथ धरती को लेने और गिरही को खड़ा करने में। मेरा दर्द तो सिर्फ मेरे मालिक जानते थे। मैं अपने तन और अपने पेट को दागती थी तो कभी-कभी बौखला जाते थे। कहते थे कि इस घर-गृहस्थी से ज्यादा कीमत तुम्हारी है। तुम्हारे ही दम से तो सब कुछ है। तुम न रहोगी तो यह घर-गृहस्थी रहकर क्या करेगी ? और आज मैं कौड़ी की तीन हो गई।

उकड़ूँ-मुकड़ूँ बैठी बूढ़ा दोनों गालों पर हाथ रखे डबडबाई आँखों को कुछ देर जमीन पर धँसाए रहीं। आँखें छलछला गईं तो आँचल से आँसुओं को पोंछकर नाक सुनुककर आसमान की ओर देखा। वर्तमान के शून्य में खोये हुए अतीत को वे रंग और रेखाओं से भरने लगीं अतीत हाथ से छूट गया था। वर्तमान छल कर रहा था। यह था पीड़ा का छल, जिसे सहकर भी कोई जल्दी कहता नहीं। अपने दर्द में दहकर भी आदमी खुद सहता है। बूढ़ा बहुत देर तक आसमान को ताकती रहीं।

उनकी आँखें इधर से भटक कर फिर जमीन की ओर लौट आईं। आसमान से कुछ नहीं मिला। जमीन पर बूढ़ा के चारों ओर उनकी मेहनत की दीवारें थीं। इन दीवारों पर ही टिकी हुई थी छत और इसी छत ने बहुत दूर तक फैले हुए आकाश के थोड़े से हिस्से को काटकर बूढ़ा के घर में रख दिया था। इसी घर के बंद आकाश में बूढ़ा के मालिक ने आखिरी सांस ली थी।

बूढ़ा के लिए अब यही मंदिर बन गया था। जाने की इच्छा होते हुए भी वे यहाँ से जा नहीं सकती थीं। अपने जीते जी वे इस घर की एक ईंट खिसकते नहीं देख सकती थीं। रचने में आदमी का श्रम और तप दोनों होता है। जो रचना भाव की होती है, उसमें तप के साथ अनुभव भी होता है। जो रचना ईंट और पत्थर की होती है उसमें श्रम के साथ मोह समाया होता है। अपनी रचना का मोह उन्हें अपनों की आँच में तपा रहा था। हमेशा जिंदगी की आँच में ही तपती रहीं। इस ताप ने उन्हें पोखता बना दिया था। वे दह-दहकर सब सहती थीं।

बच्चा और उनकी बीवी बोलते रहे। बूढ़ा कुछ कम सुनने लगी थीं। थोड़ा सुना, अधिकतर नहीं सुना। जो सुना उसे अनसुना करके उठना चाहती थीं। कमजोर थीं। धरती को टेककर उठा करती थी। धनुष की तरह लचक गयी थीं। उठते-उठते तीर की तरह एक वाक्य छूट गया, ‘‘अरे बच्चा, वो इतना मत उबाओ। गला दबा लें तो दुनिया तुम्हीं को कलंक मढ़ेगी।’’
‘‘सुन रहे हैं न आप। जीते जी तो हम सबको भून ही रही हैं, मरने पर हमें हथकड़ी पहनवाने का मन है।’’
‘‘तभी न कहता हूँ कि अब ये पगला रही हैं।’’

अब तक बूढ़ा डगर-मगर करते उठ गयी थीं। मुँह धोने के लिए नल की ओर बढ़ीं तो छोटा लड़का नन्हकू नहा रहा था। वह श्यामा को देखते ही आँखें तरेरने लगा। वह लौटकर पाखाने की ओर जाने लगीं तो उसका दरवाजा अन्दर से बन्द था। खटखटाया। तब तक बच्चे का बड़ा लड़का छब्बू आकर धकेलने लगा।

‘‘का है रे ! तेरे माई-बाप अभी भून रहे थे, अब तुम आ गये परान लेने के लिए।’’
‘‘अंदर चाची गयी हैं। इसके बाद मैं जाऊँगा। फिर जग्गू जाएगा, अभी अम्मा भी नहीं गयी हैं।’’
‘‘अरे, मेरी भी पारी आएगी की नहीं। सबका नंबर लगा रहे हो और जैसे मैं इस घर में हूँ ही नहीं।’’
‘‘तू है नहीं तो मर गई क्या ? ’’
‘‘अरे, मरें तेरे ननिहाल के लोग। वही तेरी कानी नानी सबसे पहले मरे।’’
‘‘अरे दादी तू भी तो कानी..’ थपोड़ी पीटकर छब्बू हँसने लगा, हो—हो—हो।’’
‘‘नानी कानी, दादी कानी। दादी बहरी, नानी बहरी; लेकिन दादी बुढ़िया, नानी बुढ़िया।’’

बूढ़ा अपने मतलब की बातें अच्छी तरह सुन लेती थी। अपनी शिकायतों को तो वे कुछ कानों से और कुछ आँखों से देख-सुन लिया करती थीं। अरे काहे न नानी बुढ़िया होगी ? बांस की कोठ में बांस ही न होता है। जैसी माँ है वैसे ही न होंगे बेटे।’’
बूढ़ा ने एक तीर से दो निशाने साधे। संडास से नन्हकू की पत्नी निकल चुकी थी।
‘‘अरे माँजी, आप भी सवेरे-सवेरे उपद्रव करती हैं। कुहराम मच जाता है घर भर में। जीना मुश्किल हो गया है।’’
‘‘अरे नन्हकू बो ! तुम भी एड़ी तर अंगार रगड़ने लगी हो। तेरे बाप की गरीबी पे पसीजकर विवाह किया था। सोचा था कि बुढ़ौती का सहारा बनोगी। अब तुम्हारा भी कंठ फूटने लगा है। कँगला की बिटिया पड़ी राजा घर, बोल ठरेसरी बोल।’’

‘‘अरे बाप रे ! आप तो जहर उगलने लगती हैं। भगवान बचाए आपसे।’’ नन्हकू बो तेजी से निकल गई।
बूढ़ा ने भगवान के आगे ठीक से ही सुना। अपनी ओर से जोड़ा—भगवान ले जाएँ। उफनती हुई नदी की तरह हरहराने लगीं। बच्चा, बच्चा बो और नन्हकू के सामने पिंजरे में बंद घायल चिड़िया की तरह बूढ़ा छटपटा कर रह जाती थीं। नन्हकू बो पर वे अपनी सारी झार निकाल कर हल्की हो जाती थीं। बुढ़ौती की कमजोरी दबंगों के सामने विवश हो जाती थी।

कमजोरी दूने आवेग से दबोच लेती थी। बूढ़े तन की कीमत घर में कम हो गई थी। बाहर वाले जिस जर्जर तन को दण्डवत करते थे, घरवाले उसी को एड़ियों के नीचे रगड़ना चाहते थे। लेकिन बूढ़ा के अन्दर कुछ ऐसा था जो दबना नहीं चाहता था। वह घर की कसर को बहार पूरा कर लिया करती थीं। घर में भी उन्हें सिर्फ बच्चे की लिहाज था और सभी से तो रमझल्ला ही फान लेती थीं।
अब तक छब्बू संडास में घुस गया था। बूढ़ा देर तक संडास के सामने बैठकर इन्तजार करती रहीं। छब्बू जानबूझ कर देर लगा रहा था। फिर अन्दर ही बैठे-बैठे चिल्लाकर जग्गू को बुला लिया। श्याम कुमारी संडास में जबरदस्ती ही घुसना चाहती थीं। छब्बू और जग्गू गुत्थमगुत्था हो गए दोनों ठेलकर कुछ दूर ले आए। फिर छब्बू ने कसकर पैर पकड़ लिया। जग्गू छटककर अंदर घुस गया। आपाधापी में बूढ़ा लड़खड़ाकर गिर पड़ीं। छब्बू पत्तेझाड़ माँ के पास भागा।
बच्चा बो ने तनतनाकर पूछा, ‘‘का है रे ! बूढ़ा ने कोई नया टंटा फाना है क्या ?’’
छब्बू बोला कुछ नहीं। खिस्स से दाँत निपोरकर रहा गया।

बच्चा बो का पारा कुछ उतरा। शांत होकर बोली, ‘‘मत लगा कर उस बुढ़िया से। कुभाखा बोलती है। न जाने किसको कब लग जाए। न जाने कब तक हम लोग इन्हें झेलेंगे।’’
दो कमरों का छोटा-सा घर। कमरों के बाद का छूटा हुआ हिस्सा आँगन कहलाता था। एक छोर पर पाइप और संडास था। उस छोर से बूढ़ा लटपटाती आ रही थी। पौ फटी भी नहीं थी कि उठकर टार-टूर करने लगी थी। डर के मारे संडास की ओर नहीं गई थी। बच्चा और बच्चा बो की पारी पहले ही रहती थी। फिर लस्तगा लग गया। एक के बाद एक ऊपर से खूंटी भर के लड़के भी धकेला-धकेली कर रहे हैं। बूढ़ा के लिए बाँस की फरहटी भी चोख होकर तलवार बन गई है। सूरज आसमान में इतना चढ़ गया। अभी न पेशाब, न पाखाना; न कुल्ला न दातून। धत तेरी जिंदगी की ! न जाने किस घड़ी जन्म मिला कि यह दुर्दशा !

बूढ़ा ने सबकुछ रोक लिया। पेशाब रोके नहीं रुक रही थी। इधर-उधर नजर दौड़ाई। जरा सा मौका मिला। संडास के सामने नाली पर बैठ गईं। जो किसी के रोके नहीं रुकता वह बूढ़ा से क्या रुके ! क्या ठौर, क्या कुठौर। रोकतीं तो धोती गीली हो सकती थी। बूढ़ी देह जितना झपट्टा मार सकती थी, मार कर निपटना चाहती थी। तब तक छब्बू ने देख लिया। और चिल्लाया।

‘‘अरे अम्मा ! देख, बूढ़ा आँगन में ही निपट रही हैं। अरे ! जल्दी आ, जल्दी।’’
बच्चा बो तीर की तरह कमरे से निकली। बूढ़ा हड़बड़ा कर उठ रही थीं। झौंड़ियाँ भी गईं। दीवार ने सहारा दिया। बच्चा बो बरसने लगी।
‘‘सारी हया-शर्म घोलकर पी गई बुढ़िया। लड़कों के सामने चूतर खोलकर बैठ गई। कौन साफ करेगा। वहाँ बनेगी भक्तिन और पारमथी। करेगी काम मलिच्छों का। सचमुच, ये बुढ़ौती में पगला गई हैं।’’

बूढ़ा को सनाका मार गया। जैसे चोर सेंध लगाते पकड़ा गया हो।
अपराध-बोध ने एक झटके से उन्हें दबाया। फिर भी पूरी ताकत से उसे झटका देते हुए बोलीं—
‘‘हमारे जैसा रहा तब यह घर उठा। आधा पेट खाकर तब यह गिरही को बनवाया है। मैं ही हूँ कि सबका नरक टारती रहती हूँ। कोना-अतरा साफ करती रहती हूँ। कोई झाड़ू उठाने का नाम नहीं लेता है। दोनों पलंग चढ़कर पसरी रहती हैं। हमारी कमाई पर तुम सभी इतरा लो। मकान मालकिन बन गई हो। मलमल के थान पर झींगुर बैठकर सोचने लगा कि सब उसी का है। अरे, जरा भगवान से भी डरो। तुम्हारे भी बाल-बच्चे हैं। जो करोगी वही भरोगी, बच्चा बो ! सारी लीला

ऊपर वाला देख रहा है। वह सूद के साथ वसूल लेता है। हमें एक बार दागोगी तो तुम्हार लड़का तुम्हें दस बार दागेगा।’’
बच्चा बो को आग लग गई। तन-बदन जलने लगा। मुँह लाल-भभूका हो गया। मन में आया कि बुढ़िया को ढकेल दे। सवेरे-ही-सवेरे महाभारत मचा दिया। लेकिन मन मसोस कर रह गई। बुढ़िया रोने-धोने लगेगी। अड़ोस-पड़ोस में घूम-घूमकर कहेगी की मुझे सब मार रहे हैं। सब उसी की बात मानेंगे। मेरी कोई नहीं सुनेगा। फिर इतनी फुरसत कहाँ है ?

घर-दुआर देखूँ, लड़के बच्चे को संभालूँ, बूढ़ा को झेलूँ कि पड़ोसियों को सफाई दूँ। एक पड़ोसी दस पट्टीदार के जितना अदावत रखता है। रखे तो रखा करे, कहें तो कहा करें। सबकी देखी है, बूढ़ा तो होत भिनसहरे बंदूक जैसी भरी रहती है। हम उठे की दागने लगी। बूढ़ा अपना भी जन्म गवाँ रही है और हमें भी भूज रही है। न जाने कब का यह भोगदण्ड है।
बच्चा बो उमड़-घुमड़कर आई थी बिना बरसे चली गई। बच्चा बो के जाते ही बूढ़ा ने ताना मारा।

‘‘न जाने भगवान उद्धार करेंगे ? ऐसी यातना से कब छुटकारा मिलेगा ? जिसे देखो वही हमारी जान का दुश्मन है। जो पेट से निकल कर आ रहा है, वह भी दुशमनी फाने है। हे भगवान ! कब तक यह नरक भोगाओगे।’’
बूढ़ा के पास कोई नहीं था। उनकी आवाज सिर्फ उन्हीं से टकरा रही थी। कुछ देर वह इधर-उधर डग-डग करती रही। रह-रह कर संडास की ओर देख लेती थी। फिर समझ में आया कुछ देर है। सुरती खा लूँ सुरती चूनेवाली। डिबिया खोली तो झार-झूरकर चुटकी भर निकाली। चुनौटी खोली तो चूना नदारद। एक लकड़ी से खुरच-खुरचकर चुना झाड़ा। बाईं गदोरी में रखकर दाएँ अँगूठे से रगड़ रही थी। इस रगड़ के साथ मन भी घिस्सा खाता रहा। सबकुछ मेरा ही किया है। एक ईंट रखने की हैसियत नहीं है। एस संडास बनवाया था। दो परानी हम और दो लड़के। अब एक बरात हो गई है।

कम-से-कम दो तो होने चाहिए। चाहिए तो, लेकिन होगा कैसे ? अपनी-अपनी मेहर से छुट्टी मिले तब न ! एक-से-एक फैंलसूफी साड़ी। घोड़ी की तरह उचक-उचककर चलने के लिए ऊँची एड़ी की चप्पलें, पाउडर, स्नो और न जाने क्या-क्या ? पतुरिया जैसी सजकर चलती हैं। अरे, शरीर पर रौनक रहे तो सिंगार-पटार अपना मुँह मारे। बच्चा बो मोटी होकर भैंस हो गई। मगर चेहरा बिलार का, आँख धसी-धसी, मुँह जैसे फाँस दिया गया हो। अरे, जैसा मन रहेगा, वैसा ही तन भी दिखाई पड़ेगा न ! भीतर का कलषु चेहरे पर भी आ गया है।

दुसरकी तो एकदम डंगर है डंगर। भतार चोरी-चोरी मलाई-रबड़ी गटकाता है, फिर भी शरीर जैसे लक्कड़। यही दोनों मिलकर मेरे बेटों को भरमा ली हैं। दोष मेरे बेटों का नहीं, इन्हीं दोनों चुड़ैलों का है। मेरी पतोहुओं ने ऐसी लकड़ी इन दोनों को सुँघाई है कि भेड़ा बन गए हैं, भेड़ा। सुनती थी, कमरू कमच्छा की औरतें भेड़ा बना लेती थीं। जाँत में बाँध कर दिन भर घुमाती रहती थीं। वही साच्छात में देख रही हूँ। हमारे जमाने में औरत पाँव की जूती होती थी। अब वह सिर की टोपी नहीं परान हो गई है परान। वाह रे जमाना ! कलजुग आ गया है। आज की औरतें डोली से उतरते ही अपने मालिक पर जादू चलाकर उन्हें भेड़ा बना लेती हैं।

बूढ़ा चुटकी भर सुरती को रगड़ती जा रही थी। उसके मन का सारा फितूर निकल रहा था। पतोहुओं की भड़ास सुरती पर उतर गई थी। बूढ़ा की चलती तो उसी तरह पतोहुओं को रगड़ने के बाद ठोंक-पीटकर गलफड़ में दबा लेतीं। लेकिन क्या करे। बुढ़ौती लाचार कर देती है।
गजराज भी बूढ़ा होने के बाद असहाय होकर लोटने लगता है। बूढ़ा अपने अतीत में खो हुई वर्तमान से कट गयी थीं। न उनका अतीत, न वर्तमान में अटपटा रहा था, और न वर्तमान उन्हें छू पा रहा था। उनके सामने जो यथार्थ था उसे वे अपनी यातना का नरक समझ रही थीं। जो बीते हुए दिन थे वे झिलमिल स्वप्नलोक की तरह उन्हें भरमा रहे थे।

उनके मन में न अतीत की सच्चाई थी और न वर्तमान की। दोनों उलट-पुलट गए थे। जब वर्तमान पर असंतोष और घृणा सवार हो जाती है तो व्याक्ति अतीत की ओर भागता है। वहाँ तक पहुँचने में असफल होकर व्यक्ति केवल अतीत के रंगीन स्वप्न देखता है।
बूढ़ा की सुरती तैयार हो गई थी। झाड़ू उठाने से पहले सुरती को होंठ के नीचे दबाया। तब तक संडास का दरवाजा भड़ाक से खोलता हुआ जग्गू निकला। बूढ़ा झाड़ू फेंककर संडास की ओर बढ़ीं। कमर झुकने की वजह से निहुरे-निहुरे चल रही थीं। दोनों हाथ घुटने पर टिके थे। दो एक जगह धसक गयी पुरानी वाली धोती लथर-पथर हो रही थी।

पाँव मुश्किल से उठ रहे थे। फिर भी रुकना नहीं चाहती थी। कही फिर कोई दोहराने न लगे। मेरी सुनने वाला कोई नहीं है। पीछे से कोई दनदनाता हुआ आएगा। धक्का मार कर अन्दर घुस जाएगा। मैं फिर टँगी-की-टँगी रह जाऊँगी। इस घर में मैं सब के लिए भार हो गई हूँ। एक मैं थी कि सास के पाँवो को आधी रात तक दबाती थी।

वह न मना करें और न मुझे फुरसत मिले। बच्चा के बाप हमें ताकते-ताकते सो जाते थे। एक ये आज की हैं कि सरे साँझ भतार के कमरे में घुस जाती हैं। शर्म को तो घोर-घार कर पी डाला है। मेरी पतोहुएँ क्या सेवा करेंगी, लुआठ ! मैं मुँह भर बोली के लिए तरस गई। जब से उनकी अर्थी उठी, मैं अनाथ हो गई। कोई मेरी सुनने वाला नहीं है। हे भगवान ! जवानी बच्चा के बाप के दुलार में बीती, बुढ़ापा ठोकर खाते बीत रहा है। हमारी मिट्टी कुआरथ हो रही है। ऐसी दुर्गती दुश्मन की भी न हो।


दो



संडास से आकर बूढ़ा ने हाथ-मुँह धोया। आँचल से मुँह पोंछा। सिर को धोती के पल्लू से मजे में ढँक लिया। इस उम्र तक पास-पड़ोस के लोग सिर्फ हाँथ-पाँव और मुँह भर ही देख पाए थे। पूरा माथा भी शायद किसी ने देखा हो। जवानी में घूँघट किया था। इसी को औरत का श्रृंगार माना था। बुढ़ौती में भी घूँघट उठते-उठते आधे माथे तक जाकर थम गया था।

बूढ़ा ने नीचे से ऊपर तक अपने को टटोला। सब तोपा-ढाका तो है ! आँगन से लेकर दुआ तक साफ करना है। पतोहुएँ तो लाट साहब की बेटी हैं। अपना कमरा भी नहीं साफ करना चाहतीं। कुत्ता भी जहाँ बैठता है वहाँ अपनी पूँछ से कुछ तो झाड़ बहोर लेता है। बहुओं को मेरे लाडलों ने ही सिर चढ़ा रखा है। झाड़ू काहे को उठाएँगीं। हाँ, मैं बाहर दरवाजा झाड़ने जाऊँगी, तब सभी तनतनाएँगे। इन सबों की तो नाक कटने लगती है।
अरे, इतनी ही फिकर है तो महतारी के लिए कायदे का कपड़ा-लत्ता ला दो तो यह किया होगा नहीं, बस सब मिलकर हमीं को डाहते हैं। मन होता है कि कुछ न करूँ, चुपचाप बैठी ही रहूँ। लेकिन रहा भी तो नहीं जाता। सारी जिंदगी काम करते बीती। चार दिन की और जिंदगी है। काम ही करते मरूँ तो अच्छा।
बूढ़ा ने झाड़ू उठाई। उसका अंजर-पंजर ढीला हो गया था। किसी गिहथिन का हाथ लग गया होगा। ये दोनों जहाँ हाथ लगा दें, वहाँ सब चौपट। कौन बोलकर अपना सिर नोचवाए। एक आखर बोलने पर जबान पकड़ लेती हैं। यही अच्छा है कि खुद जितना बने, सहेज दूँ।


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