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द्वारका का सूर्यास्त

दिनकर जोशी

प्रकाशक : ग्रंथ अकादमी प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :108
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1622
आईएसबीएन :81-88267-30-9

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ उपन्यास...

Dwarka Ka Suryast

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘दाऊ !’’ बलराम के पास जाकर कृष्ण ने तनिक झुककर उसने पूछा, ‘‘किस सोच में डूबे हैं आप ?’’
‘‘कृष्ण ! प्रभासक्षेत्र के आयोजन एवं गांधारी के शाप की समयावधि के बीच.....’’
‘‘बड़े भैया !’’ कृष्ण जैसे चौंक उठे, ‘‘आप...आप...यह क्या कह रहे हैं?’’
‘‘माधव ! बलराम ने होंठ फड़फड़ाए, ‘‘महर्षि कश्यप के शाप को हमें विस्मृत नहीं करना चाहिए।’’
‘‘वह मैं जानता हूँ, संकर्षण ! उसकी स्मृति हमें ऊर्ध्वगामी बनाए, ऐसी प्रार्थना हम करें।’’
‘‘उस प्रार्थना के लिए ही मैं इस समुद्र-तट पर योग-समाधि लेना चाहता हूँ। योग-समाधि पूर्व के इस पल में मैं तुमसे एक क्षमा-याचना करना चाहता हूँ, भाई!’’

‘‘यह आप क्या कह रहे हैं, दाऊ ? आप तो मेरे ज्येष्ठ भ्राता...’’
बलराम ने कहा, ‘‘मद्य-निषेध तो एक निमित्त था, परंतु वृष्णि वंशियों के लिए उनका सनातन गौरव अंखड रखने के लिए यह निमित्त अनिवार्य था। फिर भी हम उसे सँभाल न सके। अब इस असफलता को स्वीकार करने में कोई लज्जा या संकोच नहीं होना चाहिए। यादवों को यह गौरव प्राप्त होता रहे, इसके लिए तुमने बहुत कुछ किया; परंतु यादव उस गौरव से वंचित रहे, उस अपयश को मुझे स्वीकार करना चाहिए। समग्र यादव वंश को तो ठीक, परंतु कृष्ण...’’
बलराम का कंठ रुँध गया, ‘‘भाई, मैंने तुमसे भी छल...’’
‘‘ऐसा मत कहिए, बड़े भैया !’’ बलराम के एकदम निकट बैठते हुए कृष्ण ने उनके हाथ पकड़ लिये, ‘‘हम तो निमित्त मात्र हैं। कर्मों का निर्धारण तो भवितव्य कर चुका होता है।

सबसे पहले


श्रीकृष्ण के जीवन के विषय में विपुल मात्रा में-और कहीं-कहीं तो विरोधाभासी कहा जाए, ऐसा-आलेख महाभारत, श्रीमद्भागवत, हरिवंशपुराण, विष्णुपुराण आदि पौराणिक ग्रंथों और उन ग्रंथों में प्राप्त जानकारी को आधार मानकर लिखे गए परवर्ती साहित्य में किया गया है। इनके अन्तर्गत मूल स्रोत में, जिसका कोई उल्लेख भी न हो, ऐसे कथानकों का समावेश भी परवर्ती सृजनों में उनके रचनाकारों ने समय-समय पर किया है। ऐसे कथानकों के कभी अर्थ-घटन या फिर मूल जानकारी की पूर्ति के रूप में उचित मनवाने के तर्क भी प्रस्तुत होते रहे हैं।

महाभारत युद्ध के छत्तीस वर्षों बाद यदुवंश का निर्मूलन हुआ, इस तथ्य को भी सभी ग्रंथों ने स्वीकार किया है। इन छत्तीस वर्षों में श्रीकृष्ण द्वारका में रहे और इस बीच उन्होंने कोई विशेष कार्य, या प्रवृत्ति की हो, ऐसा नहीं जान पड़ता। इस दीर्घकाल में उन्होंने द्वारका के बाहर हस्तिनापुर या अन्यत्र कहीं भी यात्रा तक नहीं की, प्रिय सखा अर्जुन या अन्य किसी से मिलने भी नहीं गए। सुदीर्घ आयु के शेष वर्षों में एक पारिवारिक बुजुर्ग जिस प्रकार निवृत्तिकाल, कुछ मात्रा में निर्वेदभाव से व्यतीत करें, ऐसा ही जीवन उनका रहा होगा, ऐसा लगता है।

इन छत्तीस वर्षों की अवधि की जो भी जानकारी प्राप्त हुई, उसे कथा रूप में आलेखन करने की यह कोशिश है। शास्त्रोक्त कथानकों को जब विशुद्ध साहित्य-स्वरूप में प्रस्तुत किया जाता है तब उसके कला-स्वरूप के लिए कम-से-कम जितनी कल्पनाएँ-मूल कथानक के सातत्य का जतन करते हुए-अनिवार्य हों उतनी करनी ही पड़ती हैं, इतनी बात सहृदय भावक के पक्ष में कह दूँ।

दिनकर जोशी

द्वारका का सूर्यास्त
एक

कृष्णपक्ष की अष्टमी का चाँद क्षितिज की मर्यादा का उल्लंघन करके खुले आसमान से झाँकने लगा, तब स्वाति नक्षत्र में मध्याकाश में से सागर ऐसे झुका हुआ था जैसे मृगाशीर्ष का व्याध देख रहा हो। विशाल आकाशगंगा के तारे नैमिषारण्य के किसी ज्ञानसूत्र में बैठकर वेदाध्ययन कर रहे महर्षियों जैसे देदीप्यमान् लग रहे थे। द्वारका के दुर्ग को एक ओर से घेरकर टकरानेवाली सागर की तरंगे हाँफती हुई जैसे कुछ पलों के लिए शांत हो गई थीं।

कुशस्थली, द्वारामती या द्वारका के नाम से समग्र आर्यावर्त में प्रसिद्ध इस नगरी के चारों द्वारों पर तैनात प्रहरियों ने परस्पर संकेतों का आदान-प्रदान किया। रात्रि का चौथा प्रहर प्रारंभ होने में अभी कुछ समय शेष था।

कृष्णप्रासाद के शयनकक्ष में सोए हुए कृष्ण की आँखें अचानक खुल गईं। खुले गवाक्ष में से कृष्ण ने अतलांत से आकाश की ओर देखा। असीम आकाश की कोई सीमा जैसे क्षितिज में दृश्यमान हुई हो वैसे कृष्ण ने दृष्टि वापस खींच ली। चंदनकाष्ठ के पलंग पर लेटे हुए कृष्ण ने धीरे से करवट बदलकर बाईं ओर सो रही पत्नी रुक्मिणी देवी की ओर देखा। रुक्मिणी देवी शायद गहरी नींद में थीं। मीठी नींद टूट न जाए, इस आशंका से कृष्ण ने सचेत होकर हौले से पाँव नीचे रखे। पादुका के पास चरण थम गए। पादुका के स्वर से रुक्मिणी जाग न जाए, इस सोच से कृष्ण ने पादुका नहीं पहनी। उत्तरीय कंधे पर व्यवस्थित करके एक क्षण के लिए दाहिने पद तल की ओर देखा। हाथ जरा से फैलाकर कृष्ण ने अपने ही पद तल को सहलाया। उनके चेहरे पर विषादपूर्ण स्मित विलस उठा। उन्होंने फिर से आकाश की ओर देखा। चेहरा पलटकर सो रही रुक्मिणी की ओर देखा। प्रासाद में देर सायं की प्रज्वलित मशालों की रोशनी अब मंद पड़ने लगी थी। मंद प्रकाश में कृष्ण अपनी प्रलंबित परछाईं को क्षण भर देखते रहे और फिर धीरे से शयनकक्ष के गवाक्ष के पास आए। गवाक्ष के पास खड़े रहकर उन्होंने निद्राधीन द्वारका की पूर्व दिशा में देखा। पूर्व दिशा में फैला हुआ रैवतक पर्वत अपने उत्तुंग शिखरों से द्वारका को पूर्व दिशा की ओर अभेद्य बना रहा था। कृष्ण को याद आया कि राजा रेवत की यह नगरी कितनी सुरक्षित थी और फिर भी आज क्यों अरक्षित लग रही थी, यह स्वयं कृष्ण के लिए समस्या थी।

कृष्ण ने निद्राधीन द्वारका को एक दृष्टि देखा। बारह योजन में विस्तृत इस नगरी में कृष्णप्रासाद के दाहिनी ओर लाल मणियों से सुशोभित महारानी रुक्मिणी का महल एवं बाईं ओर श्वेत रंग के संगमरमर का (दूध से धुला हो, ऐसा) रानी सत्यभामा का प्रासाद था। थोड़ी दूर पर माता देवकी और पिता वासुदेव का निवास-स्थान ‘केतुमान’ स्थित था। दीर्घकाल से जीर्ण अवस्था को प्राप्त माता-पिता अब ‘केतुमान’ प्रासाद में अपनी आयु के अंतिम चरण साँस ले रहे थे। कृष्णप्रासाद के दक्षिण में स्थित ‘विरज’ नामक प्रासाद स्वयं श्रीकृष्ण के उपस्थानगृह था। विश्वकर्मा ने इस ‘विरज’ महालय की रचना इस प्रकार की थी कि उसमें रजोगुण एवं तमोगुण प्रवेश नहीं कर सकते थे। इन सभी प्रासादों पर जड़ित स्वर्ण एवं रत्न धुँधले चंद्र-प्रकाश में जैसे मंद पड़ गए थे।

कृष्ण ने द्वारका पर विहंगम दृष्टि डाली। दक्षिण दिशा में ‘लतावेष्ट’ नामक पर्वत के चरणों से लबालब भरा हुआ सरोवर कृष्णप्रासाद से दृष्टिगोचर हो रहा था। मानसरोवर में से स्वयं नारद द्वारा लाए गए ब्रह्मकमल को सत्यभामा ने इस सरोवर में प्रस्थापित किया था। समयांतर में यह सरोवर असंख्य कमलों से विभूषित हो गया था। उत्तर में स्थित ‘वेणुमंत’ पर्वत के आस-पास चारों ओर फैले चैत्रकवन की ओर कृष्ण देखने लगे। स्वयं कृष्ण ने देवराज इंद्र से प्राप्त किए हुए पारिजात (हरसिंगार) के पौधे इस चैत्रकवन में रोपण किया था। उस एक पौधे ने आज संपूर्ण वन का रूप ले लिया था। विभिन्न दिशाओं में स्थित नंदनवन, मिश्रकवन एवं विभ्राजवन अति सुंदर लग रहे थे। कृष्ण ने क्षण भर के लिए नयन मूँद लिये। तत्पश्चात् फिर एक बार अपने चरणों को निहारा। फिर एक बार उनका चेहरा विषादपूर्ण स्मित से विलस उठा। यह स्मित विलसते ही अदृश्य हो गया। उन्होंने आकाश की ओर देखा। राहु एवं केतु दोनों तारे स्वाति का अतिक्रमण करके निकट आ गए थे। कृष्ण ने अपलक नेत्रों से राहु एवं केतु के बीच अंतर नापने का एक प्रयास किया।

पीठ पीछे कुछ संचार के आभास से कृष्ण ने चेहरा फेरकर देखा। रुक्मिणी देवी पति के बहुत निकट खड़ी थीं। कृष्ण ने महसूस किया जैसे रुक्मिणी देवी कब से वहाँ खड़ी हैं।
‘‘जाग गईं, देवी ?’’ कृष्ण ने पूछा, ‘‘ब्राह्म मुहूर्त के चौघड़िए बजने में अभी तो समय है।’’
‘‘जिस सत्य को आप जानते हैं वह सत्य मेरे लिए भी समस्या बन गया है, स्वामी।’’ रुक्मिणी देवी ने कृष्ण के चरणों के पास जरा सा झुककर बोलीं, ‘‘आपकी नींद इतनी जल्दी कैसे खुल गई ?’’
कृष्ण ने थोड़ा सा मुसकराकर धीरे से कहा, ‘‘देवी, मैं तो जाग ही गया था, किंतु आपकी निद्रा भंग न हो, इसलिए चुपचाप शय्या त्यागकर यहाँ खड़ा था। पर आप क्यों जाग गईं ?’’

‘‘आपकी त्यक्त शय्या की साँस से भारी हवा को हृदय में घोंटते हुए मेरी नींद चली गई। जिस शय्या को स्वामी बीच में ही त्याग दें उस शय्या पर मँडराने वाली हवा भारी बन ही जाती है। वह भार मुझे कैसे सोने दे !’’ रुक्मिणी ने कहा।
कृष्ण अनुत्तरित रहे।
‘‘यह क्या, वासुदेव ?’’ कृष्ण के नंगे पाँवों की ओर दृष्टि जाते ही रुक्मिणी ने कहा, ‘‘शय्या के साथ पादुका का भी त्याग ?’’
कृष्ण ने अपने नंगे पाँवों की ओर एक बार फिर देखा। इस बार उनके चेहरे पर स्मित की एक रेखा खिंच गई।
‘‘समझ गई।’’ रुक्मिणी देवी ने पति के नंगे पाँवों का रहस्य जानकर कहा, ‘‘पादुका का स्वर शायद मेरी निद्रा भंग कर देगा, ऐसी आशंका आपके मन में उठी होगी। किंतु स्वामी, क्या आपकी अनुपस्थिति ही पर्याप्त नहीं है ?’’
‘‘आप मेरे अंतःकरण को पहचानती हैं, देवी।’’

‘‘और फिर भी सतत मुझे यह अनुभूति होती है कि मैं आपके अंतःकरण से अलग ही हूँ।’’
‘‘यही तो मानव जीवन की विषमता है, कहीं कोई निकट लगे, न लगे और विशाल अंतर अनुभव होने लगे।’’
‘‘भगवन्, ब्राह्म मुहूर्त की इस वेला में मैं आपके साथ वाद-विवाद कैसे कर सकती हूँ !’’ रुक्मिणी ने अपने लंबोतरे नेत्र कृष्ण के चेहरे पर स्थिर किए।
ब्राह्म मुहूर्त की शीतल हवा से कृष्ण का उत्तरीय उड़ने लगा।
‘‘किंतु आप इतनी मध्यरात्रि में जाग्रत क्यों हो गए, यह तो आपने बताया ही नहीं, स्वामी !’’
एक पल देखते रहने के बाद कृष्ण ने हौले से कहा, ‘‘एक दुःस्वप्न ने मेरी निद्रा भंग कर दी।’’
‘‘दुःस्वप्न !’’ रुक्मिणी आश्चर्यचकित हो गईं, ‘‘दुःस्वप्न आपको कैसे सता सकते हैं, प्रभु ? आप तो स्वप्न-सृष्टि से भी परे हैं। फिर यह दुःस्वप्न आपके निद्रा-प्रदेश में कैसे प्रवेश कर सकता है ?’’
‘‘शायद वह दुःस्वप्न न भी हो।’’ कृष्ण ने कहा, ‘‘किंतु यदि वह स्वप्न न हो तो सत्य के रूप में उसको स्वीकार करना अधिक विकट समस्या उत्पन्न करने की संभावना है।’’

‘‘ऐसा क्या घटित हो गया प्रभु ?’’ रुक्मिणी ने चिंतित स्वर में पूछा।
‘‘मैंने गहरी नींद में ऐसा अनुभव किया जैसे कोई मूषक मेरे दाहिने पद तल को दंश दे रहा हो-और उसके इस दंश की वेदना से मेरी नींद उचट गई।’’ कृष्ण ने थोड़ी गंभीरता से कहा।
‘‘यह आप क्या कह रहे हैं, नाथ ?’’ रुक्मिणी देवी लगभग चीत्कार ही कर उठीं, ‘‘मूषक जैसे क्षुद्र जंतु आपके शरीर को दंश दे, ऐसी कल्पना भी कैसे की जा सकती है ?’’
‘‘यही प्रश्न मेरे मन में मँडरा रहा है।’’ कृष्ण ने कहा, ‘‘किसी वीर पुरुष का शस्त्राघात भी शायद ऐसा दंश पैदा नहीं करता; और यदि यह स्वप्न न हो तो कृष्णप्रासाद में मूषक का सशरीर होना और स्वयं कृष्ण को दंश देना तो अधिक समस्यामूलक है।’’

‘‘नहीं।’’ रुक्मिणी देवी एक उद्गार के साथ कृष्ण के चरणों के पास बैठ गईं। कृष्ण के पाँव पर हाथ फेरकर उन्होंने तीक्ष्ण निरीक्षण किया, ‘‘नहीं, ऐसे किसी दंश का चिह्न यहाँ नहीं है। अठारह अक्षौहिणी सेना के बीच जिन्हें खरोंच तक नहीं आई और कंस, चाणूर, कुवलयापीड आदि के साथ संघर्ष में भी जिनकी देह अक्षुण्ण रही थी, उस देह को मूषक जैसा क्षुद्र जंतु दंश दे, यह बात स्वयं श्रीकृष्ण के मन में भी कैसे संभव हो सकती है ?’’
रात के चौथे प्रहर के आरंभ होने के चौघड़िए का स्वर दुर्ग के कँगूरे पर से फैलने लगा। चैत्रकवन में बसने वाले तापसों द्वारा अपने-अपने आश्रम में प्रज्वलित की हुई यज्ञवेदी की धूम-पंक्तियाँ आकाश में थोड़ी सी ऊपर चढ़ गईं। इन धूम-पंक्तियों की सुगंध हवा की शीतलता में मिल गई। कृष्ण ने पूर्व दिशा की ओर देखा। पूर्व दिशा की रक्तिम आभा के आस-पास एक अपरिचित वृत्त आकार ले रहा था। सूर्योदय से पूर्व ही ब्राह्म मुहूर्त में इस अज्ञात पदार्थ को देखकर कृष्ण एक पल को सोच में पड़ गए।

‘‘देवी ! पूर्व दिशा में सूर्य की आभा के साथ प्रकटित इस वृत्त को आपने देखा ?’’ कृष्ण ने पूछा।
‘‘मैं उस वृत्त की परिभाषा नहीं समझ सकती।’’ रुक्मिणी ने कहा, ‘‘मैं तो सूर्योदय को निहार रही हूँ।’’
कृष्ण मौन रहे। उनके चित्त में एक विचार-संक्रमण चल रहा था।
‘‘आप कोई रहस्य स्पष्ट करना चाहते हैं, स्वामी ! चूहे का दंश एवं पूर्व दिशा की आभा में आकारित वृत्त के बीच क्या कोई संबंध है ?’’
‘‘उसी संबंध को तो मैं खोज रहा हूँ।’’ कृष्ण ने कहा, ‘‘उस दिशा में देखिए-राहु और केतु तो शापित ग्रह हैं फिर भी जैसे उस शाप की अवमानना करते हुए स्वाति नक्षत्र की मार्ग-रेखा का उल्लंघन करके ये दोनों तारे परस्पर निकट आ गए हैं।’’
रुक्मिणी देवी ने आकाश की ओर देखा। पूर्व दिशा में अब लालिमा प्रस्फुटित होने लगी थी।
‘‘यह ब्रह्मांड दर्शन मैं कैसे समझूँ, स्वामी ? आपका अंतःकरण और यह ब्रह्मांड दोनों की व्याप्ति मेरे लिए तो एक समान ही विशाल एवं अतलांत रहे हैं। मुझे तो आपके चित्त को ही समझना है।’’

ठीक उसी समय प्रासाद में से पुरोहित ने ब्राह्म मुहूर्त की स्तुति-वंदना के शब्दों का उच्चारण किया। एक मधुर सुरावली से समग्र वातावरण आप्लावित हो गया। अपने-अपने प्रासादों के शयनकक्ष में सोए हुए सबके लिए यह सुरावली एक सूचना थी कि अब शय्या का त्याग कर देना चाहिए और ब्राह्म मुहूर्त के नैमित्तिक धर्म कार्यों का आरंभ होना चाहिए। कृष्ण ने अपने पाँव थोड़े उठाए। यह बातचीत का पल समाप्त होने का संकेत था। रुक्मिणी देवी समझ गईं कि उनके प्रश्न तत्क्षण के लिए अनुत्तरित ही रहनेवाले हैं। यह उनके लिए स्वाभाविक था। उन्हें याद आया कि कृष्ण ने उनके अनेकानेक प्रश्नों का सहज रूप से निराकरण कर दिया था; परंतु उसके साथ ही मन में यह प्रश्न भी उपस्थित हुआ कि दीर्घ काल के सहवास के पश्चात् भी कृष्ण ने उसके मन को निरंतर घेरने वाले कितने सारे प्रश्न हमेशा अनुत्तरित भी रखे हैं। एक पल में एकदम सरल लगनेवाले कृष्ण दूसरे ही पल में कितने अगम्य लगते हैं, यह रहस्य रुक्मिणी देवी आज तक समझ नहीं सकी थीं।
कृष्ण के चरण-स्पर्श करके वे शयनकक्ष से बाहर चली गईं।

कृष्ण ने सहज भाव से प्रातः कर्म संपन्न किए। द्वारका की रचना करते समय यादव सभा के लिए विशेष रूप से निर्मित किए गए दाशार्ही सभाखंड में नित्य के नियमानुसार कृष्ण जब पहुँचे तब वृष्णि वंशियों की यह सभा बहुत कम भरी हुई थी। दाशार्ही सभाखंड की रचना स्वयं विश्वकर्मा ने शुक्राचार्य नीति के अनुसार की थी। शत्रुता का कोई छल या रहस्य यहाँ उपस्थित रहने वाले के चेहरे पर अनायास ही अभिव्यक्त हो जाए, ऐसी विशिष्ट निर्माण पद्धति का प्रयोग किया गया था। चेहरे की भाषा बूझने का रहस्य केवल कृष्ण, बलराम या एक-दो वरिष्ठ यादव ही जानते थे। बलराम कभी-कभार ही सभा में आते थे। कुरुक्षेत्र के महायुद्ध के पश्चात् तो बलराम राजतंत्र की पूर्णतः अवहेलना करते थे और प्रासाद, मधुशाला एवं उद्यानों में ही समय बिताते थे। अक्रूर या वसुदेव जैसे वरिष्ठ यादव भी कभी-कभी ही सभा में आते थे। राजा उग्रसेन कभी औपचारिकतावश ही सभाखंड में उपस्थित होते थे। इस बात से कृष्ण भी अनभिज्ञ नहीं थे। सभाखंड अधिकतर अनिरुद्ध, प्रद्युम्न, सांब, कृतवर्मा, सात्यकि या अन्य यादवों से ही भरा हुआ दृष्टिगत होता।

कुरुक्षेत्र के युद्ध-पूर्व की परिस्थिति अलग थी। तब यादवों की यह राजसभा खचाखच भर जाती थी। स्वर्ण, रजत या काष्ठ के सिंहासनों पर वरिष्ठ यादव आरूढ़ होते। तत्पश्चात् भूमि पर बिछी हुई मखमली या रेशमी गद्दियों पर अन्य कनिष्ठ यादव आसन ग्रहण करते। किंतु आज इस दाशार्ही सभाखंड में प्रवेश करके कृष्ण ने देखा-वरिष्ठ यादवों के सिंहासन आधे से अधिक रुक्त थे और भूमि पर बिछी हुई गद्दियों पर बैठे हुए यादवों की संख्या भी छितराई हुई थी। एक प्रहर पहले का अनुभव उन्हें याद आया। मूषक दंश एवं पूर्व की आभा में प्रकटित अज्ञात, वृत्त स्वाति नक्षत्र का अतिक्रमण करके परस्पर निकट आ रहे राहु और केतु जैसे शापित तारे...।
एक बार पुनः कृष्ण के होंठों पर एक रहस्यमय स्मित प्रकट हुआ।

:दो:


यादव सभा से जब कृष्ण वापस लौटे तब सूर्य मध्यावकाश में पहुँचने की तैयारी कर रहा था। प्रातःकाल से नित्यकर्मों में रत द्वारका मध्याह्न के आकाश के नीचे थोड़ी साँस लेने के लिए थम गई हो, वैसे उसकी प्रवृत्ति मंद हो गई थी। अश्वपाल अपने अश्वों को अपने-अपने अस्तबल में ले जा रहे थे। प्रातःकाल से शस्त्रास्त्र धारण करके जो यादवकुमार निकटस्थ पर्वतीय या अरण्य प्रदेश में घूम रहे थे, वे भी वापस लौट आए थे। प्रासादों के प्रांगण में प्रभात से प्रज्वलित यज्ञवेदी की भस्म मध्याह्न अर्घ्य की प्रतीक्षा में वायु में इधर-उधर लड़ रही थी। किसी वेदशाला के अध्ययन-केंद्र में से उठा हुआ स्वर अब केवल प्रतिघोष बनकर द्वारका के आकाश में चक्कर काट रहा था।

कृष्णप्रासाद के अपने कक्ष में जब कृष्ण वापस लौटे तब रुक्मिणी देवी उनकी प्रतीक्षा करते गवाक्ष में खड़ी थीं। कृष्ण के लिए प्रतीक्षारत पत्नी का यह दृश्य स्वाभाविक नहीं था। कृष्ण को प्रातःकाल का संवाद याद आया। यादव सभा में संपूर्ण रूप से भुला दी गई बात पुनः कृष्ण के स्मरणपट पर लौट आई। अचानक ही उन्होंने पाँव के तलवे की ओर देखा। पादुका के बीच चिपके हुए चरण-तल में कोई चिह्न नहीं था, फिर भी कृष्ण ने महसूस किया जैसे कुछ जलन हो रही हो। एक बार पुनः वे अगम्य रूप से मुसकरा पड़े। मूषक के दंश का संकेत जैसे प्रगल्भ महाकाल की कोई पदध्वनि हो वैसे मंद गति से कृष्ण ने अपने पग उठाए।
‘‘प्रतीक्षा कर रही हैं, देवी ?’’ कृष्ण ने हँसकर पूछा।
‘‘क्या आपसे कुछ भी अज्ञात है !’’ रुक्मिणी देवी ने कहा, ‘‘आप तो यादव सभा में अनेक प्रश्नों के बीच प्रातःकाल की बात शायद भूल भी गए होंगे। लेकिन मेरे लिए तो केंद्र कहें तो केंद्र एवं व्याप्ति कहें तो व्याप्ति-केवल एक ही है जिसे आप जानते ही हैं।’’

‘‘केंद्र हो या व्याप्ति, समग्र जीवन में वे कभी भी शाश्वत नहीं रह सकते।’’
कृष्ण बोले, ‘‘कालावधि में केंद्र स्वतः ही बदल जाते हैं। याद करो देवि, विदर्भ में कौमार्यावस्था में थीं तब जो केंद्र था वह केंद्र आज भी यथातथ्य रहा है ?’’
‘‘रुक्मिणी तो एक सामान्य स्त्री है, किंतु सुना है कि गोकुल में बसने वाले एक गोपालक का केंद्र राधा नाम की कोई सखी थी और वह केंद्र आज तक यथातथ्य रहा है।’’
‘‘आप ईर्ष्या तो नहीं कर रहीं, देवी ?’’ कृष्ण ने मुसकराते हुए पूछा।
‘‘नहीं, ऐसा भाव श्रीकृष्ण के लिए संभव हो, वह अवस्था तो कब की बीत चुकी है। ‘‘रुक्मिणी ने कहा और फिर कृष्ण के आसन के पास जाते हुए बोलीं, ‘‘किंतु प्रश्न तो यथातथ्य ही रहता है।’’

‘‘प्रत्येक प्रश्न का उत्तर खोजना धर्म-निषिद्ध है।’’ कृष्ण ने कहा, ‘‘याद कीजिए, विदुषी गार्गी के प्रश्न एवं महर्षि याज्ञवल्क्य के उत्तर। महर्षि ने गार्गी से सत्य ही कहा था कि अति प्रश्न को लाँघने से मस्तक चूर्ण हो जाता है।’’
‘‘सच कहूँ तो मुझे राधा की नहीं, परंतु कभी-कभार माता देवकी से ईर्ष्या होती है।’’ रुक्मिणी बोलीं।
‘‘आप माता देवकी के मातृत्व से ईर्ष्या करती हैं या उनके समग्र स्त्रीत्व से ?’’ कृष्ण ने पूछा।
‘‘स्त्रीत्व तो मुझे भी पूर्ण प्राप्त हुआ है, भगवन्।’’ रुक्मिणी ने कहा, ‘‘किंतु श्रीकृष्ण जैसे पुत्र को प्राप्त करने वाली माता देवकी का मातृत्व धन्य है, ऐसा अनुभव किए बिना मैं नहीं रह सकती।’’
कृष्ण एक क्षण मौन रहे।

‘‘चुप क्यों हो गए, स्वामी ?’’ रुक्मिणी ने पूछा, ‘‘ऐसी सद्भागी माता और ऐसा परमपुत्र आर्यावर्त में अनन्य हैं।’’
‘‘एक सत्य आज प्रकट करूँ तो चौंकना मत देवि !’’ कृष्ण बोले, ‘‘देवकी एवं कृष्ण-ये दोनों माता एवं पुत्र ऐसे दुर्भाग्यशाली रहे हैं जिसकी आर्यावर्त्त ने कल्पना ही न की होगी।’’ कहते हुए कृष्ण ने पुनः एक बार होंठों पर अगम्य स्मित प्रकट किया और उनकी आँखें अतलांत में कहीं गहरे खो गईं।
‘‘यह आप क्या कह रहे हैं प्रभु ? देवों को जो दुर्लभ है, ऐसी माता और ऐसा उनका यह पुत्र, उन्हें आप दुर्भाग्यशाली कहते हैं ?’’
‘‘एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ, देवी !’’ युगों से गोपनीय कोई रहस्य जैसे खोजते हुए कृष्ण ने कहा, ‘‘किसी भी स्त्री के जीवन का सबसे उत्तम पल कौन सा होता है।’’
‘‘निश्चय ही मातृत्व !’’ रुक्मिणी ने कहा, ‘‘मातृत्व से उत्तम अन्य पल स्त्री के जीवन में संभव ही नहीं है।’’ 


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