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अचल मेरा कोई

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :208
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1573
आईएसबीएन :81-7315-131-8

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वर्माजी की श्रेष्ठ कृतियों में से एक ‘अचल मेरा कोई’...

Achal Mera Koi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

नारी स्वतंत्र होनी ही चाहिए पर स्वतंत्रता और उच्छृंखलता के भेद को भी समझा जाना चाहिए। आयातित आचरण से नारी-पुरुष समान हुए या नहीं-यह आज के लोग अच्छी तरह परिचित हैं। परंतु इस भविष्यत् को वर्माजी की दृष्टि ने पहले ही परख लिया था।

परिचय

इस उपन्यास का परिचय उपन्यास के भीतर है। जो लोग दैनिक या साप्ताहिक पत्र पढ़ते रहते हैं उन्हें 1945 के दिसंबर से लेकर 1948 तक की विशेष घटनाओं पर कल्पना को घुमाने से उपन्यास की मुख्य-मुख्य घटनाओं का स्मरण हो जावेगा। यदि घटनाएँ याद न आ रही हों तो सिनेमाघरों, सड़कों और घरों में उन घटनाओं को ढूँढ़ लें। नगरों और गाँवों में अपनी और अपने से बाहर के मानव की प्रकृति में, ऊपरी टटोल का प्रश्रय कुछ अधिक सहायता न देगा, परन्तु जरा भीतर झाँकने से प्रतीति हो जाएगी कि कथानक का आधार तथ्य पर है। थोड़ा और भीतर झाँका जाएगा तो जो कुछ दिखलाई पड़ेगा, वह दैनिकों या साप्ताहिकों के समाचार स्तंभों में नहीं मिलता है, इसलिए यदि 1945 से 1948 तक के या किसी भी काल के पत्रों में या उनकी स्मृति में कुछ प्राप्त न हो सके तो न तो आश्चर्य होना चाहिए और न परिताप। जो कुछ बाहर या भीतर होता रहता है, उसी को समाज के सामने लाने का प्रयत्न ‘अचल मेरा कोई’ में है।
कुंती ‘अचल मेरा कोई’ के आगे कुछ लिखना चाहती थी, परन्तु नहीं लिख पाई, या नहीं लिख सकी। मैं भी कुछ और अधिक नहीं लिखूँगा।

अचल मेरा कोई

जेल की दीवारों के भीतर काफी चहल-पहल थी। सिपाही अपने बटन और जूते पोंछ रहे थे। वार्डर तौलियों को फटकारकर कंधे पर सफाई के साथ रखने के उद्योग में थे। जेलर चैन की साँस के साथ अधैर्य का बरताव करते हुए झटपट रजिस्टर लौट रहा था-लौटते-लौटते घड़ी को भी देखता जाता था।
उसको जिला मैजिस्ट्रेट का फोन मिला था, ‘ठीक चार बजे छोड़ देना,’ कायदे की आज्ञा-लिखी हुई आज्ञा नहीं मिली थी। परन्तु जिला मैजिस्ट्रेट की फोन पर आज्ञा ! लिखी हुई से किस बात में कम थी ! प्रांतीय सरकार का आदेश तार से मिला। उसने जेलर को फोन कर दिया। लिखी हुई आज्ञा कहीं भी न थी। परन्तु मैजिस्ट्रेट भी अवज्ञा नहीं कर सकता था, फिर जेलर की कैसे हिम्मत पड़ती ?
जितने दिनों वे राजनैतिक कैदी जेल में रहे, जेलर ने अपना समय राम-राम करके काटा। ठीक चार बजे वे बाहर होने को थे। जेलर उनकी निकासी के लिए रजिस्टर लौटने-पौटने में व्यस्त था और प्रसन्न भी।
अचलकुमार, सुधाकर और उनके साथी छूटने के लिए व्यग्र नहीं दिखलाई पड़ रहे थे। सामान उनका प्रस्तुत था, चेहरे पर हँसी-मुसकराहट थी, पर बाहरी संसार के संपर्क में आने का कोई मोह उनके चेहरे पर व्यक्त नहीं हो रहा था।
अचल ने हँसकर कहा, ‘जेलर, यह सब सामान यहीं कहीं रख लें तो अच्छा होगा, दो-एक जिन में फिर लौटना पड़ेगा-क्या ठीक है ?’
सुधाकर भी हँसा। उसने अपने सामान पर घूमती हुई दृष्टि डाली। उसमें मसहरी-तकिए इत्यादि थे। उसके होंठों तक शब्द आए, ‘वाह ! यहाँ सड़ने के लिए सामान क्यों छोडूँ ?’ पर बोला, ‘ठीक कहते हो। दो दिन बाद बापू यदि भिड़ गए, तो फिर जहाँ के तहाँ।’

अचल ने बी.ए.पास कर लिया था। एम.ए.की तैयारी कर रहा था कि सत्याग्रह छिड़ गया और उसको जेल में आना पड़ा। सुधाकर ने बी.ए.की परीक्षा नहीं दे पाई थी। देता तो भी इसमें संदेह है कि कॉलेज की दीवारें और खेल के मैदान अभी कई बरस उसका पल्ला छोड़ते भी या नहीं। उसको विश्वास था कि एक-न-एक विषय न जाने कितनी बार उसकी जान को भारी हो जाएगा। एक साल तो सत्याग्रह की छाँह में किसी तरह खिसक गया। आगे के लिए उसके मन में राजनीति या अध्ययन-नीति के लिए उतना ही स्थान था जितना ताँगे के लँगड़े घोड़े के मन में ठीक समय पर स्टेशन पहुँचने का।
अचल के भीतर कोई कह रहा था-जल्दी लौटकर नहीं आना है, इतना समय मिल जाएगा कि एम.ए.पास कर लोगे, उसके बाद फिर जेल आने में गौरव कुछ ज्यादा बढ़ जाएगा। पर उसको जेल से घृणा नहीं थी। उसको यातनाओं से स्नेह नहीं था, परन्तु यातनाओं के सामने उसने जो अदम्यता अनुभव की थी और जो शूरता प्रकट की थी, उसका स्मरण उमंगें भर देता था। वे परिस्थितियाँ जेल के बाहर मिलने को न थीं, इसलिए जेल की दीवारों के भीतरी जीवन से उसका मन नहीं उचटा था। प्रातःकाल सवेरे उठकर अपने मधुर स्वरों में गाई हुई भैरवी से अपने कानों को मीठा करना, दूसरों के ऊँचें-नीचे सुरीले और बेसुरे गलों की तौल में अपनी तानों की निराली मंजुलता को पहचानते रहना-और बीच-बीच में साथियों को बतलाते रहना, ऐसे नहीं इस तरह कहो, और अपनी तानों के बीच-बीच में कनसुरे गलेबाजों के बेतुकेपन पर हँस देना-ये उस पीड़ासदन से चिपकी हुई सुखद स्मृतियाँ थीं। साथ ही, एक दिन एक नेता ने कहा था, ‘सोमवार की परेड में खड़े हुआ करो,’ और वे स्वयं नहीं खड़े हुए। प्रत्युत मौनव्रत धारण कर पद्यासन जमाकर बैठ गए थे,तब अचल ने निश्चय प्रकट किया था-‘हम सब सोमवार को मौनव्रत धारण कर लिया करेंगे, परेड का सवाल ही पैदा न होगा।’ नेताजी घबराए-‘तो परेड मंगल या बुध को होने लगेगी, ऐसा मत करो’। तोप के मुहरे पर सिपाहियों को कर देनेवाले सेनानायक थे वे। अचल इत्यादि सब हँस पड़े, क्योंकि नेताजी कुछ झेंप गए थे- यह सब मसखरापन जेल-जीवन की स्मृतियों के साथ अटका हुआ था।

और, जिन कैदियों को इन लोगों ने अपने पैसों में से बचा-बचाकर कभी मीठा और नमकीन खाने को दिया था, पिटने से बचाया था, संसार की विलक्षण बातें सुनाई थीं और भविष्य के समाज के नए रंग-रूप बतलाए थे, यह सुनते ही कि ‘बाबू लोग’ जाने वाले हैं रो पड़े। बहुत दिनों उनका साथ रहा था। साथ छूटने के स्मारक या परतंत्र और स्वतंत्र जगत् के विभाजक, उन आँसुओं ने एक आह पैदा की, परन्तु पंचम और गिरधारी, दो ऐसे भी थे जिनके चेहरों पर बहुत मोद था-पंचम को एक बलवे के मुकदमें में सजा हुई थी और गिरधारी को चोरी में। दोनों के मोद की तली में कभी-कभी एक निर्णय खेल जाता था-अब की बार राजनैतिक मामले में लौटकर आएँगे,‘बाबुओं,’ का साथ होगा और जेलर के दाँत खट्टे करेंगे। उन दोनों के छूटने की अवधि आज ही थी।
गिरधारी सुधाकर के सामने आ पड़ा। बोला,‘बाबूजी, अब की बार के आंदोलन में, मैं अपने बहुत-से साथियों को लेकर आऊँगा। आप लोगों की सेवा करूँगा और कुछ सीखूँगा भी। अचल बाबू से भैरवी की तानें याद करनी हैं।’
सुधाकर को ग्लानि हुई, तुरंत घर जाने की खुशी में वह वहीं-की-वहीं घुल गई।

‘देश के काम के लिए बहुत लोगों की जरूरत पड़ेगी। आना, जरूर आना।’ सुधाकर ने कहा।
सामने से अचल आ गया।
गिरधारी ने उत्साह प्रकट किया, ‘बाबूजी, मैं भैरवी सीखूँगा।’
अचल ने टोका, ‘यह समय भैरवी सीखने का है !’
‘लौटकर सीखूँगा।’
‘गाँव से भैरवी सीखने आओगे?’
‘आप समझे नहीं, बाबूजी। जब फिर सत्याग्रह छिड़ेगा, जब आप फिर यहाँ आएँगे, तब मैं भी आऊँगा और भैरवी सीखूँगा।’
अचल हँसा।
‘भैरवी सीखने के लिए यहाँ आओगे ! एक बाजा ले लो और भातखंडे की पहली पुस्तक। सीख लो, आ जाएगी। गला भी अच्छा है तुम्हारा।’
‘बाबूजी, आपका जैसा गला कहाँ से कोई पाएगा ?’
फाटक खुलने वाला था। गिरधारी फाटक की ओर चला गया। पंचम वहाँ पहले ही जा चुका था।
सुधाकर ने हँसकर कहा,‘अचल, यार तुम्हारी भैरवी तो बहुत मशहूर हो गई है।’
अचल मुसकराते हुए बोला,‘तुम लोग जेल के बाहर उसको और मशहूर करोगे।’

मन उमंग पर था। अचल ने गायन, वादन, नृत्य और तबले का बहुत अभ्यास किया था। पुस्तकें भी पढ़ी थी। इस कारण पांडित्य प्रदर्शन किए बिना उसका मन न माना।
कहता गया, ‘तंजोर में एक गवैया था। उसका नाम टोड़ी रामैया पड़ गया था। कर्नाटक-संगीत में भैरवी को टोड़ी कहते हैं। रामैया की ‘टोड़ी’ इतनी विख्यात थी कि वह टोड़ी रामैया कहलाने लगा। एक बार रामैया को रुपया उधार लेने की जरूरत पड़ी। फाकेमस्त था, इसलिए किसी ने ऋण देना मंजूर नहीं किया। केवल एक टोड़ी प्रेमी ने रुपया देना स्वीकार किया-इस शर्त पर कि रामैया अपनी टोड़ी उसके यहाँ गहने रख दे, उसके यहाँ के सिवाय और किसी जगह टोड़ी न गावे-’
सुधाकर ने हँसकर कहा, ‘विलक्षण शौकीन रहा होगा वह भैरवी का। अपने शहर में संगीत प्रेमियों की कमी नहीं है, भैरवी का पागल भी एकाध निकल आवे, परन्तु तुम्हारे ऊपर वैसा बंधेज कोई लगा ही कैसे पावेगा ?’
अचल मुसकराते हुए भी कुढ़न के साथ बोला, ‘जिसने टोड़ी को गिरवी रख लिया था वह संगीत का शौकीन तो जैसा कुछ भी रहा हो, ब्याजखोर खूनचट एक नंबर का रहा होगा। तंजोर के संगीत व्यसनी उस साहूकार के घर भैरवी सुनने के लिए इकट्ठे होते होंगे और वह उनसे पैसे उगाहता होगा, रामैया से ब्याज अलग।’
सुधाकर के घर साहूकारी होती थी। वह साहूकारी की निंदा में हाँ-में-हाँ मिलाया करता था, परन्तु समझता उसको अच्छा था, क्योंकि बिना किसी विशेष परिश्रम के इसी एक व्यवसाय से काफी रुपया जमा हो सकता था।
एक तरफ से उसका मन हाँ करने को हुआ और दूसरी तरफ से बहस करने को।
उसी समय जेल के बाहर एकत्र हुई भीड़ का जय-जयकार सुनाई पड़ा। उन दोनों के मन प्रसन्न हुए। जेल के बाहर होने वाले स्वागत की कल्पना ने उनके दिलों को धड़काया।

अचल ने उस धड़कन को दबाने के लिए कहा, ‘तुम नियम पूर्वक मेहनत करो तो गायन या वादन तुमको भी आ सकता है।’
सुधाकर की धड़कन ने उल्लास का रूप लिया। बोला,‘यार मेरे, गाना-वाना मुझको नहीं आएगा। सुनने के लिए जरूर मन चाहता है, परन्तु तानों की कारीगरी से मेरे कान खिसिया-से जाते हैं। माफ करना, अचल-परन्तु भाई, तुम्हारा गला तो रूखी तानों को भी सरस कर देता है। कभी-कभी सुनाया करोगे न ?
जेल के बाहर फिर जय-जयकार हुआ। अचल ने कहा, ‘ ये लोग नाहक यह हल्ला-गुल्ला करने आ गए हैं। अपने बड़े लोग कितना मन करते हैं, परन्तु ये मानते ही नहीं !’
बड़े लोगों के मना करने पर भी जनता अपने नगर-नेताओं या प्रिय पात्रों का जेल के बाहर स्वागत करने के लिए उमड़ पड़ती है और जय-जयकार करती है। यह बात अचल को पसंद थी, वह मन-ही-मन उसको जनता का स्वाभाविक उत्साह कहता था, पर ऊपर से भर्त्सना करने के लोभ का संवरण नहीं कर पा रहा था।
उसी बात को सुधाकर ने स्पष्ट कर दिया,‘जनता अपने हृदय की हिलोरों को कैसे बाँधकर रख सकती है ? यह उसका अधिकार है।’
अचल के मुँह से भी सायास निकल पड़ी, ‘हाँ-कहते तो ठीक हो।’

सुधाकर ने कहा, ‘सरकार हम लोगों को जेल से चुपचाप निकाल देना चाहती थी। इसीलिए उसने, मालूम होता है कि, लिखी हुई आज्ञा नहीं भेजी। तार दिया, मैजिस्ट्रेट ने जेलर को फोन किया-जिससे जनता न जान पावे। दुष्टता देखो, उसकी दुष्टता !’
अचल ने पूरी सहमति प्रकट की, ‘ठीक कहते हो, सुधाकर। सरकार की इसमें कोई दुष्टता हो या न हो, परंतु उसका डर अवश्य जाहिर होता है। भीड़भाड़ होगी, राष्ट्रीय नारे लगेंगे, लोगों में उत्साह की उमंग दौड़ेगी-जो बात सरकार नहीं चाहती, वह सब अनायास हो जाएगी, उसको क्यों रुचने लगा ? इसीलिए यह सब तार और फोन द्वारा किया गया है। परंतु जनता भी कितनी चतुर और प्रबल है ! उसने सब जान लिया। अभी फाटक भी नहीं खुले और वह नारे लगाती हुई आ डटी !’
फिर जय-जयकार हुआ। और, अबकी बार फाटक खोल दिए गए। बाहर पुलिस का कड़ा प्रबंध था। कहीं जनता जेल के भीतर न घुस पड़े-मैजिस्ट्रेट को इसका सही या गलत भ्रम था।
अचल और सुधाकर अपने साथियों के साथ फाटक से बाहर हुए। जिन दूसरे कैदियों की मियाद पूरी हो गई थी, वे भी छोड़े गए। उनमें गिरधारी और पंचम भी थे।

अचल और सुधाकर ने देखा, पुलिस की कतारों से कुछ दूर नगर के नर-नारियों का एक काफी बड़ा दल खड़ा है। साथ में एक बैंड भी। नारियों में लड़कियाँ भी थीं। हार लिये खड़ी थीं। कुछ लड़के भी हार लिये थे। परंतु अचल की दृष्टि लड़कियों की ओर पहले गई। सुधाकर की भी। कुछ लड़कियाँ उन लोगों की पहचानी हुई थीं। कुंती के हाथ में विविध रंगों के फूलों का हार था, और निशा के हाथ में केवल गुलाब का। दोनों कॉलेज में पढ़ती थीं। दोनों अगले साल बी.ए. की परीक्षा में बैठने को थीं।
उस स्वागत की प्रेरणा का ध्यान करके सुधाकर गद्गद होने को हुआ। उसने एक डग बढ़ाकर अचल के कान के पास कहा, ‘स्त्रियों की स्वाधीनता के दिन दूर नहीं हैं। ठीक अर्थ में इस देश को स्वाधीन उस दिन कहा जाएगा जिस दिन यहाँ की स्त्रियाँ स्वतंत्र हो जाएँगी।’
‘ठीक कहते हो,‘गले की किसी फाँस को साफ करके अचल बोला। उन लोगों के बाहर निकलते ही जनता उमंग से उद्वेलित हो उठी और उन दोनों के रोमों से फुरेरू लहराने लगी। नर-नारियों के हाथों में हार ऊँचे होकर नाचने-से लगे।
उनके पीछे मैले-कुचैले कपड़े पहने कुछ देहाती स्त्री-पुरुष खड़े थे। वे गिरधारी और पंचम की ओर टकटकी लगाए थे। बाबू लोगों पर उनकी आँख कम जा रही थी। उनके बगल में छोटी-छोटी पोटलियाँ थीं। किसी में घर की बनी पूड़ी और किसी में बाजार की मिठाई। गिरधारी और पंचम ने भी उन देहातियों को देख लिया। परंतु उनकी आँख फिसल-फिसलकर नगर के जनसमूह, नारियों की स्वच्छ आभा और फूलों के सौंदर्य पर जा रही थी।

‘देश पर बलिदान होने का पुरस्कार है यह’-उनका मन कह रहा था।
अपने नातेदारों की बगल में पोटलियों को देखकर वे स्नेह-मुग्ध भी हो रहे थे; परंतु स्वच्छ मनोहर साड़ियाँ पहने हुए लड़कियों के हाथों में फूल-मालाओं को देखकर वे कुछ और आगे की बात सोचने में देहातियों की बगलवाली पोटलियों को एक क्षण के लिए भूल जाते थे।
भीनी-भीनी सुगंधिवाले वे सुंदर फूल उन कोमल करों द्वारा गले में पहनाए जाने वाले हैं-परंतु अचल ने इस कल्पना को झटका देकर मन से हटा दिया। वह कल्पना केवल एक प्रश्न भीतर छोड़ गई-पहले किसके गले में माला पड़ेगी ?
पहले सुधाकर के गले में-अचल ने उत्तर दे दिया और वह आगे बढ़ते-बढ़ते, धीरे-धीरे पिछलने लगा। सुधाकर जरा आगे निकल गया। पुलिस की कतारें समाप्त हुई। सुधाकर ने जरा-सा पीछे मुड़कर देखा। अचल मुसकराता हुआ धीरे-धीरे आ रहा था। इतने में लड़के-लड़कियों ने दौड़कर हार डालने शुरू कर दिए। पहला हार सुधाकर के गले में पड़ा। फिर एक और, एक और। उसके पीछे अचल था। कुंती विविध रंग के फूलोंवाला हार लिये दौड़ी। अचल ने हाथ जोड़कर सिर नीचा कर लिया। कुंती ने लपककर उसके गले में हार डाल दिया। नमस्ते की।

अचल ने पूछा,‘पढ़ना-लिखना ठीक चल रहा है ?’
कुंती ने हँसकर कहा,‘अब आप आ गए हैं, आपसे पढ़ूँगी और यूनिवर्सिटी में अच्छे नंबरों से पास होऊँगी।’
उत्तर जल्दी दिया गया था, भीड़ की ध्वनियों में समा गया।
‘आपसे पढ़ूँगी, ये शब्द अचल के कान में पहुँच गए। गले में माला डालने के समय कुंती का सौंदर्य आकर्षक प्रतीत हुआ था, उन शब्दों ने उसको कुछ और गहरा कर दिया। वह कुंती को पहले से जानता था। मुहल्ले में ही कुछ फासले पर रहती थी।
कुंती ने एक हार सुधाकर के गले में भी डाला। निशा उसके गले में पहले ही डाल चुकी थी और अब अचल को लाद रही थी। निशा की आँखों में कोई वैसी गहराई या मादकता न थी। सरल भोली चितवन मुसकान से खिल रही थी और संकोच से दब रही थी। जब उसने सुधाकर के गले में माला डाली थी तब अचल ने जरा कनखियों से देखा। मुसकराहट उतनी ही थी, या कम-बढ़, जितनी मेरे गले में डालने के समय थी ! मन में थोड़ी-सी उथल-पुथल थी। कुछ अधिक प्रशस्त थी मुसकराहट, पलकें कुछ अधिक उघर गई थीं। फिर वह किसी और के गले में पहनाने के लिए दूसरी ओर मुड़ी। अचल ने निशा की ओर जरा-सा देखा- और फिर कुंती की ओर। उसको केवल उसके खुले हुए सिर के पिछले हिस्से से पीठ पर लहराती हुई काले चिकने बालों की मोटी लट दिखलाई दी। मन ने समाधान किया, नहीं तो, सुधाकर को फूल पहनाते समय वह उतनी भी तो नहीं मुसकराई थी, उसकी खुली हुई बरौनियों को तुमने अच्छी तरह देखा ही कब था ? तुम तो सिर झुकाए हुए नमस्ते में लिपटे हुए थे ! फिर कुंती को देखा। वह उतनी ही मुसकराहट और उतावली के साथ दूसरे लोगों को अपना आदर दे रही थी, जो उसने सुधाकर को दिया था। मेरे साथ कुछ और ही हुआ था-उसने सोचा।
शोरगुल तो काफी हो ही रहा था-अब बैंड बज उठा। उसकी तुमुल ध्वनि ने कान फोड़ना आरंभ कर दिया-कम-से-कम अचल को ऐसा ही लगा। रास्तों में दुकानों पर हँसते-मुसकराते हुए चेहरे और फूलों की वर्षा के लिए उठे हुए हाथ उस कनफोड़ू क्रिया पर कुछ मरहम का काम कर रहे थे। बच्चे दाएँ से बाएँ और बाएँ से दाएँ दौड़-दौड़ पड़ रहे थे। बुड्ढे और जवान सब उत्सुकता के साथ जलूस को देखने में निरत थे। लोगों ने अचल,सुधाकर इत्यादि को अनेक बार देखा था, किसी-किसी ने तो छुटपन से ही। परंतु फिर भी वे किसी उद्दीपन के साथ निहार रहे थे। ये लड़के उस दो हड्डीवाले दुबले-पतले बूढ़े के सिपाही हैं जिसने अपनी नीची दृष्टि, खुली मुसकराहट और खनकती हुई आवाज से महान् समुद्री और हवाई बेड़ेवाले साम्राज्य के घुटने नवा दिए। जिस साम्राज्य के एक छोटे-से गोरे के बंगले पर बड़े-बड़े हिंदुस्थानियों को अहाते के बाहर ताँगा छोड़कर पीठ झुकाकर जाना पड़ता था।

बैंड की तुमुल ध्वनि में वे लड़के अपना एक उग्र रूप देखते थे-किसी दिन पहने हुए, कतार बाँधे हुए ठठ-के-ठठ हिंदुस्थानी आजादी की लड़ाई के लिए आजादी के मोरचे पर जा रहे होंगे-और हम उनके नायक बनकर आगे होंगे। बंदूकें लिये होंगे और संगीनें चढ़ाए होंगे। ऐं ! बंदूकें !! बूढ़े बापू की वही खुली मुसकराहट, सामने वही खनकती हुई आवाज कान में। बंदूकें और संगीनें मन के किसी कोने में जा समाई। अचल ने पीछे मुड़कर देखा, कुंती और निशा धीरे-धीरे चली आ रही हैं। उनका मुँह पसीने से स्पंदित हो गया है, कहीं-कहीं घूल ने लकीरें तक बना दी हैं। मन चाहा- इनसे कह दें, घर जाओ, और अधिक धूल-धूसरित मत होओ। परंतु और नर-नारी भी तो थे; पसीने और धूल ने उनके साथ कोई रियायत नहीं की थी। सब अपने-अपने घर चले जाएँ तो अकेला बैंड और वे थोड़े-से रह जाएँ तो अकेला बैंड और वे थोड़े-से रह जाएँगे। इधर-उधर कुछ भीड़, दुकानों पर कुछ लोग। फिर और क्या रह जाएगा ? और जब जलूस ही न रहेगा तो अकेले बैंड को कौन देखने दौड़ेगा ? परंतु बापू के सिपाहियों को, भविष्य के नेताओं को देखने के लिए तो लोग उमगेंगे ! लेकिन उनको तो छुटपन से नगर निवासियों ने देखा था। पर इस तरह तो नहीं देखा था। इसलिए जलूस को बिखेरना नहीं चाहिए और न उसको बिखरना चाहिए। बिना भीड़-भाड़ के, बिना जलूस के राजनैतिक क्षेत्र के मूल्य कितने रह जाएँगे ? तो भी उन दोनों लड़कियों पर अचल को तरस आ रहा था। फिर भी, वह अकेले उनसे क्या कह सकता था ! और उनके चेहरों पर दूसरों की अपेक्षा उल्लास भी कहाँ कम था ? बैंडवाले समझते थे जलूस की शोभा वे हैं; पुरुष, वृद्ध और लड़के अनुभव कर रहे थे जलूस उन्हीं की दौड़-धूप और उपस्थिति के कारण महानता पा रहा है और स्त्रियाँ समझती थीं शायद वे जलूस में न होती तो इतनी भारी भीड़ इकट्ठी होती ही क्यों ?
और, बाजार के कुछ पके-पकाए लोग सोचते थे, हम न हों तो यह सब कितने दिन चलेगा ? हम चंदा न दें तो यह बैंड-ऐंड कैसे बजेगा ? फिर दें कैसे नहीं ? ये चंदा बटोरनेवाले फिर जेल से बाहर आ गए ! परंतु जब ये भीतर थे, तब भी तो चंदा वसूल किया जाता था। इनके भाईबंद वसूल करते थे। परंतु कष्ट सहकर आए हैं, त्याग करके आए हैं। नगर का नाम किया इन्होंने। और अपने ही तो हैं।

अचल ने देखा, जो कम पढ़े-लिखे उसके साथ जेल से लौटे हैं उनकी ओर जनता का उतना ध्यान नहीं जा रहा है, यद्यपि वे उझक-उझककर, गरदन को झटके दे-देकर भी उस ध्यान को आकृष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं। उसने सोचा, कठिन-से-कठिन परीक्षा को पास करके अपने को और भी अधिक निखारूँगा-सँवारूँगा। उसके बाद जो कुछ त्याग करूँगा, उसका मूल्य बहुत बड़ा होगा-भीतर-ही-भीतर एक कल्पना बिजली-सी करवट ले गई; इसी नगर का क्या, सारे देश का ध्यान मेरी तरफ खिंचेगा।

परंतु दुकानदारों और दुकानों पर जमी हुई या चंचल भीड़ का ध्यान उस पर से रिपट-रिपटकर सुधाकर पर अधिक ठहर रहा था। वह लखपती घराने का है। लखपती का लड़का जेल गया ! इससे बढ़कर त्याग और क्या हो सकता है ?
अचल की समझ में बात आ गई-और समाज में धनिकों की इस प्रतिष्ठा से उसका जी कुढ़ गया। आदर-सम्मान, विराम-विश्राम के लिए धन जरूरी है। पर बड़ा कौन है ? सरस्वती और लक्ष्मी की वही पुरानी लड़ाई। किंतु उल्लू पर लक्ष्मी की सवारी की कल्पना करते ही उसको सांत्वना मिल गई-और फिर वह ऐसा दरिद्र भी न था। उसके घर में भी पैसा था और वह लेन-देन या किसी ऐसे उपायों से नहीं आया था।

स्वास्थ्य उसका अच्छा था। वह सीधा चल रहा था। मार्ग पर उसके पैर फूल की तरह पड़ रहे थे। सुधाकर की आकृति कुछ अधिक सुंदर होने पर भी देह उतनी स्वस्थ न थी। यह अंतर तुरंत उसको एक ऊँचे स्तर पर ले गया; परंतु उसी क्षण उसके जी में अनुकंपा का प्रवाह आया। तुलना ने ग्लानि उत्पन्न की और उसने भीतर-ही-भीतर मनाया, सुधाकर का स्वास्थ्य अच्छा हो जाए, उसके इस विषय पर कभी चर्चा करूँगा।
अचल ने निश्चय किया, धन को बढ़ाऊँगा। देश के कामों पर खर्च करूँगा, क्योंकि किसी कवि ने ठीक कहा है, ‘भूखे भगत न होय मुआलू।’
जलूस ने समय आने पर अपनी शक्ति खर्च कर दी और सब लोग अपनी-अपनी धुन में लग गए।

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