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बचपन की कहानियाँ

गिरिराजशरण अग्रवाल

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1563
आईएसबीएन :81-7315-142-3

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प्रसिद्ध साहित्यकार और शिक्षा-मनीषी डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल द्वारा संपादित कहानियों का संकलन।

Bachapan Ki Kahaniyan A Hindi Book By Girirajsharan Agarwal - बचपन की कहानियाँ - गिरिराजशरण अग्रवाल

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत पुस्तक ‘बचपन की कहानियाँ’ प्रसिद्ध साहित्यकार और शिक्षा-मनीषी डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल द्वारा संपादित कहानियों का संकलन है।
इन कहानियों के माध्यम से बाल-मनोविज्ञान पर गहरी दृष्टि डाली गई है। बच्चे किन-किन अवस्थाओं में अपने कुटुंब से प्रसन्न रहते हैं। कब क्षुब्ध रहते हैं, उनके कारण क्या हैं, अभिभावक की कौन सी कमजोरियाँ बच्चों पर गलत प्रभाव डालती हैं आदि अनेक समस्याएँ और उनका निदान कहानियों की भाव-भूमि है।
हमारे सामाजिक जीवन में लड़कियों को लड़कों की अपेक्षा निकृष्ट समझने का जो स्वभाव है, वह भी कई प्रकार की मनोवैज्ञानिक उलझनें उत्पन्न करता है। इस सम्मान से जहाँ एक ओर लड़कियों में अपने आपको दुर्बल समझते रहने की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है, वहीं लड़कों में महिलाओं के प्रति एक दूषित दृष्टिकोण भी पनपता रहता है। भविष्य में यह प्रवृत्ति पुरुष एवं महिला वर्गों के बीच के रिश्ते को अमानवीय स्तर पर पहुँचा देती है। इस विवरण से यह भी ज्ञात होता है कि बच्चे चाहे संपन्न वर्ग के हों अथवा निर्धन वर्ग के, लड़कियों के रूप में हों या लड़कों के, हम बड़ों के द्वारा किए गए अनुचित व्यवहार के कारण अपने संतुलित विकास की ओर बढ़ नहीं पाते हैं।
इस संकलन में ऐसी ही कतिपय समस्याओं से जूझते बच्चों और उनके मनोविज्ञान को रूपायित करनेवाली कहानियाँ संग्रहीत हैं। प्रकृति की कमान से निकलते हुए इन तीरों को अपना मार्ग स्वयं बनाने में आप पूरा-पूरा सहयोग देंगे, इसी आशा के साथ प्रस्तुत है यह संकलन।

बच्चों के साथ-साथ

लेबनान के विश्वविख्यात लेखक जिब्रान ने एक स्थान पर लिखा है-‘तुम्हारे बच्चे प्रकृति की कमान से निकले हुए तीर हैं, इन्हें वायुमण्डल में अपना रास्ता खुद बनाने दो।’ ये पंक्तियाँ केवल कविता की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति ही नहीं हैं वरन् बच्चों के जीवन की बहुत सारी समस्याओं का संक्षिप्त में विवरण भी प्रस्तुत करती हैं। गम्भीरता से सोचा जाए तो प्रकृति की कमान से निकले हुए इन तीरों के रास्ते में आने वाली बाधाओं में बच्चों के अभिभावक, समाज की व्यवस्था, विद्यालयों का वातावरण, अध्यापकों का व्यवहार तथा परिजन और सम्बन्धी सम्मिलित हैं। यद्यपि इनमें से कोई व्यक्ति अथवा संस्था यह नहीं जानती कि उनके किस व्यवहार या दृष्टिकोण से बच्चों के प्राकृतिक विकास में किस प्रकार की बाधा पहुँच रही है। सभी अपने-अपने स्तर पर बच्चों के प्रति स्नेह, सहानुभूति, प्यार, अपनत्व तथा हितकामना का व्यवहार करते हैं फिर भी ये भावना कहीं-न-कहीं सबके मन में निहित रहती है कि बच्चों का जो भी विकसित स्वरूप बने, वह उनकी इच्छा तथा कल्पना के अनुसार हो। इस रवैये से बच्चों के जीवन में अनेक प्रकार की समस्याएँ खड़ी हो जाती हैं।

सच बात यह है कि भारत जैसे विकासशील देश में बच्चों के साथ क्या मनोवैज्ञानिक ‘ट्रीटमेण्ट’ हो, इस बात को जानने की समुचित व्यवस्था ही नहीं की जाती। यहाँ अधिकांश बच्चे अपने अभिभावकों अथवा शिक्षकों की इच्छा-अनिच्छा के अनुसार अपना रास्ता निश्चित करते हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि बच्चों को अपने बड़ों के उचित मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है किन्तु जब बड़ों द्वारा इस आवश्यकता की सीमा लाँघ ली जाती है, उसी क्षण बच्चों के जीवन में समस्याएँ पैदा होने लगती हैं। इन समस्याओं का सम्बन्ध मनोविज्ञान से भी है और समाज तथा व्यक्तिगत व्यवहार से भी। किन्तु सबसे बड़ी भूमिका हमारी सांस्कृतिक विरासत के साथ भी जुड़ी हुई हैं जिसके रहते हम बच्चों के साथ पूरा-पूरा न्याय नहीं कर पाते। उदाहरणत: बच्चों में जन्म से ही जिज्ञासा की एक प्रबल भावना होती है। हम कई कारणों से बच्चों की इस भूख को शान्त करने में झिझकते हैं अथवा टालते रहते हैं-विशेषकर ऐसे मामलों में जो धार्मिक अथवा काम से सम्बन्धित हैं या ऐसे विषय, जिनमें हमारी अपनी कोई सन्तोषजनक जानकारी नहीं है। हमारे द्वारा ऐसे प्रश्नों के जो उत्तर बच्चों को दिए जाते हैं वे या तो अधिकांशतः उन्हें गुमराह करते हैं या कम से कम उनकी मानसिक जिज्ञासा को शान्त नहीं करते। इससे उनकी मानसिक उलझनें बढ़ जाती हैं और ये उलझनें अवस्था के साथ-साथ अधिक भयंकर रूप धारण कर लेती हैं।

हमारे साथ एक और कठिनाई यह भी है कि हम बच्चों के साथ अपनी सर्वोच्चता का प्रदर्शन करते रहते हैं जिसमें कुछ बच्चों में विद्रोह की भावना फूट निकलती है तो कुछ में हीनता का भाव जड़ पकड़ लेता है। किन्हीं भी कारणों से बच्चों को कठपुतलियों की तरह नचाते रहने में या तो हमें आनन्द मिलता है या इससे हमारी कोई मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति सन्तुष्ट होती है। हम नहीं जानते कि बच्चों पर अपनी सत्ता या अपना अधिकार जमाए रखने की आकांक्षा से यदि एक ओर हमारा अहम् तुष्ट होता है तो दूसरी ओर यही इच्छा उनकी जीवन की धारा को बहुत ही विकट रास्तों पर ला छोड़ती है।

यह स्थिति सम्पन्न परिवारों से लेकर साधारण परिवारों तक में देखने को मिलती है। ऐसे सम्पन्न परिवारों के द्वारा, जो निर्धन बच्चों को अपने यहाँ सेवक के रूप में रखते हैं या ऐसे व्यवसायों के द्वारा, जो बालश्रम का शोषण करके अधिक धन प्राप्त करने की नीति पर चलते हैं, निर्धन एवं गरीब बच्चों के साथ अत्यन्त अमानवीय व्यवहार किए जाने की अनेकानेक घटनाएँ प्रकाश में आती हैं। हमारे जैसे निर्धन देशों में निम्न वर्गों के बच्चों की मूल समस्या यह है कि उन्हें छोटी उम्र से ही परिवार के लिए आर्थिक साधन जुटाने में लग जाना पड़ता है। ऐसे बच्चे होटलों, रेस्तराओं अथवा धनी परिवारों में बँधुआ मजदूरों की तरह काम करने पर विवश हो जाते हैं। ये बच्चे यदि परिस्थितियाँ अनुकूल होतीं तो देश के प्रबुद्ध एवं जिम्मेदार नागरिक हो सकते थे किन्तु इन स्थानों पर लाचारी में काम करते हुए उन्हें अपने जीवन की सम्पूर्ण आशाओं, आकांक्षाओं और भावनाओं को तिलांजलि दे देनी पड़ती है। इन्हीं में ऐसे बालक भी होते हैं जो आगे चलकर असामाजिक तत्त्वों के साथ जुड़ जाते हैं और उनमें आपराधिक प्रवृत्ति विकसित हो जाती है। समाज पूरा दोष इन्हीं के सिर पर रखता है और यह भूल जाता है कि पतन की इस खाई में धकेलने का उत्तरदायित्व केवल उसी का है। दूसरी ओर सम्पन्न परिवारों के बच्चे इनकी दयनीय परिस्थितियों को देखते हुए एक विचित्र प्रकार की ‘सुपीरियरटी’ के भाव से ग्रस्त हो जाते हैं। उच्चता का यह भाव जहाँ उन्हें समाज के साधारण वर्ग से काट देता है, वहीं उन्हें अपने आपमें केन्द्रित करने के लिए प्रेरित करता है।

इस तरह निम्न वर्ग और उच्च वर्ग के बालकों की विकसित मानसिकताओं में एक रोगी समाज ही साँस लेता रहता है। प्रायः जब एक सम्पन्न परिवार का बच्चा अपने निर्धन सहपाठी के साथ बराबरी का व्यवहार नहीं करता तो निर्धनता का एहसास उस बच्चे के जीवन में अन्दर तक अपनी जड़े फैलाकर उसकी योग्यता और साहस के स्रोतों को सुखा डालता है।

अपनी विशेष सांस्कृतिक विशेषताओं के कारण हम चाहे किसी भी वर्ग से सम्बन्धित हों अपने बच्चों के साथ मित्रता का बर्ताव नहीं करते, यह एक ऐसी विडम्बना है जो बच्चों के जीवन में निरन्तर विष घोल रही है। छोटे बच्चों को, जो अभी अपने पैरों पर खड़े नहीं हुए हैं, हमारी दोस्ती और मित्रता की सबसे ज्यादा आवश्यकता होती है। हम मित्रता के स्थान पर उनके साथ एक शासक का व्यवहार करते हैं और शासक का यह व्यवहार विशेषकर सम्पन्न परिवारों के बच्चों में विद्रोह की भावनाएँ जगा देता है। जबकि यह व्यवहार निर्धन परिवारों के बच्चों में झिझक, शर्मीलापन एवं हीनता की मानसिकता को जन्म देता है। इसके अतिरिक्त एक और स्थिति भी दिखाई देती है कि हम अवस्था में बड़े लोग अपने परिवार के बच्चों को निरन्तर निर्बल और सहारों का मोहताज समझने की भी भूल करते हैं। इस भूल के कारण हम पग-पग पर उनकी उँगली थामकर उन्हें आगे बढ़ाने में गर्व महसूस करते हैं। हमारा यह अनुचित व्यवहार अन्त में उनमें आत्मनिर्भरता के भाव को विकसित नहीं होने देता। बड़े होकर ये बच्चे कुछ ऐसे पात्र बन जाते हैं, कम-से-कम जिनको सन्तुलित नहीं कहा जा सकता।
हमारे सामाजिक जीवन में लड़कियों को लड़कों की अपेक्षा निकृष्ट समझने का जो स्वभाव है, वह भी कई प्रकार की मनोवैज्ञानिक उलझनें उत्पन्न करता है। इस सम्मान से जहाँ एक ओर लड़कियों में अपने आपको दुर्बल समझते रहने की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है, वहीं लड़कों में महिलाओं के प्रति एक दूषित दृष्टिकोण भी पनपता रहता है। भविष्य में यह प्रवृत्ति पुरुष एवं महिला वर्गों के बीच के रिश्ते को अमानवीय स्तर पर पहुँचा देती है। इस विवरण से यह भी ज्ञात होता है कि बच्चे चाहे सम्पन्न वर्ग के हों अथवा निर्धन वर्ग के, लड़कियों के रूप में हों या लड़कों के, हम बड़ों के द्वारा किए गए अनुचित व्यवहार के कारण अपने सन्तुलित विकास की ओर बढ़ नहीं पाते हैं।

कभी-कभी पहली पत्नी की मृत्यु के बाद पुरुष पुनर्विवाह कर लेता है और उसके बच्चों को नयी माँ मिलती है। प्रायः वह इन बच्चों को सही प्यार नहीं दे पाती। ऐसे बच्चे समाज के अत्यन्त अभागे बच्चे हैं जो प्यार की भूख में विभिन्न आपराधिक प्रवृत्तियों के शिकार हो जाते हैं। घर से भागते हैं, या ऐसे कार्यों में लग जाते हैं जिनको समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता है।
कम ही सही किन्तु हमारे समाज में वे बच्चे भी हैं जिनको निःसन्तान परिवार गोद लेते हैं। इनकी अपनी समस्याएँ हैं, जो स्वाभाविक प्यार न मिलने से उत्पन्न होती हैं। कभी-कभी ऐसी घटनाएँ भी प्रकाश में आती हैं कि गरीबी की जीवन-रेखा से नीचे जीने वाले परिवार अपने बच्चों को सम्पन्न परिवारों में बेच देते हैं। बिके हुए बच्चों का भविष्य क्या होगा, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। महसूस किया जा सकता है कि वे जीवित मशीनों की भाँति समाज में रहने के लिए विवश होते होंगे।

इस संकलन में ऐसी ही कतिपय समस्याओं से जूझते बच्चों और उनके मनोविज्ञान को रूपायित करने वाली कहानियाँ संगृहीत हैं। प्रकृति की कमान से निकलते हुए इन तीरों को अपना मार्ग स्वयं बनाने में आप पूरा-पूरा सहयोग देंगे, इसी आशा के साथ प्रस्तुत है यह संकलन।

डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल

गवाह

अनीता मनोचा

सुमित्रा ने अपने लम्बे बालों को जूड़े में बाँधने के बाद माथे पर सिन्दूर का टीका लगाने के लिए जैसे ही दर्पण में देखा तो वह चौंक उठी। एक ही रात में उसका चेहरा जैसे झुर्रियों से ढक गया था। उसने एक दीर्घ निःश्वास छोड़ते हुए पुकारा, ‘‘मिन्नी !’’ मिन्नी उसकी पाँच वर्षीया नातिन थी और आज कचहरी में उसकी पेशी थी। बच्ची का दोष यह था कि उसने अपने पिता को नशे की स्थिति में अपनी बेहोश माँ के कपड़ों पर मिट्टी का तेल छिड़कने के बाद सिगरेट लाइटर से आग लगाते देख लिया था। मिन्नी इस बात का अकेला जीता-जागता सबूत थी कि किसी तरह एक जिन्दा इन्सान आग की लपटों में झुलसकर एक मुट्ठी राख में परिवर्तित हो जाता है, और इसीलिए न्याय के रक्षकों के लिए उसकी न्यायधीश के समक्ष गवाही अनिवार्य हो उठी थी। सुमित्रा अपनी बेटी की असमय मृत्यु के शोक में भी इतनी व्याकुल नहीं हुई थी, जितनी आज यह सोच-कर हो रही थी कि यह मासूम बच्ची वकीलो की बहस को किस तरह झेल पायेगी।

मिन्नी के लिए आज का दिन किसी उत्सव से कम नहीं था। आज उसे उसका पसन्द का फूलदार फ्राक पहनाकर उसके बालों में रंगीन रिबन के फूल टाँके गये थे। उसे समझाया गया था कि अदालत में उससे जो भी पूछा जाये, उसका उत्तर वह उतना ही दे, जितना उसको ज्ञात है। और फिर उसकी फ्राक की जेब में ढेर सी टाफियाँ भर दी गयी थीं। सुमित्रा ने नन्हीं मिन्नी के उत्साह से भरे चेहरे को देखा और फिर उसका हाथ थाम बाहर की ओर चल दी।

अदालत खचाखच भरी हुई थी। कहीं वकीलों की भीड़ तो कहीं मुकद्दमों के लिए आये लोगों का जमघट। मिन्नी ने सुमित्रा का हाथ कसकर थाम लिया, उसकी नन्हीं हथेली पसीने से तर हो गयी थी। तभी सुमित्रा द्वारा नियुक्त वकील तीव्रता से उसके पास आया और बोला, ‘पोस्टमार्टम की रिपोर्ट से ज्ञात हुआ है कि आपकी बेटी के साथ मृत्यु से पूर्व जबरदस्ती की गयी थी, उसके पूरे शरीर पर खरोंचों के निशान मिले हैं।’’ सुमित्रा हिचकियों में रो उठी, ‘‘हाँ वकील साहब, दहेज में बहुत अधिक धन नहीं मिल पाने के कारण उसका वहशी पति अपना स्वयं का व्यापार नहीं कर पाया था। इसीलिए अपने कार्यालय में पदोन्नति हेतु वह अपने अधिकारियों को प्रसन्न करने के लिए मेरी बेटी का उपयोग करना चाहता था। यह बात मेरी बेटी ने मुझे बताई थी। वह सदा ही अपने पति का इसी कारण विरोध करती रहती थी।’’

वकील का सिर गम्भीरता से हिलने लगा। ‘‘तो शायद उस रात उस पर बलात्कार की चेष्टा हुई हो और प्रतिरोध के फलस्वरूप ही उसकी यह दशा कर दी गयी हो।’’ मिन्नी अब तक न समझ आने वाले इस समस्त वार्तालाप को पूरे मनोयोग से सुन रही थी। उसने नानी की ओर गर्दन मोड़कर पूरी गम्भीरता के साथ पूछा, ‘‘नानी माँ, बलात्कार क्या होता है ?’’ सुमित्रा और वकील दोनों के सिर शर्म से झुक गये। मिन्नी ने स्थिति की गम्भीरता को समझते हुए अपना प्रश्न नहीं दोहराया, बस सुमित्रा के हाथ को और भी दृढ़ता से थाम लिया, जैसे वह कोई नन्हीं बच्ची हो और मिन्नी से हाथ छूटने पर उसका इस भीड़ में खो जाने का डर हो।
और तभी उसका मुकद्दमा आरम्भ हो गया। सुमित्रा मिन्नी को लेकर भीतर कमरे में चली गयी। मिन्नी ऊँची कुर्सी पर बैठे व्यक्ति की ओर संकेत करके बोली, ‘‘नानी माँ, वह कौन है ?’’ सुमित्रा ने कहा, ‘‘उसे न्यायाधीश कहते हैं।’’ और मिन्नी को गवाह के कटघरे में खड़ा कर दिया। बचाव पक्ष के वकील ने पूछा, ‘‘क्या तुमने अपने पिता को अपनी माँ के कपड़ों में आग लगाते हुए देखा था ?’’

मिन्नी ने एक बार सुमित्रा की ओर देखा और फिर उत्तर दिया, ‘‘हाँ।’’
‘‘तुम्हारी माँ और पिता के आपसी सम्बन्ध कैसे थे ?’’ वकील ने अपना अगला प्रश्न किया। मिन्नी ने पूरी मासूमियत के साथ अपनी पलकें झपका दीं। वकील ने अपना प्रश्न दोहराया, ‘‘क्या तुम्हारे पिता तुम्हारी माँ से लड़ते थे ?’’ और उसी समय मिन्नी के पिता का उस कमरे में प्रवेश हुआ। मिन्नी पिता की ओर कुछ क्षण तक देखती रही और फिर एकाएक चिल्ला उठी, ‘‘उसे रोको ! वह राक्षस है ! उसने मेरी माँ को मार डाला और अब वह नानी माँ को मारने आया है।’’ और फिर नन्हीं हथेलियों में अपना चेहरा ढाँप वह सिसकने लगी। न्यायाधीश ने उसे वहाँ से ले जाने का आदेश दिया। सुमित्रा रोती हुई बच्ची को बाँहों में भरकर कमरे से बाहर ले आयी।

घर आने पर मिन्नी का मन किसी खेल में नहीं लग पाया। उसे याद आ रहा था कि कैसे उसका पिता प्रतिदिन देर रात में शराब पीकर घर लौटता था और उसके साथ सोयी माँ को उठाकर जबरदस्ती दूसरे कमरे में ले जाता था। फिर वहाँ देर तक उनके झगड़ने और फिर माँ के रोने की आवाजें आती रहती थीं। मिन्नी का शराब की गंध से परिचय बहुत बचपन से ही हो गया था। वह जान गयी थी कि शराब पीकर आदमी लड़खड़ाने लगता है और मार पीट भी करता है। माँ उसे सदा ही बहुत अच्छी लगती थी, इसीलिए आयु के साथ-साथ उसके मन में माँ के प्रति सहानुभूति और पिता के रोष समान रूप से पनपता रहा था। जब-जब उसके पिता माँ को मारते, उसका जी चाहता कि वह पिता को इस घर से सदा-सदा के लिए जाने को कह दे। पिता के लाये फ्राक और खिलौने भी उसे कभी खुश नहीं कर पाते थे। माँ को उस निर्दयी व्यक्ति के चंगुल से बचाये रखने के लिए वह अधिकांशतः माँ के साथ-साथ रहती, क्योंकि उसकी उपस्थिति में पिता माँ से कुछ नहीं कहते थे। अपने पिता का चेहरा देखकर उसे कहानियों के उस जादूगर दैत्य की याद हो आती जो एक राजकुमारी को उसके महल से उठा लाया था और उसे बलपूर्वक अपनी पत्नी बनाकर उस पर मनमाने अत्याचार करता था।

मिन्नी की माँ ने अपने माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध मिन्नी के पिता से विवाह किया था। इसीलिए लम्बे समय तक चुप रहकर वह यह सब सहती रही थी। अन्तिम कुछ दिनों में उसका संयम टूट गया था और उसने अपनी माँ को अपने पति के अत्याचारों के विषय में बहुत कुछ बता दिया था। इतने पर भी उस स्वाभिमानी ने अपनी मां से धन की सहायता लेना स्वीकार नहीं किया था और अंततः उस सुखी लगने वाली गृहस्थी का यह दुःखद परिणाम देख सभी परिचित स्तम्भित रह गये थे। उस दिन अचानक ही ऐसा हो गया था कि कुछ गिरने के स्वर से उठी मिन्नी अपने पिता के कमरे से निकलकर माँ के कमरे की ओर चली आयी थी। और उसने अपने पिता को नीचे धरती पर पड़ी माँ के शरीर पर मिट्टी का तेल डालते देख लिया था। अभी वह स्थिति की भयावहता को समझ भी न पायी थी कि पिता ने लाइटर जलाकर माँ के कपड़ों में आग लगा दी थी। मिन्नी आग की लपटें देख घबरा उठी और माँ की ओर भागी, परन्तु तभी दो मजबूत हाथों की पकड़ ने उसे रोक दिया और वह छटपटाकर रह गयी।

उसका मुँह पिता ने अपने हाथ से बन्द कर दिया और दूसरे कमरे में ले आये। अगली सुबह घर में मिन्नी अकेली थी और बिलख-बिलखकर आस-पड़ोस से एकत्रित हुए लोगों को अपने पिता के कुकृत्यों के विषय में बता रही थी। भगोड़ पिता को शीघ्र ही पुलिस ने ढूँढ़ निकाला। तभी सुमित्रा मिन्नी को उस घर से सदा-सदा के लिए अपने यहाँ ले आयी। मिन्नी माँ के साथ रहकर अपने बचपन के स्वभाव को पीछे छोड़ आयी थी और माँ के समान ही उसका स्वभाव प्राकृतिक रूप से गम्भीर होता चला गया था। किसी सामान्य-सी घटना पर भी वह आवश्यकता से अधिक समय तक विचार करती रहती। आज भी अदालत से लौटने के बाद कितने ही प्रश्न उसे व्यथित कर रहे थे। जज कौन होता है ? पिता अभी तक स्वतन्त्र क्यों घूम रहे हैं वकील ने उससे यह क्यों कहा ? नहीं मालूम कि अच्छे बच्चे कभी झूठ नहीं बोलते ? बलात्कार क्या होता है ? अनेकों जैसे प्रश्न मिन्नी के मस्तिष्क में कुलबुला रहे थे, जिनका उत्तर पाना उसे आवश्यक प्रतीत हो रहा था। वह उत्तर पाने की अपेक्षा करते हुए नानी के पास चली आयी, परन्तु नानी का उदास चेहरा देखकर उसने उनसे कुछ नहीं पूछा। वह यह सोचकर रह गयी कि कल स्कूल में अपनी प्रिय अध्यापिका से ही ये सब पूछेगी।

ये सोचने के बाद उसका मन थोड़ा शान्त हो गया और वह आकर बगीचे में बैठ गयी। सामने पार्क में कई बच्चे खेल रहे थे। मिन्नी उत्सुकता से उनकी ओर देखने लगी।
तभी पड़ोस के घर की एक लड़की उसे खेलने के लिए निमन्त्रण देने आयी, ‘‘चलो हम भी खेलेंगे।’’ मिन्नी ने सहज भाव से उसका निमन्त्रण स्वीकार कर लिया और उसके साथ चली गयी। थोड़ी देर खेलने के बाद अचानक ही उस लड़की की माँ ने उसे पुकारा, ‘‘चलो शालू, तुम्हारा दूध पीने का समय हो गया है।’’ शालू ने मिन्नी से कहा, ‘‘मैं अब नहीं खेलूँगी, मेरी माँ बुला रही है।’’ मिन्नी ने स्वर की दिशा में देखते हुए जैसे अपने आप से पूछा, ‘‘क्या तुम्हारे पिता भी माँ को मारते हैं ?’’
शालू ने अत्यन्त समझदारी से सिर हिला दिया, ‘‘छिः, गन्दी बात, पिता भी कभी माँ को मारते हैं ? वह तो उनसे प्यार करते हैं।’’ और वह अपने घर की ओर भाग गयी। मिन्नी चुपचाप अपने घर में आयी और सुमित्रा की गोद में मुँह छिपा सिसकने लगी। सुमित्रा ने उसके बाल सहलाते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ ?’’ आँसुओं से भीगा चेहरा उठाकर वह बोली, ‘‘नानी माँ ! क्या तुम हमें प्यार करने वाले अच्छे माँ-पिताजी दिला दोगी ?’’ सुमित्रा का मन कठोर धरती पर गिरे काँच-सा चटख गया।

उस दिन रात को घर के सब काम से निबटकर सुमित्रा मिन्नी के लिए दूध का गिलास लेकर उसके पास आ बैठी। दूध गरम था। मिन्नी ने गिलास थामकर उसे वापस रख दिया। सुमित्रा के पूछने पर बोली, ‘‘अभी गरम है।’’ और फिर कुछ देर तक चुपचाप बैठे रहने के बाद अचानक पूछा, ‘‘नानी माँ, जब माँ आग में जली थी तब क्या उसे इतना ही गरम लगा होगा ?’’
सुमित्रा ने मिन्नी का सिर अपनी छाती से लगा लिया और बोली, ‘‘नहीं मिन्नी, बेहोशी में कुछ भी, गरम ठंडा नहीं लगता। तुम्हारी माँ बेहोश थी ना !’’ मिन्नी ने चुपचाप दूध पी लिया।

सुमित्रा वहीं उसके साथ लेट गयी। देर तक मिन्नी के बाल सहलाने के बाद उसने जब मिन्नी की ओर देखा तो पाया कि वह अब तक जाग रही थी। नानी को अपनी ओर देखते पाकर वह बोली, ‘‘नानी माँ, क्या वे लोग पिताजी को भी वैसे ही आग में जलायेंगे जैसे उन्होंने माँ को जलाया था ?’’ सुमित्रा की आँखें भीग उठीं। उसे रोता देख मिन्नी व्यथित सी हो उठी और कुछ सीमा तक अपराध-बोध ने उसे घेर लिया।

अपनी नन्हीं हथेलियों से नानी के आँसू सुखाते हुए वह क्षमा याचना करने के भाव में बोली, ‘‘नानी माँ, मत रोओ। अब हम आपसे कुछ नहीं पूछेंगे।’’ सुमित्रा ने रोना भूल उसे अपने समीप खींच लिया और बोली, ‘‘कहानी सुनोगी मिन्नी ?’’ मिन्नी ने तुरन्त हाँ कर दी। सुमित्रा कहने लगी, ‘‘एक राजा था। उसकी एक रानी थी। उसके कोई सन्तान नहीं थी...’’ अचानक ही मिन्नी बोल उठी, ‘‘अच्छा हुआ ना नानी ?’’
‘‘क्या ?’’ सुमित्रा ने चौंकते हुए पूछा।

‘‘यही कि उसके कोई सन्तान नहीं थी।’’ मिन्नी बोली, ‘‘नहीं तो तब राजा जब रानी को मारता तो उसे भी मेरी तरह कचहरी में जाना पड़ता और वकीलों की बातों का जवाब देना पड़ता।’’ सुमित्रा का चेहरा विदीर्ण हो गया। उसने अँधेरे में अपने पास लेटी मिन्नी के मासूम चेहरे पर बचपन की रेखाएँ खोजने का व्यर्थ प्रयास किया, परन्तु उसे लगा बचपन उस बच्ची से कहीं बहुत पीछे छूट गया। सुमित्रा का मन किसी अज्ञात भय से काँप उठा। दूर आकाश में बगुलों का एक समूह तीव्र चीत्कार करता हुआ उड़ता जा रहा था।


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