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खंजन नयन

अमृतलाल नागर

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :248
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1449
आईएसबीएन :9788170280064

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महाकवि सूरदास के गरिमामय जीवन पर आधारित उपन्यास...

khanjan nayan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

यशस्वी साहित्यकार अमृतलाल नागर का चर्चित उपन्यास ‘खंजन नयन’ महाकवि सूरदास के गरिमामय जीवन की सार्थक प्रस्तुति है। नागर जी ने अपने उपन्यास ‘मानस का हंस’ में तुलसीदास की जीवन-गाथा को उपन्यास के रूप में प्रस्तुत किया था-उसी क्रम में सूरदास के जीवन के विभिन्न पश्रों का चित्रण इस कृति के माध्यम से किया गया है।
सूरदास के व्यक्तित्व को नागर जी ने तीन स्तरों पर प्रस्तुत किया है-तल, अतल और सुतल। नागर जी ने भी महाकवि को सूरज, सूरस्वामी, सूरश्याम, सूरदास अनेक रूप दिये हैं। और अन्त में जहाँ ये तीनों रूप समरस होते हैं वहाँ सूरदास राधामय हो जाते है।

डेढ़ वर्ष की साधना के पश्चात् नागर जी ने महाकवि की निर्माण-स्थली परासौली में बैठकर यह उपन्यास पूरा किया था। उनकी निष्ठा, श्रृद्धा, सूर के प्रति समर्पण के दर्शन इस उपन्यास के माध्यम से पाठकों को अवश्य होंगे।

 

भूमिका

 

पश्चिम के कुछ साहित्य पंडित ऐतिहासिक उपन्यासों के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं। उनका यह मत है कि इतिहास अच्छे उपन्यास के लिए घातक होता है। इसी तरह कुछ इतिहासकारों ने ऐतिहासिक उपन्यासों को कोसा है, उनकी दृष्टि में उपन्यास इतिहास का शत्रु है। इन दोनों की परस्पर विरोधी बातों में सच्चाई का अंश अवश्य है। मैं भी यह मानता हूं कि ऐतिहासिक, उपन्यास को विशुद्ध इतिहास मान लेना ठीक नहीं। उपन्यास ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, नौतिक-अनौतिक भले ही किसी भी विशेषण से युक्त हो वस्तुतः वह उपन्यास ही होता है, केवल उपन्यास। यह दूसरी बात है कि किसी ऐतिहासिक काल-विशेष के चरित्रों का चित्रण करते समय लेखक उस काल की प्रमुख घटनाओं और नैतिक, राजनैतिक तथा सामाजिक, धार्मिक संस्कारों को भी चरित्रों के मनोनिर्माण में आवश्यक मानकर उन्हें समाहित कर लेता है।

आरंभ में इस प्रकार के स्पष्टीकरण की आवश्यकता इसलिए समझी कि ‘मानस का हंस’ उपन्यास पढ़कर गोस्वामी तुलसीदास जी के प्रति अंध धार्मिक श्रद्धा रखने वाले कुछ पाठकों को ऐसी ही कुछ शिकायतें हुई थीं। हो सकता है कि ‘खंजन नयन’ पढ़कर कुछ सूरांधों को भी वैसी ही शिकायतें हों। उनके लिए अपने सतही मन की औपचारिक सहानुभूति मात्र ही अर्पित कर सकता हूं। सहृदय सुविद पाठकों को सूरबाबा के प्रति मेरी निश्चय श्रद्धा के दर्शन अवश्य मिलेंगे, यह मेरा विश्वास है।

तुलसी के समान सूर के जीवनवृत्त की ऐतिहासिक प्रामाणिकता भी अधर में लटकी हुई है। इन दोनों ही संत महाकवियों की जन्मभूमियां पंडितों की अदालत से अब तक कोई निश्चित फैसला नहीं पा सकीं। सूरदास जी जन्मान्ध थे अथवा बाद में नयनहीन हुए यह बहस अब तक गर्म है और शायद आगे भी रहे। बकौल अकबर इलाहबादी ‘लड़ने को अखाड़ा कायम है मजमून-तराशा क्यों न करें।’ इसलिए दोनों ही महान् पुरुषों को नायक बनाकर उपन्यास रचते समय मैंने अपने ढंग से ही इस समस्या के ऊंच को एक करवट से बैठाया है। वार्ता के अनुसार गोस्वामी हरिराय जी महाराज ने दिल्ली-गुड़गांव के पास सीही ग्राम में उनकी जन्मभूमि कहा है। नौ बरस की उमर में घर त्यागने के बाद भी अठारह बरस की आयु तक सीही से केवल तीन-चार कोस की दूरी पर ही ताल किनारे वे डेरा डाले पड़े रहे। लेकिन इतने गहरे और दीर्घकालीन संबंध के बावजूद सूर की भाषा पर हरयाणवी और ब्रजभाषा के संगम क्षेत्र की कोई छाप नहीं पड़ी। यह बात मैं ब्रजभाषा के अनेक पंडितों से पूछ-जांच चुका हूं। इसके विपरीत मधुरा गोवर्द्धन के आसपास की बोली से उनका अंतरंग परिचय होने की बात ही अधिकतर मानी गई है। गोस्वामी हरिराय ने जैसे उन्हें सीही को बतलाया है वैसे ही नागरीदास जी ने उन्हें ब्रज का छोरा कहकर बखाना है। आगरा के श्री तोताराम शर्मा ‘पंकज’ ने रुनुकता के पास साह को सूर की जन्मभूमि सिद्ध करने का भरसक प्रयत्न किया है।

सूरबाबा की परासौली वाली कुटी में बैठकर इन बातों पर विचार करते-करते सहसा मुझे यह सूझा कि क्यों न इस पंडिताऊ दैरो-हरम से दूर हटकर परासौली को ही बाबा की जन्मभूमि मान लूं। ब्रजभाषा और संस्कृत के प्रकाण्ड पंडित प्रियवर डा. वासुदेव कृष्ण चतुर्वेदी ने मुझसे अपनी बातों के दौर में यह अवश्य स्वीकार किया था कि सीही और भी है जो ठेठ ब्रज के क्षेत्र में ही अब शेरगढ़ के नाम से विख्यात है परन्तु खाली पुष्टिमार्गीय परम्परा से जुड़े होने के कारण गोस्वामी हरिराय जी के फतवे को न मानने में उन्हें संकोच था। बहरहाल जब तक पंडितगण गुड़गांवी-सीही, शेरगढ़ी-सीही और रुनुकतिया साहा के संबंध में किसी निश्चय पर नहीं पहुंचते तब तक गोपीवल्लभ राधाकांत की यह ‘परमपरा ओली’ ही इस उपन्यास के महान् नायक की जन्मस्थली के रूप में प्रतिष्ठित रहेगी। वैसे, परासौली का शुद्ध नाम स्व. डा. वासुदेव शरण जी अग्रवाल के अनुसार ‘पलाश अवली’ है।

सूर के जन्मान्ध होने या न होने का मसला भी अभी तक तय नहीं हो सका है। गोस्वामी हरिराय जी ने उन्हें सिलपट्ट अंधा माना है। उनकी भौंहे अवश्य थीं पर आंखों के ‘गढ़ेला इ नाय हते।’ नये पंडितगण कहते हैं कि अति सूक्ष्म चितेरे महाकवि ने किसी न किसी आयु सीमा तक यह दुनिया अपनी आंखों से अवश्य देखी होगी। स्व. आचार्य हजारी प्रसाद जी द्विवेदी भी इसी मत के थे। इस प्रकार की मान्यता वाले सभी विद्वानों के प्रति पूरा आदरभाव रखकर भी उनकी बातें मेरे गले न उतर सकीं। प्रज्ञाचुभ हेलेन केलर उन्नीस महीने की आयु में अंधी हो जाने के बावजूद टटोलकर फूलों के रंग बतला देती थीं। मेरे आध्यात्मिक गुरु स्व. बाबा रामजी और महर्षि श्री अरविन्द प्रज्ञाचक्षुता की सिद्धि के लिए श्रुति को एक अवश्य उपकरण मानते थे परन्तु हेलेन केलर बेचारी तो अंधी होने के साथ-साथ जन्म से बहरी भी थीं। बहरहाल मैंने सूर के प्रमाणानुसार ही उन्हें ‘जनम कौ आंधरो’ माना है। ‘द्वै लोचन साबित नहिं तेऊ’ उक्ति के अनुसार वे सिलपट्ट अंधे भी नहीं थे।

इस उपन्यास में आई हुई एक पात्री ‘कंतो’ मल्लाहिन के संबंध में कुछ सफाई देना आवश्यक प्रतीत होता है। मथुरा के युवा विद्वान डा. विष्णु चतुर्वेदी ने मुझे बतलाया था कि एक वार्ता के अनुसार युवा सूरदास किसी मल्लाहिन के इश्किया चक्कर में फंसकर एक बार बुरी तरह से मारे-पीटे गए थे। उक्त वार्ता मुझे पढ़ने को नहीं मिल सकी इसलिए वह इश्के मल्लाहिन भले ही सच हो या न हो परन्तु इस उपन्यास की कंतो मल्लाहिन युवा सूर की सार्थक प्रेमिका है।

इस उपन्यास की रचना के हेतु मैंने अनेक ग्रंथों और विद्वानों से सहायता प्राप्त की है। आचार्य पं. सीताराम जी चतुर्वेदी द्वारा संपादित सूरसागर, श्रीमद्भागवत और पुष्टिमार्गीय वार्ता साहित्य से मैंने बहुत कुछ ग्रहण किया है। अंतिम परिच्छेद में सूर की कल्पना के महारास दृश्य को मैंने अपनी कल्पना का दृश्य बनाना उचित न समझकर भागवत के दशम स्कंध से प्रायः उद्धृत ही कर लिया है। उसके अनुवादक मेरे आदि साहित्यिक गुरु स्व. पंडित रूपनारायण जी पाण्डेय कविरत्न ने ऐसी सरल भाषा लिखी है कि मेरे लिए कुछ फेरबदल करने की गुंजाइश ही न थी। इसलिए गुरुप्रसाद के रूप में ग्रहण कर लिया।

श्री गोवर्द्धननाथ जी की मूर्ति की प्राकट्य-कथा के लिए मैंने पुष्टिमार्गीय ‘श्रीनाथजी की प्राकट्य-वार्ता’ के बजाय बांग्ला की श्रीमद्कृष्णदास कविराज गोस्वामी कृत ‘श्री चैतन्य चरितामृत’ को ही अधिक पुष्ट प्रमाण माना है।
श्री अरविन्द के भक्तियोग, कर्मयोग और स्वामी ओमान्द तीर्थ कृत ‘पातंजल योग प्रदीप’, महामहोपाध्याय पं. गोपीनाथ जी कविराज लिखित ‘श्रीकृष्ण प्रसंग’ पुस्तकों के प्रति भी सूरसागर, भागवतादि की तरह ही चिर ऋणी हूं। The Book of Popular Science  के खण्ड 6, 8, 9 और 10 के कई लेख मेरे लिए बड़े उपयोगी सिद्ध हुए जिसमें ‘some of inner senses’, ‘Spring that control the Human Mechanism’, ‘Senses and the soul’, The Origin of Thought, Instinct and Emotion’, ‘The World of sensations-Avenues leading to Consciousness’, ‘Sense of Vision in Human Body’ और ‘Evolution of Vision मुख्य हैं।

 ऐतिहासिक पृष्ठभूमि संजोने में डॉ. सैयद अतहर अब्बास रिजवी द्वारा अनूदित ‘आदि तुर्ककालीन’ भारत और तुगलककालीन भारत’, टालबॉजय व्हीलर कृत ‘अर्ली मुसलिम रूल’, डॉ. आशीर्वादी लाल कृत सल्तनत ऑफ देहली साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित बाबरनामा, डॉ. मोतीचन्द्र लिखित काशी का इतिहास डॉ. कृष्णदत्त वाजपेयी लिखित ब्रज का सांस्कृतिक इतिहास पुस्तकों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करता हूं। इनके अतिरिक्त स्व. द्वारकादास जी पारिख और साहित्य वाचस्पति श्री प्रभुदयाल मित्तल कृत ‘सूर निर्णय’, पंडित बालमुकुंद चुतुर्वेदी की सप्ततरंगात्मक सूरसागर और आनंद दुलारे वाजपेयी डा. श्रीमती शकुन्तला शर्मा और डा. चन्द्रभान रावत का आभार माना भी मेरा परम कर्तव्य है। उपन्यास रचना के लिए मेरा मनो-निर्माण करने में इन ग्रंथों ने मेरी बड़ी सहायता की। संत तुकाराम महाराज की उक्ति ‘संताची उच्छिष्टें बोलतो उत्तरें’ इस उपन्यास के लिए सर्वथा सार्थक है। उपन्यास में आए हुए एक कवि के लिए मैंने स्व. रूपनारायण जी चतुर्वेदी के एक कवित्त का उपोयग भी किया है।

परासौली और गोवर्द्धन घुमाने के लिए गोवर्द्धन के सुकवि श्री देवकीनंदन कुम्हेरिया और चि. रामनरेश पांडेय, विश्रामघाट स्थित सूरबाबा की कोठरी दिखाने के लिए आयुष्मान डा, ब्रजवल्लभ मिश्र और श्री मुरलीधर चतुर्वेदी, मथुरा के पुराने नक्शों से परिचित कराने के लिए डा. त्रिलोकीनाथ बज्रलाल डा. कृष्णचन्द्र पाण्ड्या और चि. रमेश मिश्र गोकुल दर्शन के लिए श्रीराम बाबू द्विवेदी और रुनुकता-गौघाट दिखलाने के लिए अपने ज्येष्ठ दौहित्र चि. संदीपन मेरे सहायक और पथ-प्रदर्शक बने।
मेरी मथुरावासिनी ज्येष्ठ पुत्री सौभाग्यवती डा. अचला नागर ने संवादों में प्रयुक्त मेरी ब्रजभाषा को जहां-तहां शुद्ध किया। मेरे आवास, खानपान, दवादारु आदि का सारा प्रबंध मेरे दीर्घकालीन मधुरा प्रवास में बराबर वही करती रही। मेरी बेटी ने मेरी मां बनकर यह सारी सुख-सुविधाएं संजोई। उसके ‘एम्बेसेडर ड्राइवर’ रिक्शा चालक चि. चरनसिंह ने मेरी बड़ी सेवा की।

यों तो प्रायः 95 प्रतिशत यह पांडुलिपि मैंने ‘स्वहस्तोऽयम्’ ही लिखी है पर बीच में कुछ समय के लिए मेरे दो बार के लखनऊ वास में मित्रवर ज्ञानचंद्र जी जैन, ज्येष्ठ पौत्र चि. पारिजात और दोनों पौत्रियों भा. ऋचा और भा. दीक्षा ने भी उसे कहीं-कहीं लिखा है। ऐसी एक-सी दीर्घकालीन तल्लीनता और पुर्व मनोयोग का जैसा आनंदामुभव मैंने इस बार पाया वैसा अपने लेखकीय जीवन में पहले कभी नहीं पाया था। इस बार लगता था कि सूरबाबा स्वयं बोल रहे हैं और मैं मात्र उनका लिखिया हूं। बोलकर न लिखा पाने की मानसिक मजबूरी ने प्रारंभ में जैसी घबराहट मेरे मन में भरी थी वैसे ही कल्पनातीत सुखद अनुभव मुझे लिखकर मिला है। उपन्यास 30 नवम्बर, 1979 को सौ. अचला के घर में लिखना आरंभ किया। अधिकांश भाग ‘श्रीकृष्ण जन्म भूमि अन्तर्राष्ट्रीय विश्रा मगृह’ में और अंतिम परिच्छेद परासौली की सूर कुटी में 23 अक्टूबर, 1980 ई. शरद राधेश्याम जी द्विवेदी मेरे काम से संबंधित कोई भी लेख या पुस्तक पाते ही अस्सी वर्ष की आयु में भी बालोचित उत्साह के साथ दौड़कर मेरे जन्मभूमि आवास में पहुँचते थे। उनकी इस कृपा को भला किन शब्दों में सराहूं। अलीगढ़ के प्रियवर डा. गोवर्धन नाथ शुक्ल और वृन्दावन के डा. शरण बिहारी जी गोस्वामी के पत्रों से भी अपने मन की टोह पाई। सबसे अधिक चमत्कारिक और उल्लेखनीय बात तो ‘श्रीकृष्ण प्रसंग’ पुस्तक के प्रसंग में है।

 कविराज जी महाराज की उक्त पुस्तक का ध्यान आया और दूसरे ही दिन बनारस से उनके शिष्य सरलमना साधक श्री एस. एन. खंडेलवाल उसे लेकर मेरे पास मथुरा पहुंच गए। यह आश्चर्यजनक घटना थी। सूर संबंधी अध्ययन करते समय श्रद्धेय पं. श्रीनारायण जी चतुर्वेदी, अज्ञेय भाई डा. रामविलास शर्मा, कृष्णनारायण कक्कड़ और मधुरा गोष्ठी में प्रियवर विद्वद्वर उदयशंकर शास्त्री के साथ हुई अपनी बातों से भी मैंने बल पाया है। इन सब बड़ों, बराबर वालों और छोटों को अपने प्रमाण-नमस्कार और आशीर्वाद यथायोग्य अर्पित करता हूँ।

 

18 दिसम्बर, 1980
चौक, लखनऊ

 

-अमृतलाल नागर

 

खंजन नयन

 

वृन्दावन से लगभग दो कोंस पहले ही पानीगांव के पास वाले किनारे पर खड़े चार-छह लोगों ने सुरीर से आती हुई नाव को हाथ हिला-हिलाकर अपने पास बुला लिया : ‘‘मथुरा मती जइयों। आज खून की मल्हारें गाई जा रही हैं वांपे।’’
सुनकर नाव पर बैठी सवारियां सन्न रह गईं। उन्नीस-बीस जने थे; तीन को वृन्दावन उतरना था, बाकी सभी मथुरा जा रहे थे। सभी के होश-हवास सूली पर टंग गए।
‘‘आखिर बात क्या हुई भैयन ?’’

‘‘सुलतान के राज में मारकाट के काजे कभी कोऊ बात होवे है भला। त्यौहार कौ दिना, हमारी मां-बहन के माथे कौ सिंदूर आग की लपटों सौ उठ रयौ है चौराये पै।...’’ फिर एक ही सांस में भद्दी से भद्दी गालियां कहने वाले युवक के मुंह से फूट पड़ीं। उसके नपुंसक क्रोध का अन्त विवशता के आंसुओं में हुआ।

नाव से करीब-करीब सभी लोग बातें सुनने के लिए किनारे पर आ गए थे, केवल एक अंधा नवयुवक और दो बुढि़यां ही बैठी रहीं। सावनी तीज का दिन। कुंआरियों-सुहागिनों का त्यौहार। पिछले आठ-नौ बरसों से चले आ रहे प्रलय काल में जिन सुहागवंतियों की ससुरालें मथुरा के आस-पास के गांवों और कस्बों में हैं वे तो तीज के दिन अपने मैके नहीं आ पाती हैं, पर शहर के भीतर आस-पास के मोहल्लों में या शहर से ले गाँवों में जिनके मैके-ससुराल हैं उनके दिलों में तीज का उल्लास, पत्थर पर हरियाली-सी उमग ही पड़ता है। मृत्यु की भायनकता भी जीवन के सांस्कारिक उत्सव को जड़ नहीं बना सकी। हाथों में मेहंदियां रचीं, गुलगुले पके, झूले पड़े, कजरी-मल्हारें गाई जाने लगी :

 

ऊंची-ऊंची मथुरा जाके हरे-हरे बांस, आगे तो डेरा पठान को
सोने की गगरी रेसम लेजु, चंद्रावलि पानी नीकरी।
दूध में दूध पानी में पानी
धुवां कैसे पैर उठति आवे ज्वानी
आगे-आगे डेरा पठान के-
घेरी चंद्रावली डेरे बीच...

 

इसी मल्हार पर घमासान मच गई। बौहरे खुन्नामल के घर घुसकर उनके कर्जदार पठान और उसके साथियों ने खूनी तीज मना डाली। न इज्ज़त बची न लक्ष्मी। गांव के लोग सामना करने आए तो मारकाट के शोर से पड़ोसी गांव की आग शहर में भी फैल गई। धर्म के नाम पर बदला लेने के लिए स्त्री और धन की लूट कुछ लोगों के लिए पुण्य कार्य बन गई। कुछ बरसों पहले सिकंदर सुल्तान ने जब गद्दी पर बैठने के बाद महावन से आकर मथुरा में पहली मारकाट मचाई थी तब जो परिवार जबरन मुसमान बनाए गए थे वे ही इस समय शहर में सबसे अधिक आतंककारी हैं। मथुरा के सैकड़ों घरों में लाशें पड़ी हैं, अनेक मोहल्ले धू-धू कर जल रहे हैं। काज़ियों मुल्लाओं की जय-जयकर बोलकर, सुल्तान और दीन की हुचकियां ले लेकर नए मुसलमान गुंडे हिन्दू बस्तियां लूट रहे हैं। सरकारी अमला यों तो साथ नहीं दे रहा पर लूट की दौलत आखिर किसे बुरी लगती है। यों भी ‘काफिरों का काबा’ मथुरा और मथुरा वासियों को बड़ी ओछी दृष्टि से देखा जा रहा था।

यह सब हाल-हवाल सुनकर मथुरा जाने वाली अठारह सवारियों में से आठ ने तो वहीं उतरकर आड़े-तिरछे रास्तों से अपने घरों को पहुंचने का निश्चय तुरंत कर लिया, बाकी दस जने अजब ऊहापोह में पड़ गए। उनमें हाथरस के पंडित सीताराम गौड़ भी थे। नाव पर लौटकर अपने अंधे साथी से बोले : ‘‘सूर्यनाथ, तुम्हारी भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई।’’
कालू केवट पास ही खड़ा था, पूछा : ‘‘क्या इन अंधे सामी दी ने पैलेइ बता दीनी थी महाराज ?’’
अंधा सूरज मुंह उठाकर बोला : ‘‘मैं क्या बताऊंगा, यह सब इन्हीं गुरु महाराज जी की ही कृपा है। दो घड़ी रात तक चढ़े तक सब ठीक हो जाएगा। ’’
‘‘हां, हो तो जाएगा पर मेरे लिए रात में मथुरा ठहरने की समस्या होगी। बस्ती में प्रवेश करना कठिन है और घाटों पर रात में उल्लू बोलते हैं।’’

‘‘कोई नहीं रहता गुरु जी ?’’
‘‘बहुत से घाटों पर साधु और गौमाता के कटे सिर टंगे हैं। कहीं जादू-टोने का भय उत्पन्न करके कि यहां आओगे तो चोटी कट जाएगी, दाढ़ी कट जाएगी घाट बंद कर दिए हैं। स्नान-पूजा, यज्ञ-कीर्तन सब कुछ लोप हो चुका है। हे हरि।’’ एक गहरी ठंडी सांस खींचकर सीताराम चुप हो गए।
‘‘सभी घाटों पर नहाने की मनाही है गुरुजी ?’’
‘‘पिछले वर्ष से विभ्रान्त घाट से यह प्रतिबंध हट गया है। एक दाक्षिणात्य ब्राह्मण युवक के तेज से यह चमत्कार संभव हुआ। पर अब भी बहुत से लोग भय के कारण नहीं जाते।’’
‘‘भय कैसा ?’’
‘‘किसी यवन तांत्रिक ने वहां ऐसा यंत्र टांग रखा था कि उसके नीचे होकर निकलने वाले प्रत्येक हिंदू की शिखा कट जाती थी और उसे बलात् दूसरे धर्म का मान लिया जाता था। किंतु श्री बल्लभ भट्ट के आत्मबल ने उस यंत्र को निस्तेज कर दिया। वहां बैठकर उन्होंने भागवत भी बांची।’’

अंधा सूरज उस विलक्षण महापुरुष के संबंध में सोचने लगा। यात्री अभी किनारे पर ही खड़े हुए बतिया रहे थे। नाव पर बैठी दोनों बुढ़ियां परस्पर सहानुभूति से लिलार के लेखों को कोस रही थीं। एक मुरा की थी दूसरी गोवर्धन की। मथुरा वाली का पति अंधा था, वह बच्छवन के किसी नामी फकीर से असली ममीरे का सुर्मा लेने गई थी। गोवर्धन वाली बुढ़िया अपने बीमार भाई को देखने के लिए माठ गई थी। दो महीने बाद घर लौट रही है। उसे अपने पोते-पोतियों की बड़ी याद आ रही है। उनसे मिलने में इन दंगाइयों ने बिघन डाला—सत्यानास हो। जिन सुहागिनों मरियों ने तुरकों की मल्हारे गाईं—उनका सत्यानास हुआ, और भी हो। गोवर्धन वाली के कोसनो पर अंधे सूरज को हंसी आ गई : ‘‘तैने तो कोसनों का गोवर्धन ही उठा लिया है माई। आवाज थोड़ी नीचे उतार ले। किसी कंस-दूत के भनक पड़ गई तो यहीं मथुरा बन जाएगी तुम्हारी।
बात से नाव पर सन्नाटा-सा छा गया। इतने में किनारे से छप-छप करता बल्लो अहीर नाव के पास तक आकर पानी में खड़ा हो गया, और केवट से बोला : ‘‘कालू चौधरी, सिगरे लोगन की राय जई है कि मथुरा जी चलौ जाय। हंसा को नाव घाट तो  पल्लीपार हैगो, कुशल ते पौंच जांगे। वां ते अपनी-अपनी गौं देख लिंगे सिगरे जने। नई होगा तो तेरी नाव पर ही काट लिंगे एक रात। यहाँ पड़े रहवे में काऊ मजौ नांय।’’

केवट बोला : ‘मेरी नाव पे तो नईं, पर रात में सोने को चौकस परबंध करा दूंगो। आधो-पौन पहर तौ अभी सोच-विचार में ही कट गयो है, पहर-डेढ़ पहर छान-निपटान में और निकाल लौ, फिर अंधेरे में सनसना सन सन करती निकल जायेगी मेरी जल परी और सीधी हंसा के घाट पै ही जा लगेगी।’’
सात आठ खुनियों से सिल-बटियां निकल आईं, घोटने-छानने के अपने-अपने मोर्चे सध गए। मथुरा वृन्दावन में तो जमना जी में गोता लगाने को मिलता ही नहीं, सन्नाटा देखकर यह सुख और पुण्य क्यों न लूटा जाए। कुछ लोग अपनी धोतियाँ धोने-सुखाने में लगे।
‘‘और जो सरकारी नाव डोलती हुई इधर आ गई अब हाल तो फिर यईं पे दूरी मथरा बन जायगी।’’ पंडित सीताराम ने सचेत किया।

‘‘अरे नांय बने। मथुरा बिंदराबन में मनाही है बाकी पूरी जमनाजी में कहा इनके बाप को इजरौ है ? और धमकी दिंगे तो हम काहू ते कम हैं। आठ-दस सिपाही होंगे नाव में। उनते निबटवे के काजे अकेली मैं ही बौत हूं पंडज्जी।’’
सिलोटी पर डंड पेलते हुए वृजपाल ने अपने चलते हाथ तनिक थाम लिए और सिर तानकर कहा : ‘‘आरे जाको नहानो होय वो मौज से नहावे-धोवे। हमारे रहते काहू ढेढ़नी के जाये की मगदूर नांय कि तुम्हारो बाल भी बांकौ कर सकैं। हम हैं अहीर ब्रजबासी। काहू ते कम नाय हैं। छोटी-सी सिलौटी पर बटिया के साधे हुए हाथ मात्तगयंद से फिर बढ़ चले। पास ही बैठे अन्धे सूरज ने बृजपाल के शब्दों को लेकर जांघ पर थपकियां देकर गाना शुरू किया :


‘‘हम अहीर ब्रजवासी लौग।
ऐसे चलौ हंसै नहिं कोऊ घर में बैठि करौ सुख भोग।
सिर पर कंस मधुपुरी बैठ्यों छिनकहि में करि डारै सोग।
फूंकि-फूंकि धरनी पग धारौ महाकठिन है समौ अजोग।’’


अंधे नवयुवक के स्वर में करुणा और चेतावनी का ऐसा स्पर्श था कि आस-पास बैठे किसी का हिया हिले बिना न बच सका।
‘‘जीता रह मेरा भैया। अरे तेरी आवाज तो तुरक पठानन की तलावार तेऊ गहरौ घाव करै है। कहां ते आय रौ ए भगत।’’ बड़ी-बड़ी सफेद गलमुच्छों वाले तोंदियल बूढ़े गनेसी महाराज ने पूछा।
‘‘सीही से।’’
‘‘म्हां तुम्हारौ घर है ?’’
‘‘घर तो भगवान के चरनों में है मेरा।’’
‘‘आंखें कब ते गईं ?’’
‘‘जनम से।’’
‘‘हरे-हरे, कैसा सुन्दर रूप, कैसा अनमोल कंठ ! और....भगवान की लीला बड़ी न्यारी है। अरे बल्लो, भौत पैराकी कर चुकौ। सुनी नई, सिर पे कंस मधुपुरी बैठो। बड़ी सच्ची बात कही तुमने। इन जवनन ने तो ऐसी परलय ढाई है कि कुछ कहते नायं बने।’’

‘‘अरे भैया, कोई मोकूं हूं डुबकी लगवाय दे।’’
‘‘अरी डोकरी, तैने सुनी नांय या बिचारे अन्धे भगत ने कहा कही हती—फूँकि-फूँक पग धरौ। मेहंदी को रंग खून में मिलाय दियौ है सारेन ने। हमारी हंसी-खुसी लूट लई राक्छसन ने।’’ बूढ़े गनेशी की आँखे छलछला उठीं।
पंडित सीताराम निवृत्त होकर गाँव लौट आए और लोटा तख्ते पर रख-कर गीला अंगोछा झटकारते हुए केवट से कहा : ‘‘बेटा कालूराम, अक्कास की हालत देख रया है ना ?
‘‘चिंता नईं है माराज। मेरे कने तिरपाल है। कोऊ भीगोगौ नांय। वैसे अबकी बिरियां बरखा ही नांय भई अभी तलक। राम जाने कैसी माया है  भगवान् की अब तौ असुरन कौ राज, ऊपर ते अक्काल। अबकी दुनियां भूखों मर जाएगी।’’
‘‘मारे रांड की। जी के ही कौन सौ निहाल है जायगौ।’’
‘‘सच्ची कहो, जीना-मुहाल हो गया है इस सिकंदर मुल्तान के राज मेंष बाल नई बनवा सको हो। ससुरे द्रौपदी के चीर से बढ़े चले जाय हैं। सबके म्हौडान पे पूतना केसे थन लटक रये हैंगे। जमना जी में न्हायें नईं। मुंडन जनेऊ ब्या सभी में बाधा......।’’

‘‘एक ब्याह को सिंस्कार ऐसो है जाकौ छिपायौ नांय जाय सके। सो वामै एक दच्छना पंडत को देओ, एक दच्छना काजी को देव। अंधेर है माराज ?’’
‘‘कालू राम, बेटा, सबको गुहारो ना जल्दी-जल्दी। सिर पर बादल लदे हैं। मथुरा में क्या हाल होगा, यह भगवान ही जानै। घी के कटरे में हर सुख घी वाले के यहां ठहरता हूं। पता नहीं वहां पहुंच पाऊंगा या नहीं। नहीं तो मेरे लिए एक रात रुकना समस्या हो जाएगी। सबेरे हाथरस जाना है।’’
‘‘चिंता ना करौ पंडज्जी माराज। (कान के पास आकर) नाव की कोठरी में चंदन मल खत्री को माल हैगो। किनारे पौंछते ही पाव घड़ी तेऊ कम समौ मे कोठरी खाली है जायगी। आप दिल्ली पार बस्ती में जानौ मती। कल्ल धौताएं हाथरस चल ही दीजों।’’
‘‘धन्य हो कालूराम, इस कलीकाल में शूद्र जातियों में जितनी भावबुद्धि है उतनी उच्च श्रेणी में नहीं रही। करुणानिधान सदैव तुम्हारे ऊपर कृपालु रहें बेटा।’’
दोनों घुटने उठाए अपने में समाया, नाव के सहारे बैठा हुआ, दुबला-पतला अंधा सूरज एकाएक सीधे बैठकर बोला : ‘‘गुरू जी, हम दोनों आज यहीं रह जायं तो अच्छा रहेगा।
‘‘अऽरे, बेटा सर्पों और सपेरों का गांव।’’
‘‘भला होगी गुरूजी, मान जाइए, कल चलेंगे।’’
नाव को किनारे से पानी में ढकेला जा रहा था। नाव को ढकेलने से धक्का खाकर पंडित सीताराम के मन में फैली गणित गड़बड़ा गई।

सूरज ने उनकी बाईं बांह पर दोनों हाथ रखते हुए बच्चे की तरह गिड़-गिड़ाकर कुछ कहना चाहा, किंतु उससे पहले ही पंडित जी हल्की झिड़क भरे स्वर में बोले :‘‘बच्चे न बनो पुत्र। संयगोवश पिछले सोलह-सत्रह दिवस साथ रहने का अवसर मिल गया। यह बहुत है। हां, तुम्हारे संकेत पर जब मैंने गंभीरता से से विचार करना प्रारंभ किया तो लगा कि मेरा अंत आज निश्चित ही है—जल नहीं तो अग्नी, नहीं तो असि, एक नहीं तीन-तीन बाधाएं पार करूं तो परसों  घर-बार के साथ अपना बावनवां जन्म-दिवस मनाऊं। यह संभव नहीं। जीवन और मृत्यु निश्चित सत्य हैं। मैं अपने शेष क्षण अब श्रीराम नारायण भगवान के नाम-स्मरण में बिताना चाहता हूं।’’
सूरज कुछ कहना चाहता है पर कह नहीं पाता। नाव बह चली है।
पंडित सीतारामजी की बातों में सूरज का मन करुण और भारी हो रहा है। अंधे सूरज की यादों में सोलह-सत्रह दिन पहले की वह सांझ उजागर हो गई जब...

पीपल के पेड़ के तने से टिका बैठा था। चिड़ियां ऊपर अपनी-अपनी जगहों के लिए आपस में लड़कर भयंकर शोर कर रही थीं। अंधे सूरज के मनोलोक में भी उजाले का अधिकार पाने के लिए भयंकर महनामथ हो रहा था। क्रोध रंजित करुणा के स्वर मुखर हो उठे थे : ‘‘किन तेरो नाम गोविन्द धर्यौ।’’
 गुरु सांदीपनि का पुत्र-शोक तप हरने के लिए तुमने असंभव का संभव कर दिखलाया, यमोलक से उनके प्राण छुड़ा लाए ! मित्र सुदामा का दुःख दारिद्र्य छुड़ाया, द्रौपदी की लाज बचाई। और मैंने तुम पर इतना-इतना भरोसा किया, इतनी-इतनी स्तुति  चिरौरियां कीं, किन्तु ‘‘सूर की बिरियां निठुर है बैठ्यो जनमत अंध कर्यौ।’’
एक हाथ ने उसकी उंगलियों को पोले से छूकर फिर हथेली दबाई, एक स्वर ने पूछा : ‘‘कहां के निवासी हो बेटा ?’’
‘‘भरत भूमि का।’’
‘‘पछांह से आए हो। ग्राम का नाम ‘स’ अक्षर से होगा।’’
‘‘आप कौन हैं महाराज ?’’

‘‘छोटी आयु में घर त्यागा, फिर सुख मिला उसे भी त्यागा—’’
अंधे सूरज का माथा उनके घुटने पर लुढ़क पड़ा : ‘‘आप सर्वज्ञ हैं। दया करके अपना परिचय दें।
‘‘मैं हाथरस का निवासी गौड़ ब्राह्मण हूं। परन्तु पहले तुम्हारा परिचय पाना चाहता हूं।’’
 ‘‘मेरी जन्म गोवर्धन के निकट परसौली ग्राम में हुआ था किन्तु चार वर्ष की आयु में गुरु ग्राम के पास ही सीही में चला गया। पिता सारस्वत, अपने क्षेत्र में भागवत महाराज के नाम से विख्यात थे। एक समय घर में थोड़ा वैभव भी था। किंतु नौ बरस पहले जब सिकंदर सुल्तान अपनी फौजी लूट के लिए दिल्ली से निकला था तब हमारे गाम पे भी तबाही आयी थी। आधे से अधिक घर तोड़ डाला गया था—’’
‘‘क्यों ?’’

‘‘कोसी के एक यजमान ने जोकि सीही का मूल निवासी था, समृद्धि पाकर अपनी जन्मभूमि में राधा गोपाल का एक मन्दिर बनवाया। हमारे दादा जो मूलतः परसौली के निवासी थे, यजमान के आग्रह से सीही गए थे। मन्दिर के साथ सेठ ने हमारे दादा को एक घर भी बनवा दिया था। हमारा घर मन्दिर का ही एक भाग था, पिछवाड़े बना हुआ।’’
‘‘हूँ ! तुम्हारा नाम भी तुम्हारे ग्राम के समान ही ‘स’ अक्षर से आरम्भ होता है। क्या नाम है।’’
‘‘सूर्यनाथ। पिता सूरा कहते थे, माता सूरज। अब कोई नाम नहीं बाबा, स्वामी, भगत यही सब कहलाता हूं।’’
‘‘तुम्हें अपना जन्म संवत याद है पुत्र ?’’
‘‘विक्रम संवत् 35, वैसाख सुदी 5। अब मेरी भी एक जिज्ञासा है महाराज।’’
 ‘‘पूछो।’’

‘‘आपने मेरा मुख या मस्तक देखकर मेरी लग्न विचारी थी ?’’
‘‘नहीं, स्वर से। त्वचा के स्पर्श से।’’
‘‘स्वर से मनुष्य की तत्काल मनःस्थिति का ज्ञान—’’
‘‘और स्पर्श से भी जाना जाता है। क्या ही तुम्हें धारण करने वाली धरती है। इसमें आश्चर्य क्या ?
‘‘वही लग्न का आधार भी है। जान पड़ता है तुम शकुन विद्या से परिचित हो।’’
‘‘मैं जन्मान्ध निपट गंवार हूं महाराज। एक संन्यासी गुरुजी की कृपा से कुछ मीनमेख विचार लेता हूं।’’
‘‘घर कब छोड़ा ?’’


 

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