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परसाई रचनावली: खंड -1-6

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :2661
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14126
आईएसबीएन :9788126710119

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रचनाशिल्प के नाते इन कहानियों की भाषा का ठेठ देसी मिजाज और तेवर तथा उसमें निहित व्यंग्य हमें गहरे तक प्रभावित करता है ।

परसाई रचनावली के इस पहले खंड में उनकी लघु कथात्मक रचनाएँ-कहानियाँ, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, संस्मरण आदि शामिल हैं । कहानीकार के रूप में हरिशंकर परसाई हिंदी कथा-साहित्य के परंपरागत स्वरूप का वस्तु और शिल्प-दोनों स्तरों पर अतिक्रमण करते हैं । परसाई की कथा-दृष्टि समकालीन भारतीय समाज और मनुष्य की आचरणगत जिन विसंगतियों और अंतर्विरोधों तक पहुँचती है, साहित्यिक इतिहास में उसकी एक सकारात्मक भूमिका है, क्योंकि रोगोपचार से पहले रोग-निदान आवश्यक है और अपनी कमजोरियों से उबरने के लिए उनकी बारीक पहचान । परसाई की कलम इसी निदान और पहचान का सशक्त माध्यम है । परसाई के कथा-साहित्य में रूपायित स्थितियाँ, घटनाएँ और व्यक्ति-चरित्र अपने समाज की व्यापक और एकनिष्ठ पड़ताल का नतीजा हैं । स्वातंत्र्योत्तर भारत के सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ के जिन विभिन्न स्तरों से हम यहाँ गुजरते हैं, वह हमारे लिए एक नया अविस्मरणीय अनुभव बन जाता है । इससे हमें अपने आसपास को देखने और समझनेवाली एक नई विचार-दृष्टि तो मिलती ही है, हमारा नैतिक बोध भी जाग्रत् होता है; साथ ही प्रतिवाद और प्रतिरोध तक ले जानेवाली बेचैनी भी पैदा होती है । यह इसलिए कि परसाई के कथा-साहित्य में वैयक्तिक और सामाजिक अनुभव का द्वैत नहीं है । हमारे आसपास रहनेवाले विविध और बहुरंगी मानव-चरित्रों को केंद्र में रखकर भी ये कहानियाँ वस्तुत: भारतीय समाज के ही प्रातिनिधिक चरित्र का उद्‌घाटन करती हैं । रचनाशिल्प के नाते इन कहानियों की भाषा का ठेठ देसी मिजाज और तेवर तथा उसमें निहित व्यंग्य हमें गहरे तक प्रभावित करता है । यही कारण है कि ये व्यंग्य कथाएँ हमारी चेतना और स्मृति का अभिन्न हिस्सा बन जाती हैं ।

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