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देवकी का बेटा

रांगेय राघव

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1408
आईएसबीएन :9788170287162

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श्रीकृष्ण के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास....

Devki Ka Beta by Ragey Raghav

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


हिन्दी के प्रख्यात साहित्यकार रांगेय राघव ने विशिष्ट काव्यों कलाकारों और महापुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यासों की एक माला लिखकर साहित्य की एक बड़ी आवश्यकता को पूर्ण किया है। प्रस्तुत उपन्यास ‘देवकी का बेटा’ में उन्होंने जननायक श्रीकृष्ण का चरित्र ऐतिहासिक दृष्टि से प्रस्तुत किया है।

इसमें श्रीकृष्ण के जीवन के साथ संबद्ध अनेकानेक अलौकिक घटनाओं का लेखक ने वैज्ञानिक कसौटी पर रख कर उन सबका संगत अर्थ दिया है और कृष्ण को एक महान पुरुषार्थी, त्यागी, कर्मठ और जीवन को एक विशिष्ट मोड़ देने वाले एक सामान्य मनुष्य के रूप में चित्रित किया है। ‘देवकी का बेटा’ में समय के धुंधलके और कुहासे से ढके एक महान ऐतिहासिक पुरुष के चरित्र को बहुत ही स्पष्ट, यथार्थसंगत और प्रामाणिक रूप में चित्रित किया गया है।

श्रीकृष्ण के जीवन पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास—ऐतिहासिक अध्ययन और यथार्थ सम्मत दृष्टि से महान पुरुषार्थी, योगेश्वर श्रीकृष्ण का सामान्य मनुष्य के रूप में चित्रण—यशस्वी उपन्यासकार रांगेय राघव की कलम से
गोधूली में लौटती हुई गायों के गले में लटकाई हुई घंटियाँ बजने लगीं। गोकुल के पक्के और कच्चे घरों पर अगरुधूम जलने लगा था और कहीं-कहीं से मंत्रोच्चारण की ध्वनि आ रही थी। ब्राह्मण संध्योपासना की क्रिया में लगे हुए थे। गोपों के घरों में गायों की सेवा और दुहने का काम हो रहा था। स्त्रियों के भारी चूड़े आपस में टकराकर शब्द कर उठते थे।

उस समय गले में वैजयंती माला डाले गायों के झुण्ड के पीछे कृष्ण और चित्रगंधा चले आ रहे थे। कृष्ण मदिर-मदिर बाँसुरी बजा रहा था। दूर कहीं बजते हुए घण्टों के स्वर पर उतरता हुआ अंधकार धीरे-धीरे पथ पर लोटने लगा था। कृष्ण के किशोर अंगों पर उभरी हुई सुंदर मांसपेशियाँ इस समय उसे अवाक् पौरुष की विन्रमता दे रही थीं। चित्रगंधा चुपचाप संग-संग चली आ रही थी।


द्वार पर पहुँचते ही माता मदिरा ने कहा, ‘‘पुत्र, तू कहाँ रहा ! तुझे बलराम ढूँढ़ रहा था ?’’
भद्रवाहा पास ही खड़ी थी। उसने मुस्कराकर चित्रगंधा की ओर देखा और कहा, ‘‘और तू कहाँ थी ?’’
चित्रगंधा ने अनजाने ही उत्तर दिया, ‘‘मैं तो इसके साथ ही थी।’’ उसने कृष्ण की ओर इंगित किया।
भद्रवाहा की बात को मदिरा के मातृत्व की मर्यादा ने आगे बढ़ने से रोक दिया। उसने कहा, ‘‘चलो-चलो, हाथ-मुँह धो लो ! तुम लोग दिन-भर गायों के पीछे ! सहज नहीं है ! थक नहीं जाते ?’’
उसने वाक्य एक भी पूरा नहीं किया।
‘‘थूकूँगा क्यों मातर !’’ कृष्ण ने कहा, ‘‘मुझे तो इससे बढ़कर कुछ भी नहीं लगता। यहाँ ग्राम में वह आनंद कहाँ जो वहाँ वन के सघन वृक्षों की सोती हुई छाया में है।’’
मदिरा समझी-ना-समझी सी कनखियों से देख उठी। भद्रवाहा पूर्ण दृष्टि से चित्रगंधा को घूर रही थी। कृष्ण कहता जा रहा था, ‘‘वहाँ भ्रमर गुंजारते हैं। कहीं कदंब फूलते हैं। कहीं वर्षा का प्रखर धारा से बहनेवाला जल लबालब भर गया है। आज तो मैं और ये चित्रगंधा बड़ी देर तक उस पानी में तैरते रहे।’’

‘‘सच, बड़ा आनंद आया !’’ चित्रगंधा ने कहा।
‘‘तू चुप रह !’’ मदिरा ने कहा, ‘‘दिन-भर घूमती है, घर का कुछ काम भी करती है ?’’
चित्रगंधा का मुँह उतर गया।
भद्रवाहा ने पूछा, ‘‘तो तू दिन-भर तैरता रहा ?’’
उसकी प्रश्नों-भरी आँखों में और भी कुछ था। वह अपने अस्तित्व के होते हुए भी स्पष्ट था। होठों का एक कोना मुड़ गया था। वह हास्य का व्यंग्य रूप था जो स्नेह की तूलिका से मुड़कर सहस्यमय बन जाता था, ऐसा कि बिना बोले सब कहलवा ले।
‘‘नहीं, मेरी बहरी भाभी !’’ कृष्ण ने कहा, ‘‘फिर हम दोनों ने जाकर कुञ्ज में विश्राम किया।’’
मदिरा व्यस्तता दिखाकर भीतर चली गई। वह वसुदेव की पत्नी थी, अतः कहलाती माता थी। भद्रवाहा तो सुमुख गोप की स्त्री थी और उसका स्वभाव ही ठिठोली करने वाला था। माता के चले जाने पर भद्रवाहा ने चित्रगंधा को सुनाकर कहा, ‘‘देवर ! एक दिन मुझे भी उस कुञ्ज में ले चलेगा ?’’ फिर वह मुस्कराई। चित्रगंधा के गाल पर लाज की मार डोल उठी।
कृष्ण ने कहा, ‘‘क्यों भाभी ! सुमुख भ्रातर कहाँ गए ?’’

‘‘वे तो अब बूढ़े हुए,’’ भद्रवाहा ने कहा, ‘‘एक दिन गोपियाँ उनके पीछे भी डोलती थीं। अब तेरा समय आया है। रासी गोपियाँ तुझे चाहती हैं। तुझे देखना चाहती हैं। फिर मुझमें ही क्या दोष है ?’’
कृष्ण ने कहा, ‘‘यही तो मैं भी डर रहा हूँ।’’
‘‘क्यों ?’’ भद्रवाहा ने कहा।
चित्रगंधा ने देखा। कृष्ण कह उठा, ‘‘तुम्हीं तो कहती थीं कि भ्रातर सुमुख वृद्ध हो गए हैं। वे भी कभी अपना सम्मोहन डालते थे। तुम्हारा संग हुआ, वृद्ध हो गए। कहीं मैंने तुम्हारा संग कर लिया और मैं भी वृद्ध हो गया तो ?’’
चित्रगंधा ठठाकर हँसी। भद्रवाहा झेंपी। उसने चित्रगंधा का कान पकड़ कर कहा, ‘‘ढीठ !’’
चित्रगंधा ने कहा, ‘‘ले भाभी ! तूने ही तो पहले छेड़ा था। अब क्यों नहीं बोलती ?’’
‘‘तू चुप रह !’’ भद्रवाहा ने कहा, ‘‘कुछ जानती भी है ?’’
‘‘क्या हुआ ?’’ चित्रगंधा ने पूछा।

‘‘घर-घर गोकुल में बात है।’’ भद्रवाहा ने कहा, ‘‘हरएक गोप चाहता है कि उसकी बेटी कृष्ण को ब्याही जाए।’’
चित्रगंधा के मुख पर व्यथा झलकी। बोली नहीं। सोचने लगी। उसकी लंबी आँखों में मर्यादा झलकी। भद्रवाहा ने कहा, ‘‘क्यों, पुरुषों का तो अधिकार है। चाहे जितनी स्त्रियाँ रखें। यहीं आर्य वसुदेव की तेरह पत्नियाँ हैं। तेरा यह है न ? आगे जाकर देखियो। कहीं इसको धनमाल मिल गया, बड़ा आदमी हो गया तो फिर न जाने क्या करेगा ?’’
‘‘भाभी !’’ चित्रगंधा ने कहा, ‘‘तेरा सुमुख तो तुझे देखकर निहाल होता है। वह दूसरी क्यों नहीं करता ?’’
‘‘कर ले तो कुछ दोष है ?’’ भद्रवाहा ने कहा।
कृष्ण गंभीर हो गया था। वह कुछ सोच रहा था। दीप जलने लगे थे। भद्रवाहा ने कहा, ‘‘क्यों, क्या सोच रहा है ?’’
‘‘कुछ नहीं।’’ कृष्ण ने चौंककर कहा।

चित्रगंधा ने हाथ फैलाकर अजीब तरह से नीचे का होंठ निकाला और बोली, ‘‘भाभी ! अच्छा रहता है और फिर जाने क्या हो जाता है इसे। कुछ ऐसा डूब जाता है कि पता ही नहीं चलता। जाने क्या सोचा करता है।’’
उसके स्वर में एक अनजान गौरव की भी भावना थी और एक अज्ञात का उलझता हुआ आतंक भी था।
भद्रवाहा ने कृष्ण की ओर देखा और कहा, ‘‘बलराम भी बड़ा सोच वाला है, पर वह अपने मन में रखता है। मैं सब देखा करती हूँ। पर कृष्ण, तू बड़ा चंचल है। मैं तो यही अचरज करती हूँ कि तू कुछ सोच कैसे लेता है।
कृष्ण ने गहरे स्वर में कहा, ‘‘भाभी ! मुझे अलग-अलग होने की बात नहीं भाती। मैं तो सबको प्यार करता हूँ। ब्रज और गोकुल के कण-कण से मुझे प्यार है। मैं यहीं पला हूँ, यहीं बढ़ा हुआ हूँ। यही वह धूलि है जिसमें खेलकर मैं बड़ा हुआ हूँ। सारा गोकुल एक कुटुम्ब है। इसके वनों की छायाएँ मुझे विभोर कर देती हैं। जी चाहता है, सबको मन के भीतर आत्मसात् कर लूँ।

भद्रवाहा ने कृष्ण का माथा चूम लिया। कहा, ‘‘वत्स ! तेरा मन कितना सुंदर है। तू गीत बना लेता है या नहीं ?’‘’
‘‘नहीं भाभी !’’ कृष्ण ने कहा, ‘‘बहुत-बहुत-सी घुमड़न मन में होती है, ऐसी ही जैसे आजकल सघन कानन पर नीली घटाएँ झूलती हैं और फिर श्वेत पंख वाले पक्षी उड़-उड़कर चमकती बिजलियों के नीचे फरफराने लगते हैं। मैं देखा करती हूँ कि धरा पर वीरवधूटियाँ अपने लाल-लाल तनों को लेकर धीरे-धीरे चलती हुई मेरे भीतर एक नयापन भर देती हैं। मुझे लगता है कि यह सब एक सुंदर गीत है जिसकी कोमल स्वर-लहरी मेरे रोम-रोम में एक विभोर आनंद भरकर नाचने लगती है।’’
चित्रगंधा ने टोका, ‘‘भाभी ! आज इसने जो वंशी बजाई तो फिर हिरन पास आ गए। गायें द्रुम-छाया में निकट आ गईं। मैं तो बैठी-बैठी अपनी सुधि भूल गई। मैं जैसे इस संसार में नहीं रही। जब बांसुरी बजना बंद हुआ तो मुझे लगा, जैसे सब सुपने टूट गए, ढह गए। और जब यह बजाता है तो अपने आपको खो देता है। इधर लहरी गूँजनें लगीं, उधर रंगवेणी जैसे खिंची चली आई। संगीत की वह मोहक तान रोम-रोम को बींध गई। रंगवेणी को तो तब ज्ञान हुआ जब कृष्ण ने वंशीवादन बंद किया।’’

भद्रवाहा सुनती रही। कहा, ‘‘चिरंजीव हो वत्स ! जैसे तूने बाँसुरी के रंध्रों में श्वांस फूँककर जीवन की सृष्टि की है, वैसे ही तू इस जंबू द्वीप में भी जीवन भर सके, जहाँ आज अंधक कंस जैसे अत्याचारी और जरासंध जैसे निरंकुशों ने सबको आतंकित कर रखा है। तेरा सुमुख तो दिन-रात इन्हीं चिंताओं में लगा रहता है। तू वृष्णि है। हम गोप और कृष्ण एक ही हैं। पहले के भेद अब मिट गए हैं। अंधक गोपों को नीच समझते हैं। तू फिर वृष्णि और गोपों को कल्याण-मार्ग पर ला सके, यही मेरी कामना है।’’
‘‘भाभी !’’ चित्रगंधा ने कहा, ‘‘तूने इसे ही सब आशीर्वाद दे दिया, मुझे कुछ नहीं दिया !’’
भाभी भद्रवाहा की ठिठोली लौट आई। उसने मुस्कराकर कहा, ‘‘तू मुझसे क्यों माँगती है, बावली ! तू तो इससे माँग।’’
चित्रगंधा लजा गई। कृष्ण हँस दिया। भद्रवाहा ने कहा, ‘‘अरे लो ! मैं तो रुक ही गई। घर तमाम काम पड़ा है। मेरी सास गाएँ भूखी ही होंगी।
कृष्ण ने टोककर कहा, ‘‘मैं भ्रातर सुमुख से कहूँगा कि तुमने उन्हें आज बैल कहा है।’’
भद्रवाहा जाते-जाते कह गई, ‘‘कह दीजो। मैं डरती नहीं। पर याद रख ! तू नाते में उनका भाई लगता है।’’
कृष्ण अप्रतिभ हो गया। चित्रगंधा हँस पड़ी। बोली, ‘‘मैं जाती हूँ।’’
माता यशोदा ने पुकारा, ‘‘कृष्ण ! अरे कृष्ण नहीं आया अभी तक।’’

‘‘मातर !’’ कृष्ण ने भीतर जाकर माता के पाँव छुए। माँ ने कण्ठ से लगाया स्नेह से सिर सूँघा।
‘‘कहाँ गया था रे ! बड़ी देर में आया है तू।’’ यशोदा ने कहा, ‘‘मुझे तो डर लगने लगा था।’’
‘‘जिसका पिता पंद्रह ग्रामों का कर इकट्ठा करता हो, उस नंद गोप के पुत्र को कैसा डर मातर !’’ कृष्ण ने कहा, ‘‘फिर जिसके घर पर आर्य्य वृष्णि-श्रेष्ठ वसुदेव की पत्नियाँ और पुत्र हों, उसे क्या भय ?’’
‘‘पुत्र, यही तो भय की बात है।’’ यशोदा ने कहा, ‘‘तू नहीं समझता अभी। देवक और उग्रसेन भाई-भाई हैं। उग्रसेन का पुत्र बड़ा अत्याचारी है। जब से जरासंध मगधराज की अस्ति और प्राप्ति नामक कन्याओं ने उससे ब्याह किया है। कंस ने अंधकों को मिलाकर वृष्णियों को उखाड़ देने की चेष्टा की है। तू मेरा एक ही बेटा है।’’
कृष्ण ने कहा, ‘‘बलराम भी तो है।’’

‘‘है तो।’’ यशोदा ने एक गहरी साँस खींचकर कहा, ‘‘पुत्र ! तू क्या नहीं जानता, यह जो बार-बार गोकुल में आते हैं। कभी असुर, कभी चर, ये लोग कौन हैं ? वे संदेह करते हैं कि वसुदेव की संतान यहीं पल रही है। तभी ये आकर गुप्त हत्याएँ करने का प्रयत्न करते हैं।
‘‘मैं न जानूँगा मातर !’’ कृष्ण ने कहा—‘‘मैं तेरा पुत्र हूँ, नंद गोप का पुत्र हूँ। मैंने किसी को लौटकर जाने दिया ? और किसी को उन लोगों की मृत्यु की कानो-कान खबर भी होने दी ?’’
यशोदा के मुख पर एक व्याकुलता झलक उठी। वह जैसे एक पूरा इतिहास था, जो वह कहते-कहते ही रुक गई थीं। कृष्ण उनके भाव को पढ़ नहीं सका।
यशोदा ने उसके सिर पर हाथ फेरकर कहा, ‘‘वत्स ! वन में अकेला नहीं रहा कर। बड़ा भयावना होता है।’’
‘‘मातर !’’ कृष्ण ने कहा, ‘‘वन तो मुझे बड़ा सुहावना लगता है।’’

माता ने प्रसन्नता से सिर हिलाया। अब आतंक पर ममता ने अपनी छाया कर दी थी। अब फिर वही बात लौट आई। जो कृष्ण कहे सो सुंदर। वही बिल्कुल ठीक। कृष्ण कहता गया। माता से हर एक बात कहना उसका स्वभाव है। माँ और पुत्र के बीच यह व्यवधान—कहनी-अनकहनी का भेद—तब प्रारंभ होता है जब पुत्र के जीवन में कोई नई स्त्री आती है। पिता से पुत्र बात नहीं कर पाता, माँ सुनती है, चाहे कितनी भी छोटी बात क्यों न हो, क्योंकि माँ तो जब पूरी बात सुन लेगी, तब ही उसे तृप्ति होगी। ‘मैं वहाँ गया था’ कहने से माँ नहीं समझेगी। उसको तो बताना पड़ेगा कि पहले पुत्र कहाँ था, फिर कहाँ था, क्यों गया, वहाँ क्या हुआ। और बीती हुई कहानी में भी यदि पुत्र को कष्ट हुआ है, तो माँ को दुःख होगा। वह इतनी व्यापक संवेदना कहाँ से ले आती है ! सबके लिए न कर देती है, परंतु अपनी संतान के लिए ना क्यों नहीं कर पाती ?
‘‘अच्छा !’’ यशोदा ने कहा, ‘‘थक गया है ?’’
‘‘नहीं मातर ! आज नहीं थका।’’

‘‘सो क्यों ?’’
‘‘चित्रगंधा मेरे साथ थी।’’
‘‘तुझे आँख तो नहीं लग गई उसकी ?’’ माँ ने कहा, ‘‘बड़ी चतुर है वह !’’
‘‘नहीं माँ, वह तो मुझसे छोटी है। उसमें इतनी बुद्धि कहाँ ?’’
‘‘अरे तू क्या जाने।’’ यशोदा ने कहा, ‘लड़का मूर्ख होता है, लड़की नहीं।’’ उन्होंने सिर हिलाया।
कृष्ण ने हँसकर कहा, ‘‘तू तो अंब ! ऐसे ही कहा करती है।’’
‘‘मैं ठीक कहती हूँ।’’ यशोदा ने कहा, ‘‘तू अभी मूर्ख है वत्स ! मानती हूँ, तू बड़ा कुशल है, पर यह सब तो तू नहीं जानता। पुरुष है न ? वह क्या अपने-आप जानता है ? सब उसे स्त्रियाँ ही सिखाती हैं।’’
माता मदिरा ने उधर निकलते हुए सुन लिया तो जाते-जाते कह गई, ‘‘क्यों अभी से उसे सब बता रही हो तुम ? सब सीख जाएगा अपने-आप।

माता यशोदा सकपका गई। उन्होंने बात बदलने को तभी पुकारा, आर्य्ये रोचना !’’
‘‘आई !’’ रोचना का स्वर हास्य से भरा हुआ सुनाई दिया और वे आईं तो उनके मुख पर आनंद था। यशोदा ने देखा तो पूछा, ‘‘क्या हुआ ? तुम हंस क्यों रही हो आर्य्ये ?’’
‘‘हँसूंगी नहीं !’’ रोचना ने एक लड़की का हाथ पकड़ सामने करते हुए कहा, ‘‘देखो, इसे देखो ज़रा।’’
देखा, सुभद्रा थी। सहमी हुई। आँखों में पानी डबडबाया हुआ। यशोदा ने कहा, ‘‘आ जा, दुहितर !’’
सुभद्रा पास आ गई। यशोदा ने गोदी में बिठा ली। ‘‘क्या हुआ ? अंब ने तुझे मारा है ?’’ यशोदा ने रोचना की ओर देखकर पूछा।
‘‘हाँ।’’ सुभद्रा ने सिर हिलाया। आँखों से मोती लुढ़क पड़े। यशोदा ने पोंछे। फिर भी बालिका का फूले-फूले गालोंवाला रूठा-रूठा मुंह। यशोदा ने देखा तो प्यार से चूम लिया। रोचना ने कहा, ‘‘पूछो इससे। रोई क्यों है !’’
‘‘क्या बता हुई ?’’ कृष्ण ने सुभद्रा से पूछा। बच्ची ने लजाकर यशोदा की गोदी में सिर छिपा लिया।
यशोदा ने रोचना को देखा। रोचना कहने लगी, ‘‘चोर के घर चोर ही तो रहेगा।’’

रोचना की छोटी औरस पुत्री सुभद्रा ने सिर छिपा लिया। यशोदा मुस्कराई। रोचना कहती गई, कुशवाह समंत गोप के घर से बिटिया मक्खन चुरा लाई थी। मैंने अभी पीटा था, सो झूठ बोल-बोलकर रो-रोकर अपनी सचाई की दुहाई दे रही थी। बताओ ! झूठ बोलना आता है इन बच्चों को ? समझते हैं कि बड़े कुछ समझते ही नहीं। मुँह में मक्खन लगा है और कहती है कि मैंने कल से खाया ही नहीं।
सब खिलखिलाकर हँस पड़े। सुभद्रा ने एक बार चंचलता से कनखियों से देखा और फिर शर्माकर गोद में सिर छिपा लिया।
‘‘क्या हुआ तो ?’’ यशोदा ने कहा, ‘‘ये बैठे तो हैं महाराज सामने।’’ उसने कृष्ण की ओर इशारा किया, ‘‘ये ही क्या किया करते थे पहले ?’’
‘‘अरे ये !’’ भीतर से किसी वृद्धा ने कहा, ‘‘ये तो पूरा असुर था। इसे तो यशोदा पेड़ों से, ऊखल से बांध देती थी।’’
सब फिर हँसे। कृष्ण लजा गया, सुभद्रा ने मुँह निकाल लिया। वह मुस्कराने लगी। वृद्धा ने कहा, ‘‘यमल और अर्जुन यक्ष वहाँ न होते तो यह रो-रोकर जाने क्या कर देता ! उन्हेंने बताया कि पेड़ों तक उखल खींचकर ले गया है और अटक गया है। बिचारे आए। नन्द ने उन्हें कितनी भेंट दी ! उद्धार हो गया उनका तो। यक्षराज ने उन्हें निर्वासित कर दिया था। कहते गए कि माई, हमारा तो कृष्ण ने उद्धार कर दिया !’’

वृद्धा कहती गई। अब उसकी कल्पना जगने लगी, वह कह रही थी, ‘‘सब ब्रह्मा का खेल है। और कुछ नहीं। इसके तो बचपन से काम ही अनोखे हैं। बताओ ! पूतना स्तनों पर विष लगा कर आई थी इसे पिलाने। उल्टी फँस गई यहाँ आकर। मारी गई। कंस ने भेजा था। उसे डर था।’’
‘‘रहने दो, रहने दो।’’ यशोदा ने बीच में ही काटा। वृद्धा चुप हो गई। जैसे उसे याद आ गया।
‘‘जाने क्या-क्या कह जाती हो।’’ यशोदा ने कहा, वृद्धा मौन हो गई। यशोदा ने रोचना की ओर ऐसे देखा जैसे बुढ़िया सठिया गई है। रोचना के नेत्रों में रहस्य था। वह समझ गई थी। बात तोड़ दी गई थी, ताकि कृष्ण समझ नहीं पाए। उससे छिपाई गई थी। इतना कृष्ण ने भी आभाष पा लिया। पर क्यों छिपाई गई थी, क्या थी, यह वह नहीं समझा। पर जब माँ ही रहस्य रखना चाहती है, तो फिर उपाय ही क्या रह सकता है !

रोचना ने सुभद्रा का हाथ पकड़कर कहा, ‘‘चल रोटी खा ले।
सुभद्रा गोदी से उतरकर संग चली गई। कृष्ण ने पूछा, ‘‘अंब ! पितामही क्या कहती थीं !’’
वह वृद्धा को पितामही कहता था, इसलिए नहीं कि वह नंद गोप की माता थी, वरन् इसलिए कि सब उसे दादी मानते थे। यशोदा ने कहा, ‘‘कुछ नहीं।’’
केवल दो शब्द !
‘‘तो तुमने टोका क्यों ?’’ कृष्ण ने पूछा।
‘‘टोका यों !’’ यशोदा ने बात बदल कर कहा, ‘‘कि बच्चों के सामने बड़ों को ऊधम नहीं करना चाहिए।’’
बात ठीक थी, फिर भी संदेह एक ऐसी वस्तु है जो भय उत्पन्न करती है। साँप चला जाए परंतु फिर भी लगता है कि कहीं छिपा हुआ न हो। और कृष्ण को माता के नयनों में अभी तक कुछ गोपनीय-सा दिखाई दे रहा था। क्या यह उसका भ्रम था !

पितामही अब कुछ गा रही थी। धीरे-धीरे। वह इंद्र की ही स्तुति थी।
उस समय लोग वैदिक संस्कृत बोलते थे। परिष्कृत भाषा के रूप में ऋग्वेद था। अथर्ववेद तब बन रहा था। उसकी भाषा लोगों को अधिक समझ में आती थी। जनता में वैदिक संस्कृति का कोई अपभ्रंश रूप प्रचलित था, जो लौकिक संस्कृत का बहुत पुराना रूप था। इसके अतिरिक्त नाग, असुर, वानर आदि जातियों की भिन्न-भिन्न भाषाएँ थीं। गोपों के शिष्ट-मंडलों में वैदिक भाषा का ही प्रचार था, किन्तु स्त्रियाँ और सेवक लौकिक संस्कृत के प्रचीनतम रूप में बातें किया करते थे। पितामही कहानियाँ सुनाया करती थी। उसी ने बताया था कि पुराने समय में गोप जगह-जगह गाएँ चराते घूमते थे। कालांतर में किसी समय वे शूरसेन देश में बस गए। वहाँ तब यादवों का शासन था। उन्ही यादवों में वृष्णिवंश से गोपों का संबंध हो गया था। यादवों में असुरों और नागों का भी रक्त मिला हुआ था। गोपों का समाज यादवों के समाज से कुछ भिन्न था। कृष्ण पितामही से स्नेह करता था। यशोदा ने पुत्र को सोचते देखकर कहा, ‘‘वत्स !’’
‘‘क्या माँ !’’ कृष्ण ने पूछा।
‘‘तू क्या सोच रहा है ?’’
‘‘कुछ नहीं अंब !’’
तभी रोचना उधर आई। वह व्यस्त ही थी। उसने यशोदा से कहा, ‘‘तुम बातें ही करती रहोगी या इस बेचारे को कुछ खाने को भी दोगी ?’’

यशोदा ने चौंककर कहा, ‘‘अरे ! इसने कुछ खाया नहीं। आर्य्ये ! तुमने भी ध्यान नहीं दिया !’’
‘‘मैं ध्यान तो देती तब, जब तुम उसे छोड़तीं। अब वह बालक तो नहीं है, जो उसे गोद में लिए बैठी रहो।’’
पितामही की हँसी सुनाई दी। कहा, ‘‘अरी, कैसा भी हो ! माँ के लिए तो बच्चा ही है। मुझे ही देखो। पंद्रह ग्रामों का कर वसूलता है और कंस की सभा में जाता है, पर नंद गोप दिखाई नहीं देता, तो डर लगने लगता है। लेकिन फिर भी ममता की मर्यादा होना चाहिए यशोदा ! पुरुष स्त्री की पुत्र है, पर वह पुरुष भी है, और फिर आगे चलकर वह स्त्री का स्वामी है। यदि तू पुत्र को इस तरह बनाएगी तो कोई लड़की उसे नहीं चाहेगी।
कृष्ण ने कहा, ‘‘तो क्या पितामही पुरुष को बर्बर होना चाहिए ?’’
‘‘देखो !’’ रोचना ने कहा, ‘‘लड़का कैसी बात करता है ?’’ यशोदा को देखकर कहा, ‘‘सब समझता है। इसको तुम बच्चा जानती हो !’’

‘‘ठीक कहती हो।’’ यशोदा ने दीर्घ निःश्वास लेकर कहा, ‘‘मेरी ही भूल थी। मैं भी सोच नहीं सकी कि यह भूखा ही है। और कुछ खाने को तो दो इसे।’’
उन्होंने बात बदल दी। रोचना ने खाना ला दिया। एक थाली में मोटी रोटियाँ थीं, गेहूँ और चने की। उन पर मक्खन चुपड़ा हुआ था। कुछ अच्छे आम थे। कहा, ‘‘देख कृष्ण ! यह रोटी खाकर देख। सिंध देश के व्यापारी से तेरे पिता ने गेहूँ का बीज खरीदा था न ? उसी को बनाया है। रोटी देख कैसी है। चिकनाई पी जाता है यह गेहूँ। और आज कालिय नाग के उपवन से लड़के यह आम चुरा लाए हैं।’’
यशोदा ने कहा, ‘‘अरे, यह क्या अनर्थ हुआ ? नाग तो हमारे शत्रु हैं। उन्होंने अच्छा नहीं किया। इससे तो वैर बढ़ेगा।’’
रोचना ने काटा, ‘‘तो नागों से ही क्यों डरती हो ? वे लड़ेंगे तो गोप भी कम नहीं हैं !’’
‘‘वे यहाँ हमसे पुराने निवासी हैं। उनके हाथ में यमुना का व्यापार है। कंस तक उससे नहीं अटका।’’
‘‘कंस नहीं अटका, क्योंकि वह अनार्य्यों का मित्र है। कालिय ने सर्वाधिकार कर रखा है। यमुना का वह भाग तो हमारे लिए वर्जित ही है। और कालिय-वंशी ये नाग भी तो यहाँ पहले नहीं रहते थे ! उत्तर के गरुणों ने इन्हें मारकर भगाया था।’’
‘‘सो तो है।’’ भीतर से पितामही ने कहा, ‘‘किन्तु नागों के पास शक्ति है, धन है। वधु ! उनसे न अटकना ही ठीक है। फिर तू क्या नहीं जानती कि हम संकट में हैं। तुम सबकी रक्षा करना नंदगोप पर न आश्रित है। और अंधक कंस अभी नंदगोप पर संदेह करता है।’’

‘‘अरे, तू खाता चल न !’’ रोचना ने कहा, ‘‘देखूँ तो भीतर क्या हो रहा है।’’ और वह चली गई।
कृष्ण ने खाया नही।
‘‘खाता क्यों नहीं ?’’ यशोदा ने पूछा।
‘‘सोचता हूँ।’’
‘‘क्या भला ?’’
‘‘हम गोप हैं न अंब ?’’
‘‘हाँ !’’
‘‘तुम कहती हो, हम वृष्णियों के संबंधी हैं !’’
‘‘हाँ, क्यों ?’’
‘‘आर्य्य वसुदेव की पत्नियाँ और संतान यहाँ क्यों रहते हैं ? और वह भी छिपकर ! क्यों मातर ?’’
यशोदा सहसा उत्तर न दे सकी। कहा, ‘‘संबंधी हैं। रहते हैं। तू तो जनता है कि अंधक इस समय वृष्णियों के शत्रु हैं। खाता चल लेकिन।’’

‘‘खाता हूँ, माँ,’’ कृष्ण ने कहा, और ये नाग भी हमारे शत्रु हैं ?’’
‘‘जिसका स्वार्थ अटकता है वह तो शत्रु हो जाता है, पुत्र ! अच्छा, जाने दे। तूने यह नहीं बताया कि आज फिर क्या हुआ ?’’ ‘‘कुछ नहीं मातर,’’ कृष्ण ने कहा, ‘‘फिर मैं और चित्रगंधा घर आ गए।’’
‘‘अच्छा रे !’’ यशोदा के स्वर में काम झलक आया। ‘‘तो तू अब अपनी माँ से भी छिपाने लगा है ! जानती हूँ। अब तू बड़ा जो हो गया है ! मैं तेरे मन को खूब जानती हूँ।’’
‘‘नहीं, माँ !’’ कृष्ण ने झेंपकर कहा, जैसे वह पकड़ा गया था।
‘‘नहीं, माँ !’’ यशोदा ने उसकी नकल करते हुए मुस्कराकर सिर हिलाते हुए कहा, ‘अब तू क्यों कहेगा ? पहले जब तू छोटा था तो एक-एक बात कहता था। तब तेरी बात सुनने वाला मेरे अतिरिक्त था ही कौन ! कौन से कान पर मक्खी बैठी, गाय की पूँछ क्यों हिलती है—यह सब तुझे किसने बताया था ? हाथ रखवा-रखवाकर मैंने ही तुझे पहचान कराई थी कि यह नाक है, यह मुँह है, यह पेट है, यह पांव हैं। कहाँ तुझे पारिजात का गुच्छा मिला, कैसे तूने सौदामिनी के घर रोटी चुराकर खाईं—सब बताता था पहले। मुझसे तो तू कुछ छिपा ही नहीं पाता था। पर अब मुझे ही बना रहा है !!’’
‘‘नहीं अंब ! यह बात नहीं है।’’ कृष्ण ने कहा और मुँह हठात् बंद हो गया। मुख पर लज्जा छा गई। माँ को आभास हुआ। कहा, ‘‘हाँ-हाँ कह न !’’

‘‘यह बात यों है कि, अंब...वह...है न...वह....’’
वह कह नहीं सका। माता के हृदय में नया भाव जागा। आज आनंद भी हुआ। दुख भी। आनंद था पुत्र के व्यक्तित्व के विकास का। माँ प्रसन्न होती है कि पुत्र में यौवन आ रहा है। यौवन ! उन्माद और आशक्ति का कंपन !! प्रेम और आलिंगन का स्पंदन !! उद्दाम लालसा और विभोर मादकता का स्फुरण ! प्रजनन और विकास का उत्कर्ष ! एक नयी स्त्री से मिलन, फिर संसार की परंपरा का निर्वाह। पिता से पुत्र, पुत्र से फिर पिता और ममता और स्नेह के द्वारा स्वर्ग तक का सुख। जाति की उन्नति, वंश की वृद्धि ! परन्तु इसके साथ ही वेदना की एक छोटी-सी खटक। पुत्र अब पराई स्त्री के साथ स्नेह बाँट देगा। माता का सर्वाधिकार उस पर से छिन जाएगा।

तब तो इसकी भ्रातृजाया भद्रवाहा ने ठीक ही कहा था कि रंगवेणी और चित्रगंधा इसके पीछे लगी हैं। और फिर उन्हें इसका गर्व हुआ कि उनका पुत्र ! और उसके पीछे सुंदरियाँ अपना हृदय न्योछावर करती हैं। उन्होंने अन्त में जैसे स्त्री को अपनी शक्ति से ही पराजित कर दिया था। परन्तु मन तभी आकुल हो उठा। वह तो उनका औरस पुत्र नहीं है ! उन्होंने उस पालित पुत्र को ही संतान के अभाव में अपना मान लिया है। परन्तु वे उसे कभी भी ज्ञात नहीं होने देंगी कि उनका पुत्र नहीं है। उन्होंने अभी तक बलराम को भी मालूम नहीं होने दिया। इन दो पर ही तो नंद गोप का विशेष स्नेह है ! यदि बलराम और कृष्ण को ज्ञात हो गया कि वे यशोदा के औरस पुत्र नहीं हैं तो ! यदि वे जान गए कि उनका पिता नंदगोप नहीं है, आर्यवृष्णि वसुदेव है तो ? तो भी क्या उनमें यही स्नेह रहेगा ? जो हो, वे इस सत्य को सदा ही छिपाती रहेंगी। वे पुत्र के लिए रंगवेणी और चित्रगंधा दोनों को ही ले आएँगी। और मन-ही-मन यशोदा ने सोचा, जैसे कान पर उंगलियाँ चटकाकर बलैयाँ लेती हों। उन्होंने पुकारा, ‘‘रोहिणी !!’’

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