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अपभ्रंश भाषा साहित्य की शोध-प्रवृत्तियाँ

देवेन्द्र कुमार शास्त्री

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :337
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1378
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है अपभ्रंश भाषा साहित्य की शोध-प्रवृत्तियाँ...

Apabhransh Bhasha Sahitya Ki Shodh Pravritiyan- Devendra Kumar Shastri - अपभ्रंश भाषा साहित्य की शोध-प्रवृत्तियाँ - देवेन्द्र कुमार शास्त्री

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वैदिक भाषा, अवेस्ता तथा प्राकृत के सन्दर्भों को ध्यान में रखकर अपभ्रंश भाषा के मूल रूप, उसकी विकसित धारा, प्राकृत की विविध बोलियाँ प्राकृत और अपभ्रंश में अन्तर के साथ-साथ आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की पृष्ठभूमि के रूप में अपभ्रंश भाषा और साहित्य का महत्त्व तथा उपलब्ध साहित्य, शिलालेख आदि का संक्षिप्त एवं सारगर्भित विवेचन प्रस्तुत करनेवाली एक प्रामाणिक पुस्तक-सारगर्भित एवं परिवर्द्धित रूप में।

पुस्तक का प्रथम संस्करण सन् 1972 में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ था। तब से अब तक अपभ्रंश साहित्य पर देश-विदेश के विश्वविद्यालयों तथा अन्य शिक्षा संस्थानों में बहुत कुछ अनुसन्धान कार्य हुआ है, अनेक नयी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं-इन सबकी अद्यावधि जानकारी प्रस्तुत परिवर्द्धित संस्करण में दी गई है। साथ ही अपभ्रंश की मूल रचनाओं तथा शोध-प्रबन्धों की विस्तृत सूचियाँ (लेखन, प्रकाशन-वर्ष, प्रकाशन-गृह आदि के साथ) भी इस पुस्तक में सम्मिलित की गई हैं। कहना होगा कि वे समस्त स्रोत, जो अपभ्रंश भाषा एवं साहित्य पर शोध करनेवाले छात्रों एवं भारतीय आर्य-भाषाओं के अध्येताओं को आवश्यक हैं, इस पुस्तक के रूप में, यहाँ एक ही स्थान पर उपलब्ध हो जाते हैं।
सभी पुस्तकालयों और शोध-संस्थानों के लिए संग्रहणीय कृति।

प्रस्तुत पुस्तक

अपभ्रंश भाषा और साहित्य का अनुशीलन ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से ही नहीं, अध्ययन-क्रम में भी प्राकृत भाषा और उसके साहित्य के अध्ययन के साथ आरम्भ हुआ। इसके अध्ययन का इतिहास लगभग डेढ़ सौ वर्षों का है। सन् 1836 में आधुनिक युग में सर्वप्रथम होएफर ने ‘डे प्राकृत डिआलेक्टो लिब्रिदुओ’ नामक जर्मन भाषा में प्रकाशित अपने अध्ययन से प्राकृत भाषा की अध्ययन-दिशा को प्रकाशित किया था। तब से आज तक देश-विदेश में विभिन्न विद्वानों के द्वारा जो अध्ययन-अनुशीलन किया गया, उससे केवल इस भाषा और साहित्य के नये आयाम ही उद्घाटित नहीं हुए, वरन् शोध तथा अनुसन्धान के भी महत्त्वपूर्ण कार्य किये जा रहे हैं। अपभ्रंश के सम्बन्ध में प्राचीनों और नवीनों की जो भ्रान्त धारणाएँ थीं, उनके परिमार्जन के लिय यह अनुसन्धानमूलक साहित्य अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा। यद्यपि अभी तक कतिपय विद्वान उन पुरानी भ्रान्त धारणाओं से सर्वथा मुक्त नहीं हो पाये, किन्तु अब इस विपुल साहित्य को देखकर उनकी धारणा बदलेगी, ऐसी आशा है।

इस पुस्तक में सन् 1836 से लेकर 1990-91 तक अपभ्रंश भाषा और साहित्य विषयक प्रकाशित शोध-निबन्धों, पुस्तकों तथा प्रबन्धों के विवरण के साथ भारत के विभिन्न ग्रन्थ-भण्डारों में उपलब्ध हस्तलिखित ग्रन्थ-सूची एवं उपलब्ध अपभ्रंश-साहित्य के सम्बन्ध में प्रामाणिक जानकारी दी गयी है। सभी विवरण ऐतिहासिक क्रम में प्रस्तुत किया गया है। अब तक किसी भाषा में अनुसन्धान की दृष्टि से इस प्रकार का कार्य नहीं किया गया। यद्यपि प्राच्य-विद्याओं की शोध-पत्रिकाओं, परिषदों के विवरण तथा वार्षिकी आदि में इस प्रकार की सूचनाएँ एवं विवरण प्रकाशित किये जाते रहे हैं, किन्तु समग्र रूप में किसी एक साहित्य से सम्बन्धित सभी प्रकार की प्रामाणिक जानकारी प्रस्तुत करने वाली कोई पुस्तक इसके पूर्व आज तक नहीं लिखी गयी।

इसमें एक हजार तीन सौ प्रकाशित शोध-निबन्धों, प्रबन्धों और पुस्तकों के अतिरिक्त भारत के विभिन्न भण्डारों में उपलब्ध अपभ्रंश के डेढ़ सौ कवियों की लगभग तीन सौ रचनाओं की एक हजार दो सौ हस्तलिखित प्रतियों का विवरण संकलित किया गया है। अधिकतर विवरण स्वयं ग्रन्थ-भण्डारों को देखकर तथा हस्तलिखित रचनाओं को पढ़कर तैयार किया गया है। इस कार्य में लेखक को पर्याप्त श्रम और लगभग दस वर्षों का समय भोगना पड़ा है। परिणामतः अपभ्रंश भाषा और साहित्य पर अब तक शोध कार्यों के विवरण के अतिरिक्त अपभ्रंश के अज्ञात एवं अप्रकाशित ग्रन्थों के अंश भी प्रकाशित किये जा रहे हैं। अपभ्रंश के अज्ञात एवं अप्रकाशित ग्रन्थों में उन रचनाओं के वे अंश भी उद्धत किये गये हैं, जो किन्ही
पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं, परन्तु जयपुर और दिल्ली में प्रकाशित अपभ्रंश के प्रशस्ति-संग्रह में प्रकाशित नहीं हैं।
प्रस्तुत पुस्तक में ‘अपभ्रंश’ शब्द का व्यापक अर्थ में प्रयोग किया गया है।

अपभ्रंश से हमारा अभिप्राय एक ओर प्राकृत का पल्ला (आँचल) पकड़कर विकसित होने वाली किंचित प्राकृतमिश्रित तथा शुद्ध अपभ्रंश भाषा से है, दूसरी ओर अपभ्रंश के मूल रूप का त्याग किये बिना आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की अवस्था में ढलती हुई पुरानी हिन्दी, जूनी गुजराती, प्राचीन राजस्थानी तथा प्राचीन बांग्ला एवं मराठी भाषा से है। प्रायः सभी आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की यह एक सामान्य अवस्था थी, इसलिए प्रान्त-भेद से नाम-भेद हो सकता है, परन्तु अवस्था-भेद नहीं था। यह केवल आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के सम्बन्ध में ही सत्य नहीं है। प्रत्युत प्राचीनतम आर्य-ईरानी भाषाओं की भी एक ऐसी सामान्य अवस्था रही है, जिससे विकसित होकर बोली जाने वाली प्राकृतों तथा देशी एवं वैदिक भाषा (साहित्यिक भाषा) का विकास हुआ था। इसलिए परम्परा के रूप में हमें आज भी वैदिक शब्द-सम्पत्ति प्राप्त होती है।

इस प्रकार यह विवरण केवल अपभ्रंश और हिन्दी को ही ध्यान में रखकर नहीं, वरन् आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं और उनके साहित्य को ध्यान में रखकर प्रस्तुत किया गया है। इसलिए यह पुस्तक केवल अनुसन्धाताओं के लिए ही नहीं प्रत्युत समस्त भारतीय आर्यभाषाओं और उनके साहित्य-प्रेमी पाठकों के लिए भी उपयोगी सिद्ध होगी।
इस पुस्तक की तैयारी में उन सभी विद्वानों के प्रति आभारी हूँ जिनका मूल्यवान सहयोग (पुस्तक के प्रथम संस्करण से लेकर इस परिवर्द्धित संस्करण तक) प्राप्त हुआ है। विश्वास है पुस्तक का यह नया परिवर्द्धित संस्करण पाठकों को सन्तोष देगा।
देवेन्द्रकुमार शास्त्री

प्रथम अध्याय

अपभ्रंश भाषा और साहित्य का शोध-सर्वेक्षण
परम्परागत भाषा-प्रवाह


वैदिक, भाषा, साहित्य, संस्कृति तथा इतिहास के अध्ययन से अब यह स्पष्ट हो गया है कि वेदों के रचना-काल में तथा उसके भी पूर्ववर्ती युग में जनभाषा में तथा साहित्यिक भाषा में भाषिक ही नहीं, शब्द-रुपों की रचना में भी अन्तर था। यह अन्तर कई स्तरों पर लक्षित होता है। जैसे-कि उच्चारण, रूप-रचना, वैकल्पिक प्रयोग, अन्य भाषाओं से गृहीत शब्दावली, दैवीवाक्-मानुषीवाक् के रूप में। ऋग्वेद के उल्लेख से यह पता चलता है कि पणियों और असुरों की भाषा ‘मृध्रवाक्’ थी। यद्यपि निरुक्तकार ने ‘मृध्रवाक्’ का अर्थ ‘मृदु वाचः’ किया है, किन्तु परवर्ती काल में यह शब्द ‘विभाषा’ या ‘अपशब्द’ के लिए रूढ़ हो गया। शतपथब्राह्मण तथा महाभाष्य के उल्लेखों से यह निश्चित हो जाता है कि एक को सुरभाषा तथा दूसरी को असुरभाषा कहते हैं।2

ऋग्वेद में भी यह उल्लेख मिलता है कि राष्ट्र की सामान्य जनता से सम्पर्क करने वाला यह विचार करता है कि मैं संस्कृत या दैवीवाक् में बोलूँ या जनभाषा में ? यही नहीं भाषा की दृष्टि से ऋग्वेद तथा अथर्ववेद इन दोनों की भाषा में अन्तर है। ऋग्वेद की भाषा साहित्यिक है किन्तु अथर्ववेद में जनभाषा के रूप उपलब्ध होते हैं। भाषावैज्ञानिकों ने ‘छान्दस्’ भाषा में प्रयुक्त वट, तट, वाट, कट, विकट, कीकट, निकट, दण्ड, अण्ड, पट, घट, क्षुल्ल आदि शब्दों को कथ्य भाषा (प्राकृत) से अधिगृहीत स्वीकार किया है। डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री के शब्दों में, ‘‘छान्दस् भाषा की पद-रचना का अध्ययन प्राकृत अध्ययन के बिना अपूर्ण है ‘छान्दस्’ में तृतीया के बहुवचन में ‘देव’ शब्द का देवेभिः (ऋग्वेद १।१।१) और प्रथमा के बहुवचन में देव एवं जन शब्द का क्रमशः देवा, देवासः जना एवं जनासः (ऋग्वेद १।३।७) रूप पाये जाते हैं जो कि प्राकृत
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1.‘दनो विश इन्द्र मृध्रवाचः’ ऋग्वेद 1/174/2
2. द्रष्टव्य है-शतपथब्राह्मण 3/2/1/23-24 तथा पतंजलिकृत महाभाष्य, पस्पशाह्निक
3. ‘‘अहमेव स्वयमिंद वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुपेभिः।’’
-ऋग्वेद 10/125/5

के रूप है। इसी प्रकार चतुर्थी के लिए षष्ठी विभक्ति का प्रयोग तथा पाटी के लिए चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग भी प्राकृत तत्त्व-सिद्धि के लिए पर्याप्त प्रमाण है। इसी प्रकार अकारान्त शब्द का प्रथमा के एक वचन में ओकारान्त हो जाना ही प्राकृत-तत्त्व की जानकारी के अभाव में यथार्थ रूप में विश्लेषित नहीं किया जा सकता है। यथा-सः चित्सो चित् (ऋग्वेद १।१९१।११) संवत्सरः अजायतसंवत्सरों अजायत (ऋग्वेद १०।१९०।२)। वैयाकरण पाणिनि ने ‘छान्दस्’ की इस प्रवृत्ति का नियमन करने के लिए ‘हशि च’ (६।१।१४४) एवं ‘अतोरोरप्लुतादप्लुते’ (६।१।११३) सूत्र लिखे हैं। वस्तुतः इन सूत्रों के मूल उद्देश्य ओकारान्त वाले प्रयोगों का साधुत्व प्रदर्शित करना है और प्राकृत के मूल शब्दों पर संस्कृत का आवरण डाल देना है। विसर्ग सन्धि के कतिपय नियम भी ‘छान्दस्’ की प्राकृत प्रवृत्ति के संस्कृतीकरण के लिए ही लिखे गये हैं।’’1
यद्यपि भारतीय आर्यभाषाओं के इतिहास में समकालिक विवरण निर्देश करने हेतु यह एक प्रवृत्ति-सी हो गयी है कि प्राचीन मध्यकालीन तथा आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की तीन अवस्थाओं का उल्लेख किया जाता है, किन्तु प्रो. ए. एम. घाटगे की राय में उनका विभाजन क्षेत्रीय आधारों पर किया जाना चाहिए।

उदाहरण के लिए जो उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में बोली के रूप में विकसित हुई उनको उत्तरपश्चिमी, मध्यप्रदेशीय, पूर्वीय तथा दक्षिणीय विभाग उचित होंगे।2 इस बात के अनेक प्रमाण उपलब्ध होते हैं कि वेदों में प्राकृततत्त्व कम नहीं है। कदाचित् सर्वप्रथम स्कोल्ड ने यास्क के निरुक्त का विवेचन करते हुए सन् 1926 में हमारा ध्यान इस ओर आकृष्ट किया था कि इन शब्दों की व्युत्पत्तियों का विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि इनमें से कुछ ध्वनिग्रामीय विशेषताओं के आधार पर मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाओं की अवस्था की सूचक है। सन् 1928 में ए.सी. वुलनर ने अपने एक निबन्ध में ‘प्राकृतिक एण्ड नान-आर्यन स्ट्रेटा इन द वाकेबुलरी ऑव संस्कृत’ जो आशुतोष मेमोरियल वाल्यूम’ में पटना में प्रकाशित हुआ था, इस विषय का परीक्षण कर ऊहापोह किया था। सन् 1931 में एच, आर्टेल ने अपने एक निबन्ध ‘प्राकृतिज्म इन छान्दोग्योपनिषद्’ (गाइगर फेलेशियन वाल्यूम, लिपजिग 1931) में ध्वनिग्रामीय दृष्टि से वैदिक ग्रन्थों में जो शब्द-रूप मिलते हैं, उनका गहराई से अध्ययन प्रस्तुत किया। तदनन्तर ब्लूमफील्ड और इजर्टन ने वैदिक पाठों में उपलब्ध विविधता तथा उनके अन्तर्भेदों पर विस्तार से प्रकाश डाला। इसी समय वाकरनागल का एक महत्त्वपूर्ण निबन्ध-‘आर्यभाषाओं में प्राकृततत्त्व’ प्रकाशित हुआ। सन् 1944 से 1946 के बीच टेडेस्को ने चार लेख लिखे, जिनमें यह प्रतिपादित किया गया है परवर्ती
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1.शास्त्री, नेमिचन्द्र : भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मय का अवदान प्रथम खण्ड, पृ. 55 से उद्धृत।
2.घाटगे, ए. एम. : हिस्टॉरिकल लिंग्विस्टिक्स एण्ड इण्डो-आर्यन लैंग्वेजेज, बम्बई विश्वविद्यालय, पृ. 111, 1962

संस्कृत-साहित्य की अपेक्षा ऋग्वेद और अथर्ववेद पर मध्यकालिक प्रवृत्तियाँ अधिक स्पष्ट रूप से लक्षित होती है, क्योंकि तब तक संस्कृत भाषा का मानकीकरण नहीं किया गया था। सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण अपने शोधपूर्ण निबन्ध में सन् 1966 में एमेन्यू ने ‘द डायलेक्ट्स आँव ओल्ड इण्डो-आर्यन’ में यह सिद्ध किया है कि पाणिनि भी प्राकृत से प्रभावित थे। उनके व्याकरण में स्पष्ट रूप से प्राकृततत्त्व लक्षित होता है। निष्कर्ष रूप में वे लिखते हैं-ऐसा जान पड़ता है कि कम-से-कम वैदिक संहिताओं के समय में ब्राह्मण साहित्य में ऐसे ध्वनिग्रामीय रूप उपलब्ध हैं जो समकालीन बोलियों के हैं और जिनका प्रमाणीकरण मध्यकालीन बोलियों से होता है।’’1

वैदिक संस्कृत में ‘यहाँ’ के लिए ‘इह’ शब्द का प्रयोग उपलब्ध है, किन्तु पालि और शौरसेनी प्राकृत में ‘इध’ मिलता है। अवेस्ता में यह ‘इद’ है अशोक के गिरनार के शिलालेखों में भी इध शब्द का प्रयोग मिलता है। अतः इससे यह स्पष्ट है कि ‘इह’ की अपेक्षा ‘इध’ रूप प्राचीन है। वेदों की भाषा में और प्राकृतों में अनेक समानताएँ लक्षित होती हैं। सबसे अधिक समानता यह है कि इन दोनों में स्वर भक्ति प्रचुरता से उपलब्ध होती है। पाश्चात्य विद्वानों में जर्मन भाषा के विद्वान रिचर्ड पिशल ने प्राकृत भाषाओं का तुलनात्मक तथा भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत कर उल्लेखनीय कार्य किया है। यथार्थ में वैदिक भाषा के साथ प्राकृतों का तुलनात्मक अध्ययन कर उन्होंने भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में एक नवीन दिशा प्रशस्त की है। वैदिक काल में प्रचलित जनभाषा की सबसे प्रमुख विशेषता है-विभक्तियों का परस्पर विनिमय। आर्यभाषाओं के विकास के इतिहास में यह प्रवृत्ति निरन्तर विकसित होती रही है।

अपभ्रंश और अवहट्ट में भी यही प्रवृत्ति मूल में लक्षित होती है। डॉ. हरदेव बाहरी के शब्दों में वैदिक काल में भी प्राकृतें थीं और जिस प्रकार वे साहित्यिक भाषा से प्रभावित होती थीं उसी प्रकार साहित्यिक भाषा को भी प्रभावित करती थीं। वेद में रूपों का वैविध्य और ध्वनिद्वैध जन-भाषाओं के अस्तित्व को प्रमाणित करता है। वेद में अनेक प्रादेशिक तथा प्राकृत शब्द और प्रयोग मिलते हैं। उच्चा, नीचा, पश्चा, भोतु (सं. भवतु) शिथिर (सं. शिथिल) जर्भरी, तुर्फरी, फरफरिका (पर्फरीका) तैमात, ताबुवम, वंच, वेस (सं. वेष), दूलभ (सं. दुर्लभ), दूडम (दुर्दुम), सुवर्ग (सं. स्वर्ग), इन्दर (इन्द्र) इत्यादि वेद के शब्द प्राकृत के हैं संस्कृत के नहीं।’’2 ब्राह्मण ग्रन्थों के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि वैदिक काल में कई बोलियाँ प्रचलित थीं। अफगानिस्तान से लेकर पंजाब तक पश्चिमोत्तरी बोली प्रचलित थीं। जिसमें ‘र’ की प्रधानता थी। पंजाब से मध्य उत्तर प्रदेश तक मध्यवर्ती बोली का प्रचलन था, जिसमें ‘र्-ल्’ दोनों की प्रधानता थी। पूर्वी बोली

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1.लद्दू, एस. डी. प्राकृत स्टडीज आउटसाइड इण्डिया (1920-69) पृ. 225-227 प्रोसीडिंग्स ऑव द सेमिनार इन प्राकृत स्टडीज, पूना विश्वविद्यालय, 1970
2. डॉ. बाहरी, हरदेव : हिन्दी : उद्भव, विकास और रूप पृ. 31, इलाहाबाद 1969.।

का प्रचार-प्रसार देश के पूर्वी भागों में था, जिसमें ‘ल्’ का प्राधान्य था।1 टी. पी. भट्टाचार्य के अनुसार ब्रह्मोपासना तथा तीर्थकरों की अवधारणा में समानता लक्षित होती है। दोनों के दार्शनिक विचारों में साम्य है। प्राग्वैदिक फोनेशियन वैदिक काल में पणि कहे जाते थे जो उत्तरवर्ती काल में व्रात्य तथा वणिक् कहे गये।

ऑर्टेल, वाकरनागल, टेडेस्को और जी.वी. देवस्थली के उन शोध कार्यों से यह निश्चित हो जाता है कि ब्लूमफील्ड और एजर्टन ने जिन ‘वैदिक वेरिएण्टस्’ का संकलन किया था, उनमें जो ध्वन्यात्मक रूप उपलब्ध होते हैं, वे अधिकतर मध्यकालीन भारतीय बोलियों से बहुत कुछ समानता लिये हुए हैं। यहाँ तक कि पाणिनी कात्यायन और पजंतलि की रचनाओं में भी प्राकृत का प्रभाव परिलक्षित होता है। यदि इतिहास के परिप्रेक्ष्य में विचार किया जाए, तो वेदों में उल्लिखित पणि, असुर और व्रात्यों की भाषा मृदुवाक, मधुरवाणी प्राकृत ही थी। ‘व्रात्य’, शब्द का अर्थ है-व्रत से निष्पन्न। व्रात्यों का यश: कीर्तन ‘ऋग्वेद’ के अनेक सूक्तों में किया गया है।

‘अथर्ववेद’ के पन्द्रहवें काण्ड का नाम ही ‘व्रात्यसूक्त’ है। ‘ऋग्वेद’ में स्पष्ट शब्दों में निर्वचन किया गया है3-जो भूतल पर मूर्धस्थानीय है अहिंसक हैं अपने यश और व्रतों की अद्रोह से रक्षा करते हैं, वे व्रात्य हैं।’’ यही नहीं, ‘वेदमीमांसा’ (पृ. 95) में ज्येष्ठ व्रात्य को ‘अर्हत्’ शब्द से निर्दिष्ट किया गया है। व्रात्यों की भाषा को प्राकृत मानने का आधार ‘शाक्यायन श्रौतसूत्र’ (१६५।१००।२८) है। ‘ताण्ड्य ब्राह्मण’ के उल्लेखों से भी यह स्पष्ट होता है कि यज्ञ-याग के विरोधी और वेदों का पठन किये बिना, अदीक्षित ही ज्ञान की चर्चा करने वाले स्वसम्बुद्ध ज्ञानवादी व्रात्य थे। डॉ. शारदा चतुर्वेदी के शब्दों में प्राकृत युग के तीर्थकर और बौद्ध से आरम्भ कर आज के नाथ सम्प्रदाय एवं आधुनिक युग का आउल-बाउल सभी संप्रदाय व्रात्यदलों के हैं। चिरकाल से ही ये लोग अपने तात्त्विक सिद्धान्त अप्रमार्जित प्राकृत भाषा में कहते हैं। इस तरह इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि व्रात्यों की यह प्राकृत भाषा आज के नाथ संप्रदाय और आउल-वाउल संप्रदाय तक प्राकृत भाषा के रूप में चली आ रही है। वास्तव में यह वणिकों तथा व्रतियों की भाषा रही है।

यथार्थ में वेदों तथा वैदिक युग की रचना से लेकर आज तक जो भी साहित्य उपलब्ध होता है, वह स्पष्ट रूप में प्राकृतों की छाप लिये हुए है। इस देश के किसी
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1. द्रष्टव्य है-डॉ. तिवारी भोलानाथ हिन्दी भाषा का इतिहास, पृ. 28-29 नई दिल्ली, 1987
2. लद्दू डॉ. एस. डी. : प्राकृतिक इन्फ्ल्यूएन्सेज रिवील्ड इन द वर्क्स ऑव पाणिनी, कात्यान एण्ड पतंजलि प्रोसीडिंग्स ऑव द सेमिनार ऑन प्राकृत स्टडीज (1973) पृ.88-100 अहमदाबाद।
3. ये मूर्धानः क्षितीनामदब्धासः स्वयशसः। व्रता रक्षन्ते अद्रुह: (सातवलेकर संस्करण) ऋग्वेद मन्त्र 13, मं. सू. 67
4. चतुर्वेदी डॉ. शारदाः वैशाली इन्स्टिट्यूट रिसर्च बुलेटिन नं. 3 में प्रकाशित ‘प्राकृत भाषा और उसका मूलाधार’ शीर्षक लेख पृ. 124 से उद्धृत।

एक भाग में नहीं, किन्तु उत्तर से पश्चिम, पश्चिम से पूर्व तथा पूर्व से दक्षिण तक की लगभग सभी भाषाएँ एवं बोलियाँ प्राकृत से प्रभावपन्न रही हैं। उदाहरण के लिए निम्नलिखित शब्द हैं-चरु (ऋग्वेद 9, 52, 3) बृहत् काष्ठपात्र। प्राकृत में यह ‘चरु’ बुन्देली बिहारी में ‘चरुआ’ व्रज में ‘चरुवा’ हिन्दी में ‘चरु’ ‘चरुआ’ गुजराती में चरु मराठी में लंहदा में चर्वी और सिन्धी में ‘चरू’ है। इसी प्रकार के शब्द हैं-दूलह (अथर्व, 4, 9, 8,) प्राकृत में ‘दूलह’ हिन्दी में ‘दूलह’ हैं। पंजाबी में ‘दूलो’ सिन्धी में ‘दुलहु’, मैथिली में ‘दुल्हा’, राजस्थानी-गुजराती ‘दूलो’ नेपाली में ‘दूलोहो’ एवं व्रज-बुन्देली अवधी आदि में ‘दूलह’ आज भी प्रचलित है। ‘ऋग्वेद’ में प्रयुक्त उच्चा ( 1, 123, 2) नीचा (2, 13, 12) तथा वो (1, 20, 5) आदि शब्द आज भी हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में ऊँच-नीच वो (लोग) रूप में प्रचलित हैं।

यथार्थ में आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं को वेदों से तथा वैदिक युग की बोली से जोड़ने वाली भाषा-परम्परा की कड़ी का नाम प्राकृत है। यह एक ओर जहाँ कुछ बातों में भारोपीय भाषाओं से विशेषतः अवेस्ता से साम्य लिये हुए हैं, वहीं ऐसी विशेषताएँ भी सहेजे हुए है जो इसकी अपनी मौलिकता को प्रकाशित करने वाली है। ह्रस्व ऍ, ऑ का प्रयोग प्राकृत अपभ्रंश की मौलिक विशेषता है। भले ही कालान्तर में लोकभाषा में ऍ, ऑ, का प्रयोग प्रचलित नहीं रहा हो, किन्तु आज तक भाषा का यह प्रवाह इन स्वर-ध्वनियों को सुरक्षित बनाये हुए है। प्राकृतों में और वेदों में एक स्वर के स्थान पर दूसरे स्वर के विनिमय की प्रवृत्ति लक्षित होती है, जैसे कि-‘तन्वम्’ के लिए तनुवम्, (तै. सं. 7-22-1) ‘सवर्ग’ के लिए ‘सुवर्ग’ (तै. सं. 4-2-3) ‘गोष’ के लिए ‘गोषु’ गच्छति (ऋक् सं. 1,83,1) ‘तम्’ के लिए ‘तमु’ (ऋक् सं. 10,107,6) ‘नु’ (ऋक् सं. 10,168,1) इत्यादि। इसी प्रकार वैदिक भाषा में मूर्धन्य ध्वनियों का प्रयोग ‘न’ के स्थान पर ‘ण’ का प्रयोग द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग शब्दरुपों में वैकल्पिक प्रयोग, विभक्ति तथा क्रिया-रूपों में लाघव, कृदन्त प्रत्ययों का सरलीकरण आदि विशेषताएँ उसमें प्राकृत-तत्त्व के सम्मिश्रण को सूचित करने वाली है।

प्राकृत में यह अन्तर अवश्य है कि प्राचीन भारतीय आर्यभाषा के ‘ऋ’ वर्ण का अभाव है। इसके स्थान पर प्राकृत में अ, इ, उ, ए आदि का प्रयोग मिलता है। अतः प्रो. विल्सन भी मुक्त भाव से यह स्वीकार करते हैं कि प्राकृत उस बोली का प्रतिनिधित्व करती है जो किसी समय में बोली जाती थी। क्योंकि आज जनभाषाओं के जो परिवर्तित रूप उपलब्ध होते हैं, उनके परिवर्तन की जानकारी प्राकृत व्याकरण से ही मिलती है। विशुद्ध काल-व्यापिता की दृष्टि से देखा जाए तो मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाओं और बोलियों का विनियोग प्राचीन भारतीय आर्यभाषाओं की अपेक्षा अधिक व्यापक है।’’2 डॉ. पी.
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1.द्रष्टव्य है-विल्सन एच, : सिलेक्ट स्पेसीमेन ऑव द हिन्दू, इन्ट्रोडक्सन
2.कत्रे एस.एम.(अनुवादकः डॉ. रमाशंकर जैतली) : प्राकृत भाषाएँ और भारतीय संस्कृति में उनका अवदान, पृ. 6 से उद्धृत।

एल. वैद्य के अनुसार आज हमें अपभ्रंश से एक प्राकृत भाषा का ही बोध होता है। जिसकी विशेषता चण्ड, हेमचन्द्र, त्रिविक्रम, पुरुषोत्तम, मार्कण्डेय तथा अन्य वैयाकरणों द्वारा निश्चित है। अपभ्रंश का अध्ययन भारत की आधुनिक भाषाओं के-विशेषतः हिन्दी, गुजराती, मराठी, बँगला तथा उनकी उपभाषाओं के विकास को ठीक-ठीक समझने के लिए अत्यावश्यक है।’’1
प्राचीन भारतीय आर्यभाषाओं के विकास-क्रम में प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषाओं का महत्त्वपूर्ण योग रहा है। ये भाषाएँ विभिन्न युगों में बोली तथा भाषाओं में होने वाली परिवर्तनों की संसूचक है। डॉ. चटर्जी ने ठीक ही कहा है कि ‘वैदिक’ शब्द का ‘संस्कृत’, ‘प्राकृत’ और भाषा का प्रयोग संक्षिप्त और सुविधा के लिए तथा भारतीय आर्यभाषाओं की तीन अवस्थाओं के लिए किया गया है, और ‘प्राकृत’ तथा ‘भाषा’ के मध्य में संक्रमणशील अवस्था जो कि प्राकृत या मभाआ की ही एक अंग थी, सुविधा की दृष्टि से ‘अपभ्रंश’ कही जाती है।2

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