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बयान

चित्रा मुदगल

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1367
आईएसबीएन :81-263-1000-6

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ कहानी संग्रह बयान...

Bayaan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


जीवन की क्षणिक घटनाओं और अनुभूतियों को छोटे-से कैनवास पर जिस रचना-कौशल के साथ उसकी अन्तस्तहों को उद्घाटित करते हुए चित्रित करती है,वह उस परिवेश को मन में अत्यन्त सहज रूप से अंकित कर देता है।

कौंध


आखिरकार लघुकथाएँ पुस्तकाकार रूप में जा रही हैं ! कब से लिख रही हूँ मैं इन्हें, लिखते हुए लगभग तीस वर्ष हो रहे होंगे। जिज्ञासा हो सकती है और जो अस्वाभविक भी नहीं होगी कि इतने लम्बे अरसे में इतनी कम लघुकथाएँ ? लगने को यह भी लग सकता है कि जिस शिल्प और शैली में अपनी मुद्रा अख़्तियार करनी चाहिए-है भी या नहीं ! कम लिखने का कारण सम्भव है बहुत अधिक स्पष्ट न कर पाऊँ। इतना अवश्य कह सकती हूँ कि लघुकथाओं को मैंने उनके लघु-स्वरूप के बावजूद कभी सायास लिखने का प्रयत्न नहीं किया। सोच कर बैठी होऊँ कि आज मुझे दो-चार लघुकथाएँ लिख डालनी हैं। फलाँ-फलाँ पत्रिका से कुछ भी भेजने का आग्रह हुआ है और उसे भेजना है।
वास्तविकता तो यह है कि जबरन मेज पर बैठने से मेरे पास न सोच आता है न शब्द। जबरन मेज पर बैठकर मैं केवल उन्हीं कामों को निबटा पाती हूँ जिन्हें निपटाने के लिए मुझे रात ग्यारह बजे अपनी सोसायटी से लगे विशाल बगीचे में जाकर तन्हा टहलने की जरूरत नहीं पड़ती । मेरी आहट सूँघ बगीचे का माली बगीचे के दाहिनी ओर एक कोने में स्थिति अपने कोठरीनुमा घर के बाहर निकल मुझसे कहता है-‘‘दिदिया, हम जग रहे हैं, आप टहलिए।

चिल्लागाँव की तरफ मत जाइएगा !’’ शायद उत्तर इतना-भर ही है कि लघु-कथा जब भी जनमी, कौंध-सी जनमी। कौंध के साथ ही उसने अपना बुनाव-रचाव स्वयं रचा। मैंने उसे दर्ज भर कर लिया। हाँ, आवश्यकतानुसार उसका परिष्करण भी। यह अलग की बात है कि कभी उस क्षण पर्स में कागज़ कलम नहीं हुआ। हालाँकि ऐसा प्रायः मेरे साथ होता नहीं हैं। लेकिन कभी किसी समारोह में आते-जाते यह भी हुआ है कि मैंने स्वयं अपने भारी भरकम बैग को संग ले जाना स्थगित किया है-यह सोचकर कि उस उत्सव स्थल में ऐसे भारी भरकम बैग को ढोने की आखिर उपयोगिता क्या है, जिसमें पेन, पैड, डायरी, विजिटिंग कार्डस से लेकर लाण्ड्री के बिल और वह चहेती पुस्तक भी जिसे पढ़ने का प्रलोभन मुझे उसे बैग में दुबकाये घूमने के लिए मजबूर किये हुए है कि जाने कहाँ किस रूप में कोई फुरसत हाथ आ लग जाए और मैं उसे, पढ़ने का सुभीता हथिया सकूँ !
ऐसे में कागज़ कलम की अनुपस्थिति छटपटा देती है। उस कौंध को पूरी कोशिश कर मैं दिमाग के किसी कोने में सुरक्षित रखने की प्राणपण से चेष्टा करती हूँ। मानकर चलती हूँ कि लघुकथा सुरक्षित हो गयी। मेरी चेतनता का परिश्रम व्यर्थ नहीं जाएगा। मगर घर लौटकर जब उसे कागज़ पर उतारने की मंशा से उसे स्मरण करने की कोशिश करती हूँ तो दिमाग के कोने-कोने को टटोलने के बावजूद वह हाथ नहीं लगती। हाथ लगता है केवल शून्य ! जैसे उस तिजोरी में कभी कुछ रखा ही नहीं गया हो।
इन स्थितियों में जाने कितनी कौधें बिला गयीं। न बिलातीं तो निश्चिय ही उनकी संख्या अपने समय का कोई तो अनुपात देने में समर्थ होतीं।

यह मेरे लिए भी विस्मय से भरी मन्थनीय स्थिति है कि आखिर इन कौधों में समाज अपनी रूपता-विरूपता की जिन भीतरी तहों को उद्घाटित करता सफल-असफल जिस भी रूप में उपस्थिति रहता है- निश्चय ही सतर्क अवचेतन कहीं अपनी गहन अन्तर्दृष्टि से उसे ओझल नहीं होने देता। अनजाने फिंगर प्रिण्ट्स वहाँ लिये जाते हैं और लिये जाते रहते हैं कि कुछ जरूरी छूटा हुआ इन सूत्रों से भी पहचाना-समझा जा सकता है और उसे जानने समझने की आवश्यकता इस रूप में भी है। उसकी प्रहारात्मकता उसकी लघु कद-काठी का अतिक्रमण कर उस अणु के समान होती है जिसकी क्षमता और शक्ति को लेकर, किसी संभ्रम में रहना अपनी सीमाओं में सीमित होने जैसा ही है।
लघुकथा ने अपनी शक्ति का बोध मुझे अक्सर कराया है। ‘फतहचन्द कन्या महाविद्यालय’ हिसार की प्राचार्या शमीम शर्मा मुझे अपने कॉलेज में दो-ढाई वर्ष पूर्व एक कार्यक्रम के अन्तर्गत आमन्त्रित करना चाहतीं थीं। उतनी दूर जाने में उनके स्नेहिल आग्रह के बावजूद मैं कतरा रही थी कि बातों-ही-बातों में उन्होंने लगभग बाइस वर्ष पूर्व ‘सारिका’ कथा पत्रिका में प्रकाशित ‘रिश्ता’ और ‘गरीब की माँ’ का कथ्य उद्धृत करते हुए ऐसा छुअन-भरा पाठकीय विश्लेषण प्रस्तुत किया कि सहज भाव से मेरा लेखकीय मन अभिभूत हो उन्हें हिसार आने की स्वीकृति दे बैठा। इस कार्यक्रम में हिमांशु जोशी भी हमारे साथ थे। शमीम शर्मा से पहले कभी किसी रूप में भेंट का सुयोग सम्भव नहीं हुआ, मगर लघुकथा की सृजनात्मक शक्ति ने यह बोध अवश्य कराया, कलेवर में लघुकथा होने के बावजूद उसका रचनात्मक प्रभाव पाठक के मर्म को गहरे उद्वेलित ही नहीं करता, उसके मानस पर अपना स्थायी प्रभाव छोड़ता है। लघुकथाओं पर प्रतिक्रिया स्वरूप पत्र-पत्रिकाओं में आनेवाले सुधी पाठकों के पत्र, इस मन्तव्य को और अधिक सुदृढ़ करते हैं। शमीम जी ने रमेश बत्तरा की भी कई बहुचर्चित कथाओं और लघुकथाओं का आत्मीय उल्लेख किया। सुनकर भीतर नम हो आया। रमेश बत्तरा अपनी अप्रतिम कथाओं और लघुकथाओं के चलते मेरे लिए ही नहीं, अपने अनेक साहित्यिक प्रियजनों के लिए स्वर्गीय नहीं हो पाये। शायद कभी हो भी नहीं पाएँगे।

यह मेरा मानना है कि साहित्यिक मित्रों के बीच हुई लम्बी कडुवी-बहसों के बावजूद लघुकथा की तुलना में वर्तमान कविता-संसार अपने लघु कलेवर में स्थायी रचनात्मक प्रभावों से वंचित दृष्टिगत हो रहा है। इस नतीजे पर पहुँचाया है मेरे कविता के पिपासु पाठक ने, जो किसी भी पत्रिका के हाथ आते ही सबसे पहले कविता के पृष्ठों से उलझता है और जब उसे उनमें जन-सरोकारों की मात्र उथली पत्रकारीय दुन्दुभी सुनने को मिलती है तो तक़लीफ का ज्वार बाँध तोड़ने पर आमादा हो जाता है।
सच तो यह है कि लघुकथाओं ने बड़ी जिम्मेदारी से नयी कविता के जनसरोकारीय दायित्व को आगे बढ़कर अपने कन्धों पर ले लिया है। चैतन्य त्रिवेदी का इधर आया और ‘किताब घर’ द्वारा पुरस्कृत हुआ लघुकथा संकलन ‘उल्लास’ इसका सशक्त उदाहरण है। विष्णु नागर, असगर वज़ाहत, जोगेन्दर पाल, बलराम, मुकेश वर्मा, रमेश बत्तरा, महेश दर्पण आदि ऐसे अनेक महत्वपूर्ण नाम गिनाये जा सकते हैं जिनकी लघुकथाएँ अपने खुरदुरे पाठ के बावजूद गद्य में पद्य की मिसाल कायम करती है। व्यक्त के पीछे का अव्यक्त उँगली पकड़ उन दबावों की खोहों में अनायास खींच ले जाता है जिनके गली-गलियारों के लाल कालीन आम आदमी के संघर्ष को मुँह चिढ़ाते हुए नज़र आते हैं।

पत्र-पत्रिकाएँ लघुकाथाओं को निरन्तर प्रकाशित करती रहती हैं और उनकी अनिवार्यता और महत्वपूर्ण भूमिका से भी वे अनभिज्ञ नहीं है। यानि कि समय की नब्ज़ पर उनका हाथ है। वे जानती हैं, साहित्य का एक विशाल पाठक वर्ग अपनी रोजमर्रा की अति व्यस्तता के चलते पढ़ने की इच्छा रखते हुए भी साहित्य से नाता जोड़ने में स्वयं को असमर्थ पाता है। ऐसे साहित्य-पिपासु पाठकों को सीमित समय में रचना जगत से जोड़ने का दायित्व लघुकथाएँ बखूबी निभा सकती हैं और निभा रही हैं। आश्वस्त करनेवाली बात यह भी है कि पत्रिकाओं के परिवर्तित मनोविज्ञान के कारण लघुकथाएँ अब उनके लिए मात्र फिलर नहीं रहीं, न चुटकुला। किन्तु लघुकथा को विधागत रूप में जिस सम्मान और प्रतिष्ठा की दरकार है-उसे अभी हासिल नहीं हुआ है। जबकि लघुकथाओं को पढ़कर उस पर प्राप्त होनेवाली प्रतिक्रिया यह जाहिर नहीं करती कि पाठकों ने उसे अब तक विधागत रूप में स्वीकार नहीं किया है। मुझे लगता है कि सम्पादकों की मानसिकता ही इसके लिए दोषी है। हालाँकि सच्चाई से वे भी अवगत हैं और उसे स्वीकार भी करते हैं। लेकिन जिस साहस के साथ सम्पूर्णता में वास्तविकता को स्वीकारा जाना चाहिए, नहीं स्वीकारते। किसी भी बड़े सम्पादक का किसी बड़े लेखक के पास लघुकथा की माँग करनेवाला पत्र नहीं पहुँचता है। बल्कि लेखक को स्वयं कहना पड़ता है कि इधर उसने कुछ लघुकथाएँ लिखी हैं –क्या उन्हें छापना सम्पादक जी पसन्द करेंगे ? सम्पादक मना नहीं करते यह और बात है।

यह अनदेखी करनेवाली बात नहीं है-गम्भीर मसला है। एक और दुःख ! छोटी-बड़ी सभी पत्रिकाओं के मुख्यपृष्ठ पर कहानीकारों के नाम होते हैं, कवियों के नाम होते हैं, समीक्षकों के होते है, विचारकों के होते हैं-नहीं होते हैं तो लघुकथाकारों के नाम ! स्पष्ट है लघुकथाएँ लिखना उनकी नज़र में दोयम दर्जें का काम है और लघुकथाकारों का आकर्षण शून्य। अपनी इस दुविधापूर्ण कृपण मानसिकता से उन्हें मुक्त होने की ज़रूरत है और मुक्त होकर आत्माविश्लेषण करने की भी कि उनका लघुकथा के प्रति ऐसा रवैया साहित्य-विरोधी आचरण नहीं है ?
सर्वविदित है कि साहित्य की किसी भी विधा को पाठकप्रिय बनाने में और उसे सम्पुष्ट करने में, समकालीन पत्र-पत्रिकाओं की निर्णयात्मक भूमिका होती है। समय रहते सम्पादकों को चेतने की जरूरत है और प्रतिबद्ध मन से पहल करने की भी। ‘का बरसा जब कृषि सुखानी !...’
एक महत्त्वपूर्ण पहल की चर्चा करना यहाँ अप्रासंगिक न होगा।

निश्चित ही लघुकथा की मान्यता की दिशा में यह एक क्रान्तिकारी कदम है और इसकी जितनी भी सराहना की जाए, कम है । सच तो यह है कि इस पहल ने देश के लघुकथाकारों में संजीवनी का-सा असर किया है। उन्हें यह लगाने लगा है कि अब और अधिक दिनों तक लघुकथा को उसके अधिकार से वंचित नहीं रखा जा सकेगा एन. सी. ई. आर. टी. ने अपने देशव्यापी पाठ्यक्रम में लघुकथा को स्थान दिया है उनकी ग्यारहवीं कक्षा की हिन्दी की पाठ्यपुस्तक ‘विविधा’ में हिन्दी की कई लघुकथाओं को सम्मिलित किया गया है। मेरी लघुकथा ‘रिश्ता’ भी उनमें से एक है। बलराम द्वारा सम्पादित ‘लघुकथा कोष’ एवं ‘विश्व लघुकथा कोष’ भी उस पहल को मजबूती देते दृष्टिगत हो रहे हैं। इन लघुकथा कोषों से यह जाहिर होता है कि दुनिया के सभी बड़े लेखकों ने लघुकथाएँ भी लिखी हैं और काफी मात्रा में लिखी हैं ।
लघुकथा को परिभाषित करने के सन्दर्भ में आये दिन विवाद होते रहते हैं। कुछ विद्वज्जन अब तक यही मान कर चल रहे हैं कि लघुकथा का अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। वह कहानी की ही उपविधा है। अतः उसे लघुकहानी कहा जाना चाहिए-लघुकथा नहीं। लघुकथा और लघुकहानी के विवाद पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करना चाहूँगी, क्योंकि मैं लघुकथा को स्वतन्त्र विधा के रूप में स्वीकार करती हूँ और निरन्तर लघुकथाएँ लिखना चाहती हूँ। उसकी सामर्थ्य पर मुझे अगाध विश्वास है। राजेन्द्र यादव की यह टिप्पणी मुझे बचकानी लगती है कि लघुकथा दरअसल कहानी की बीजकथा है।
लघुकथाएँ आपके सामने हैं। ये कहाँ खड़ी हैं-इसका निर्णय आप पर-जब भी मेरा कोई कथा-संकलन आपके सामने आने को होता है-परीक्षार्थी-सा मन धुकधुकाने लगता है। पता, नहीं उत्तीर्ण होने लायक अंक भी आपसे पा सकूँगी या नहीं। जो भी मिलेगा, सिर माथे। मेहनत का वादा रहा। विश्वास कीजिए !
चित्रा मुद्दल

गरीब की माँ

‘‘तेरे कू बोलने को नईं सकता ?’’
‘‘क्या बोलती मैं !’’
‘‘साआऽली...भेजा है मगज में ?’’
‘‘तेरे कू है न, तू काय को नयी बोलता सेठाणी से ? भड़ुआ अक्खा दिन पावसेर मार कर घूमता अउर...’’
‘‘हलकट, भेजा मत घुमा। सेठाणी से बोला क्या ?’’
‘‘ताबड़तोड़ खोली खाली करने कू बोलती।’’
‘‘तू बोलने को नईं सकती होती आता, मेना मैं अक्खा हिसाब चुकता कर देंगा ?’’
‘‘वो मैं बोली।’’
‘‘पिच्छू ?’’
‘‘बोलती होती मलप्पा को भेजना। खोली लिया, डिपासन भी नईं दिया। भाड़ा भी नईं देता। मैं रहम खाया पन अब्भी नईं चलने का।’’
‘साआऽला लोगन का पेट बड़ा, कइसा चलेगा ! सब समझता मैं...’’
‘‘तेरे को कुछ ज्यादा चढ़ी, गुप-चुप सो जा !’’
‘‘सेठाणी दुपर को आयी होती।’’
‘‘क्या बोलती होती ?’’
‘‘वोइच, खोली खाली करने कू बोलती।’’
‘‘मैं जो बोला था वो बोली क्या ?’’
‘‘मैं बोली, मलप्पा का माँ मर गया, मुलुक को पैसा भेजा, आता मेना मैं चुकता करेगा..’’
‘‘पिच्छू ?’’
‘‘बोली वो पक्का खडुस है। छे मेना पैला मलप्पा हमारा पाँव को गिरा-सेठाणी ! मुलुक में हमारा माँ मर गया। मेरे को पन्नास रुपिया उधारी होना। आता मेना को अक्खा भाड़ा देगा, उधारी देगा। मैं दिया। अजुन तलक वो उधारी पन वापस नईं मिला।
‘‘पिच्छू ?’’
‘‘गाली बकने कू लगी। खडुस शेन्डी लगाता...मेरे को ? दो मेना पैला वो घर को आया, पाँव को हाथ लगाया, रोने को लगा- मुलुक में माँ मर गया। आता मेना में शपथ, अक्खा भाड़ा चुकता करेगा, उधारी देगा। मैं बोली, वो पहले माँ मरा था वो कौन होती ? तो बोला, बाप ने दो सादी बनाया होता सेठाणी ! नाटकबाजी अपने को नईं होना। कल सुबू तक पैसा नईं मिला तो सामान खोली से बाहर...’’
‘‘तू क्या बोली ?’’
‘‘डर लगा मेरे को। बरसात का मेना किदर कू जाना ? मैं बोली सेठाणी, मलप्पा झूठ नईं बोलता...’’
‘‘पिच्छू ?’’
‘‘पिच्छू बोली- दो सादी बनाया तो तीसरा माँ किदर से आया ?’’
‘‘तू, तू क्या बोली ?’’
‘‘मैं बोली....दो औरत मरने का पिच्छू सासरे ने तीसरा सादी बनाया।....’’

..इसके आगे पुस्तक में देखें..

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