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सेतु बन्ध

यशोधरा मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1991
पृष्ठ :139
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1365
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है सेतु बन्ध...

Setu Bandh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

यशोधरा मिश्र उड़िया की परिपक्व और प्रतिष्ठित कथा लेखिका हैं। मुझे लगा जैसे उनका व्यक्तित्व सहज है, वैसे ही उनकी कथावस्तु और कथाशिल्प सहज है। वे दोई दावा नहीं करतीं, कोई चमत्कार पैदा करने की कोशिश नहीं करतीं, कोई असाधारणता नहीं साधतीं। जीवन के वास्तविक अनुभव उनके पास है। उनकी संवेदना गहरी और एक से अधिक स्तर की है। वे बाह्य जीवन को समझती हैं, तो मन की गुत्थियों को भी जानती हैं। मानवी सम्बन्धों की जटिलताओं को वे पकड़ती हैं। ऊपर से सपाट दिखने वाला जीवन भीतर जटिल है। इस तरह की कथा-वस्तु को लेकर वे सहज ढंग से कहानी कह जाती हैं। इन कहानियों में तथ्यपरकता, संवेदना, सम्बन्धों की जटिलता, मन की उहापोह है।

आत्मीय अनुभवों की वास्तविक कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ हिन्दी पाठकों को उपलब्ध हो रही हैं, यह खुशी की बात है।

हरिशकंर परसाई

दो शब्द


हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में मेरी अनूदित कहानियाँ। 1984 से प्रकाशित होती आ रही हैं, फिर भी जब भारतीय ज्ञानपीठ ने मेरी कहानियों का संग्रह प्रकाशित किया तो मेरे मन में खुशी के साथ-साथ ही कुछ शंका-सी भी हुई क्योंकि 1972-73 में प्रकाशित ‘कमरा’ और ‘पहचानी हवा’ से लेकर 1980-81 की ‘चाँदनी-रात’ और पिकनिक’ तथा 1987-88 तक की ‘पराया राज’ और ‘व्यूह’ कहानियां एक साथ सम्मिलति हैं। इनके अलावा हिन्दी भाषी पाठकों की संख्या सम्मुख आने का अनुभव होता है।

मेरी समझ में अपने जीवन के विभिन्न अनुभवों और उनसे उपजी भावनाओं को दूसरों के साथ बाँटने के वास्ते, दूसरे तक एक अदृश्य सेतु बाँधने के लिए मनुष्य की स्वाभाविक और सहजात प्रवृत्ति से ही कहानी लिखी जाती है। कहानी लिखते समय अपने मन की बात लेखन में प्रस्फुटित करने की ही छटपटाहट होती है, परन्तु जब अंतिम पंक्ति लिख दी जाती है, तब मन में यह सवाल उठता है कि क्या कहानीपाठक के मन तक मेरी कुछ हद तक बात पहुँचाने में समर्थ है ?

एक साल के अन्दर ‘सेतुबन्ध’ का द्वितीय संस्करण प्रकाशित हो रहा है। इसके लिए मैं अगणित हिन्दी पाठकों की जितनी कृतज्ञ हूँ, प्रकाशक के प्रति भी उतनी ऋणी हूँ। खासकर भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक श्री बिशन टंडन की इस दिशा में रुचि और सहृदयता के लिए मैं उनके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करती हूँ।

अन्त में यह कहने की आवश्यकता नहीं कि डॉ. राजेन्द्र प्रसाद मिश्र के अनुवाद व सहयोग के बिना ‘सेतुबन्ध’ का हिन्दी पाठकों तक पहुँचना सम्भव नहीं था।

यशोधरा मिश्र

द्वीप, निर्जनता और चाँदनी रात,


ओड़िया कथा-साहित्य के शतवार्षिकी पालन के परिप्रेक्ष्य में फकीर मोहन के ‘रेवती’ से लेकर अद्यतन कहानी तक नज़र डालने पर ओड़िया कहानी की चित्रमय विविधता तथा गुणात्मक विकास सहज ही देखा जा सकता है। कथा वस्तु का क्रमशः विस्तार पाता क्षितिज, शैली का चातुर्य और भाषा की निपुणता; चरित्र-चित्रण की विभिन्न पद्धतियां, वर्णन का विविध विन्यास तथा सबसे अधिक समग्र रूप से कथा–कथन का आत्मिक विकास, आज यह सब साहित्य इतिहास की बातें हैं।

कहा जाता है कि कहानी कहना मनुष्य की प्राचीनतम प्रवृत्तियों में से एक है और कहानी सुनने की इच्छा भी उसी तरह एक अन्य प्रवृत्ति। जिसके पास अनुभव होता है, वह कहता है। जिसमें विस्मय होता है, मन में उत्सुकता होती है, वह सुनता है। शायद इसीलिए दादा-दादी कहानियाँ कहते हैं और नन्हें बच्चे सुनते हैं। शुरू में वक्ता पूछा करता था : दुख की कथा कहूँ या सुख की, या आप बीती कहूँ ? वह अन्तिम बात ही कहता है। उसमें सुख और दुख की बातें घुल-मिलकर रहती हैं। हँसी-रुलाई, लहू-आँसू, मान-अभिमान, क्रोध-क्षमा, आशा-आशंका, हर्ष-भय—वास्तव में सारे मानवीय आवेग मिले होते हैं उनमें। इसलिए कहानी सुख और दुख दोनों से परे होती है—जिस तरह हमारा जीवन, जिस तरह हमारे रोज़ाना के जीने का तरीका, शैली। बच्चे आँखें फाड़े आश्चर्य से सुनते हैं कहानी—घना जंगल, राजकुमार, राजकुमारी, बूढ़ी राक्षसी भयानक राक्षस, सात ताल का पानी, सात ताल के दलदल के नीचे संदूकची में छिपा होता है असली रहस्य। सुनते–सुनते नींद भी आ जाती है कभी-कभीर। उसके बाद सपना भी अधकही कहानी कहने लगता है बेशुमार। कहानियों का नया-नया जाल बुनने लगता है। क्रमशः मर-खप गई दादी माँ कहानियों की कथावस्तु बन जाती हैं। कहानी सुनने वाले आश्चर्य-अभिभूत उत्सुक बच्चे अपना-अपना जीवन बिताते हैं, सुख-दुःख जीते हैं और अपने अनजाने ही क्रमशः किसी दूसरी कहानी की कथावस्तु बन जाते हैं।

ओड़िया कहानी की धाराएँ कई तरह से बदलती आ रही है फकीर मोहन से लेकर अब तक। कथावस्तु में कहानी कहने के ढंग में, चरित्रों के स्वरूप में, भाषा में, शैली में, संवेदनाओं में। गोपीनाथ, कान्हूचरण, कालिन्दी, गोदावरीष, सुरे्न्द्र, वामाचरण मित्र, किशोरीचरण दास, अखिलमोहन पटनायक, मनोज दास, नीलमणि साहू, चन्द्रशेखर रथ, शान्तनु आचार्य, वीणापाणि, रविपटनायक, प्रतिभा राय, रामचन्द्र बेहेरा, पद्मजपाल—और भी कई उपनदियाँ हैं इस प्रवहमान क्रमशः बढ़ती बेगवती नदी की। ये धाराएँ लगती हैं अनगिनत; प्रवाह में, तरंग में, मानचित्र में, नदी के किनारे और तट में, आकाश के प्रतिबंब में। इस प्रवहमान स्रोतस्विनी की गतिशील धारा की एक और उपधारा है यशोधारा।

समसामयिक समाज से कथावस्तु और पात्र लेना स्वाभाविक है। समसामयिक समाज की जीवनधारा, दिनचर्या, मूल्यबोध, अभिलाषाएँ आकांक्षाएँ, अनुराग-विराग, क्रोध-ईर्ष्या, घृणा-हिंसा, त्याग—यह सब कहानियों में प्रतिबिम्बित होना स्वाभाविक ही है। जीवन के प्रति दृष्टिकोण बदलता है। इसलिए पात्र भी बदल जाते हैं, वे भिन्न-भिन्न ढंग से जीवन व मृत्यु को देखते हैं। जीवन-मृत्यु के बीच आँख मिचौली, समय की अपरिहार्य गतिशीलता, जीवन की क्षणभंगुरता, उस परिप्रेक्ष्य में यहां तक कि क्षणिक आवेग का महत्त्व तथा महक नया रूप अख्तियार करता है, नये तरीके से भँवर में पड़ जाता है। ‘रांडीपुओं अनन्ता’, ‘रेवती’, ‘डाकमुनसी’,  जिस समाज के समसामयिक पात्र हैं, ‘मागुणी रसगड़’, ‘पिपूड़ी’, ‘ठाकुर घर’, ‘हले जोता किणीवार प्रत्यक्ष बिवरणी’ आदि कहानियाँ उसी समाज की बदलती तसवीरों और कई भिन्न-भिन्न मनुष्य, परिवेश तथा घटनाओं को चुनकर लाकर हमारी आँखों के आगे रखती हैं। हम देखते हैं समाज कितना बदल गया है। मनुष्य उसी तरह रहने के बावजूद कितना बदल गया है और कितने नये-नये ढंग से देख रहे हैं वे अपने आपसी सम्बन्धों को, चिरंतन को, मृत्यु को, रोजमर्रा के जीवन को, सार्वजनिकता को, क्षणभंगुरता को, कहानी का पहनावा ही नहीं बदला है आत्मा भी बदल गई है। मनुष्य समाज के अन्य लोगों से जुड़कर ही रहता है। फिर भी अपने स्वतन्त्र अस्तित्व के बारे में अधिक जागरुक हुआ है।

सन् 1975-76 में मुझे यशोधरा मिश्र की कुछ कहानियाँ पढ़ने के मिली थीं। उनकी कहानियों (पहचानी हवा, द्वीप, भाषा, प्रतिबिम्ब आदि) ने मन को छुआ था। इनका कहानी कहने का एक स्वतन्त्र ढंग था जो एक दृष्टि से तो अत्यन्त सरल और आडबरहीन था, पर दूसरी दृष्टि से काफ़ी चित्रमय, तथा चरित्र-चित्रण था जटिल व मन को छूने वाला। पढ़ने के बाद कहानी याद रहती थी और मन को झकझोरती थी। इसलिए ओड़िया कथा-साहित्य की इस उदीयमान शिल्पी का मैंने मन-ही-मन स्वागत किया था। फिर उनकी 18 कहानियों को लेकर ‘द्वीप और अन्याय गल्प’ संग्रह प्रकाशित हुआ सन् 1979 में। उसके बाद कुछ दिन तक वह मौन साध लेने-सी प्रतीत हुईं। लेकिन आगे चलकर पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कहानियां छपने लगीं और सन् 1987 में उनका दूसरा कहानी-संग्रह ‘जहन राति’ प्रकाशित हुआ। इन दो संग्रहों के अलावा और भी अनेक कहानियाँ उन्होंने लिखी हैं जो कि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। आज यशोधरा मिश्र ओड़िया कथा-साहित्य में एक सुपरिचित नाम है।

प्रत्येक मनुष्य निर्जनता तथा सामाजिकता इन दो अनुभवों के द्वंद्वात्मक आवेगों से अक्सर अभिभूत होता है। प्रेम निर्जनता का एक और नाम है, निर्जनता से छुटकारा पाने के प्रयास का एक और नाम। दुःख है सामाजिकता में, परिवार, आत्मीय जन, मित्र, पत्नी, पुत्र, पुत्री सबके बीच रहते हुए भी अन्तिम वलय पर है निर्जनता का स्पर्श। मानो निर्जनता को वरमाला पहनाकर वर लेना ही मनुष्य की नियति है। इसका मतलब यह नहीं कि ये संगी साथी, यह समाज हमें प्रिय नहीं, या हमें इनकी चाह नहीं। साथ के लिए, स्नेह के लिए, निकटता के लिए, निर्जनता को टालने के लिए तो हम सदा व्याकुल रहते हैं। पर इन्हें पा लेने के बावजूद, सारी निकटता के बावजूद, आकांक्षापूर्ण सामाजिक बन्धनों के बावजूद क्यों लगता है इतना अकेला-अकेला-सा ? सूनी, निर्जन चाँदनी रात क्यों ले आती है आँखों में आँसू ? चाहने वाले इन्सान को क्यों कभी-कभी दूर धकेलने को जी करता है ? ‘पिकनिक’ में आकर शान्ता को क्यों सामना करना पड़ता है पानी के छींटों, ठण्डी हवा, महेश की ग़ैर हाज़िरी, रहस्यमय जॉन की बातें, सुनसान अँधेरा और बढ़ती निर्जन रात्रि का ? महेशा उसे चाहता है और वह भी महेश को। क्या यह इन्सान की नियति है कि प्यार इस तरह की अपनी भाषा ढूँढ़ नहीं पाता, खुद को अभिव्यक्त नहीं कर पाता, जिस वस्तु और इन्सान को चाहता है पकड़कर रख नहीं पाता ? केवल उम्मीद ही कर सकता है—यहाँ तक कि रात के ग्यारह बजे—‘‘दिन अभी पूरा खत्म तो नहीं हुआ है।’’ समय ही निर्जनता का ध्येय व आत्मा है।

यशोधरा हमारे समय की निर्जनता के एकाकी मनुष्य की सफल कलाकार है। उनकी कहानी में अपने को अकेला मानते या कोशिश करके अपने गाँव तथा बड़े परिवार की सामूहिकता से ख़ुद को दूर रखने वाले सीतानाथ बाबू अचानक बह जाते हैं सामूहिकता के शोक में। उन्हें यह लगने लगता है—‘‘मेरे ये आँसू जिनके साथ नाहक मैं लड़ रहा था, मेरे इस गाँव की मिट्टी के लिए हैं, मेरे फिर न लौट आने वाले बचपन के लिए हैं, कुछ दिन पहले सबको मौत की प्रति सचेत कर गए उस बेचारे आदमी के लिए हैं, और मेरे घुटन-भरे एकाकीपन के लिए हैं—मेरे लिए हैं। मेरे लिए।’’ वास्तव में संयुक्त परिवार को, चाचाजी के पुराने इतिहास को, उनकी रुक्ष वास्तविकता को घृणा करने वाले सीतानाथ बाबू यकायक रूमाल निकालकर आँख-नाक पोंछने लगते हैं। यह आँसू उनकी भाषा में :

‘‘मेरे अकेलेपन के लिए हैं।’’ फिर कोई निकल कर चला गया अँधेरे में, सम्भवतः इसीलिए, शायद स्मृति के लिए, बचपन के लिए, बचपन के गाँव, उसी के समय के प्यारे परिवार के लिए। सबकुछ इसी तरह समा जाता है जीवन में। कोई आवेग, कोई ‘रस’ हृदय में पूरी तरह अलग होकर नहीं रहता। फिर क्यों आए ते वे गाँव ? किसी ने बाध्य तो नहीं किया था, पत्नी ने भी नहीं कहा। निर्णय तो उनका अपना ही था। तो क्या उस ‘शोक’ में डूबने के लिए दिल में कोई आवाज सुनी थी उन्होंने ? क्या वह सिर्फ़ एक दम घुटने वाला ‘मैं’ है जो ना तो यादों में शान्ति पाता है ना ही भविष्य की चिन्ताओं में ? ज़िधर देखो वही एकाकी-एकाकी-सा अनुभव। भविष्य में तो अब साँझ होने का समय है। यादें तो रह-रहकर चकमा देती हैं, आँखों में आँसू लाती हैं। इन दोनों को छोड़ भला तीसरा रास्ता है ही कहाँ ? समय से परे डग बढ़ाने की शक्ति तो हममें नहीं।

‘द्वीप’ और ‘दीवाली’ दोनों कहानियों को एक साथ रखकर देखने पर निर्जन मनुष्य की एक अद्भुत तसवीर उभरकर सामने आती है। यशोधरा की कहानी लिखने की क्षमता तथा उसका दायरा में मुग्ध करता है। ‘द्वीप’ एक लम्बी कहानी है (इस संग्रह में शामिल नहीं)। इसकी मुख्य पात्र छन्दा खुद केवल निर्जन ही नहीं, अकेली-अकेली नहीं (और यह एकाकीपन महज़ इस अर्थ में नहीं है कि उसके हाथ पीले नहीं हुए), एकाकी भी है। उसकी माँ सरोजनी भी एकाकी है। (सबके बीच बाते करने, कहानी कहने जैसे एक मनपसन्द व्यक्ति को, वह हमेशा ढूँढ़ती है) ऐसी ही एक शाम जब सरोजनी को अकेले पाती है, चारों तरफ़ से क्रमशः सिमटकर उन्हें दबोचकर गला रुधने लगता है...फिर भी ख़ुद को आत्मक्लेश देने-सा उन्होंने सोचा—छंदा भी भूल जाती है कि उसकी एक माँ इस घर में पड़ी है। मानों मैं इस घर की मेज़–कुर्सी में से एक हूँ।’’ अपनी जवानी की शादी के शुरू के दिनों की बातें याद कर-करके कहते समय वह ख़ुद आत्मविभोर हो जाती है। महज यादें ही अब खुशी के स्रोत हैं। यशोधरा की कहानियों में नस्टालजिया का असर प्रचुर गहरा है। स्मृति, अतीत, उसका आकर्षण, इनमें तात्कालिक आनन्द का अहसास होता है, पर वह ज्यादा देर तक नहीं टिकती (वैसे देखा जाए तो केवल यह रुक-रुककर होने वाला अप्राप्ति का शोक, पाकर खो देने का शोक, चाँदनी-रात का पतझण, अकेली चिड़िया देखने का शोक है)।


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