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व्यासपर्व

दुर्गा भागवत

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :127
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1348
आईएसबीएन :81-263-0890-7

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प्रस्तुत है व्यासपर्व...

Vyasparva

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रास्ताविक

'महाभारत' भारतीय जनमानस की दृष्टि से कितना बड़ा आधार बनकर रहा है, यह बतलाने की आवश्यकता नहीं है। परन्तु आधार को ग्रहण करने की पद्धतियाँ अलग-अलग हैं। मुझे तो यही लगता है। अधिकांश लोगों की दृष्टि में महाभारत कौरव-पाण्डवों की अतिशय विस्तृत तारतम्यहीन तथा संकीर्ण नीति कथा है अनेक व्यक्ति निजी प्रतिष्ठा के खयाल से कहानी के शुद्ध कहानीकार के प्रति रुचि नहीं दिखा पाते; जो ललित साहित्य में रुचि रखते हैं, वे महाभारत के अललित विस्तीर्ण अंशों के कारण महाभारत को कथा के रूप में स्वीकृति नहीं कर पाते। संस्कृत काव्य के कालिदासी शौकीनों को यहाँ ललित साहित्य का शिल्प तथा काव्य का सहज मधुर भाव ढूँढ़कर भी नहीं मिलता।

 दुर्भाग्य से हमारे पुरातन संस्कृति काव्य-साहित्य की परख करने का हमारा एकमेव निकष कालिदासी अभिरुचि रहा है, अतएव लालित्य के निकष के आधार पर-अभिजात सौन्दर्यग्राहकता, कलात्मकता तथा साहित्यिक मूल्यों के निकष के आधार पर-महाभारत जैसे विशालकाय खुरदरी, प्रकट रूप में अनेक हाथों से रची और अनेक कालखण्डों में विभाजित कृति का आस्वाद तो दूर रहा, सामान्य दृष्टि से देखना तक साहित्य की व्यवहारिक समीक्षा को स्वीकृत नहीं हुआ। यही कारण है कि धारणाशील दार्शनिकों ने, पण्डितों तथा राजनीतज्ञों ने काव्य-समीक्षा के प्रतिकूल प्रतीत होनेवाले अंग को अनदेखा कर दिया और अन्य यशोदायी धारणाओं को धारण कर अपनी रुचि के जीवन-क्षेत्र के समर्थन के उद्देश्य से महाभारत का अर्थ लगाया। इसका फल यह हुआ कि अनेकानेक क्षेत्र आलोकित हो उठे, विचारों के क्षितिज विस्तीर्ण हुए, संस्कृति की इयत्ताएँ फैलीं परन्तु महाभारत के काव्यमय भाव मुँद गये, मुँदे ही रहे।

अनेक विद्वानों को महाभारत श्रीमद्भागवद्गीता की मंजूषा प्रतीत होती है; ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि इसमें कोई अतिशयोक्ति है। पिछले डेढ़ सौ वर्षों में भारतीय युयुत्स राष्ट्रवादी विचारधारा के कारण महाभारत, शीर्षक की वजह से, आपाततः भारतीय राष्ट्रीय चिन्तन का प्रतीक बन गया है। यह भी सत्य है कि मदनलाल धींगरा जैसे शहीदों ने भगवद्गीता को हाथ में रखकर आनन्दपूर्वक फाँसी का फन्दा पहना है। गोपालनन्दन ने गीता में उपनिषदों का नवनीत पाया है। श्रीमत्शंकराचार्य ने सर्वप्रथम गीता का उद्गान किया। तभी से गीता को वेदान्त की वाणी माना गया। ज्ञानेश्वर ने गीता में अपनी स्फूर्ति का क्षेत्र और जीवन का सूत्र खोजा। इसके बाद किसी ने गीता में ज्ञानयोग पाया, किसी ने कर्मयोग, तो किसी ने अनासक्तयोग। किसी को गीता में भक्तियोग दिखाई पड़ा। गीता सब प्रकार के कर्मानुसन्धानी तथा योगानुसन्धानी आधुनिक विचारकों के लिए दैवी माता बन गयी। गीता के ‘दैवी संगीत’ को भी कुछ लोगों ने सुना। तात्पर्य यह कि ज्यों-ज्यों यन्त्रयुग की गति और दबाव बढ़े, गीता की ख्याति भी बढ़ती चली।

उसकी आवश्यकता बढ़ी तो उसके तेज में वृद्धि हुई। मेरी समझ में इसका कारण यह है कि पिछले पचास वर्षों में युद्ध-ध्वस्त विश्व में अमर श्रद्धा-स्थानों की खोज बुद्धिवादियों द्वारा जिस प्रकार की गयी है, उस प्रकार कभी नहीं की गयी थी। मानवता के पैरों तले की धरती खिसकती जा रही है और सम्पन्नता के क्षणों में विनाश के बादल सारी संस्कृति को डुबा देने के लिए उठ रहे हैं—इस स्थिति की तुलना पुराण-कथाओं के मात्र एक प्रसंग से ही की जा सकती है। वह प्रसंग है भारतीय युद्ध का। अतः श्रान्त और भ्रान्त मनुष्य के लिए छोटी-बड़ी आपत्ति-विपत्ति के हर क्षण में मार्गदर्शन करनेवाला श्रेष्ठ धर्मग्रन्थ है गीता-यह धारणा आश्वाभिवक नहीं मानी जा सकती। चूँकि वह धर्मग्रन्थ महाभारत में निबद्ध है, इसीलिए महाभारत की महत्ता जीवित रही और उसमें उपलब्ध कौरवों-पाण्डवों की कथा का अन्य उपकथाओं के सम्भारसहित जीर्णोद्धार हुआ।

देश-विदेश में भी महाभारत का सूक्ष्म अध्ययन काफी परिमाण में हुआ। महाभारत के रचयिता ने अपनी कृति को इतिहास कहा है। अतः अध्येताओं ने उसके माध्यम से प्राचीन इतिहास की समस्त शाखाओं का अनुसन्धान किया। राजनीतिक इतिहास, धर्मशास्त्र का इतिहास, दर्शन का इतिहास, सामाजिक इतिहास, भौगोलिक इतिहास, वांसिक इतिहास, भाणिक इतिहास, चरित्रेतिहास-सब प्रकार के इतिहासों की शाखाओं को विद्वानों ने महाभारत के पुरातन ग्रन्थ-वृक्ष से अपनी इच्छानुसार तोड़ लिया है और इस श्रृद्धा से हमारी शाखा ही महाभारत का सार प्रस्तुत करती है, अपने-अपने विषयों की मीमांसा की है। महाभारत का विषयानुसार अध्ययन कोई गलत अध्ययन नहीं माना जा सकता। उसके विशाल आकार और अजीब पेचीदा बुनावट को देखते हुए प्रतीत होता है कि एक-एक विषय का जो अनुसन्धान भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा, विभिन्न युगों में विभिन्न दृष्टिकोणों से हो चुका है, वह भी ठीक ही है।

फिर भी इसमें सन्देह नहीं कि महाभारत की सुसज्जित समग्रता का उद्घाटन ही उसके अन्तरंग के पृथक्करण का प्रथम और अन्तिम उद्देश्य होना चाहिए। अब तक जो अध्ययन प्रस्तुत किए गये हैं वे शायद उसकी समग्रता को ध्यान में रखकर नहीं किए गये। महाभारत के किसी एक अंग का उद्घाटन उसके सामर्थ्यपूर्ण तथा सौन्दर्यशाली केन्द्र का सम्पूर्ण उद्घाटन नहीं हो सकता। उपर्युक्त विविध अंग महाभारत के सामर्थ्य का निःसंशय विश्वास दिला जाते हैं; उसकी यौगिक भूमिका की प्रतीति कराते हैं। हमें ज्ञान की विदग्धता का तत्काल अनुभव होता है। मानवीय व्यवहार की जटिलता का अनुमान हो जाता है। दैवगति की वक्रता हृदय को कँपा देती है। कथा का प्रबल प्रवाह विश्वसनीय प्रतीत होती है। आद्योपान्त हम भूल नहीं पाते—पात्रों के परिणाम की विलक्षण विशालता। महाभारत के सामर्थ्य का अन्य प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं रहती। परन्तु महाभारत का सौन्दर्य उसके मात्र उत्तुंग बलावेग में नहीं है।

 स्थूल सामर्थ्य से अति सूक्ष्म, अभेद्य है एक कोमलता का कन्द जो काव्यच्छन्द की दृष्टि से, कथा के लालित्य के अनुषंग से महाभारत के कठोर कवच के भीतर भरा है। भव्य प्रस्तर मूर्ति के मुख पर जो कोमल मानवीय भावछटा दिखती है, वही कोमल छटा महाभारत नाट्यमय महाकथा के अंग-प्रत्यंग में भरी है—यदि हम साक्षात्कार कर पाते हैं, तभी महाभारत को कलाकृति के रूप में समझ सकते हैं। अन्यथा, वह अध्येताओं को भरपूर गीला-सूखा चारा देने वाली अनुपम चारागाह है—उसका यही औपयोगिक मूल्य सिद्ध होता है। वह मूल्य चाहे व्यवहारिक ज्ञान आध्यात्मिक आवश्यकता की ग़रज़ से हो।

यहाँ भी एक अनिवार्यता है ही : भारतीय संस्कृति का अध्येता कभी-न-कभी इस गहन क्षेत्र में घुसता ही है। नदी समुद्र की ओर दौड़ती है, इसी प्रकार सामाजिक शास्त्र की शाखाएँ ऐतिहासिक यात्रा में मुड़ती हुई, लड़खड़ाती हुई, दौड़ती हुई, महाभारत में जा मिलती हैं। महाभारत को अनदेखा कर सामाजिक आशय का सम्यक् स्वरूप पहचानना अथवा विशद रूप में समझाना असम्भव है। अन्य जनों की भाँति मैंने भी इस निबिड़ प्रदेश में प्रवेश किया, प्रवेश करना ही पड़ा। अन्य जनों ने क्या अनुभव पाया। मैं नहीं जानती; परन्तु मुझे लगा, किसी ने मुझे बन्द कर दिया है। लगा, जैसे इस गहन विद्यारण्य में मैं राह भूल गयी  हूँ। मैं खूब भटकती रही। ग्रन्थ की कीर्ति के बोझ तले साँस लेना तक दूभर था। मैंने महाभारत उठाया था, पहली बार एक पुराना सन्दर्भ ढूँढ़ने के लिए ! अपने एक कथन को वज़न देने के उद्देश्य से, पुष्टि देने के लिए व्यास के नाम का, प्रयोग करते उनकी कृति का मात्र उपयुक्तता की दृष्टि से प्रयोग करना चाहा था।

 महाभारत का प्रयोग करते समय मैं जानती थी कि उनकी पुरातन गन्ध, प्रचीनता का भारी भार, भाषा का आडम्बर आदि को झेल पाना मेरे बस का रोग नहीं है। मैं तो केवल एक प्रमाण की खोज में उसके पृष्ठ पलटती थी। बचपन से पाण्डवों की कथा सुनाती आयी थी, इसलिए अनुभव होता था कि सारे धागे और डोरे सन्दर्भ के अनुसन्धान में अड़चन पैदा करते हैं। और अड़चने हैं इसीलिए तो महाभारत के उल्लेखों, प्रमाणों का महत्त्व माना जाता है—अध्ययन की परम्परा विषयक यह धारणा मेरे मन में बराबर बनी रही और इसी वजह से मैंने, आवश्यकता हो, न हो, समय-असमय सन्दर्भ खोजने की आदत बलपूर्वक डाली। यह शौक़ भी आखिर शौक़ ही था, सतही। सन्दर्भ खोजते-खोजते पसीना आ जाता, वह मिल जाता तो मैं मुक्ति की साँस लेकर बन्द कर देती। ‘मैंने महाभारत देखा है’ का नशा भी पूरा हो जाता और चूँकि सन्दर्भों की खोज का परिश्रम ही था, इसलिए मानसिक थकान घेर लेती।

मन प्रश्न करता : क्या आवश्यकता है कि निष्फल परिश्रम की ? चतुर मन तत्काल व्यावहारिक और कामचलाऊ उत्तर देता : ‘तगड़े-तगड़े पण्डितों ने यही किया है; वही तू कर; बगैर इसके मुक्ति नहीं है।’ फिर मैंने चुपचाप महाजनों के पंथ पर चलने का फैसला किया। अब क्रम यह था कि जब ज़रूरत होती तब देखती, काम हो जाता तो पुस्तक रख देती और जब तक जरूरत न पड़ती, पुस्तक न खोलती। परंतु जरूरतें बढ़ी, बढ़ती गयीं और फिर पुस्तक लगातार हाथ में रहती, अलग करना असंभव हो गया। व्यवहारिक आवश्यकताएँ अब अधिक सही तरीके से पूरी होतीं। नयी तफ़सीलें समझ में आतीं। अध्ययन का फल सामने दिखाई पड़ रहा था। क्या कहूँ, फलसिद्धि का यही क्षण मेरे मन में असन्तोष और अश्रद्धा की ज्वालाएँ जलानेवाला सिद्ध हुआ। अनजाने, महाभारत के आख्यानों के कुछ अंशों ने मुझे बेचैन कर दिया। जहाँ तक उसका समाजशास्त्री प्रयोजन था, मैं सौ फीसदी समझ चुकी थी। पर, थका-हारा जीव कथाओं का आश्रय ढूँढ़ता है; श्रम-परिहार्थ कहानी अपने-आप आ जाती है। अतः जब मैं विश्राम की, काव्यशास्त्र-विनोद की आवश्यकता से कथानक की ओर मुड़ी तो मैंने सामान्य कहानी को बचकाने ढंग से ढूँढ़ना शुरू कर दिया। मैं चाहती थी कहानी, सीधी-सादी, उतार-चढ़ाव वाली मनोरंजक कहानी। जो मैं जानती थी लेकिन इस बार बुजुर्गों के मुँह से नहीं सुनना चाहती थी। बच्चों की किताबों में नहीं पढ़ना चाहती थी। कहानी मुझे व्यास के मुख से सुननी थी; और अपेक्षा यह थी कि अपने मन में मैंने कहानी को जैसा गढ़ा है, व्यास उसे उसी रूप में, उसी अभिव्यक्ति में कहते चले जाएँ ! क्या बताना होगा कि पढ़ते समय यह अपेक्षा चूर-चूर हो गयी ?

भीष्म का शर-शय्या पर पौढ़ना कथा की और भीष्म नामक पात्र की दृष्टि से उचित था। क्यों उनकी मृत्यु को तत्काल बुलाकर उसे समाप्त नहीं किया गया ? उनके मुख से शान्ति पर्व की अविश्वसनीय कहानियाँ क्यों सुनाई गयी हैं ? मोक्षधर्म और राजधर्म के किस्से क्यों रचे गए हैं ? खैर, रच दिये हैं तो वही सही; फिर भी उनके मुँह से गणराज्य की निन्दा, नारी का अपमान क्यों कराया गया है ? गणराज्य के निन्दक भीष्म और गणराज्य के आदर्शानुसार संघ-रचयिता गौतम बुद्ध दोनों में से किसकी धारणाएँ अधिक उन्नत हैं ? युद्ध का क्षण उपस्थित है और श्री कृष्ण को गीता सुनाने की आन्तरिक प्रेरणा हो रही है, क्यों ? अर्जुन श्रीकृष्ण का सखा है; उसके हृदय के विविध सम्मोहों का पता श्रीकृष्ण को पहले क्यों नहीं चल पाया ? रणभूमि में खड़े-खड़े अठारह अध्यायों में जो कहा गया है, क्या अलग-अलग अवसर पर आराम से बैठकर नहीं कहा जा सकता है ?

 षड्यन्त्र और पाण्डवों का पक्षपात, श्रीकृष्ण का इससे अधिक प्रयोजन ?—ये और ऐसे ही नाना प्रश्न मेरे सामने उपस्थित हो गये। तभी शिकायती आवाज भी उठी कि कथा के सूत्र को अनेक दूरान्वयी अंशों ने शिथिल कर दिया है। कथानक को कुण्ठित कर दिया है। आन्तरिक भावनाओं के उफान को दबा दिया है। फिर प्रश्न यह आया : क्या इन अगणित अतिरिक्त सामाजिक तथा दार्शनिक साहित्य के सम्मिश्रण ने मूल सँकरी और स्खलित कथा की प्रतिष्ठा बढ़ायी है अथवा जो कथानक अन्यथा सुश्लिष्ट तथा साहित्यकि गुणों से परिपूर्ण होता, उसे अवान्तर फैलाव ने चौपट कर दिया है ? जब कथानक को लेकर इन प्रश्नों के भँवर मन में घूमने लगे तो कथानक तलान्त तक मथा गया। फेन और कीचड़ घुल-मिल गये। बचपन में हृदय में अंकित मूल सीधी कथा अपने भावनामूलक निथार को गँवा बैठी। एक प्रकार का गँदला अँधेरा, कथा के प्रसंग-प्रसंग में, व्यक्ति-व्यक्ति को आकारहीन बनाता हुआ सब ओर छा गया।

परम्पराश्रुत व्यक्तिरेखाएँ इस धुमैले अँधेरे में डूब गयीं। अँधेरे में हम आँख फाड़कर देखते हैं; मैंने फिर कथानक के आकृतिबन्ध के स्थान पर व्यक्तिरेखाओं का सहारा लेकर लालित्य की आहट लेने की कोशिश की। फल ? प्रसंग के अनुषंग से जो व्यक्तिदर्शन पाये, वे ऐसे थे : प्रत्येक व्यक्ति अपने सांचे में पक्का चिपका हुआ  है; ऐसा जैसे धातु का निखरा हुआ पुतला हो; जैसे विमुक्त वातावरण में विचरण करने वाले सजीव व्यक्तियों के स्थान पर व्यास ने इन्हीं रेखाबद्ध कठपुतलियों का नाच अत्यन्त चपलता से भव्य मंच पर कराया है। उन्होंने पहले तो एक-एक पात्र का रूप निश्चित किया और फिर प्रसंगों को गूँथकर एक विशिष्ट व्यक्ति को पक्की पूरी तरह बनाकर रख दिया। भीष्म अन्त तक अविवाहित रहे; अधिकार-त्याग की प्रतिज्ञा कर चुके हैं। प्रतित्रापूर्ण का नशा जमाने के लिए ही जैसे अपनी इच्छा की प्रतिष्ठा को लगातार बढ़ाने में मग्न हैं ! शर-श्यया का अनुपम अच्छामरण स्वीकारते हैं।

द्रौपदी-रूपगर्विता द्रौपदी ! ठान ले एक बार तो अन्त तक हटनेवाली नहीं है। भीम कौरवों पर जलता रहेगा। युधिष्ठिर का चिन्तन कभी समाप्त नहीं होता; विदुर दूसरों में अपने को देखना नहीं भूलते।

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