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भारतीय कहानियाँ 1985

बालस्वरूप राही

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1990
पृष्ठ :338
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1338
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है भारतीय कहानियों का संग्रह....

Bharatiya kahaniyan 1985 a hindi book by Balswaroop Rahi - भारतीय कहानियाँ 1985 - बालस्वरूप राही

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


प्रति वर्ष स्फुट रूप से स्थायी महत्त्व की कई रचनाएँ प्रकाशित होती हैं और सामान्य रचानाओं की भीड़ में खो जाती हैं। यदा-कदा चर्चित होती हैं, रेखांकित भी होती हैं, किन्तु एक स्थान पर सहेजी नहीं जातीं। अन्य भाषाओं की उपलब्धियों से साक्षात्कार तो दुर्लभ ही है, हम अपनी ही भाषा की सर्वोत्त्म रचनाओं से अपरिचित रह जाते हैं। परिचय होता भी है तो बस क्षण मात्र के लिए। यों हम सभी न्यूनाधिक यह अनुभव और स्वीकार करते हैं कि भारतीय साहित्य विभिन्न भाषाओं में रचे जाने पर भी कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी रूप में एक मुख्य धारा में सम्पृक्त है। भाषा विशेष के साहित्य के सही मूल्यांकन एवं सच्चे आस्वाद के लिए उसे समग्र भारतीय साहित्य के परिदृश्य में रख कर देखा जाना नितान्त आवश्यक एवं वांछनीय है।

‘भारतीय कपानियँ : 1985’ सभी भाषाओं की पाँच-पाँच प्रतिनिधि कविताओं की महत्त्वपूर्ण चयनिका है। चुनाव केवल उन्हीं रचनाओं से किया गया है जो लिखी चाहे कभी भी गयी हों, पुस्तक, पत्र-पत्रिका, आकाशवाणी, दूरदर्शन आदि के माध्यम से पहली बार सन् 1985 में ही प्रकाश में आयीं। इनसे 1985 की विशिष्ट कविताएँ एक ही स्थान पर उपलब्ध एवं सुरक्षित हो सकेंगी और समकालीन भारतीय कविता के प्रति जिज्ञासु कव्य-प्रेमियों को इधर-उधर भटकना नहीं पड़ेगा।
हमें पूरा विश्वास है कि ‘भारतीय कहानियाँ : 1983’ और ‘भारतीय कहानियाँ: 1984’ के समान ही इस चयनिका को भी आप समकालीन भारतीय कहानी को समझने और परखने की दृष्टि से उपयोगी पायेंगे।

परिकल्पना


अपनी स्थापना से ही भारतीय ज्ञानपीठ का लक्ष्य भारतीय ज्ञानपीठ का लक्ष्य की सिद्धि के लिए वह प्रारम्भ से ही त्रि-आयामी प्रयास करता आ रहा है। एक ओर तो वह जटिल किन्तु विश्वसनीय मूल्यांकन-प्रणाली द्वारा भारतीय साहित्य की शिखर उपलब्धियों को रेखांकित-पुरस्कृत करता है, ताकि साहित्य को समर्पित अग्रणी भारतीय रचनाकारों को अधिकतम मान-सम्मान एवं राष्ट्रव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त हो और उनकी शीर्ष कृतियाँ अन्य रचनाकारों के लिए प्रकाश-स्तम्भ का कार्य करें। दूसरी ओर वह समग्र समकालीन भारतीय साहित्य में से कालजयी रचनाओं का चयन कर उन्हें, प्राय: हिन्दी के माध्यम से, वृहत्तर प्रबुद्ध पाठक-समुदाय तक ले जाता है, ताकि एक भाषा का सर्वोत्कृष्ट साहित्य दूसरी भाषा तक पहुंचे और इस प्रकार विभिन्न भाषाओं के रचनाकारों एवं सजग पाठकों के मध्य तादात्म्य स्थापित हो और परस्पर-प्रतिक्रिया हो। तीसरी ओर वह संवेदनशील, संभावनावान, उदीयमान रचनाकारों की सशक्त कृतियाँ प्रकाशित कर उन्हें उनका दाय प्राप्त कराने में सक्रिय सहयोग करता है।

साहित्य राष्ट्रीय चेतना का सर्वप्रमुख संवाहक है। यदि किसी देश की सांस्कृतिक धड़कनों को समझना हो तो उसकी नब्ज़-साहित्य पर हाथ रखना आवश्यक होता है। अन्य राष्ट्रों को ही नहीं, अपने राष्ट्र को भी हम प्रमुखत: अपने साहित्य के माध्यम से ही सही-सही पहचानते हैं। स्वराष्ट्र की आत्मा साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्त होती है और साहित्य भाषा के माध्यम से मुखरित होता है। किन्तु हमारे लिए कठिनाई यह है कि भारतीय साहित्य एक या दो भाषाओं के माध्यम से तो मुखरित होता है। किन्तु हमारे लिए कठिनाई यह है कि भारतीय साहित्य एक या दो भाषाओं के माध्यम से तो मुखरित होता नहीं। अत: भाषा जो एक पथ है, सेतु है, वही व्यवधान बन जाती है। इस व्यवधान के अतिक्रमण में भारतीय ज्ञानपीठ निरन्तर सुधी पाठकों का सहायक रहा है। इस बार सोचा गया कि एक और नयी राह निकाली जाए, एक और नयी दिशा का संधान हो। कालजयी शाश्वत रचनाओं तक ही सीमित क्यों रहा जाए ? जिन रचानाओं को अभी काल की कसौटी पर कसा जाना है, उन तक भी पहुँच क्यों न हो ? आज की धड़कनें पहचानने के लिए आज का आमना-सामना आवश्यक है। जो सबसे ताज़ी है, आज की रचना है, वही तो वर्तमान को समझने में सबसे बड़ी सहायक बन सकती है। वही कल कालजयी सिद्ध होकर धरोहर भी बन सकती है।

प्रति वर्ष स्फुट रूप से स्थायी महत्त्व की कई रचनाएँ प्रकाशित होती हैं और सामान्य रचनाओं की भीड़ में खो जाती हैं। यदा-कदा चर्चित होती हैं, रेखांकित भी होती हैं, किन्तु एक स्थान पर सहेजी नहीं जातीं। अन्य भाषाओं की उफलब्धियों से साक्षात्कार तो दुर्लभ ही है, हम अपनी ही भाषा की सर्वोत्तम कृतियों से अपरिचित रह जाते हैं। परिचय होता भी है, तो बस क्षण मात्र के लिए। यों हम सभी न्यूनाधिक यह अनुभव और स्वीकार करते हैं कि भारतीय साहित्य के विभिन्न भाषाओं में रचे जाने पर भी कहीं-न- कहीं, किसी-न-किसी रूप में एक मुख्य धारा से संपृक्त है। भाषा विशेष के साहित्य के सही मूल्य़ांकन एवं सच्चे आस्वाद के लिए उसे समग्र भारतीय साहित्य के परिदृश्य में रखकर देखा जाना नितान्त आवश्यक एवं वांछनीय है। इसी भावना से प्रेरित होकर हमने यह निर्णय किया कि भारतीय ज्ञानपीठ प्रति वर्ष समस्त भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होने वाली विधा विशेष की श्रेष्ठ रचनाओं को एक संकलन में एक साथ सँजोने का क्रम प्रारम्भ करे। निर्णय हुआ कि वार्षिक चयनिकाओं की इस श्रृंखला का प्रारम्भ 1983 में प्रकाशित कहानियों और कविताओं की चयनिकाओं से हो। तय हुआ कि संकलन के लिए हर भाषा से दो कहानियाँ चुनी जाएँ और इस प्रकार चयनिका में संस्कृत छोड़कर संविधान के 8वें परिशिष्ट में परिगणित सभी भाषाओं 28 कहानियों का समावेश हो। इससे वर्ष-विशेष की विशिष्ट कहानियाँ एक ही स्थान पर उपलब्ध एवं सुरक्षित हो सकेंगी। और समकालीन भारतीय कथा-धारा के प्रति जिज्ञासु कथा-प्रेमियों को इधर-उधर भटकना नहीं पड़ेगा।

सबसे बड़ी समस्या थी रचनाओं के चयन की। कोई एक तो सभी भाषाओं का जानकर होता नहीं। अत: इस योजना के क्रियान्वयन के लिए सोचा यह गया कि हर भाषा से रचना-चयन का दायित्व भाषा विशेष के ही किसी कथामर्मज्ञ को सौंपा जाए जो कथाओं का चयन भी करे और चुनी हुई कहानियों के हिन्दी रूपान्तरों की प्रामाणिकता भी परख ले।
यहाँ हम यह स्पष्ट कर दें कि कहानी-चयन में चयन-मण्डल के हर सदस्य को हमने पूरी स्वतंत्रता दी है और अपनी पसंद को कहीं भी आरोपित नहीं किया। चुनाव के लिए पूरी-पूरी ज़िम्मेदारी, पूरी-पूरी ज़वाबदेही चयनकर्ता की ही है। हाँ, चयनकर्ता का चुनाव हमारा है और हमने यह पूरी सावधानी एवं दायित्व के साथ किया है। हर चयनकर्ता अपनी भाषा के साहित्य का विश्वसनीय मर्मज्ञ एवं अधिकारी विद्वान है। अनेक तो मूर्द्धन्य भारतीय साहित्यकारों अथवा साहित्य-मनीषियों में गौरवपूर्ण स्थान रखते हैं। चयनिका को और अधिक परिपूर्ण एवं सार्थक बनाने तथा उसे सन्दर्भ-ग्रन्थ के रूप में और भी अधिक उपयोगी बनाने के लिए हमने सहयोगी साहित्यकारों के सचित्र परिचय का समावेश भी इसमें कर दिया है।

स्पष्ट ही है कि इस प्रकार का कोई भी चयन-निर्णय निर्विवाद नहीं हो सकता। इस कहानी-चयन के सामने प्रश्नचिह्न लगाये जा सकते हैं और संभव हैं लगें भी। दो-चार नहीं, दर्जनों कहानियाँ ऐसी होंगी जो अपनी भाषा में 1985 की उपलब्धि मानी जाएँ। अपनी भाषा में ही क्यों, सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में एक उपलब्धि मानी जाएँ। किन्तु प्रतिनिधि रचनाओं की संख्या सीमित एवं सुनिश्चित रखना व्यावहारिक समझा गया-संकलन के आकार-नियंत्रण के लिए भी और सभी भाषाओं के प्रति समभाव की दृष्टि से भी। हमारे लिए सभी भाषाएँ महत्वपूर्ण हैं। प्रतिनिधि रचनाएँ और भी हो सकती हैं या यह भी हो सकता है कि इनमें से किसी रचना को प्रतिनिधि माना ही न जाए। तब भी इतना तो है ही कि ये सर्वोत्कृष्ट हों या नहीं, इस संकलन के माध्यम से हम आज के भारतीय कथा-साहित्य का चेहरा काफ़ी कुछ पहचान सकते हैं। पूर्ण तो कुछ नहीं होता वृत्त के अतिरिक्त। पूर्ण संतोष भी दुर्लभ ही है। हमें पूरा विश्वास है कि यह संकलन एक झरोखे का काम करेगा और हम झाँक कर देख सकेंगे कि पड़ोसी के आँगन में किस-किस प्रकार के फूल खिल रहे हैं। और उनकी महक भी हम तक आ सकेगी।

दरकती राष्ट्रीय चेतना और चटखते एकात्मभाव के इस संकटपूर्ण समय में इस प्रकार प्रयासों की विशिष्ट भूमिका हो सकती है। परिचय सौहार्द की पहली सीढ़ी है। अपनी भाषा से इतर साहित्य के साक्षात्कार से न केवल भारतीय साहित्य की समझ अधिक परिपक्व होती है, बल्कि हम अपनी भाषा के साहित्य की प्रासंगिकताओं को भी और बेहतर ढंग से समझते हैं। हमें प्रसन्नता है हमारे इस विनम्र प्रयास को प्रारम्भ से ही सभी दिशाओं से सहयोग एवं सराहना प्राप्त होती रही है। एक पत्रकार बन्धु ने तो इसे ‘‘राष्ट्र में स्वाधीनता के उपरान्त किया जाने वाला सर्वाधिक उल्लेखनीय साहित्य एकता आयोजन’’ माना है। हमारा प्रयत्न होगा कि हम यह क्रम बनाए रख सकें। यदि प्रतिवर्ष की साहित्य-उपलब्धियाँ इस प्रकार सुरक्षित की जा सकीं तो इस दशक की समाप्ति पर दशक के भारतीय साहित्य पर शोध करने वाले शोधार्थियों के लिए ये ग्रन्थ आधार-सामग्री के रूप में अपनी उपयोगिता सिद्ध करेंगे।

भारतीय साहित्य मूल रूप में एक अथवा एक मुख्य धारा से जुड़ा है-यह एक सत्य है या मात्र एक आह्लादकारी मिथक, इस आशय से विवादास्पद प्रश्नों का उत्तर खोजने में इस प्रकार के ग्रन्थों की सार्थकता विवादातीत मानी जा सकती है।

यह चयनिका


सबसे पहले तो इसके लिए क्षमा-याचना कि प्रस्तुत चयनिका लाने में अनपेक्षित विलम्ब हुआ। इस संबंध में केवल क्षमा ही मांगी जा सकती है, आगे ऐसा नहीं होगा यह कह सकना बड़ा कठिन है। अब यह भी कब तक दोहरायें कि इस प्रकार के आयोजनों में इस प्रकार के देरी से बच पाना असम्भव नहीं तो दुष्कर अवश्य है। इस प्रकार के आयोजनों में सम्मिलित रहने वाले भक्त-भोगी हमारी कठिनाइयों का अनुमान अधिक सरलता से लगा पायेंगे। बाक़ी सब से तो फिर यही होगा कि सहयोगियों के सक्रिय सहयोग के बावजूद हर बार सम्पूर्ण सामग्री जुटाने में कहीं न कहीं, कोई न कोई कसर रह ही जाती है। कभी किसी भाषा की कहानियों के प्रामाणिक अनुवाद की समस्या सामने आ जाती है, कभी किसी कहानीकार की अनुमति समय पर नहीं मिल पाती और कभी किसी के परिचय अथवा चित्र की प्रतीक्षा बनी रह जाती है।

पंजाबी के वरिष्ठ विचारक एवं कवि डॉ. हरभजनसिंह ने हमारी इन मुश्किलों को बखूबी समझा है: ‘‘निश्चित ही आपके इस प्रयास की बहुमूल्य भूमिका है। भारतीय साहित्य की अस्मिता निश्चित करने में ऐसे संग्रहों का योगदान संदेह का विषय नहीं। यह प्रयास निरंतर बना रहना चाहिए। मैंने आपकी भूमिका देखी है। आपकी परिकल्पना स्तुत्य है। इसे व्यावहारिक रूप देने की राह में अपने ढंग की मुश्किलें हैं जिन्हें दूर करने का सरल उपाय कोई नहीं है। हमें अपनी समस्याओं के साथ ही जीना पड़ेगा।’’

वार्षिक चयनिकाओं की दूसरी कड़ी (भारतीय कहानियाँ: 1984) के प्रकाशन के पश्चात् इस चयनिका-क्रम में साहित्यकारों और प्रबुद्ध पाठकों की रुचि और भी बढ़ी है और उन्होंने हमारे इस आयोजन को उदारतापूर्वक नये लेखकों के मध्य तादात्मयवर्धक, विभिन्न प्रान्तों की संस्कृति की गंध सँजोये पुष्पगुच्छ आधुनिक कथा-साहित्य की भारतीय धारा को समझने में एक महत्वपूर्ण योगदान आदि माना है। हमें प्रसन्न्ता है कि इन चयनिकाओं को समसामयिक भारतीय कथा-लेखन का प्रतिनिधि माना जा रहा है और विभिन्न रूपों में इनका उपयोग हो रहा है। उदाहरणतया अन्य भाषाओं में वर्ष विशेष की उत्कृष्ट कथा-उपलब्धियों के अनुवाद, दूरदर्शन में कहानी-विषयक धारावाहिकों के निर्माण में ये चयनिकाएँ आधार-सामग्री के रूप में उपादेय सिद्ध हो रही हैं। प्रस्तुत हैं कुछ प्रतिक्रियाएँ :

ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित यह श्रृंखला प्रशंसनीय है। इससे एक ओर जहाँ नये लेखकों को प्रोत्साहन मिलता है, वहीं दूसरी ओर कहानियों के माध्यम से विभिन्न प्रदेशों के परिवेशों के बारे में जानने का मौक़ा भी। साथ ही विभिन्न भाषाओं के लेखकों के बीच भी एक तादात्मय स्थापित होता है।

पारदर्शी (अमृत संदेश)

यह संकलन भाषाओं की कहानियों का एक ऐसा पुष्पगुच्छ है, जो पाठकों को भारत के विभिन्न प्रान्तों की संस्कृति की गंध से महकायेगा। इसमें कहीं बंगाल की मछली की गंध है, कही बिहार की दालभात का स्वाद।
इस संकलन में उन कहानियों को स्थान दिया गया है, जो साहित्य-प्रेमियों में चर्चित तथा रेखांकित हुई हैं। ये क्षण मात्र में ही पाठकों को अपनी ओर आकर्षित कर लेंगी। भाषा विशेष के साहित्य के सही मूल्यांकन की दिशा में यह संकलन दिशा-ज्ञान देने की क्षमता रखता है। विभिन्न भारतीय भाषाओं की चुनी हुई कहानियों का एक स्थान पर प्राप्त होना अपने आप में एक उपलब्धि है। आधुनिक कथा-साहित्य की भारतीय धारा को समझने में यह संकलन एक महत्त्वपूर्ण योगदान है।

पवनकुमार जैन (नवभारत टाइम्स)

इससे तथा पुस्तक के आरंभिक वक्तव्य में संपादक की समीक्षात्मक टिप्पणियों से निश्चय ही भारतीय कहानी की पहचान में सहायता मिलती है।

रणवीर रांग्रा (आकाशवाणी)

एक समीक्षक बंधु ने प्रश्न उठाया है।

हिन्दी अपभ्रंश की जेठी बेटी है। इसकी जो उपेक्षा हो रही है, वह किसी से छिपी नहीं है। आलोच्य कहानी-संग्रह में भी इसके दर्शन होते है। जिस जेठी बेटी को सबसे पहले स्थान दिया जाना चाहिए था, वह सबसे बाद में है।
इस संबंध में हमारा निवेदन मात्र इतना है कि रचनाओं का संयोजन अकारादि क्रम में किया गया है। जहाँ तक अपभ्रंश की जेठी बेटी के सम्मान का प्रश्न है, उसके प्रति हमारा आदर-भाव न होता तो यह संकलन हिन्दी में ही क्यों प्रस्तुत करते ? हम यह और जोड़ना चाहेंगे कि हमारे मन में हिन्दी के प्रति सम्मान की कमी नहीं, किन्तु हम यह मानते हैं कि हिन्दी-प्रेम का एक तकाज़ा यह भी है कि हम अन्य भारतीय भाषाओं का पूर्ण सम्मान करें। यदि अकारादि क्रम में हिन्दी का स्थान सबसे बाद में न भी होता तो भी हम संभवत: हिन्दी की रचनाएँ अन्त में ही देना पसंद करते।

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