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अस्तराग

होमेन बरगोहाई

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1991
पृष्ठ :143
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1332
आईएसबीएन :00000

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यथार्थ जीवन-बोध से गहराई से जुड़ी हुई एक अनूठी रचना।

Astarag a hindi book by Homen Bergohai - अस्तराग -होमेन बरगोहाई

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

होमेन बरगोहाईं का उपन्यास ‘अस्तराग’ मात्र एक कल्पना नहीं है, बल्कि यथार्थ जीवन-बोध से गहराई से जुड़ी हुई एक अनूठी ही रचना है। रचनाकार स्वयं अपने जीवन-यथार्थ, अपने कुटुम्ब-परिवार, अपने गाँव-गिराँव और उसकी उन्मुक्त प्रकृति तथा अपने अन्य इष्ट-मित्रों सहित इसमें सर्वत्र विद्यामान है।

शहर में अपने निजी परिवार में आकर दिलीप के ग्रामवासी वृद्ध पिता शीघ्र ही गाँव लौट जाने को आकुल-व्याकुल हो उठते हैं। अपरिचित अपनों की अपेक्षा परिचित पराये उन्हें अधिक निकट जान पड़ते हैं। कथानक के इसी तथ्य को आधार बनाकर लेखक ने वर्तमान जीवन की विश्रृंखलताओं का बड़ा ही मनो-विश्लेषणात्मक एवं तर्कपूर्ण चित्र उकेरा है। श्री दिनेश गोस्वामी के शब्दों में यह ‘जीवन के माधुर्य और विषाद की कहानी है।’

‘अस्तराग’ एक पीढ़ी की अस्तगामी यात्रा का करुण वृत्तान्त तो है ही, यह उभरती पीढ़ी के हृदय में चिन्तन-मनन की एक नयी रागिनी के स्वर को झंकृत करने का एक सुन्दर प्रयास भी है।

प्रस्तुति


भारतीय साहित्य की विभिन्न विधाओं में लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकारों की प्रख्यात कृतियों को भारतीय कवि, भारतीय कहानीकार, भारतीय नाटककार आदि श्रृंखलाओं के अन्तर्गत प्रकाशित करने की नई योजना भारतीय ज्ञानपीठ ने हाल ही में आरम्भ की है। इससे भारतीय भाषाओं की सर्वोत्तम कृतियाँ देश की सम्पर्क भाषा हिन्दी के माध्यम से उपलब्ध हो सकेंगी और इस माध्यम से अन्य भाषाओं में भी उनके प्रकाशन का मार्ग सुगम बन जाएगा। इस दृष्टि से यह कार्य केवल साहित्यिक और सांस्कृतिक महत्त्व का ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय महत्त्व का भी हो जाता है। पिछले दो वर्षों से कार्यान्वित इस योजना का साहित्यिक जगत् ने जो भव्य स्वागत किया है, उससे ज्ञानपीठ इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए उत्साहित है।
असमीया के विख्यात उपन्यासकार श्री होमेन बरगोहाईं के लोकप्रिय उपन्यास ‘अस्तराग’ को भारतीय उपन्यासकार की श्रृंखला में प्रकाशित करने में भारतीय ज्ञानपीठ हर्ष और उत्कर्ष का अनुभव करता हैं, क्योंकि श्री बरगोहाईं जीवन-मूल्यों के प्रति समर्पित लेखक हैं।

उनका उपन्यास पढ़ते समय हमें ऐसा नहीं लगता कि हम किसी काल्पनिक जगत् में विचरण कर रहे हैं। सभी पात्र सजीव हैं सारी घटनाएँ प्रत्यक्ष दिखाई देती हैं और साहित्य सत्य का साकार रूप धारण कर पाठकों को अपने साथ ले चलता है। उनका दिलीप नाम के लिए दिलीप है पर संरचना में कोई भी आधुनिक युवक दिलीप का स्थान ले सकता है। दिलीप के पिता के लिए लेखक ने कोई नाम तक नहीं दिया है वह केवल दिलीप के पिताजी हैं जैसे सीता के पिता केवल जनक हैं। यह साधारणीकरण उपन्यासकार की सृजनात्मक चेतना का सबसे बड़ा बल और संबल है।
‘भारतीय उपन्यासकार’ की श्रृंखला का सूत्रपात देश के सुप्रसिद्ध साहित्य-कार डॉ. बीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य के बहुचर्चित उपन्यास ‘पाखी घोड़ा’ के साथ हुआ है। इसी श्रृंखला में असमीया का एक और उपन्यास अब प्रकाशित हो रहा है जिसमें श्री दिनेश गोस्वामी के शब्दों में, जीवन के माधुर्य और विषाद की कहानी है। वास्तव में यह मधुर वेदना की मार्मिक कहानी है जिसे, आशा है, हिन्दी के प्रबुद्ध पाठक सहर्ष अपनाएँगे।

नई दिल्ली
2-12-1991
पाण्डुरंग राव, निदेशक

भूमिका


असमिया साहित्य के यशस्वी मनीषी कृतिकार श्री होमेन बरगोहाईं की उत्कृष्ट एवं लोकप्रिय कृति है-‘अस्तराग’। अगस्त 1986 में प्रथम प्रकाश पाने के बाद से इसके कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। अत्यन्त छोटे कलेवर में विशाल रूप-भावाकार को समाहित कर पाने का जो अद्भुत कौशल इस उपन्यास में दिखलाई पड़ता है, उसके समान उदाहरण अति विरल हैं। हिन्दी-उपन्यास साहित्य में ऐसी गम्भीर भावबोध की कोई एक औपन्यासिक कृति ढूंढ़े, तो अज्ञेय जी कृत, ‘अपने-अपने अजनबी’ के अतिरिक्त कोई अन्य दिखाई नहीं पड़ेगी। यह एक दुःखद अनुभूति है कि हम भारतीय अपनी ही पड़ोसी अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य से सामान्यतः और उनकी यशस्वी कृतियों से विशेषतः अपरिचित ही रह जाते हैं। न केवल अपरिचित रहते हैं बल्कि परिचित होना चाहते भी नहीं। बात ऐसी भी नहीं कि अन्यान्य भाषाओं से परिचित होने की ललक अथवा क्षमता का हममें अभाव है। स्वयं अनेकानेक अँग्रेज़ विद्वान मानते हैं कि जैसी व्याकरण-सम्मत चुस्त-दुरुस्त अँग्रेजी भाषा भारतीय बोलते हैं और अँग्रेज़ी के प्राचीन नवीन साहित्य में जैसी गहरी पैठ भारतीय रखते हैं, वैसी पटुता स्वयं अँग्रेजी भाषा-भाषी समुदाय में भी कम ही लोगों में दिखाई पड़ती है।

दरअसल बात यह है कि हम विभिन्न भाषाओं और उनके साहित्य के ज्ञानार्जन का चुनाव ही कुछ विचित्र दृष्टि से करते हैं। अपनी भाषा और उसके साहित्य की जानकारी भी हम विचित्र ही दृष्टि से दूसरों को देते हैं। बस उदाहरण देने भर के भाव से ही मैं संकेत करना चाहूँगा कि एक तमिल भाषी भारतीय तमिल के अलावा जब कोई दूसरी भाषा सीखना चाहेगा, तो उसका पहला चुनाव अँग्रेज़ी होगी, फिर अमेरिकन अँग्रेज़ी, फ्रेन्च, जर्मन और रूसी भाषाओं का क्रम आएगा, अपनी ठीक पड़ोसी तेलुगु, तुलू, कन्नड़ और मलयालम का नहीं। इसी तरह अगर तमिल भाषा और साहित्य के उत्कृष्ट रूप को अन्यान्य भाषा-भाषियों को बताना होगा तो अँग्रेज़ी भाषा के माध्यम से फिर उसी तरह क्रम का चुनाव वह करेगा। यही दशा हम सभी आधुनिक भारतीय भाषाओं के भाषा-भाषियों की है। विदेशी भाषा-साहित्य का ज्ञान प्राप्त करने के क्रम में हम अपने निकट पड़ोसियों, श्रीलंका, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल, भूटान, म्यानयार (बर्मा), तिब्बत और चीन को भूल जाते हैं न हम उनका कुछ जानना चाहते हैं न अपना उन्हें कुछ जनाना चाहते हैं। हमें तो दूर के ढोल सुहावने लगते हैं। अगर वे ढोल हमारे पूर्व शासकों के हों अथवा आर्थिक-राजनीतिक दृष्टि से विशेष प्रभुता-सम्पन्न राष्ट्रों के हों, तो फिर क्या कहना यही कारण है कि हम अपने अड़ोस-पड़ोस से पूरी तरह अनभिज्ञ और सुदूर क्षेत्रों के सम्पन्न राष्ट्रों की एक-एक गतिविधि से पूर्णतः सुविज्ञ बने रहते हैं।

हिन्दी-भाषा-भाषियों के लिए असमीया और असमीया भाषा-भाषियों के लिए हिन्दी भाषा और साहित्य इस प्रकार की मनोवृत्ति के कारण ही अपरिचित ही रह जाते हैं। दोनों ओर से ही निषेध की स्थिति रहती आई है, दोनों ओर से ही आदान-प्रदान के प्रयास बहुत ही कम हुए हैं। उससे भी कम जितने कि शंकरदेव-महादेव, कबीर, नानक, सूर-तुलसी के काल में हुए थे। असम प्रदेश भारत के सुदुर पूर्वोत्तर क्षेत्र का एक ऐसा प्रदेश है, जहाँ सर्वाधिक हिन्दी-भाषा-भाषी शताब्दियों से निवास करते हैं। ऐसे में हमारा रिश्ता तो और भी प्रगाढ़ हो जाता है परन्तु आत्मकेन्द्रित प्रवृत्ति के कारण हमारा सही ढंग से आपसी परिचय हो नहीं पाया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है-‘‘परिचय प्रेम का प्रवर्तक है। अपरिचय प्रेम-प्रसार के लिए कितना घातक है, यह हम आज-कल बढ़ रही अलगाववादी प्रवृत्ति में स्पष्ट ही देख रहे हैं।

असमीया भाषा और साहित्य से हिन्दी-भाषा-भाषियों को परिचित कराने के प्रयास बहुत कम हुए हैं। श्री चित्र महन्त, लोकनाथ भराली एवं मुझ अल्पज्ञ ने इस दिशा में कुछ कोशिशें की है। असमीया के उपन्यास-साहित्य का संक्षिप्त विवरण केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा प्रकाशित ‘भारतीय उपन्यास’ ग्रन्थ में और भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित ‘पाखी घोड़ा’ उपन्यास की भूमिका में देने का प्रयास मैंने किया है। परन्तु ऐसे अनेक प्रयासों की आवश्यकता है। विशेषतः श्रेष्ठ, विद्वज्जनों को इस क्षेत्र में योग देने की आवश्यकता है। तभी परिचय प्रगाढ़ होगा, भ्रम मिटेंगे, प्रीति और विश्वास बढ़ेगा, भारतीय एकता की भावना सुदृढ़ होगी।

असमीया उपन्यास


असमीया उपन्यास साहित्य का विकास अँग्रेज़ी उपन्यास साहित्य के प्रभाव में ही उसी शैली और रंग-ढंग में हुआ। ईस्वी सन् 1851 में जॉन बुनियन के उपन्यास ‘पिलिग्रिम्स प्रोग्रेस’ का अनुवाद ‘यात्रीकर यात्रा’ नाम से हुआ। वहीं से असमीया उपन्यास की यात्रा भी आरम्भ हुई। अँग्रेज़ी के अतिरिक्त बँगला के उपन्यासों के अनुवाद भी होने लगे। सन् 1857 ई. में ए. के. गर्नी ने ‘कामिनी कान्तर चरित्र’ नामक उपन्यास लिखा, जिसे असमीया का पहला मौलिक उपन्यास कह सकते हैं। ‘जोनाकी-युग’ के आरम्भ में ‘बिजुली’ पत्रिका में पद्म गोहाईं बरूआ कृत ‘भानुमति’ (1891) और लाहरी (1892) प्रकाशित हुए। लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ रचित ‘पदुम कुंवरी’ उपन्यास 1905 में प्रकाशित हुआ। असमीया के मौलिक उपन्यासों की आधारशिला रखने का श्रेय इन्हीं पद्मगोहाई बरूआ और लक्ष्मीनाथ बेजबरूआ को है। उसके बाद तो फिर असमीया उपन्यास दिन-दूनी रात–चौगुनी उन्नति करते चले गए। रजनीकान्त बरदले के ‘मिरी जीयरी (1894), मनोमती (1900), ‘दंदुआ द्रोह’ (1909), ‘निर्मल भगत’ (1926) और ‘ताम्रेश्वरी मन्दिर’ (1936) जैसे उपन्यासों से असमीया साहित्य पुष्ट से पुष्टतर होता गया।

दंडिनाथ कलिता ने असमीया उपन्यासों के इतिवृत्त को अपने उपन्यास ‘साधना’ (1928) से एक नया मोड़ दिया और राजनीतिक चेतनापरक उपन्यासों के प्रणयन का सूत्रपात किया। ‘असम साहित्य-सभा’ ने अपने श्रेष्ठ पुरस्कार से अलंकृत कर इस उपन्यास का यथोचित सम्मान किया। ‘हत्या कोन’, ‘परिचय’, ‘आविष्कार’ और ‘गण-विप्लव’ उनके अन्य श्रेष्ठ उपन्यास है। श्री शरतचन्द गोस्वामी कृत ‘पानीपथ’ (1930) श्री देवचन्द्र तालुकदार रचित ‘अपूर्ण’, ‘आग्नेय गिरि’ (1924) ‘विद्रोही’, ‘दुनिया’, ‘आदर्शपीठ’, शान्तिराम दास कृत ‘बैरागी’ (1920) नवीन भट्टाचार्य कृत ‘चन्दप्रभा’ स्नेहप्रभा भट्टाचार्यकृत ‘बीना’ (1923) और दीनानाथ शर्मा कृत ‘उषा’ उपन्यासों ने असमीया उपन्यासों को गति प्रदान की।

सन् 1945 में ‘बीना बरुआ’ के छद्मनाम से बिरंचिकुमार बरुआ ने ‘जीवनर बाटक’ उपन्यास रचा। अपनी शक्तिशाली चित्रण-शैली और गूढ़ एवं प्रभावशाली कथ्य के कारण यह उपन्यास असमीया उपन्यास साहित्य के मील का पत्थर सिद्ध हुआ। अब तक असमीया उपन्यास अपनी नानाविध विकसित प्रवृत्तियों के बावजूद अँग्रेज़ी नावेल के आधार पर ही एक क्रमबद्ध कथा और चरित्र-सृष्टि करते चले आ रहे थे। उनकी भाव-भूमि भी सामाजिक और जनसाधारण की सामान्य प्रवृत्तियों के अनुकूल होती थी। कहानी उपस्थित करने की एक बंधी-बँधाई परिपाटी बन गई थी। कहीं-कहीं कुछ उलझनों को दूर करने के लिए उपन्यासकार स्वयं सूत्रधार की भूमिका में उतरकर पाठक की मदद करने लगता था। भाषा भी कुछ जड़-सी रहती चली आ रही थी। बिरंचिकुमार बरुआ के जीवनर बाटत उपन्यास ने इन तमाम जड़ताओं को तोड़ा। अँग्रेज़ी नावेल के सम्बन्ध सूत्रों के अलावा असमीया उपन्यास को संस्कृत नाटक परम्परा से जोड़ा और असमीया प्रकृति के अनुरूप नई-नई मौलिक उद्भावनाओं का आरम्भ किया। विषय-वस्तु को समुचित शैली-शिल्प के माध्यम से प्रस्तुत करने, चरित्रों के अन्तर-बाह्म रूपों को समुद्घाटित करने, प्रतीकों और अभिप्रायों का समुचित समायोजन करने की दृष्टि से यह उपन्यास युगान्तकारी सिद्ध हुआ।

‘रास्ना बरुआ’ छद्मनाम से बिरंचिकुमार बरुआ ने एक दूसरा उपन्यास रचा-‘सेउजी पातर काहिनी’ (हरी पत्तियों की कहानी) जो 1958 में प्रकाशित हुआ। असम के चाय बागानों में पल रहे जीवन का यथार्थ एवं प्रभावशाली चित्रण इस उपन्यास की विशेषता है। श्रमिकों पर किए जा रहे अत्याचारों और उनसे त्राण पाने के उपायों के अभावों का बड़ा ही मार्मिक दृश्य उपस्थित हुआ है।
स्वतन्त्रता-प्राप्ति के अनन्तर असम में आशा के विपरीत जो भ्रष्टाचारी संस्कृति पनपने लगी, उसका ज्वलंत रूप श्री दीननाथ शर्मा ने अपने ‘संग्राम’, ‘माटी आरु मानुह’ और ‘नदाई’ उपन्यासों में उपस्थित किया। मथुरा डेका कृत ‘हुमुनियाह’, जमीरुद्दीन कृत समाज संघात सौमार कृत ‘केरानीर जीवन’ जैसे उपन्यासों ने भी यथार्थ जीवन को उद्घाटित किया है।

स्वातन्त्र्योत्तर काल में असमीया उपन्यासों में एक नयी जीवन-दृष्टि का संप्रसार हुआ। सामान्य प्रकृति के चरित्रों, जन-साधारण की समस्याओं सीधी सादी शैली में सहज-सरल भाषा और भावबोध को उपस्थित करने की जगह विशिष्ट प्रकृति के व्यक्तिगत एवं अतिवैयक्तिक कोटि के अथवा विकृत मनोविज्ञान के असामान्य चरित्रों की सृष्टि और विषिष्ट समस्याओं के चित्रण में लेखक रुचि लेने लगे। कहानी की सुश्रृंखलता बनाए रखने, नायक-नायिका के आदर्श-चरित्र की सृष्टि में सजह रहने, समाज हित के उद्देश्य पर सदा दृष्टि गड़ाए रखने, कथा के आदि-मध्य-अन्त की सुपरिकल्पित व्यवस्था बनाए रखने, आदि-आदि बातों की चिन्ता से लेखक मुक्त हो गए। एक नये ही प्रकार की आदि-अन्तहीन विश्रृंखलित कथा-योजना और विशिष्ट आकृति-प्रकृति के चरित्रों की विशिष्ट समस्याओं को लेकर उपन्यास रचे जाने लगे। इन्हें आधुनिक असमीया उपन्यास कहना ही उचित होगा। ऐसे उपन्यासकारों में प्रफुल्लदत्त गोस्वामी का विशिष्ट स्थान है। उनके ‘शेष कोत’ (1948) और ‘केंचा पातर काँपनि’ (1952) ने असमीया उपन्यासों को एक नया धरातल प्रदान किया। उनके उपन्यासों में आधुनिक-युगीन मानव के एकाकीपन, संगहीनता, विषादमयता अस्थिरता आदि के भावों का बड़ा ही सूक्ष्म चित्रण हुआ है।

मनोविश्लेषणवादी उपन्यासों में राधिकामोहन गोस्वामी कृत ‘चाकनैया’, ‘भँवर’, ‘बामारली’, ‘चक्रवात’, प्रेमधर राजखोबा कृत ‘भूलर समाधि’, उल्लेखीय हैं। इस श्रेणी के उपन्यासकारों में काफी बाद में श्री देवेन्द्रनाथ आचार्य ने अपने ‘अन्ययुग अन्यपुरुष’ (1970) उपन्यास से एक नया कीर्तिमान स्थापित किया। योगेश दास के उपनयास ‘डाबर आरु नाई’ (1955) ने शैली-शिल्प और भावबोध दोनों ही दृष्टियों से असमीया साहित्य को एक नयी दिशा प्रदान की। हितेश डेका, प्रेमनारायण दत्त ने सामाजिक एवं जासूसी किस्म के उपन्यासों की रचनायें कीं। सैयद अब्दुल मलिक के उपन्यासों की अपनी एक अलग ही श्रृंखला है। ज्योतिप्रसाद अगरवाल और श्री शंकरदेव के जीवन को आधार बनाकर लिखी गई उनकी कृतियों की सर्वत्र सराहना हुई है।

‘रथर चकरी घूरे’, ‘बन जुई’, ‘छविघर’, ‘सुरुजमुखीर स्वप्न’, ‘कण्ठहार’, ‘अन्य अकाश अन्य तरा’, ‘अघोरी आत्मार काहिनी आदि उनकी उत्कृष्ट कृतियाँ है। इनमें उनके ‘सुरुजमुखीर स्वप्न’ को सर्वाधिक लोकप्रियता प्राप्त हुई है जो धनसिरि नदी-तट पर बसे गाँवों के जीवन को आधार बनाकर रचा गया है। असम प्रदेश वस्तुतः नदियों का ही प्रदेश है। सम्भवतः समस्त भारतीय भाषाओं में नदियों को केन्द्र में रखकर इतने अधिक उत्कृष्ट उपन्यास कहीं अन्यत्र नहीं रचे जा सके हैं, जितने कि असमिया में। लक्ष्मीनन्दन बरा रचित ‘गंगा सिलनीर पाखी’, निरुपमा बरगोहाईं रचित ‘सेई नदी निरवधि’, अमूल्य बरुआ कृत ‘एइ पदुमनि’, लीला गगै कृत ‘नै बै जाय’, मेदिन चौधुरी कृत ‘तात नदी नासिल’, नवकान्त बरुआ कृत कपिलीपरीया साधू’ ऐसे ही कुछ उत्कृष्ट उपन्यास हैं।

पद्म बरकटकी कृत ‘मनरदापोन’, ‘कोनो खेद नाई’, ‘न जला धूपर इति-कथा’ जैसे उपन्यासों में और उनकी ही परम्परा में विकसित अन्यान्य उपन्यासों में यौन-सम्पर्कों की कुण्ठाहीन भाव से स्पष्ट शब्दों में अभिव्यक्त किया गया है। होमेन बरहोगाईं कृत ‘सुबाला’ में एक वैश्या के जीवन को जिस सच्चाई और सहानुभूति के साथ चित्रित किया गया है, वैसा सही साहस अन्यत्र दुर्लभ है। इनके अन्य उपन्यासों की चर्चा हम अभी आगे फिर करेंगे। बीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य असमीया उपन्यास साहित्य के एक अति सफल हस्ताक्षर हैं।’’ ‘राजपथे’, ‘रिड़ियाय’ ‘इयारूइंगम’, ‘आई’, ‘शतघ्नी’, ‘प्रतिपद’, ‘मृत्युंजय’ और ‘राजकोंवरर पाखी घोरा’ उनके श्रेष्ठ उपन्यास हैं। उनके इयारूइंगम को साहित्य अकादमी और ‘मृत्युंजय’ को ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। ‘इयारूइंगम’ में नागा जीवन का जो महाकाव्यात्मक चित्रण हुआ है, वैसा यथार्थपरक, सहानुभूतिशील और समालोचनात्मक चित्रण प्रायः दुर्लभ ही है।

इन्दिरा गोस्वामी का औपन्यासिक शिल्प भी एक विशिष्ट प्रकार का है। ‘दाँताल हाथिर ओंये खोवा हाओदा’ उनकी प्रतीकधर्मी रचना का श्रेष्ठ नमूना है। असमीया साहित्य-सभा ने इसे वर्ष 1988 का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास घोषित किया है। इसके पूर्व 1982 में उनके उपन्यास ‘मामरे धारा तरोवार आरु दूखन’ उपन्याय पर उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्रदान किया गया था। लक्ष्मीनन्दन बरा के ‘गंगा सिलनीर पाखी’, ‘उत्तर पुरुष’ और ‘पाताल भैरवी’ उपन्यासों ने भी लोकप्रियता पाई है। ‘पाताल भैरवी’ को 1988 के साहित्य अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया। भवेन्द्रनाथ शइकिया बहुविध प्रतिभा के धनी हैं। उपन्यास के क्षेत्र में भी उनका योगदान महत्त्वपूर्ण है। 1986 में प्रकाशित उनका ‘अन्तरीय’ उपन्यास सर्वाधिक चर्चा का विषय रहा। मेदिनी चौधरी के ‘बंडुका बेहार’ और ‘तात नदी नाछिल’ भी बहुत चर्चित रहे हैं।
रेवतीमोहन दत्त चौधरी (शीलभद्र) जमीन से जुड़े हुए, यथार्थवादी एवं वैज्ञानिक दृष्टि से रचना करने वाले कथाकार हैं। उन्होंने एक गाँव विशेष को केन्द्र में रखकर असमीया ग्रामीण जन-जीवन के सूक्ष्म चित्रों को बड़ी बारीक कलम से उकेरा है। भाषा और भाव का ऐसा सहज सामंजस्य अन्यत्र बहुत कम ही दिखाई पड़ता है। ‘मधुपुर’, ‘आगमनीर घाट’, ‘आहँत गुरित गोधुलि’ उनके लोकप्रिय उपन्यास हैं।

चन्द्रप्रसाद शईकिया (मन्दाक्रन्ता, मेघमल्हार), त्रैलोक्य भट्टाचार्य (साँची पातर पोथी), फणी तालुकदार (पृथिवीर प्रेम), देवेन्द्रनाथ आचार्य (जंगम), दिनेश गोस्वामी (आपोनजन), भगवान शर्मा (स्वप्न : दुस्वप्न), इमरान शाह (कृतदासर हॉहि), महिम बरा (हेरोवा दिगन्तर माया), रिजु हाजारिका (पुरणि धरर माया), निरद चौधुरी (कस्तूरीमृग) आदि श्रेष्ठ उपन्यासकार अपने-अपने अपन्यासों से असमीया उपन्यास साहित्य की निरन्तर बृद्धि करते जा रहे हैं।

इस प्रकार सर्वथा सम्पन्न होते जा रहे असमीया-उपन्यास साहित्य में श्री होमेन बरगोहाईं का अवदान विशेषतः उल्लेखनीय है। जिस तरह वैयक्तिक जीवन में वे असम साहसी रहे हैं—असम प्रशासनिक सेवा में कार्य करते हुए उसे अपनी मनोवृत्ति के अनुकूल न पाकर बिना आगा-पीछा सोचे उसे एक झटके में ही छोड़ दिया और फिर सड़क पर आ गए, बड़े-बड़े प्रतिष्ठानों की पत्रिकाओं का सम्पादकत्व पाया तो कभी उन्हें भी एक ही झटके में त्याग दिया और सांवादिकता करने लगे ठीक उसी तरह साहित्य रचना के क्षेत्र में भी उन्हें असम साहस का परिचय दिया है।

होमेन बरगोहाईं


असमीया के यशस्वी कृतिकार श्री होमेन बरगोहाईं का जन्म असम राज्य के उत्तर लखीमपुर ज़िले के ढकुआखाना में सन् 1931 ईस्वीं में हुआ। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा गांव में फिर बी. ए. आनर्स (अंग्रेज़ी साहित्य) तक की उच्च शिक्षा गुवाहटी विश्वविद्यालय के कॉटन कॉलेज में हुई।

आरम्भ से ही कुछ विशिष्ट कर दिखाने की ललक के वशीभूत हो, धुर बचपन से ही एक स्वच्छन्द-चेता के रूप में वे स्वयं ही बड़े-बड़े निर्णय लेते रहे। छात्रजीवन से ही उनकी कविताएँ और कहानियाँ पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगी थीं, अतः साहित्य-प्रिय अध्यापकों और असमीया के श्रेष्ठ साहित्यकारों का सान्निध्य और सम्मान पाने का अवसर मिला। शिक्षा के उपरान्त असम सरकार की प्रशासनिक सेवा के लिए वे चुने गए। प्रशासनिक सेवा में लगभग तेरह वर्ष तक काम करते हुए प्रशासनिक तन्त्र के जिस दानवीय रूप से उनका निकट परिचय हुआ, भारतीय जनता के शोषण में राजनीति करनेवालों के साथ-साथ प्रशासन-तन्त्र का जो सहयोग दिखाई पड़ा, उससे क्षुब्द होकर उन्होंने उच्च सरकारी नौकरी से पदत्याग कर दिया, और फिर ‘नीलाचल’ पत्रिका के सम्पादकत्व का भार सँभाला।

सन् 1958 में असमीया की सुप्रसिद्ध लेखिका निरुपमा तामुली से उनका अन्तर्जातीय विवाह हुआ। दो पुत्र हैं और दोनों ही अपने-अपने क्षेत्रों में सप्रतिष्ठित हैं। अपने वैवाहिक जीवन के विषय में उन्होंने 1988 में अपनी पुस्तक ‘आत्मानुसन्धान’ में लिखा है, ‘‘मेरा विवाहित जीवन सामान्यतः सुखी रहा। सेवा और ममता से निरुपमा ने मेरे जीवन को भर दिया था। हाँ, आजकल हम एक साथ नहीं रहते। पर इतना अवश्य कहना चाहता हूँ कि मेरा अशेष आदर और कृतज्ञता निरुपमा को प्राप्य है।’’ सरकारी नौकरी में रहते हुए ‘सरकारी-तन्त्र’ के काले-कारनामों के खिलाफ़ श्री चन्द्रप्रसाद सैकिया द्वारा सम्पादित ‘असम बातरी’ में, ‘दुर्वासार जरनल’ के छद्म नाम से वे लिखते रहे। इन्हें बाद में 1966 में ‘विभिन्न नरक’ नाम से ग्रन्थ में प्रकाशित करवाया और तब अपने असली नाम से ही उन्हें प्रकाशित किया। सरकारी नौकरी त्याग देने के अनन्तर भी उनकी इस स्पष्टवादिता के लिए उन्हें नाना प्रकार के झमेलों का सामना करना पड़ा।

सरकारी-तन्त्र के अतिरिक्त सामाजिक जीवन की विषाक्त, चिर-उपेक्षित और चिरनिन्दित पक्षों पर भी जिस सहज और सहानुभूति से बरगोहाईं जी ने कलम चलाई है, वैसा साहस असमीया साहित्य में बहुत कम दिखायी पड़ता है। सामाजिक क्षेत्र में वेश्या-समाज पर जितने सही और सटीक ढंग से उन्होंने लिखा है, वह आश्चर्यचकित कर देने वाला है। उनके पहले उपन्यास ‘सुबाला’ की नायिका और उसकी समस्त पृष्ठभूमि वेश्या का नारकीय जीवन ही है।

उपन्यास और छोटी कहानियाँ यद्यपि उनके दो प्रिय क्षेत्र हैं, परन्तु असमीया साहित्य की प्रायः सभी विधाओं में उन्होंने समान रूप से लिखा है। साहित्य में उनका प्रवेश कवि के रूप में ही हुआ। एकांकी, नाटक, रेडियो नाटकों के क्षेत्र में भी उनका विशेष योगदान है। उपन्यासों में उनका पहला उपन्यास ‘सुबाला’ (1963) इतना लोकप्रिय हुआ कि वे असमीया उपन्यास के एक विशिष्ट शैलीकार माने जाने लगे। ‘तान्त्रिक’ (1967), ‘कुशीलव’ (1970), ‘हालधीया चराये बाओ धान खाय’ (1973), ‘पिता-पुत्र’ (1975, उपन्यास, जिस पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया), ‘अस्तराग’ (1986) और ‘साउदर पुतेके नाओ मेलि जाय’ (1987) उनके दूसरे श्रेष्ठ उपन्यास हैं।



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